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Monday, November 26, 2018



चंपारण-सत्याग्रह  : भारतीय राजनीति में सत्य का पहला प्रयोग

मंगलमूर्त्ति

महात्मा गाँधी के नाम के साथ ‘महात्मा’ विरुद कब जुड़ गया, ठीक-ठीक बताना कठिन है, लेकिन जब वे चंपारण पहुंचे थे तो उनसे पहले उनकी ‘महात्मा’ वाली यह छवि वहां पहुँच चुकी थी | द. अफ्रीका के उनके ‘सत्याग्रह’ की कहानी से भी ज़्यादातर लोग परिचित हो चुके थे | गांधीजी ने अपनी ‘आत्मकथा’ पहले गुजराती में लिखी और फिर उसका अनुवाद अंगरेजी में ‘द स्टोरी ऑफ़ माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ नाम से हुआ  – ‘सत्य के मेरे प्रयोगों की कहानी’ – जो १९२६-२७ के आस-पास प्रकाशित हुई | यह शीर्षक अपने आप में एक नयी बात सामने रखता है | सामान्यतः आत्मकथा में सत्य पर रंगसाजी ही की जाती है, अपने प्रखर रूप  में वह सत्य कभी सामने नहीं आ पाता  | लेकिन गाँधी की आत्मकथा का यह शीर्षक ही घोषित कर देता है कि गांधी का जीवन पूरा-का-पूरा सत्य के साथ उनके प्रयोगों की कहानी है | जैसे उन्होंने १९०९ में ‘हिन्द स्वराज’ लिख कर भारत की आज़ादी का पूरा मानचित्र प्रश्नोत्तर द्वारा समझाया था, उसी तरह अपनी ‘आत्मकथा’ लिख कर उन्होंने यह बता दिया कि उनका जीवन १९२७ तक और उसके बाद भी सत्य के साथ उनके लगातार प्रयोगों की एक लम्बी कहानी है | उन्होंने १९२७ तक की कहानी का अंत करते हुए ‘आत्मकथा’ के ‘विदा’ शीर्षक अंतिम अध्याय में लिखा है कि पिछले सात साल (१९२०-२७) में वे कांग्रेस के बहुत निकट संपर्क में रहे हैं, और सत्य के प्रसंग में अब आगे की कहानी में कांग्रेस के कार्य-कलाप और उसके  कई नेताओं का ज़िक्र आना लाज़मी है, जिस कारण अब इस कहानी को यहीं रोकना आवश्यक हो जाता है |

भारत लौटने के बाद चंपारण का उनका सत्याग्रह स्वदेश की राजनीति में उनका सबसे पहला प्रयोग था | वास्तव में, स्वदेश की राजनीति में  कांग्रेस अब तक  जिस पथ का अनुसरण कर रही थी उसमें साम्राज्यवादी असत्य और अहिंसा के प्रति स्वीकार का भाव ही अधिक था जो गाँधी के कठोर सिद्धांतों से बिलकुल मेल नहीं खाता था | और चंपारण के बाद खेडा का सत्याग्रह जैसे चंपारण-सत्याग्रह का  ही भौगोलिक विस्तार था, यद्यपि चंपारण-सत्याग्रह का दूरगामी लक्ष्य समाज-सुधार था जो बाद में गांधी  के ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के रूप में सामने आया | द. अफ्रीका में गाँधी ने ‘सत्याग्रह’ का जो नवोन्वेषित  ‘मॉडल’ तैयार किया था, जो योरोपीय ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ से कई कदम आगे था, और जिसमें किसी तरह का निष्क्रिय प्रतिरोध का भाव नहीं था, वरन जिसके अन्दर सत्य की  एक सक्रिय और ऊर्जस्वी शक्ति भरी थी; सत्य के आत्मरत प्रतिरोध से सशक्त ‘आग्रह’ - अथवा प्रचेष्टा : वह एक ऐसा प्रयास था जिसमें सत्य की विजय और असत्य की पराजय के बाद दोनों के बीच एक स्वस्थ संतुलन की स्थिति उपलब्ध होती थी | द. अफ्रीका से यही अस्त्र लेकर गाँधी १९१५ में भारत आये थे और गोखले की सलाह पर एक साल तक स्वदेश की राजनीतिक स्थिति का गहन अध्ययन करने के बाद अप्रैल, १९१७ में चंपारण पहुंचे थे, जहां सबसे पहले इस ‘सत्याग्रह’-अस्त्र की प्रयोग-भूमि तैयार हुई |

         
अपनी ‘आत्मकथा’ की १९२७ तक की कहानी में उन्होंने अपने सत्य के प्रयोग, जिसमें कांग्रेस का कार्य-कलाप भी अब शामिल हो चुका था, बराबर ज़ारी रखने का हवाला दिया है |’आत्मकथा’ के अंतिम अध्याय में वे स्पष्ट कहते हैं कि - सामाजिक सन्दर्भ में भी - उनकी दृष्टि में सत्य और ईश्वर दोनों एक ही हैं, और सत्य के बिना अहिंसा का अस्तित्व असंभव है | वे यह भी लिखते हैं कि अब तक के अपने प्रयोगों में उन्होंने सत्य की केवल कुछ झांकियां ही देखी हैं, लेकिन जिसका प्रकाश इतना प्रभापूर्ण है जितना लाखों सूर्यों का प्रकाश भी नहीं हो सकता | लेकिन सत्य को पूर्ण रूप में देखना तभी संभव है जब हम पूरी तरह अहिंसा को आत्मसात कर लें – अहिंसा अपने  मन, वाणी और कर्म में |
ईशोपनिषद में सत्य के विषय में कहा गया है –

             हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
             तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१५॥

‘हे सूर्य ! सुवर्ण-पात्र के तुम्हारे तेजोमय आवरण से सत्य का मुख ढंका हुआ है | हे सृष्टि के जीवनदाता ! तुम अपने इस स्वर्ण-आवरण को हटा लो तो मैं सत्य के दर्शन कर सकूँगा, क्योंकि मैं सत्य का दर्शन करने का आकांक्षी हूँ !’ माया से आच्छादित सुवर्ण-आवरण के पीछे छिपे सत्य का दर्शन करने के लिए सूर्य को अपने  उस चकाचौंध करने वाले आवरण को हटाना होगा जिससे सत्य के साक्षात दर्शन हो सकें |

इस श्लोक पर भले ही गाँधी की दृष्टि नहीं गयी हो लेकिन सत्य की उनकी खोज इस श्लोक में पूरी तरह प्रतिबिंबित होती है | सत्य की धारणा को प्रयोगों के माध्यम से सिद्ध करके ही सत्य के दर्शन किये जा सकते हैं | जीवन की समस्याओं को सत्य और अहिंसा की कसौटी पर कस कर ही सत्य का प्रयोग पूरा हो सकता है,  और गाँधी ने इन प्रयोगों की श्रंखला का प्रारंभ मारित्ज्बर्ग के अनुभव के बाद ही कर दिया था, ऐसा कहा जा सकता है | द. अफ्रीका में पश्चिमी सभ्यता और साम्राज्यवाद की पाशविक हिंसा और अमानवीयता का ज्ञान होने के साथ ही गाँधी ने सत्य के प्रयोगों की ये श्रंखला शुरू कर दी थी | इन प्रयोगों की पृष्ठभूमि में निश्चय ही भारतीय संस्कृति की यही वैदिक परंपरा थी, जिसका प्रतिबिम्ब अमेरिकन दार्शनिक थोरो और रूसी साहित्यकार और विचारक टॉलस्टॉय के लेखन में भी कालक्रम में गाँधी को दिखाई पड़ा था | और यही कारण था कि गाँधी ने पश्चिम के  ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ से कई कदम आगे बढ़ कर एक सर्वथा नये ‘सत्याग्रह’- मार्ग की खोज की थी, जो भारतीय धर्म-परंपरा के अंतर्गत ही सत्य की एक खोज थी | गाँधी ने ही कहा था कि मैं अपने घर की खिड़कियाँ खुला रखना चाहता हूँ, ताकि चारों और की हवाएं उसमें उन्मुक्त बह सकें | लेकिन हवाएं जिधर से भी प्रवाहित हो रही हों, घर सदा गाँधी का अपना रहा | इसीलिए सत्य और अहिंसा के सिद्धांत गाँधी को पश्चिम ने नहीं, अपनी धार्मिक परंपरा से ही प्रथमतः प्राप्त हुए, यह निश्चित है | और सत्य-अहिंसा की उनकी यह प्रविधि ‘सत्याग्रह’ के रूप में ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ का अनुकरण-मात्र न होकर एक मौलिक खोज थी, जिसे उन्होंने द. अफ्रीका की राजनीतिक विषमताओं के बीच स्वयं हासिल किया था |          

सत्य और अहिंसा संतुलित मानव प्रकृति के स्थायी भाव हैं | असत्य और अहिंसा असंतुलन से उत्पन्न विकृति की स्थितियां होती हैं | सत्य और अहिंसा अनिवार्यतः एक संतुलन की स्थिति में होते हैं | असंतुलन की स्थिति में दोनों में निषेधात्मक परिवर्तन अपरिहार्य है, जिससे संयुक्ततः असत्य और हिंसा की स्थिति उत्पन्न होती है; अर्थात असत्य के साथ अनिवार्यतः हिंसा की उत्पत्ति होगी, और जहां हिंसा होगी वहाँ असत्य की उपस्थिति अनिवार्य होगी | सत्य और अहिंसा के बीच स्वाभाविक स्थिति संतुलन की है, जिसे विश्व के परिचालन के एक स्थायी नियम के रूप में सदा देखा जा सकता है | सारी  सृष्टि सत्य और अहिंसा के शाश्वत संतुलन पर ही आधारित है | वहाँ भी हिंसा और असत्य को तात्कालिक और अस्थायी स्थितियों के रूप में ही देखा जा सकता है | असत्य और हिंसा कभी एक स्थायी स्थिति में नहीं रह सकते, क्योंकि उन को सत्य और अहिंसा के  स्वाभाविक संतुलन की स्थिति को  अनिवार्यतः प्राप्त करना ही होता है |

गाँधी के जीवन में सत्य और अहिंसा सिक्के के दो पहलू की तरह स्वाभाविक रूप से संयुक्त हैं, और अधिकांशतः संतुलन की स्थिति में ही देखे जा सकते हैं | सत्य की खोज ही अहिंसा की भी खोज है | एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असंभव है, और दोनों के बीच एक अदृश्य संतुलन की स्थिति भी  अनिवार्य है  | इस शाश्वत सत्य का अनुशीलन भारतवर्ष की समृद्ध ऋषि-परंपरा में सदियों से होता रहा, और एक परम्परावादी जैन-धर्मावलम्बी परिवार और सनातन-धर्मी समाज में जन्म लेने के कारण गांधी का सत्य और अहिंसा के इस नैसर्गिक विधान में पूर्व-निष्णात होना सर्वथा स्वाभाविक था |

जीवन के प्रारम्भ में जब गाँधी इन मूल्यों को लेकर कानून पढ़ने इंग्लैंड गए थे तब उन्होंने पश्चिम की भौतिकवादी रोशनी में दुबारा इन भारतीय मूल्यों की परख-पड़ताल की थी, और विश्व की अन्य धर्म-परम्पराओं से इनकी तुलना करने के बाद सत्य और अहिंसा को उन्होंने सभी प्राचीन धर्मों के – विशेषतः ईसाई धर्म के - मूलाधार के रूप में पाया | और इसीलिए गाँधी ने सार्वजनीन प्रेम-भाव को  सत्य और अहिंसा के  मानवीय भाष्य के रूप में विश्लेषित किया | सत्य और अहिंसा अगर बीज मन्त्र है तो सार्वजनीन प्रेम की भावना ही उसका प्रतिफलन है | सृष्टि में भी सत्य और अहिंसा का यह संतुलन प्रेम और सहअस्तित्व के रूप में सर्वत्र परिव्याप्त  है | जहां भी, जब भी इस संतुलन में कोई विकृति उत्पन्न होती है इन तीनों भावों का लोप हो जाता है, और तब क्रोध और हिंसा का विस्फोट ही इस विकृति का अवश्यम्भावी परिणाम होता है |

गाँधी ने अपनी शिक्षा और अपने संघर्षमय अनुभवों के दौरान, इंग्लैंड और द. अफ्रीका में, सत्य और अहिंसा के इसी बीज-मन्त्र का पुनरान्वेषण किया और इसी की कसौटी पर जीवन और समाज की विषमताओं और समस्याओं को जांचने-परखने के लगातार प्रयास किये | द. अफ्रीका में पश्चिमी सभ्यता और साम्राज्यवादी व्यवस्था को हिंसा और असत्य का पथगामी देख कर गांधी ने स्वदेशी अस्मिता के रू-ब-रू उस व्यवस्था का वैधानिक विरोध किया | किसी भी वैधानिक व्यवस्था की आधारशिला न्याय पर ही टिकी होती है, और न्याय का आधार अनिवार्यतः सत्य और अहिंसा ही होते हैं | कोई भी वैधानिक व्यवस्था असत्य और हिंसा की प्रशासनिक नीति पर नहीं चल सकती | अगर वह ऐसा छद्म करती है तो उसका अंत अपरिहार्य है | द. अफ्रीका में भी तत्कालीन परिस्थितियों में  गाँधी  का सत्य और अहिंसा का यह प्रयोग – ‘सत्याग्रह’ के रूप में - सफल रहा जिसकी परिणति रंग-भेद की नीति की समाप्ति में हुई जिसे बाद का इतिहास प्रमाणित करता है |

सत्य और अहिंसा को दैनंदिन जीवन में चरितार्थ करने का प्रयोग गांधी ने द. अफ्रीका के फीनिक्स और टॉलस्टॉय आश्रमों की स्थापना के साथ प्रारम्भ किया था | व्यक्तिगत जीवन से ऊपर उठकर सामुदायिक जीवन में इसका प्रयोग सत्य और अहिंसा को सामाजिक जीवन में सफल करने का ही प्रयोग था | सत्य, अहिंसा, प्रेम-भाव, श्रम और अपरिग्रह का अभ्यास दैनंदिन जीवन में सामुदायिक स्तर पर करना सत्य को नित्यप्रति के सामाजिक जीवन में उतारने का ही प्रयास था | इसी अभ्यास ने सबसे पहले सत्य का यह पक्ष उजागर किया जिसकी शक्ति से उर्जस्वित होकर लोग पूर्णतः अहिंसक रहते हुए जेल का कष्ट झेलने में समर्थ हुए | सामुदायिक आश्रम-जीवन ने ही सभी जातियों और धर्मों के आश्रम-वासियों में  साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ कर सत्य और अहिंसा के उच्चतर वैश्विक धर्म की चेतना भर दी | मानव मूल्यों और अधिकारों को राजनीतिक सन्दर्भ में प्राप्त करने के लिए सत्य और अहिंसा के इसी  उच्चतर वैश्विक धर्म की चेतना की आवश्यकता सबने महसूस की | राजनैतिक और मानव अधिकारों को प्राप्त करने की दिशा में द. अफ्रीका के जेलों में ही पहले-पहले सत्य और अहिंसा का महत्त्व उजागर हुआ |

गांधी ने बहुत चिंतन और विमर्श के बाद इस कार्यशैली को ‘सत्याग्रह’ का नाम दिया, जो अंग्रेजी की पश्चिमी अवधारणा ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ का अनुकरणात्मक पर्याय नहीं था, जिसके साथ एक पलायन और निष्क्रियता का नकारात्मक भाव जुडा हुआ था | सत्याग्रह के ‘आग्रह’ में एक सक्रिय विरोध का भाव था जो सत्य की आत्मिक शक्ति से उर्जस्वित था | वह सत्य और अहिंसा को एक अनन्य अपराजेय अस्त्र की तरह प्रयोग करने की एक सर्वथा अभिनव कार्य-शैली पर आधारित था | एक ऐसा अस्त्र जिसका प्रयोग अब तक राजनीति के क्षेत्र में कभी नहीं हुआ था | राज्य-शक्ति जो  विधानतः सत्य और न्याय-विधान पर आधारित होते हुए भी  सत्ता-हित में असत्य और हिंसा का अनुसरण करने को बाध्य होती है, आदर्श स्थिति में, आदर्श राजनीतिक व्यवस्था में – जिसे ‘रामचरित मानस’ के  ‘रामराज्य’ के रूप में गांधी देखते थे – उसका विलोप हो जाना होता है | यही समाज के उन्नयन की चरमावस्था होती है, जहां राज्य-शक्ति का समाज-शक्ति में विलयन हो जाता है | मार्क्सवाद में यह प्रक्रिया राज्य-शक्ति को हिंसा और असत्य के माध्यम से त्वरित और कृत्रिम रूप से प्राप्त करती है, जिसमें अधिनायकवादी सत्ता के बीज प्रारम्भ से ही बोए होते हैं, और जो जल्दी फलने-फूलने वाले पेड़ों की तरह जल्दी ही गिर भी जाती है | स्पष्टतः, हिंसा और असत्य पर परिचालित कोई भी राज्य-व्यवस्था अनिवार्यतः अल्पकालिक ही हो सकती है, भले ही वह ६०-७० साल या एकाधिक सदियों तक भी चल जाए | गाँधी हमेशा समाज-शक्ति के उन्नयन और  स्थिरीकरण में तथा राज्य-शक्ति  के अंततः विलोपन में विश्वास करते  थे | द. अफ्रीका में भी उनके  ‘सत्याग्रह’ का उद्देश्य राज्य-शक्ति और समाज-शक्ति के संतुलन का ही था जो  सत्य और अहिंसा पर आधारित एक प्रारम्भिक प्रयोग था | द. अफ्रीका का ‘सत्याग्रह’ गांधी का सत्य-आधारित राजनीति का प्रारम्भिक प्रयोग था जिसका दुहरा उद्देश्य पहले तो द. अफ्रीका की राजनीति में सत्य-अहिंसा का एक कारगर औज़ार के रूप में सफलतापूर्वक आजमाइश करना  था, और फिर बाद में जिसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर भारतवर्ष की साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध किया जाना था, जिसका एक अनिवार्य और दूरगामी पक्ष शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्त्तन था  |

जब द. अफ्रीका में गांधी ‘सत्याग्रह’ को एक राजनीतिक हथियार की तरह तैयार कर रहे थे, उस बीच भी वे एकाधिक बार भारत आए-गए थे, और परोक्ष रूप से ही स्वदेश की राजनीतिक गतिविधियों को देखते-परखते रहे थे | कांग्रेस का रवैया उन दिनों एक अत्यंत सीमित उच्च-वर्गीय, दिशाहीन, अनुनयी, याचनावादी नीति पर आधारित था जो ब्रिटिश हितों के भी अनुकूल ही था, और जिसे ब्रिटिश हुकूमत एक सर्वथा  नियंत्रित विपक्ष की तरह दुनिया के सामने प्रस्तुत कर सकती थी | गाँधी स्वयं भी उस समय तक भारत में किसी क्रांति या विद्रोह के पक्षधर नहीं थे | उस समय तो वे भी ब्रिटिश सरकार के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रखना चाहते थे | यह शायद उनकी दूरदर्शिता थी कि वे समय वाहित कर रहे थे भारतीय जन-मानस को असत्य-हिंसा के मुकाबले सत्य-अहिंसा के द्वारा संघर्ष के लिए पूरी तरह तैयार करने में |

कांग्रेस के लखनऊ (१९१६) अधिवेशन में भी वे पर्यवेक्षक के रूप में ही शामिल हुए थे, और नील-समस्या पर कोई प्रस्ताव सभा में रखने को राज़ी नहीं हुए थे | कांग्रस से उनका यह दुराव चंपारण-सत्याग्रह के दौरान भी मुकम्मल बना रहा, और यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष है जिस पर कम ध्यान दिया जाता रहा    है | उन्होंने चंपारण-सत्याग्रह को दृढ़तापूर्वक नील-समस्या तक ही केन्द्रित रखा और किसी भी तरह इसको कांग्रेस के याचनात्मक अभियान से जोड़ने की मनाही कर दी | यहाँ तक कि अखबारों से भी अपने इस विशिष्ट अभियान को गांधी ने सुरक्षित रखा, क्योंकि अखबार ज़्यादातर सत्ता-समर्थक थे और इस नए सत्याग्रह-आन्दोलन को सही परिप्रेक्ष्य में देखना-समझना उनके बस की बात नहीं थी |  और यह अकारण नहीं था, क्योंकि तब कांग्रेस की लड़ाई किसी अर्थ में सत्य और अहिंसा की लड़ाई नहीं थी,और कांग्रेस उस वक्त भी ब्रिटिश हुकूमत की हिंसा-असत्य की नीति का केवल औपचारिक विरोध ही कर रही थी, और एक तरह से उसकी हिंसा-असत्य की नीति से समझौता करके चलने में ही विश्वास करती थी, जो गाँधी की प्रविधि के बिलकुल उलट नीति थी | एक शब्द में, तब की कांग्रेस ब्रिटिश हुकूमत की ही एक प्रतिच्छाया-मात्र थी, जिससे गाँधी का रास्ता बिल्कुल अलग था | चंपारण-सत्याग्रह में यह बात बिल्कुल शीशे की तरह साफ़ झलकती है | चंपारण-सत्याग्रह किसी प्रकार कांग्रेस के सत्ता-कामी संघर्ष से मेल नहीं खाता | कांग्रेस के दोनों – नरम और गरम – दल शुरू से ही  केवल सत्ता-प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहे  |  किन्तु गाँधी का ‘सत्याग्रह’  प्रारम्भ से ही एक शुद्ध सत्य-अहिंसा आधारित ‘सत्याग्रह’ रहा जिसका अनिवार्य पक्ष काल-क्रम में  समाज-सुधार और सामाजिक स्वावलंबन बना | बल्कि बाद में ’३० के दशक में कांग्रेस के इस सत्ताकामी रूप के प्रत्यक्ष हो जाने के बाद गाँधी एक तरह से बराबर के लिए कांग्रेस से अलग ही हो गए | उनका सारा ध्यान अब अपने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के अंतर्गत -  अस्पृश्यता-निवारण, साम्प्रदायिक सद्भाव, स्वदेशी शिक्षा, और समाज-सुधार पर केन्द्रित हो गया, जिसकी प्राथमिक रूपरेखा हम द.अफ्रीका के बाद ‘चंपारण-सत्याग्रह’ में भी देखते है |  कांग्रेस से पूर्णतः निराश होकर अंत में अपनी मृत्यु से पूर्व तो गाँधी ने कांग्रेस के पूर्ण विलयन की ही इच्छा व्यक्त कर दी थी |

‘चंपारण-सत्याग्रह’ पर उसके इस शताब्दी-वर्ष में - और उससे बहुत पहले से ही - अनेक पुस्तकें और लेख आदि लिखे जा चुके हैं, जिनमें डा. राजेंद्र प्रसाद की तद्विषयक पुस्तकें  - उनकी ‘आत्मकथा’, ‘बापू के कदमों में’, ‘चंपारण में महात्मा गाँधी’ – तथा ज़्यादातर बाद में लिखी और पुस्तकें भी चंपारण-आन्दोलन के इस समाज-सुधार केन्द्रित पक्ष पर बहुत कम ध्यान देती हैं | राजेन्द्र बाबू ने भी अपनी इन तीनों पुस्तकों में इस ऐतिहासिक आन्दोलन के केवल उसी पक्ष की चर्चा की है जिसकी परिणति ‘चंपारण एग्रेरियन एक्ट’ के पारित होने के साथ हो गयी, और वह भी पूरी तरह केवल तथ्यात्मक ढंग से | केवल ‘चंपारण में महात्मा गाँधी’ के अंतिम अध्याय में उन्होंने गाँधी के शिक्षा-सम्बन्धी अभियान के कुछ दस्तावेजों की चर्चा की है | ‘आत्मकथा’ में उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया है –“गाँधी ने चंपारण के तीन हिस्सों में तीन स्कूल खोले | मैं उन स्कूलों में से किसी में न रह सका | पटने वापस आकर मैं फिर अपनी वकालत में लग गया | बराबर उन स्कूलों को देखने के लिए साल में एक या दो बार जाया करता था |” लेकिन राजेंद्र बाबू ने  यह ज़रूर लिखा है कि गाँधी ने गुजरात और महाराष्ट्र से अनेक व्यक्तियों को लाकर चंपारण के किसानों के जीवन की ग़ुरबत और पस्ती को दूर करने का प्रयास बाद में भी कई वर्षों तक ज़ारी रखा |

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी गाँधी की दृष्टि में ‘स्वतंत्रता’ के दो आयाम थे – एक, विदेशी राज-तंत्र से तत्काल मुक्ति और तत्जनित देश की गरीबी, बदहाली, पिछड़ापन, सामाजिक विषमताओं  और कुरीतिओं, सांप्रदायिक एवं जातिगत विभेद आदि से शीघ्रताशीघ्र मुक्ति | गांधी केवल राज्य-सत्ता के परिवर्त्तन को ही स्वतंत्रता नहीं मानते थे, अपितु वे लोकहित में लोकजीवन में सुधार के साथ-साथ राज्य-सत्ता को भी सत्य और अहिंसा के पथ की ओर अग्रसारित करने में विश्वास करते थे | ऐसा ‘हिन्द स्वराज’ से ही नहीं, बल्कि जीवन के प्रारम्भ से ही उनके सभी कार्य-कलाप में  प्रतिबिंबित होता है | सत्य और अहिंसा के ऐसे  प्रयोग उन्होंने अपने जीवन के व्यक्तिगत और सार्वजनिक क्षेत्रों में एक बराबर किये, जिससे उनके जीवन के इन दोनों क्षेत्रों में बराबर संतुलन बना रहा | चंपारण-सत्याग्रह में भी गाँधी की लड़ाई सत्ता से नहीं थी, सत्ता के असत्य (दो-मुहांपन और छद्म) और हिंसा (सत्ता की छाया में होने वाले अत्याचार) से थी | पूरे आन्दोलन के दौरान गाँधी ने सत्ता का नहीं, उसके आचरण के असत्य और हिंसा का विरोध किया, जैसा उन्होंने द. अफ्रीका में भी किया था | यह कोई नया विचार नहीं था | तोल्स्तोय और थोरो ने भी यह विचार भारतीय मनीषा से ही ग्रहण किया था | गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में पश्चिम को भी इसी विचार की याद दिलाई थी, जिसका वहां के विचारकों ने पहले ही आयात किया था, और पश्चिम में भी जो मूल-भारतीय विचार वहां की साम्राज्यवादी हिंसक व्यवस्था का प्रतिरोध  उनके ही धर्म और मानवता के सिद्धांतों के अनुसार कर रहा था | गाँधी जानते थे कि सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति और उन्नति सत्य और अहिंसा के इसी मूल सूत्र पर आधारित है | गाँधी मानते थे कि सत्य और अहिंसा में ही मानवता का सच्चा कल्याण है, और इसके विपरीत असत्य और हिंसा में ही उसका निश्चित विनाश निहित है |

चंपारण की लड़ाई, द. अफ्रीका की तरह ही, प्रथमतः एक कानूनी लड़ाई के रूप में शुरू हुई थी, और उसके सीमित लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद उनके सभी वकील सहयोगी अपने-अपने चोगों में वापस हो गए थे, जैसा राजेंद्र बाबू ने स्वीकार किया है | लेकिन उस लड़ाई का असली अभिप्रेत उन सब लोगों को बाद में समझ में आया जिसको राजेन्द्र बाबू ने ‘आत्मकथा’ के ‘चंपारण के विजय का व्यापक प्रभाव’ वाले अध्याय में लिखा है – “काम पूरा होने पर जब हम अपने-अपने स्थान को वापस गए, तो अपने साथ नए विचार, नयी  स्फूर्ति और नए कार्यक्रम लेते गए | सारे सूबे में एक नया जीवन आ गया, जिसका प्रभाव थोड़े ही दिनों में देखने में आया |” यही था भारतीय स्वाधीनता के लिए ज़मीन तैयार करने का काम जिसमें आगे सत्य और अहिंसा का बीज रोपा जाना था | इसी अर्थ में, चंपारण आन्दोलन को सत्य और अहिंसा पर आधारित एक व्यापक मानव-मुक्ति के आन्दोलन की शुरुआत के रूप देखा जाना चाहिए, केवल एक सफल स्थानीय  कृषक-आन्दोलन के रूप में नहीं |

उस किसान-मुक्ति आन्दोलन के दौरान भी गाँधी ने जात-पांत की व्यर्थता और सामुदायिक सत्य-अहिंसा की शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण सन्देश प्रसारित किया | दो उदाहरणों से ही सत्य और अहिंसा का प्रयोग           व्यावहारिक स्तर पर कैसे किया जा सकता है, यह स्पष्ट हो जाता  है | जब मोतिहारी में किसानों के बयान लिखे जा रहे थे तब जहाँ-जहाँ बयान लिखे जाते समय सरकार का एक पुलिस इंस्पेक्टर वहां आकर बैठ जाता था | इस पर जब गाँधी के सहयोगी वकीलों ने गाँधी से शिकायत की तो गाँधी ने उनको समझाया कि जब हम कोई गुप्त जांच नहीं कर रहे हैं, तो सरकार द्वारा नियुक्त ये लोग जो हमारे और रैयतों के बीच के लोग हैं, और फिर कोई बाधा भी नहीं डाल रहे हैं, तो इनसे हमें क्या परहेज है ? इनको रोकने की कोई बात नहीं है | दूसरा उदाहरण भी ऐसा ही है | सरकार के एक मुलाजिम ने, जिसने गाँधी की इस जांच में स्वदेशी भावना से प्रेरित होकर जांच-प्रक्रिया में मदद करने की नीयत से सरकार का कोई गुप्त दस्तावेज लाकर गाँधी-दल के किसी व्यक्ति को चुपचाप दिया था, जिसे उस व्यक्ति ने गांधी को दिखलाया | लेकिन गाँधी ने यह कहते हुए उस कागज़ को देखने से भी इनकार कर दिया कि हम पूरे पारदर्शी तरीके से सारा काम कर रहे हैं, और हमें खुफिया तरीकों की कोई ज़रुरत नहीं है, और वह कागज़ उसी मुलाजिम को बिना देखे वापस कर दिया   गया |

इन दो छोटे-छोटे उदाहरणों से गाँधी के सत्य का रूप झलक उठता है | उस पर से भ्रान्ति का आवरण उतर जाता है | गाँधी चंपारण में भी जहां जाते थे, जिस काम से जाते थे, सरकार को उसकी पूर्व सूचना दे देते   थे |  वे अपना काम पाक-साफ़ तरीके से करना चाहते थे, जो सत्य, न्याय और नैतिकता पर आधारित था | और इसीलिए अन्याय और छद्म पर चलने वाली सत्ता उसके सामने सदा पराजित हो जाती थी |  सत्य और अहिंसा की यह अपराजेय शक्ति यदि बाद के इतिहास में विश्व-पटल पर अन्य देशों में भी  विजयी होती दिखाई देती है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं |
‘चंपारण-सत्याग्रह’ के ऐतिहासिक विवरण, उसका दैनंदिन घटना-क्रम आदि तो अनेक पुस्तकों में चर्चित हुए हैं | लेकिन उस दौरान  सत्य और अहिंसा के  प्रयोग-पक्ष, अथवा उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक उत्थान-पक्ष पर, जिसके बिना सत्य और अहिंसा की स्थापना पूरी नहीं हो सकती, विचार कम हुआ है | और यह शायद इसलिए कि इतिहास लिखने वाले शायद घटनाओं और तथ्यों पर ही अपना ध्यान अधिक केन्द्रित करते हैं | वे हमेशा ‘चंपारण-सत्याग्रह’ को  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पूर्व-पीठिका के रूप में चित्रित करते हैं | गाँधी के सामाजिक-राजनीतिक दर्शन में उसका क्या स्थान है, और कैसे गाँधी ने सत्य और अहिंसा के  द. अफ्रिका में शुरू किये गए अपने प्रयोगों के राजनीतिक स्वरुप को  स्वदेश के स्वाधीनता-संग्राम में और विकसित किया, और कैसे उन्होंने प्रारंभ से ही सामुदायिक सद्भाव, स्वावलंबन, स्वाभिमान, न्याय, स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर बल दिया और लोगों को स्वाधीनता का एक नया स्वरुप दिखाया, यह चंपारण-सत्याग्रह का एक प्रमुख पक्ष है, जो कांग्रेस के स्वाधीनता आन्दोलन के समानांतर एक वृहत्तर आन्दोलन था, जिसके प्रति सत्तारूढ़ होने के बाद कांग्रेस बिलकुल उदासीन हो गयी, और जो आज भी देश के सामने एक बड़ी चुनौती बन कर खड़ा है |

 ‘चंपारण-सत्याग्रह’ का महत्त्व भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पहले मील-स्तम्भ के रूप में उसका राजनीतिक पक्ष नहीं है | वह तो भारत की वास्तविक स्वतंत्रता की दिशा में गाँधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांत का पहला सीमित प्रयोग था जिसका असली लक्ष्य भारतीय समाज का सम्पूर्ण काया-कल्प ही था | उस प्रयोग का कांग्रेस के स्वतंत्रता-संग्राम में राजनीतिक लाभ लिया जाता रहा और उसको मुख्यतः एक राजनीतिक उपलब्धि के रूप में इतिहास में चित्रित किया गया, यह तो उसका आनुषंगिक पक्ष है | ‘चंपारण-सत्याग्रह’ के इस सत्य-अहिंसा-आधारित स्वरूप को आज एक निरंतर चलने वाले आन्दोलन की तरह देखने की आवश्यकता है, जो आज भी अधूरा है, और जिसे पूरा करने का संकल्प ही ‘चंपारण-सत्याग्रह’ की शताब्दी का पवित्र संकल्प हो सकता है |

                                                                              'अनहद' (प्रयाग, जून, २०१८ में प्रकाशित)

चित्र साभार : १. मोतिहारी में, अप्रैल, १९१७ (गूगल) २. मोतिहारी कोर्ट में ('गाँधी' फिल्म, गूगल) ३. नील के पत्तों को सडाने के लिए बने हौज ( मंगलमूर्ति ) ४. गाँधी बेल्हरवा आश्रम में कस्तूरबा के साथ  (१९१७, गूगल) 

(C) Dr BSM Murty

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Extracts from my forthcoming biography of Dr Rajendra Prasad

Some extracts from my forthcoming biography of Dr Rajendra Prasad are also available on this Blog (Scroll by year and date), plus some other articles on him.
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vagishwari.blogspot.com  mainly for articles on Shivpoojan Sahay, and my translation of Shrimad Bhagawad Geeta and Ramcharit Manas( retold)

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