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Saturday, April 27, 2019





‘मन एक वन’
मंगलमूर्ति की कुछ कविताएँ

मेरी ये किताबें      


बूढ़ी हो गई हैं मेरे साथ 
मेरी ये किताबें भी
और जो नई-नई आईं 
जैसे किसी नवाब के हरम में
बीबीयां और शोख चुलबुली बांदियां 
फीकी पड़ गईं धीरे-धीरे वे भी
जैसे-जैसे रातें ढलीं 
और दिन बीतते गए

जहां-जहां जाता हूं मैं
मेरे साथ जाती हैं मेरी ये किताबें
वफ़ा का रिश्ता है मेरा इनका
पता नहीं मेरे बुढ़ापे को ये ढो रही हैं
या मैं ढो रहा हूं इनका बुढ़ापा
इनमें ज़्यादातर तो ऐसी हैं
जिनके साथ कुछ ही दिन या घंटे
मैंने बिताए होंगे
लेकिन कुछ क्या बहुत सारी
तो ऐसी भी हैं
जिनके पन्ने-पन्ने रंग डाले हैं मैंने
खूबसूरत हरफ़ों-निशानों से

जिनके भीतरी मुखपृष्ठ पर 
ऊपरी कोने में करीने से 
अंकित हैं मेरे हस्ताक्षर
जो बताते हैं ये मेरी हैं
पूरा हक़ है इन पर मेरा
इन्हें पढ़ सकता हूं मैं
शुरू से आख़िर तक
कई-कई बार
इनके हर पन्ने को पलटते हुए
लाल-लाल लकीरों से
जैसे इनकी मांग भरते

या बस एक बार 
उलट-पलट कर
सजा दे सकता हूं 
इनको इनकी आलमारी में
जहां ये सजी रहती हैं
इस इंतज़ार में कि फिर कभी
मैं ज़रूर इनके साथ 
बिताऊंगा कुछ वक्त 

जब घड़ी की सुइयां 
ठिठक जाएंगी 
कुछ लमहों के लिए
आंखें मुंदने लगेंगी मेरी बार-बार
नींद के मद-भरे झोंकों से
इनमें से किसी एक दुबली-पतली
तीखे नाक-नक्श वाली हसीना को
प्यार से अपने सीने पर सुलाए
इस उमीद में कि फिर वह मिलेगी
किसी रुपहले सपने में मुझे -
या उनमें से कोई तो?

ज़रूरी सामान     

मैं याद रखूंगा
यात्रा पर निकलने से पहले मैं याद रखूंगा
अपना सामान सहेजते वक्त
कुछ थोड़ी सी बहुत ज़रूरी चीज़ें
जिन्हें मैं साथ ले जाना चाहूंगा
अपनी पीठ पर ढोते हुए

कुछ ऐसी चीजें, बेशकीमती,
जैसे एक मरा हुआ सच
जो अब सड़कर दुर्गंधित होगा
या एक न्याय जिसका बेरहमी से
गला घोंटा गया हो
या वह विश्वास जिसकी पीठ में
घोंपा गया हो एक लंबा ख़ंज़र
या अपना आत्म-सम्मान जिसको
साना गया हो कीचड़ में
या वह सौहार्द जिसके साथ हुआ हो
सामूहिक बलात्कार
इन सब को समेटना होगा मुझे
अपने साथ ले जाने वाले -
पीठ पर ढोकर ले जाने वाले -
मोटे चमड़े के बने झोले में
बहुत एहतियात से, संभाल कर
क्योंकि सफर भी तो होगा
मीलों दूर का, मंज़िल भी तो होगी
क्षितिज के उस पार की
एक ऐसा आख़िरी सफ़र
एक ऐसी मंज़िल जहां मिलना होगा
उस बूढ़े बुज़ुर्ग इंसाफ़ के बंदे से
जिसे इंतज़ार होगा इस सारे सामान का
इस मरे हुए सच का
या इस अधमरे न्याय का
या इस लहूलुहान विश्वास का
या इस कीचड़ में सने आत्म-विश्वास का
या इस बुरी तरह क्षत-विक्षत सौहार्द का
बहुत ज़रूरत होगी उसको
इस तरह के घायल,टूटे-फूटे सामान की
जो नहीं मिलते उसके शहर में कहीं
और जिन्हें वह बहुत हिफ़ाज़त से
संभाल कर रफ़ू करेगा उनके घाव
इसीलिए मुझको ख़त भेज कर
मांगी हैं ये ज़रूरी रिसते दर्द की चीज़ें 
उस बूढ़े बुज़ुर्ग ने मुझसे
क्योंकि उसके यहां 
नहीं मिलती ये घायल क्षत- विक्षत चीज़ें
और मुझे लेकर जाना है
उसके शहर में ख़ास उसके लिए
यह सारा टूटा-फूटा ज़रूरी सामान
अपनी पीठ पर ढोकर....

नंगा सलीब    
सोचता हूँ एक लम्बी कविता लिखूं - 
पर जो इस जीवन से थोड़ी छोटी हो,
जिससे दुहरा-तिहरा कर नाप सकूं 
इस जीवन की पूरी लम्बाई को|
लेकिन कैसे नापूंगा उसकी लम्बाई - 
क्या वह लम्बा होगा किसी ठूँठ जितना 
झड चुके होंगे जिसकी चंचरी से  
हरे, मुलायम, कोमल सभी पत्ते -
और वह खडा होगा विस्मित-चिंतित 
एक कौवा-उड़ावन जैसा ठठरी-सा -   
झींखता-घूरता-झुँझलाता-बदहवास 
एक नंगे सलीब की तरह अकेला ?

समझ में नहीं आता 
क्या उसका अपना जीवन ही
टंगा होगा उस सलीब पर?

नहीं, नहीं, उसको नापना 
उसकी पूरी पैमाइश करना 
कविता के बूते की बात नहीं!

कविता भला कैसे नाप सकेगी 
उसकी अनिश्चित, अधूरी लम्बाई?

तब फिर क्या होगा ?
परछाईं

मेरे चारों तरफ़ बराबर
एक उलझन-सी बनी क्यों रहती है
जबकि मैं उस उलझन में नहीं उलझता ?
क्यों बराबर उलझी रहती है मुझसे
ये जि़द्दी बेमलब की उलझन - बिलकुल बेवजह
मैं तो इसको कभी तवज्जो भी नहीं देता
लेकिन ये है कि मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं
लिपटी रहती है मुझसे हर वक्त बेशरम
चाहे मैं लेटा रहूं, या नीम-नींद में क्यों न रहूं,
चाहे किसी काम में मसरूफ़ रहूं,
बैठा रहूं, चलता रहूं, या कुछ सोचता
क्यों न रहूं - किसी गंभीर मसले पर
इसकी बस एक ही फ़ितरत है
बैताल की तरह मेरी गर्दन पर सवार रहना
लगता है इसको कहीं और नहीं जाना है
बस मेरी परछाईं बन कर बराबर
मेरे पीछे-पीछे मंडराना है
लेकिन शायद ये नहीं जानती
मेरी गर्दन पर सवार होकर भी
कभी ये मेरा कुछ न बिगाड़ सकेगी
और न कभी हो सकेगी हावी मुझ पर
ज़्यादा से ज़्यादा ये हमेशा बनी रही
बस मेरी परछाईं-भर, बस मेरा एक साया
जो आख़िर-आख़िर तक कभी
मेरे अंदर न समा पाया !
            [ चार कवितायें : ‘नया ज्ञानोदय’, फरवरी, २०१८ में प्रकाशित ]



मेरी दस ट्विटर कविताएं’

साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा होगी जिसमें कविता जितने विविध रूप होते होंगे| इन विविध काव्य-रूपों में वर्णों से लेकर शब्दों की संख्या तक की गिनती निश्चित होती है, पंक्तियाँ गिनी होती हैं,उनकी लम्बाई, उनकी लय और तुकों का क्रम निश्चित होता है| इसका एक छंद-शास्त्र ही होता है लगभग हर भाषा में अपना-अपना| इसका प्रमुख कारण है कविता की गेयता, जिसमें संगीत की प्रधानता होती है, और इसीलिए सबकुछ लय-ताल में बंधा होता है| और इसीलिए कविता में हर देश, हर भाषा की कविता में बहुत सारे परम्परागत काव्य-रूप होते रहे हैं जिनका प्रयोग सदियों से होता आ रहा है|

जापानी हाइकूऔर टानकाप्रसिद्द लघु-काव्य-रूप हैं| एक हाइकू पद्य में केवल १७ स्वर-वर्ण होते हैं ++५ की तीन पंक्तियाँ; जैसे – ‘उगने लगे/कंकरीट के वन/उदास मन’ (जगदीश व्योम’)| उसी तरह टानका में ५++++: ‘चमक रहे/अम्बर में बिखरे/इतने हीरे/कितना अच्छा होता/एक मेरा भी होता’ (.. तिवारी)|

इन लघु-काव्य-रूपों में टेक्नोलॉजी के इस मोबाइल युग में नवीनतम काव्य-रूप है ट्विटर कविता’| इसमें मोबाइल की बोर्डपर केवल १४० टचमें कविता या कथन अंकित होता है जिसमें स्पेसभी गिना जाता है| इसे ट्वीहाइकूभी कहा जाने लगा है| ब्रिटेन के कवि ब्रायन बिल्सटन ट्विटर के राजकविके रूप में प्रसिद्द हो चुके हैं| यहाँ प्रस्तुत हैं इसी काव्य-रूप में मेरी कुछ ट्विटर कवितायें’|
  

घडी
घड़ी पहनता हूं
पर देखता हूं कम 
क्योंकि वक्त तो यों भी 
सवार रहता है 
बैताल की तरह पीठ पर 
और धड़कता रहता है 
दिल में घड़ी की ही तरह 
धक-धक-धक-धक !

सूरज
सूरज डूबा 
या मैं डूबा 
अंधकार में 
सूरज तो उबरेगा 
नये प्रकाश में 
डूबेगी धरती 
नाचती निज धुरी पर 
मुझको लिए-दिए 
गहरे व्योम में ढूंढती 
उस सूरज को 

बिंदी
बिंदी
चमक रही है
गोरे माथे पर तुम्हारी
बिंदी
तुम्हारी उलझी
लटों की ओट से
कह रही हो जैसे
होंठ दांतों से दबाये -
 नहीं समझोगे तुम कभी
मेरे मन की बात ! 

कविता

कविता एक तितली सी 
उड़ती आती और बैठ जाती है 
मेरे माथे पर सिहरन जगाती 
किसी कोंपल को चूमती 
पंख फड़फड़ाती 
गाती कोई अनसुना गीत 
और उड़ जाती अचानक

 ज़ू

ज़ू में बैठा हूं मैं 

लोग तो जानवरों को 
देख रहे हैं

मैं उन लोगों को
देख रहा हूं

और कुछ लोग 
आते-जाते
हैरत-भरी नज़रों से

मुझको भी 
देख लेते हैं

खंडहर 

मैं एक खंडहर हूं
कब्रगाह के बगल में

मेरे अहाते में
जो एक दरख़्त है
ठूंठ शाखों वाला

उस पर अक्सर 
क्यों आकर बैठती है
सोच मे डूबी
एक काली चील?

धुरी

शुरू किए मैंने
कितने सारे काम
जिनमें कुछ ही किए पूरे
बाकी सब छोड़ दिए अधूरे
ताकि घूमती रहे दुनिया
अपनी धुरी पर
और पूरा करे मेरे
अधूरे सब काम

कहानी

क्या मेरी कहानी
ख़तम हो गई
- सुनने वाले से
मैंने पूछा
लेकिन देखा तो वह
सोया पड़ा था
उसके सीने पर हाथ रखा
पर उसकी सांस तो
कब की
रुक चुकी थी

नया कपड़ा

मैं उलटा कुरता
पहने ही सो गया था
मैंने बहू से कहा
वह बोली
इसका मतलब
आपकी उम्र बढ़ी
और आपको
नया कपड़ा मिलेगा
मैं सोचने लगा
कैसा नया कपड़ा?

दस्तक

दरवाजे पर दस्तक पड़ी
गो दरवाज़ा खुला था
मैं सोचता रहा
कोई आया होगा
अंदर आ जायेगा
मैं इंतज़ार में रहा
फिर उठ कर देखने गया
पर कोई नहीं था


© Dr BSM Murty

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