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Wednesday, April 1, 2015

यादनामा : ८

त्रिलोचन शास्त्री

अगस्त, १९१७-दिसंबर, २००७

त्रिलोचनजी से मेरी भेंट अनायास हुई – जनवरी, १९६३ में. मेरे पिता, आचार्य शिवपूजन सहाय का निधन २१ जनवरी को हुआ था और उनका अस्थि-कलश लेकर काशी और प्रयाग में प्रवाह के लिए मैं शिवचंद्र शर्मा, दृष्टिकोण-संपादक, के साथ यात्रा पर निकला था. सबसे पहले हम नागरी प्रचारिणी सभा में गए जहाँ भवन के पीछे अतिथिशाला के एक कमरे में हम ठहरे.वहीँ दूसरे कमरे में त्रिलोचनजी रहते थे. उन दिनों वे वहां एक कोश का सम्पादन कर रहे थे. शर्माजी उनसे पूर्वपरिचित थे और मेरा परिचय मेरे पिता का अस्थि-कलश था. त्रिलोचनजी  और शर्माजी मेरे पिता का यशोगान करते रहे और तभी मैंने उनदोनों की यह तस्वीर खींची. बाद में काशी  के सभी प्रमुख साहित्यकार – लक्ष्मीशंकर व्यास, पारसनाथ सिंह, रत्नशंकर प्रसाद आदि जुटने लगे और तब एक छोटा-सा जलूस वहां से दशाश्वमेध घाट चला और फिर नौका पर सबलोगों के साथ बीच जलधारा में अस्थि-कलश को प्रवाहित किया गया. दो पहर बाद हमलोग प्रयाग के लिए चले और वहां भी संगम पर उसी प्रकार अस्थि-प्रवाह किया गया. प्रयाग में भी वहां के प्रमुख साहित्यकारों में अमृतरायजी थे, यह मुझे याद है. स्थानीय अखबारों में इन अवसरों की तस्वीरें भी छपी थीं और शोक-सभाएं भी हुई थीं.

त्रिलोचनजी और शर्माजी में बड़ी अंतरंगता थी.  दोनों ही व्यक्ति संस्कृत के विद्वान् थे. शिवचंद्र शर्मा के पिता पं.कपिलदेव शर्मा संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे. शिवचंद्रजी आ.नलिन विलोचन शर्मा के संरक्षण में  पटना के अ.भा. हिंदी शोध मंडल नाम की संस्था से ‘दृष्टिकोण’ नामक शोध-पत्रिका निकालते थे. साठ के दशक में उन्होंने ‘स्थापना’ नाम से भी एक पत्रिका निकाली थी जिसके एक अंक में उन्होंने त्रिलोचनजी की हिंदी-सॉनेट श्रृंखला पर डा.कपिलमुनि तिवारी का एक लम्बा समालोचनात्मक लेख ‘चीज़ किराए की है’ शीर्षक से छापा था. त्रिलोचनजी हिंदी कविता की परंपरा में लिखते हुए भी मूलतः एक प्रयोगधर्मी कवि थे. उनके विषय में प्रसिद्ध कवि डा. केदारनाथ सिंह की ये पंक्तियाँ उद्धरणोंय हैं:
   
  ‘‘त्रिलोचन एक खास अर्थ में आधुनिक हैं और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। दरअसल वे आज की हिन्दी-कविता में उस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आधुनिकता के सारे शोर-शराबे के बीच हिन्दी भाषा और हिन्दी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप बहती रही है। असल में त्रिलोचन की कविता जानी-पहचानी समकालीन कविता के समानान्तर एक प्रतिकविता की हैसियत रखती है और इसलिए इस बात की मांग भी करती है कि उसका मूल्यांकन करते समय आधुनिक कविता के प्रचलित मान-मूल्यों को लागू करने की जल्दबाजी न की जाय। ये कविताएं पाठक से और उससे भी ज्यादा आलोचक से, एक सीधे और मुक्त संबंध की अपेक्षा रखती हैं- क्योंकि इनका मूल्य कहीं बाहर नहीं, इन्हीं के भीतर है, जैसे लोहे की धार लोहे के भीतर होती है।’’

अंग्रेजी का अध्येता होने के नाते त्रिलोचनजी के हिंदी-सॉनेट लेखन में मेरी स्वाभाविक अभिरुचि थी. हिंदी-सॉनेट श्रृंखला के उनके तीन संग्रह प्रकाशित हैं – ‘दिगंत’, ‘शब्द’ और ‘उस जनपद का कवि हूँ’.मैंने उत्सुकतावश उनके कुछ सॉनेट पढ़े थे. उसमें गिनी हुई चौदह पंक्तियाँ होती हैं और उनमें तुकबंदी का एक कठोर विधान होता है. प्रयोग की दृष्टि से हिंदी में सॉनेट-लेखन में कवि के लिए कठिन चुनौतियाँ होती हैं. लेकिन त्रिलोचनजी ने अंग्रेजी में हिन्दू विश्वविद्यालय से एम्.ए. किया था और कोश-लेखक के रूप में उनका शब्द-भण्डार संस्कृत से लेकर अरबी भाषा तक फैला हुआ था. आधुनिक कविता में तुक के काव्यानुशासन को आधुनिकता के नाम पर छोड़ दिया गया. लेकिन जैसा केदारनाथजी ने लिखा है ‘लोहे की धार  लोहे के भीतर होती है’ – त्रिलोचनजी की कविता में  लोहा भी है और लोहे की धार भी. हिंदी कविता में सॉनेट-लेखन का  उनका यह प्रयोग कुछ कंचुकी के उस बंधन जैसा है जिससे नारी-सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है.

मैंने अपने फेसबुक पृष्ठ पर त्रिलोचनजी को श्रद्धांजलि-स्वरुप एक-दो ऐसे  ही अटपटे सॉनेट लिखने की कोशिश की है जिससे उसकी झलक मिल सके – हालाँकि तुक-विधान का पूरा पालन उनमे नहीं हुआ है.  
काशी में था मिला त्रिलोचनजी से जब वे 
रहते थे पिछवाड़े नागरी प्रचारिणी सभा के। 
सुन रक्खा था हिंदी में सॉनेट लिखते हैं 
यद्यपि पंडित हैं वे संस्कृत छन्दशास्त्र के।
अद्भुत शर्मा शिवचन्द्रजी साथ थे मेरे, 
अस्थि प्रवाहित करना था गंगा में हमको। 
मेरे पिता दिवंगत हुए थे कुछ ही पहले,
शिव उनके आराध्य रहे थे काशी में ही।
पहली बार मिला था मैं त्रिलोचनजी से 
पर शर्माजी उनसे पहले से परिचित थे।
बातें हुईं ठहाके गूँजे फोटो खींचा 
चर्चा हुई पिता के काशी के प्रवास की
शास्त्री त्रिलोचन हिंदी के सिरमौर कवि थे 
उनकी स्मृति को इस सॉनेट से यह श्रद्धांजलि।


***

चीज़ किराए की थी वह अंगरेजी में भी;
पहले-पहल गढ़ा था उसको पेट्रार्क ने,
फिर अंग्रेजी में तो जाने किसने किसने
साधा इस सांचे को चौदह लाइनों में ही|

तुकबंदी की बंदिश इसमें बहुत कड़ी थी -
चार पंक्तियों के होते थे तीन छंद और एक दोहा था;
पहली चौथी लाइनों का तुक एक होता था,
बिचली दो लाइनें फिर तुक में एक होती थीं|

शास्त्री त्रिलोचन ने इसको हिंदी में साधा;
तुक सब बांधे, भाव भरे और मन की माला
हिंदी शब्दों में ही मनहर गूंथ डाला -
उर्दू-हिंदी और संस्कृत को एक में नाधा|

शिल्प अनूठा था यह सज गयी इससे हिंदी

जैसे सजती है नारी माथे पर बिंदी |


-       मंगलमूर्ति,  लखनऊ २ अप्रैल, २०१४