यादनामा : ६
एक भूली-बिसरी विरासत
बावन साल बीत गए – २८ फ़रवरी, १९६३ को राजेन्द्र बाबू का निधन हुआ था, पटना के
सदाक़त आश्रम में. यहीं वह कुटिया है जिसमे वे असहयोग आन्दोलन के समय से रहने लगे थे.
जब १९४६ में वे अंतरिम मंत्रिमंडल के सदस्य बन कर दिल्ली चले गए तब से जब भी पटना
आते उसी पुराने खपरैल मकान में ठहरते या वहां कम-से-कम एक बार
ज़रूर जाते. वह साधारण-सा खपरैल मकान बराबर उनकी ही काया जैसा सीधा और मामूली लगने
वाला रहा, लेकिन उसकी वह सादगी सदा उनके
त्याग और तपस्या की गरिमा से मण्डित रही - साबरमती और सेवाग्राम की आत्मा जैसे
वहीँ आकर बस गयी हो. बाद में जब राष्ट्रपति-पद से निवृत्त होकर १४ मई, १९६२ को वे
पटना आये तो उस मकान के खस्ताहाल होने के कारण पहले एक डाकबंगले में रहे. फिर उस मकान की थोड़ी बढ़ोतरी, मरम्मत और पुताई करा दी गयी. इस बीच एक नया मकान वहीँ पास में ही बनाया गया था जिसमे वे नवम्बर, १९६२ में चले आये . यहाँ आप उस पहले मकान की और सदाक़त आश्रम की कुछ तस्वीरें देख रहे हैं, जिनमे नए बने मकान के उस कमरे की भी एक तस्वीर नीचे है जिसमे उन्होंने अंतिम सांस ली थी.
राजेन्द्र बाबू के जीवन की पूरी कहानी एक तरह से आज़ादी की लड़ाई की ही कहानी
है. उसमें जहाँ एक ओर त्याग, तपस्या और संघर्ष है, वहीँ दूसरी ओर राजेन्द्र बाबू
की अवमानना और उपेक्षा भी है. मैंने उनकी
जीवनी लिखने के क्रम में इस बात का बड़ी तल्खी से अनुभव किया है और अपनी किताब में
उस तल्खी को साझा करने की भी पूरी कोशिश की है. इधर यहाँ एक दिन लखनऊ में पत्रकार
मार्क टली से भेंट हुई तो वे मेरी इस बात
से पूरी तरह सहमत हुए.
मेरे पिता से राजेन्द्र बाबू के सम्बन्ध असहयोग आन्दोलन के दिनों से ही थे.
मेरे इसी ब्लॉग में २०१३ के मेरे एक पोस्ट को आप पढ़ सकते हैं जिसमें मेरे पिता और
राजेन्द्र बाबू के १९३१ से १९५९ के बीच के पत्राचार की चर्चा है. मेरे पिता उनसे ९
साल छोटे थे, लेकिन महाप्रयाण दोनों का लगभग एक साथ हुआ. मेरे पिता का २१ जनवरी,
१९६३ को और राजेंद्र बाबू का पांच हफ्ते बाद २८ फ़रवरी, १९६३ को. राजेन्द्र बाबू की
मेरी जीवनी में इस प्रसंग का लिखा जाना अभी बाकी है. फ़रवरी में राजेन्द्र बाबू
बहुत बीमार थे, फिर भी मेरे पिता के निधन पर उनका एक लम्बा संस्मरणात्मक
शोक-सन्देश १५.९.६३ के सा. हिंदुस्तान में छपा –
“हिंदी-सेवा अपने में एक बड़ी
राष्ट्र-सेवा है. मूक हिंदी-सेवा ही व्रत था आचार्य शिवजी का. मेरे ऊपर तो सदा
उनका बहुत स्नेह रहा...शिवजी-ऐसे तपःपूत साहित्यकारों के प्रेम-भाव से मुझे बराबर
प्रेरणा मिलती रही है, गांधीजी द्वारा बताये गए सत्य के मार्ग पर और साहस के साथ
आगे बढ़ने की...”
राजेन्द्र बाबू ने ये उदगार अपनी मृत्यु से केवल १० दिन पहले १५.२.६३ को बोल
कर लिखवाया था जिसमे शिवजी से अपने पुराने और आत्मीय सम्बन्ध का उन्होंने विस्तार
से स्मरण किया था. राजेन्द्र बाबू की मेरी जीवनी में भी ऐसे प्रसंगों की यथास्थान
चर्चा हुई है.
मेरे पिता १९५० से १९५९ तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के निदेशक थे.
कदमकुआं के साहित्य-सम्मलेन में इसका दफ्तर था जहाँ हमलोग रहते भी थे. दो अवसरों
पर राजेन्द्र बाबू वहां आये. पहला जब परिषद् से १९५४ मे उनको उनकी ‘आत्मकथा’ पर
पुरस्कार मिला और दूसरी बार जब १९५६ में वे परिषद् वार्षिकोत्सव का उद्घाटन करने
आये. उद्घाटन-भाषण करते यह उनकी तस्वीरें मैंने खींची थी. वार्षिकोत्सव के सभापति
थे डा. सम्पूर्णानन्द. दोनों की मेरी खींची तस्वीर भी मेरे फेसबुक पर लगी है.
अंत में, एक छोटी-सी लेकिन अमूल्य स्मृति राजेन्द्र बाबू से मिलने की. राष्ट्रपति-पद
से निवृत्त होकर वे १९६२, मई में पटना आये थे. मैं मुंगेर कॉलेज से ग्रीष्मावकाश
में पटना आया था. डा. रामजी वर्मा और अपने अभिन्न मित्र मदन – डा. दिवाकर प्रसाद
विद्यार्थी के सुपुत्र जो अब अमेरिका में रहते हैं – इनके साथ मैं मई में ही एक
शाम राजेंद्र बाबू से मिलने गया. वे उसी पुराने मकान के सामने आम के पेड़ के नीचे एक चबूतरे पर बैठे थे –
खादी की धोती और अधबाहीं गंजी पहने. रामजी बाबू हजारीबाग जेल में उनके साथ रहे थे,
और वहां रामजी वर्मा को टिकठी पर बाँध कर बेंत से पीटा भी गया था. ज्यादा बातचीत
तो उनसे ही होती रही, लेकिन जब मैंने पैर छूकर प्रणाम किया तो पहले तो पिता के स्वास्थ्य के विषय में पूछा, फिर पिता के साथ की पुरानी स्मृतियों की चर्चा करने लगे. दमा के
कारण उनको धीरे-धीरे रुक-रुक कर बोलना पड़ता था. लगभग आधे घंटे हमलोग उनके साथ रहे.
लेकिन ऐसे कर्मयोगी महान संत के साथ बीता आधे घंटे का वह एकांत ही मेरे जीवन की एक
अमूल्य निधि बन गया.
यह एक विडम्बना ही है कि गांधी की राह पर सदा समर्पित-भाव से चलने वाले इस
अनन्य गांधीवादी संत की उसके अपने प्रदेश में ही आज इतनी उपेक्षा हो रही है जिसका
एक उदाहरण पटना में बांसघाट पर बने शवदाह-गृह के पास स्थित उनके अंत्येष्टि-स्थल
पर निर्मित उनका स्मारक है. लगता है, अपनी इतनी बड़ी विरासत को जैसे हमने वीरान बना
कर रख छोड़ा है. कहना पड़ेगा कि अंग्रेजों के जाने से भारत को सरकार ज़रूर मिल गयी
लेकिन गांधीजी के सपनो वाली आजादी नहीं मिली.
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