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Monday, November 6, 2017

स्मृति-शेष

पृथ्वीराज जी के कुछ स्मृति-चित्र !  

मंगलमूर्त्ति

पिछले दिन हिंदी फिल्म-जगत के सबसे स्मरणीय अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का जन्मदिन था | मेरी कुछ पुरानी यादें पृथ्वीराज जी से भी जुडी हुई हैं, जो मुझे पिछले पचास के दशक की ओर खींच ले जाती हैं -  मेरे कॉलेज के दिनों की ओर | पीछे मुड़ कर देखने पर जैसे स्मृति-चित्रों का एक ताँता लग जाता है, एक ‘स्लाइड शो’ जैसा, तस्वीरों का | एक तस्वीर उभरती है, और फिर उसके पीछे  उसी से जुडी एक और तस्वीर उभरी चली आती है – एक पूरा कारवां-जैसा सिलसिला | मैं निर्निमेष इन तस्वीरों को देखता जाता हूँ – एक के बाद  एक | साझा करता हूँ उनको आपके साथ !

पहली तस्वीर :  साल लगभग १९४५-४६ | मेरी उम्र ६-८ साल की रही होगी | मेरे पिता  राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्रोफेसर थे | कभी-कभी मैं घर के किसी भाई या मामा के साथ (मेरे पिता तो कभी फ़िल्में देखते ही नहीं थे !) फिल्म देखने जाता था - पैदल ही, क्योंकि छोटे शहरों में वह पैदल का ही ज़माना था | ‘सिकंदर’ फिल्म की बड़ी धूम थी – ‘पोरस’ सोहराब मोदी : ‘सिकंदर’ पृथ्वीराज कपूर | जिन लोगों ने उन दिनों में वह फिल्म देखी होगी, वे मेरे उस रोमांच की कल्पना शायद कर सकेंगे, रात में पैदल सिनेमा देखने जाना-आना | उसके बाद सालों तक मैं घर में बराबर  उसके गीत दुहराता  रहता था – “ कदम-कदम बढाए जा, ख़ुशी के गीत गाये जा, ये  ज़िन्दगी है प्यार से, प्यार से बिताये जा” | और वो ज़माना  भी था एक जुनून का | अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई अपनी मंजिल की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी | उसमें कैदी पोरस का विजेता सिकंदर से उसी सुलूक की बात करना जो एक राजा  दूसरे राजा  से करता है, एक अजीब जोश दिल में भर देता था – आजादी का एक ज़बरदस्त ज़ज्बा !

पृथ्वीराज की वो सिकंदर वाली तस्वीर याददाश्त से अब मिटने वाली नहीं है | वो आक्रमणकारी था, लेकिन बहादुर था, और आज़ादी की अहमियत समझता था | लेकिन बचपन के उन दिनों में कभी कल्पना नहीं की थी कि एक दिन उनसे उन्हीं के घर में जाकर रू-ब-रू मिलूंगा | बचपन के अनदेखे सपने भी कभी-कभी सच बन कर ज़िन्दगी में चले आते हैं | इस बीच ८-१० साल का अरसा बीत गया, और मैं स्कूल से कॉलेज में आ गया – छपरा से पटना | राजेंद्र कॉलेज (छपरा) से मेरे पिता १९५० में बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के निदेशक हो कर पटना आ गए थे | परिषद् का कार्यालय भी तब बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन  (कदमकुआं) में ही स्थित था, और हमलोग वहीं, सम्मलेन-भवन में ही, पीछे की ओर एक छोटे से किराए के मकान में रहते थे |
 
पचास के दशक में बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन अपने उत्कर्ष के शिखर पर था | रामवृक्ष बेनीपुरी उसके अध्यक्ष  थे | नए भवन के बनने के साथ ही सम्मेलन सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था | आये दिन  वहां साहित्यिक गोष्ठियां, संगीत और नाटक के कार्यक्रम होते रहते थे | यह बात १९५२ के प्रारम्भ की है | पृथ्वीराज जी अपने पृथ्वी थिएटर्स की नाटक-मंडली के साथ पटना आये हुए थे और रूपक सिनेमा के मंच पर उनके नाटक ‘पठान’, ‘दीवार, ‘ग़द्दार’ आदि प्रदर्शित हो रहे थे | ‘पठान’ नाटक देखने मैं भी गया   था | पृथ्वीराज जी की टोली में शम्मी कपूर और सज्जन आदि अभिनेता भी थे | इसी बीच एक दिन बेनीपुरीजी के बुलावे पर पृथ्वीराज जी अपनी मंडली के साथ बेनीपुर भी गए थे  | बेनीपुरी जी ने अपनी डायरी में लिखा है –

आज मेरे घर (बेनीपुर में ) पृथ्वीराज आये थे | वह थे, उनके पिताजी थे,उनकी पत्नी थीं, उनका प्यारा बेटा शम्मी कपूर था और थे एक दर्ज़न उनके ट्रूप के कलाकार- लड़कियां और लड़के | ....लड़कियां खेतों में घूमीं, साग खाईं, गाँव की कुटीरों और आंगनों में घूमीं | बड़ी चहल-पहल रही | .....

इसी बीच एक दिन पृथ्वीराज जी को बेनीपुरी जी सम्मलेन-भवन में भी एक साहित्य-गोष्ठी में ले आये, जहां उनकी भेंट मेरे पिताजी से हुई | यही वह पहला अवसर था जब मैंने अपने बचपन के उस गोर-लम्बे-तगड़े बहादुर ‘सिकंदर’ को आमने-सामने, इन्हीं आँखों से  देखा था | ‘पृथ्वीराज अभिनन्दन ग्रन्थ’ के लिए लिखे अपने एक संस्मरण में मेरे पिता ने उस अवसर के विषय में लिखा है –

हिंदी के परम प्रसिद्ध नाटककार और अभिनेता श्री पृथ्वीराज कपूर जब पटना पधारे थे, तब बंधुवर श्री बेनीपुरीजी ने बिहार-हिंदी-साहित्य-सम्मलेन-भवन की साहित्य-गोष्ठी में उन्हें  मेरा परिचय दिया था | वे अपने परिवार और नाटक-मंडली के साथ पटना आये थे | गोष्ठी में भी वे सपरिवार पधारे | गोष्ठी के अपने प्रवचन में उन्होंने नाटक-लेखन, रंगमंच-व्यवस्था, नाट्य-कला-कौशल और रंगशाला तथा अभिनेताओं की साज-सज्जा पर जो विचार व्यक्त किये उनसे पता चला कि इन विषयों का अध्ययन-अनुशीलन उन्होंने शास्त्रीय-पद्धति से मनोयोगपूर्वक किया है | उनकी बातों से जान पड़ा कि वे आडम्बर-शून्य, अकृत्रिम अभिनय के समर्थक हैं | जब मैं महाकवि निराला की रुग्ण अवस्था में उन्हें देखने प्रयाग गया था तब निराला जी ने भी पृथ्वीराजजी की साहित्यिक सहृदयता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी | पृथ्वीराजजी के ह्रदय में साहित्यकारों के प्रति जो सद्भाव था वह भी चलचित्र जगत के अभिनेताओं में विरल ही था |.....

बेनीपुरी जी का परिवार मेरे लिए १९४६ से ही मेरा अपना परिवार था | मैं उनको ‘चाचाजी’ ही कहता था और उनकी पत्नी को ‘दीदी’ - जैसा सब कहते थे | उनका मंझला लड़का जितेन्द्र (घर में ‘जित्तिन’) तभी से मेरा बचपन का दोस्त था, जब मेरे पिता १९४६ में बेनीपुरी जी के साथ पटना में रह कर ‘हिमालय’ का सम्पादन कर रहे थे, और दोनों व्यक्ति मछुआटोली मोहल्ले में एक ही मकान में साथ रहते थे | मेरा और जित्तिन का नाम तभी पटना के सेंट जोसफ स्कूल में एक साथ लिखवाया गया था | बाद में जित्तिन देहरादून मिलिट्री एकेडमी में  पढ़ने चला गया, और फिर वहां का कोर्स पूरा करने के बाद पूना के पास नेशनल डिफेन्स एकेडमी (खडगवास्ला) में एयर विंग की पढ़ाई करने गया | इस बीच मैं पटना कॉलेज में पढने लगा था | (जित्तिन अब नहीं रहे  : इसी साल दिवंगत हो गए |  लेकिन जित्तिन और मेरी कहानी, अब फिर    कभी !)

आखिरी तस्वीर : दिसंबर, १९५५ | मेरी इंग्लिश  ऑनर्स की परीक्षा हो चुकी थी | जित्तिन के साथ ‘दांत-काटे-सैंडविच’ वाली दोस्ती ऐसी थी कि उसके ‘पासिंग आउट परेड’ में मेरा शामिल होना बेहद ज़रूरी था | इसलिए पूना जाते समय  चाचाजी और दीदी ने मुझको भी अपने साथ ले लिया | इस यात्रा में वापसी में बम्बई भी जाना था, और यह मेरी पहली सबसे लम्बी यात्रा थी | चाचाजी ने इस पूना-बम्बई यात्रा का लम्बा विवरण अपनी डायरी में लिखा है –

६ दिसंबर, १९५५ : आज जित्तिन ने नेशनल डिफेन्स एकेडमी की सैनिक शिक्षा पूरी कर ली | आज उसे पासिंग आउट परेड में देख कर क्या मैं फूला नहीं समाता था ?”.....

चाचाजी पूना में अच्युत पटवर्द्धन के छोटे भाई पामा पटवर्द्धन के यहाँ रुके थे, और मुझको जित्तिन अपने साथ खडगवास्ला अपने हॉस्टल में ले गया था | आज भी मेरे पास उस पासिंग आउट परेड की बीसों तस्वीरें याददिहानी के लिए मौजूद हैं | पूना में हमलोग दो दिन रहे और जित्तिन को चूँकि कुछ दिनों की छुट्टी मिल गई थी, इसलिए पूना से हमलोग बम्बई चले आये | हमलोगों के साथ जित्तिन का साथी ओमप्रकाश शुक्ला  (‘कन्हैया’) - जिसने आर्मी में ‘पास आउट’ किया था – वह भी था | यहाँ जो तस्वीर है उसमें पृथ्वीराज जी और उनकी पत्नी के साथ बेनीपुरी जी और दीदी हैं; सबसे बाएं मुकुंद गोस्वामी हैं, जिनके कालबादेवी वाले विशाल ‘मठ’ के परिसर में हमलोग ठहरे थे | सुनिए उस दिन का हाल बेनीपुरी जी के जीवंत शब्दों में ही –

बम्बई कितनी बार आया हूँ, किन्तु कल की बम्बई  तो स्वप्नपुरी लगती थी |.... और ख़ास बात यह थी कि रानी (‘दीदी’) साथ में थी, जित्तिन थे, कन्हैया और मंगल थे | और सबसे बढ़कर साथ में थे गोस्वामी बन्धु – गोविन्द और मुकुंद !.... अपनी कार, अपनी धुन ! जहाँ तक दिखला सकते थे, दिखाते रहे  - सभी प्रमुख बाज़ार, फोर्ट, गेटवे ऑफ़ इंडिया, कोलाबा, चौपाटी, मालाबार हिल, हैंगिंग गार्डन ... शाम को हमने थोड़ी भंग भी छान ली थी – फिर क्या कहना ? लगता था इस क्षिप्र-गामी मोटर में हम उड़े जा रहे हैं ! ओहो, सचमुच बम्बई  एक स्वप्नपुरी !.... फिर वर्ली, नेपियन सी....और हम चले माटुंगा – पृथ्वीराज जी के घर | वह एक घंटा भी क्या घंटा रहा ! हमलोग हंसते रहे, हंसाते रहे | ‘सज्जन’ भी वहाँ थे | फिर एक साथ फोटो – बीच में रानी और रमाजी | मैं और पृथ्वीराज जी को बीच में करके सज्जन पीछे खड़े हो गए | लड़के सब दोनों माताओं के आगे !     

 तस्वीर ही बोलती है सारे नाम, और मेरा नाम इसलिए छूट गया क्योंकि मैं ही तस्वीर ले रहा था ! आज जित्तिन और शुक्ला दोनों नहीं हैं, जो अब केवल इस तस्वीर में हैं |  शुक्ला तो १९६२ के चीन-युद्ध में नेफा में शहीद हुआ था, और जित्तिन भी इस साल चले गए | शायद तस्वीर के बाकी लोग भी जा चुके हैं, उस अनाम बच्चे को छोड़कर जो आगे में बैठा है, और जो पृथ्वीराजजी के ही परिवार का कोई बालक रहा होगा | गोस्वामी बन्धु होंगे भी तो आज मुझको उनके बारे में कोई  जानकारी नहीं  है | तस्वीर अब सचमुच केवल   एक तस्वीर रह गयी है; बच गया हूँ  तो सिर्फ तस्वीर खींचने वाला मैं ! और पूना-बम्बई में मेरी खिंची हुई  उन्हीं तस्वीरों में एक यह तस्वीर भी है –  चौपाटी में सागर के किनारे चाचाजी की ! - जो मेरी सबसे यादगार तस्वीरों में एक है !

मेरे पिता के संस्मरण में और बेनीपुरी जी की डायरी में जो बातें उजागर हुई हैं; बातें उनके अलावा भी बहुत सारी हैं | स्मृति-चित्रों का ज्वार जब एक बार उठता है, तब उसकी लहरों के आवेग को संभालना कठिन हो जाता है | लेकिन बचपन में जिस विशाल व्यक्तित्व वाले ‘सिकंदर’ को चलचित्र के उस परदे पर देखा था, आज स्मृति-पटल पर उसी व्यक्तित्व की अलग-अलग छवियाँ अपने साथ न जाने तस्वीरों वाले   उस अल्बम के पन्ने-दर-पन्ने, एक-एक कर, खोलती जा रही  हैं, और निर्निमेष मैं – वर्षों बाद आज उन्हीं में से कुछ तस्वीरें आपके साथ साझा कर रहा हूँ |
       

 (C) Dr BSM Murty

Top 3 photos :courtesy Google images

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Photos on this blog are courtesy – Google Images, except 2 taken by my camera © Dr BSM Murty