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Sunday, November 12, 2023


 आचार्य श्रीशिवपूजन सहाय

[पं. लक्ष्मी शंकर व्यास का संस्मरण]

सन् १९६० में जब आचार्य शिवपूजन सहाय जी काशी आये थे, तब कौन जानता था कि यह उनको अन्तिम काशी यात्रा है। 'मतवाला' मण्डल के अपने अन्यतम सहयोगी और अभिन्न मित्र महाकवि निराला कीअत्यधिक अस्वस्थता का समाचार सुनकर आप उन्हें देखने प्रयाग गये थे। निराला जी से मिलकर तथा उनके पुत्र तथा परिवार वालों से बातचीत कर आप दो दिनों के लिए काशी आये थे। आपकी यह यात्रा अपने पुराने पुराने साथियों से मिलने के ही उद्देश्य से हुई थी। यही कारण था कि वे अपने पुराने मित्र तथा सहयोगी बन्धुवर पण्डित विनोदशंकर व्यास जी के यहाँ ठहरे थे।
सन्ध्या को बन्धुवर व्यास जी के भेलुपुर निवास स्थान पर जब मैं उनके दर्शनार्थ पहुँचा, तब सौम्यमूर्ति और क्षीणकाय शिवजी ऊनी कुरता पहने तथा चादर ओढ़े हुए थे। शारीरिक दुर्बलता स्पष्ट, किन्तु साहित्य साधना का तेज उनके मुखमण्डल को दीौप्त कर रहा था। प्रणाम तथा कुशल-मंगल के बाद संस्मरणों की पेटिका खुल गयी। उनमें आचार्य शिवजी के काशी निवास, तत्कालीन साहित्य निर्माण तथा विकास के अनक महत्त्वपूर्ण अध्यायों को स्मृति सजीव हो उठी। इधर साहित्यिक संस्मरणों का अनवरत और सुखद क्रम चल रहा था, जिसमें पण्डित विनोदशंकर जी व्यास भी बीच-बीच में अनेक मधुर प्रसंगों को सुना रहे थे कि भोजन तैयार होने की सूचना मिली। आदरणीय व्यास जी कहने लगे कि शीघ्र भोजन कर लिया जाय। मेैं विदा माँगना ही चाहता था पर मुझे छुट्टी कब मिलने वाली थी । आचार्य शिवजी, भाई आनंदमूर्ति और मैं - सभी साथ बैठे। घण्टों के परिश्रम से व्यास जी ने शिवजी के लिए काशी का प्रसिद्ध मटर- चूड़ा तैयार किया था। अनेक मेवों के साथ ही उसमें मलाई मिलाई गयी थी । मगदल भी काशी की प्रसिद्ध दुकान से मँगाया गया था । जब आचार्य शिवजी ने मटर-चूड़ा और मगदल के स्वाद की प्रशंसा आरम्भ की तब महाकवि 'प्रसाद', कलाविद् रामकृष्णदास जी आदि के साथ ऐसी ही गोष्ठियों की चर्चा चल पड़ी। वार्ता के कारण मन्द गति से आहार ग्रहण हो रहा था। उधर, उनसे बन्धुवर व्यास जी अधिकाधिक ग्रहण करने का आग्रह कर रहे थे। शिवजी अस्वस्थता की बात कह उन्हें विरत कर रहे थे पर व्यास जी भला कब मानने वाले थे। स्वभावतः सभी को नित्य के भोजन से बहुत अधिक ग्रहण करना पड़ा।

भोजन के बाद शीघ्र ही आचार्य शिवजी से विदा लेने को दृष्टि से मैं भी उनके निकट कोच पर बैठ गया। उधर व्यास जी ने सामने कुर्सी पर बैठ छोटे टेबल पर रखे अपने पान के डब्बे को खोला। डब्बे की खोलते ही केसर-कस्तूरी की महक से कमरा सौरभ-युक्त हो गया। गुलाब जल में सिक्त कत्थे की भीनी- भीनी महक चारो ओर फैल गयी। जब व्यास जी ने केसर कस्तूरी-युक्त मगही पान का बीड़ा शिवजी की ओर बढ़ाया, तब सहज स्नेह से उसे जमाते हुए शिवजी मुस्करा उठे ।

हम सभी ने पान जमाये ही थे कि बन्धुवर व्यास जी ने 'प्रसाद' अध्ययन ग्रन्थ को चर्चा छेड़ दी। आचार्य शिवजी ने 'प्रसाद' अध्ययन ग्रन्थ की योजना में पूर्ण सहयोग का वचन दिया। इस सम्बन्ध में साहित्यिकों को भेजे जाने वाले परिपत्र की भी रूप-रेखा आपने बतायी । व्यास जी के आग्रह पर आपने काशी आकर तीन-चार महीने रहने तथा 'प्रसाद' अध्ययन-ग्रन्थ का सम्पादन करने की भी स्वीकृति दे दी। इस चर्चा में रात के ग्यारह बज चुके थे। सबेरे की गाड़ी से आचार्य शिवजी को पटना जाना था। अतः मैंने अतृप्त मन से विदा माँगी ।
सवेरे अपर इण्डिया एक्सप्रेस से आचार्य शिवजी पटना चले गये । आशा थी कि कुछ ही महीनों के बाद आचार्य शिवजी पुनः काशी आयेंगे और उनके सान्निध्य के अनेक अवसर मिलेंगे, पर पटना जाकर वे अनेक बार ऐसे अस्वस्थ हुए कि फिर उनका काशी आना सम्भव हुआ ही नहीं। आचार्य शिवजी की यही अन्तिम काशी यात्रा थी।
आचार्य श्री शिवपूजन सहाय की साहित्यिक साधना में उनके काशी प्रवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। काशी में रहकर जहाँ उनकी अन्तरात्मा आनन्द एवं आत्म-सन्तोष की अनुभूति करती थी, वहीं इस विद्या एवं संस्कृति की नगरी में उन्हें हिन्दी- साहित्य की महान् विभूतियों के सान्निध्य तथा निकट सम्पर्क का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महाकवि 'प्रसाद', प्रेमचन्द, पण्डित केदारनाथ पाठक, आचार्य श्यामसुन्दरदास, पण्डित रामनारायण मिश्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पण्डित भोलानाथ पाठक, कदाविद् राम कृष्णदास, पण्डित दिनोदशंकर व्यास आदि की साहित्यिक मण्डली के मध्य आचार्य शिवजी का अपना विशेष व्यक्तित्व था। महाकवि 'प्रसाद', शिवजी की विद्वत्ता, लेखन एवं सम्पादन के प्रशंसक थे शिवजी की सम्मति उनके निकट अत्यन्त महत्व रखती थी।
द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना तथा उसके प्रकाशन में आचार्य शिवजी का महान् योग था। आपके हो प्रस्ताव पर अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना स्वीकार की गयी। यही नहीं, इस ग्रन्थ के सम्पादन आदि में भी शिवजी ने अनेक कठिनाइयों के रहते हुए भी सहयोग दिया। इस निमित्त आप कई महीनों तक प्रयाग रहे। इस सम्बन्ध में पण्डित रामनारायण मिश्र जी ने द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की भूमिका में आचार्य शिवजी का इस रूप में सादर उल्लेख करते हुए साधुवाद किया है 'जनवरी १९३२ ई० में पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी चौबीस घण्टे के लिए काशी पधारे थे। उस समय काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन पत्र दिया गया था। उनके चले जाने के कई दिन बाद श्री शिवपूजन सहाय ने सभा के मन्त्री से चर्चा की कि सभा को केवल मानपत्र देकर ही न रह जाना चाहिए। आचार्य द्विवेदी जी के अभिनन्दनार्थ एक सुन्दर ग्रन्थ भी निकलना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त अवसर भी आ रहा है, क्योंकि संवत् १९९० के वैशास में वे सत्तर वर्ष में पदार्पण करेंगे। इस समुचित प्रस्ताव का सभा ने सहर्ष और सादर स्वागत किया और इसे कार्यरूप में परिणत करने का आयोजन प्रारम्भ कर दिया।
श्री शिवपूजन सहाय जी ने जो बीज बोया, उसे पल्लवित करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है । लेखों के सम्पादन में उन्होंने पूरी सहायता दी और इस थोड़े समय के अन्दर ही जहाँ तक बन पड़ा है, उन्होंने प्रूफ भी बड़ी सतर्कता और सतत परिश्रम से देखा है।' आचार्य श्यामसुन्दरदास जी सम्बन्धी संस्मरण में आचार्य शिवजी ने स्वयं लिखा है- 'श्री द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन के समय लगभग डेढ़ दो साल तक मुझे पुराकृत पुण्यवश उनके निकट सम्पर्क का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। काशी के यशोधन कलाविद् श्रीमान् रायसाहब ( राय कृष्णदास जी ) और बाबूसाहब के सतत संलग्न रहने से ही वह अद्वितीय ग्रन्थ तैयार हो सका।' निष्कर्ष यह कि आचार्य शिवजी ने दो वर्षों के सतत परिश्रम से द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना स्वीकृत करायी और उस महान् ग्रन्थ के सम्पादन कार्य में भी चिरस्मरणीय योग दिया ।
आचार्य शिवजी ने अपनी साहित्यिक सेवा का श्रीगणेश यद्यपि आरा में मासिक 'मारवाड़ी सुधार-पत्रिका' के सम्पादन से किया और उसके बाद आप 'मतवाला' मण्डल में चले गये, किन्तु काशी में आपको साहित्य के व्यापक तथा विस्तृत कार्य क्षेत्र में सेवा तथा साधना का अवसर मिला। आरा, कलकत्ता, लखनऊ के बाद आप अनेक वर्षों तक स्थिर होकर साहित्य सम्बन्धी कार्य काशी में ही कर सके । प्रारम्भ में आपने पाँच वर्षों तक लगातार पुस्तक भण्डार ( लहेरिया सराय) का साहित्य कार्य सम्पादन किया। पाँचवें वर्ष में तो आपने इसी संस्था से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध मासिक पत्र 'बालक' का भी सम्पादन किया। इस अवधि में 'बालक' के आपने अनेक सुन्दर विशेषांक निकाले, जिनमें 'भारतेन्दु-अंक' विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
सन् १९३२ ई० की ११ फरवरी को काशी से 'जागरण' नामक जो साहित्यिक पाक्षिक पत्र प्रकाशित हुआ, उसके सम्पादक आचार्य शिव जी हुए। इसके संस्थापक तथा संचालक थे पण्डित विनोदशंकर व्यास - शिव जी के अभिन्न मित्र । इस पत्र के प्रथम सम्पादकीय में शिव जी ने लिखा है- 'हममें न कोई चमत्कारपूर्ण प्रतिभा है, न कोई विलक्षण शक्ति है, केवल ओढरदानी विश्वनाथ का अटल भरोसा, जिसकी राजधानी से यह 'जागरण' प्रकट हो रहा है। उसी की प्रेरणा है, वही इसे संभाले ।' 'जागरण' शुद्ध साहित्यिक पत्र था। साहित्यिक दलबन्दी और ईर्ष्या-द्वेष को मिटाकर साहित्य-संसार में पारस्परिक बन्धुत्व और सौहार्द की स्थापना इसका प्रमुख लक्ष्य था ।
'जागरण' का नामकरण महाकवि 'प्रसाद' ने किया था और उसके स्तम्भों का भी । 'जागरण' को शुद्ध साहित्यिक पत्र बनाने में आचार्य शिवजी को वे सदा प्रोत्साहन तथा परामर्श दिया करते थे । 'जागरण' में साहित्य की गतिविधि तथा हिन्दी साहित्य के निर्माताओं के सम्बन्ध में अत्यन्त विशिष्ट सामग्री प्रकाशित हुआ करती थी । हिन्दी-संसार में अपने ढंग का एक ही पत्र होने पर भी यह सामान्य पाठकों में साहित्यिक अभिरुचि के अभाव में आर्थिक दृष्टि से सफल न हो सका। इसलिए, छः महीने के बाद इसे साप्ताहिक के रूप में निकालने का निश्चय हुआ। इसका प्रकाशन सरस्वती प्रेस से प्रेमचन्द जी के सम्पादकत्व में हुआ। आचार्य शिवजी ने पाक्षिक 'जागरण' के अन्तिम अंक में जो सम्पादकीय लिखा, उसमें उक्त बातों का संकेत है-' जिमि नूतन पट पहिरि के नर परिहरे पुरान" - उसी प्रकार 'जागरण' अब जगन्नियन्ता परमात्मा की इच्छा के अनुसार, साप्ताहिक रूप में परिवर्तित होने जा रहा है। अब इसके सम्पादक होंगे हिन्दी के स्वनामधन्य उपन्यासकार श्री प्रेमचन्द जी और प्रकाशक होंगे मुद्रणकला-कुशल श्री प्रवासीलाल जी वर्मा । आशा है, दो यशस्वी कलाकारों के हाथ में रहकर यह विशेष सुन्दर, समुन्नत और सुविख्यात होगा।' प्रसाद जी जब कुछ नई रचना प्रस्तुत करते, तब शिवपूजन जो को सुनाये बिना उन्हें सन्तोष नहीं होता था ।'
काशी में शिवजी का दूसरा मुख्य निवास स्थान था— बुलानाला के निकट काशी के 'महाशक्ति साहित्य-मन्दिर' के मकान में। इसके अध्यक्ष पण्डित हनुमान प्रसाद शर्मा वैद्य शास्त्री थे। इनके यहां भी साहित्य तथा संगीतप्रेमियों का जमघट लगा रहता था। अपने इस निवास स्थान के सम्बन्ध में स्वयं शिवपूजन जी ने लिखा है- "सौभाग्य से यह वैद्यजी भी साहित्यिक ही मिले। इनके यहाँ भी दिन-रात साहित्यिक बैठकबाजी होती रहती थी। बाहर का शायद ही कोई ऐसा साहित्यसेवी आता, जो यहाँ तक न पहुँचता हो ।"
आचार्य शिवजी स्वास्थ्य सुधार के सिलसिले में काशी के क्वींस कॉलेज, जहाँ आजकल संस्कृत विश्वविद्यालय बन गया है, के निकट तेलिया बाग के एक बगीचे में महीनों रहे थे। दुर्भाग्यवश, वहाँ गृह प्रवेश करते ही छत से अचानक गिर गये। दाहिने पैर की हड्डी टूट गयी और महीनों की चिकित्सा के बाद कहीं अच्छे हो सके । शिवजी पुस्तक भण्डार ( लहेरिया सराय ) की पुस्तकों के प्रकाशन तथा तथा सम्पादन के सिलसिले में ज्ञानमण्डल ( आज ) की प्रकाशन संस्था में नित्य ही जाते थे । सम्पादकाचार्य पराड़करजी से उनकी काफी घनिष्ठता थी । घर से कार्यालय आते-जाते पराड़करजी, दण्डपाणि गली तथा भैरवनाथ की चौमुहानी के निकट उनके मकान पर प्रायः जाते थे और सुख-दुःख की बातें हार्दिकतापूर्वक पूछ लिया करते थे । उक्त घटना के विषय में जब उन्हें समाचार मिला, तब वे शिवजी को देखने बगीचे वाले मकान में गये और अनेक प्रकार से सान्त्वना दी । शिवजी के प्रणाम के उत्तर में पराड़करजी ने कहा - "दुर्घटना से बचा हुआ मनुष्य दोर्घायु होता है । तुमसे ईश्वर को अभी बहुत कुछ काम लेना है ।"
आचार्य शिवजी की हार्दिक इच्छा थी पराड़करजी के सान्निध्य में कार्य करने की । 'आज' में लेखादि के रूप में तो वे योग देते ही थे, पर चाहते थे कि स्थायी रूप से उनके साथ कार्य करें। जब पराड़करजी ने महिलोपयोगी पत्रिका 'कमला' का सम्पादन आरम्भ किया, तब उसमें लेखादि से सहयोग माँगा, साथ ही पत्रिका के सम्बन्ध में उनकी सम्मति भी माँगी । आचार्य शिवजी ने पत्रिका का स्वागत करते हुए सहयोग का वचन दिया । इसी प्रसंग में उन्होंने पराड़करजी को जो पत्र लिखा था, उसकी सम्बद्ध पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- "मेरी आभ्यन्तरिक अभिलाषा है कि आपके तत्वावधान में काम करके अनुभव प्राप्त करूँ । पर ऐसा सौभाग्य अभी मुझसे दूर जान पड़ता है ।"
सन् १९५४ ई० की बात है। आचार्य शिवजी के बड़े पुत्र श्री आनन्दमूर्ति का विवाह था । बारात पटना से बनारस आई थी और चेतगंज मुहल्ले में ठहरी थी। हम लोगों को यथासमय निमन्त्रण मिल चुका था। हमारे साथ ही सम्पादकाचार्य पराड़करजी बारात में गये थे । सन्ध्या का समय था। आचार्य शिवजी के स्नेह- सम्बन्ध से काशी के शीर्षस्थ साहित्यिक तथा विद्वानों की मण्डली जमी थी। सम्पादकाचार्य पराड़करजी के अतिरिक्त कलाविद् रामकृष्णदास, पण्डित विनोद- शंकर व्यास, डाक्टर मोतीचन्द्र, डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल, श्रीयुत् रामचन्द्र वर्मा आदि सभी प्रौढ़ एवं प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे। आचार्य शिवजी ने सबसे गले मिल कर जिस हार्दिकता से सभी आगतों का स्वागत किया, वह देखते ही बनता था । बरात जब चलो, तब पराड़करजी और शिवजी अस्वस्थता तथा निर्बलता के कारण पीछे से रिक्शे पर बैठ कर गये। दोनों दिग्गजों को यह जोड़ी देखते ही बनती थी। सड़क के बाद जब गली आ गयी, तब पराड़करजी एक व्यक्ति के सहारे जनवासे में पहुँचे। वहाँ शिवजी ने उनसे कष्ट के लिए विनयपूर्वक क्षमा मांगी। पराड़करजी ने मुस्कराते हुए कहा कि इस आनन्द की वेला में आज कष्ट की कथा क्यों चला रहे हैं ? यही नहीं, शिवजी ने पराड़करजी के साथ ही हम लोगों से भी बार-बार अनुरोध कर कई तश्तरी मिठाई खाने के बाद ही छुट्टी दी। उस समय आचार्य शिवजी जिस प्रसन्नता और पुलक से हमें भरपेट मिठाई खिला रहे थे, उनकी वह मोदमयी मुद्रा कभी विस्मृत न होगी ।
आचार्य शिवजी ने अपना साहित्यिक जीवन पत्रकारिता से ही आरम्भ किया और जीवन भर उसी में संलग्न रहे । अनी सुदीर्घ साहित्यिक साधना के पिछले चालीस वर्षों में उनका सम्बन्ध अल्पाधिक काल के लिए दस पत्र-पत्रिकाओं से रहा। जिन पत्रों से उनका सम्बन्ध रहा, उनके नाम हैं- मारवाड़ी सुधार, मतवाला, आदर्श उपन्यास तरंग, माधुरी, जागरण, गंगा, हिमालय तथा साहित्य | साहित्यिक प्रगति का लेखा-जोखा रखने वाला आप जैसा सम्पादक शयद ही मिले | हिन्दी की नयी-नयी पत्रिकाओं और प्रवृत्तियों का सर्वेक्षण कर उनके गुण-दोषों का निष्पक्ष भाव से रचनात्मक विवेचन एवं उनकी समीक्षा आपकी सम्पादन कला की अपनी विशेषता रही है । आचार्य शिवजी की सम्पादन कला का जो चमत्कार 'मतवाला' मण्डल में दृष्टिगोचर हुआ, उसका ऐतिहासिक महत्त्व है । २३ अगस्त, सन् १९२३ को 'मतवाला' का प्रकाशन हुआ। 'मतवाला' मण्डल के सम्पादकों में महाकवि
आचार्य शिवपूजन सहाय, मुंशी नवजादिक लाल, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' और सेठ महादेव प्रसाद थे। 'मतवाला' के प्रथम अग्रलेख लिखने के समय आचार्य शिवजी को क्या अनुभूति हुई, उसका वर्णन उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है- "२३ अगस्त, बुधवार को लेख लिखने बैठा, कई बार कई तरह से लिखा और फाड़ डाला । बहुत रात बीत गयी। नीद नहीं आती थी । दिमाग चक्कर काट रहा था । मन जहाज का पंछी हो रहा था। एकाएक एक शैली सूझ पड़ी । लिखने लगा । भाव टपकने लगे । धारा चली। मन तृप्त हो गया । अग्रलेख पूरा करके सो रहा। सुबह उठते ही सेठ जी ने माँगा । तब डरते ही डरते हो दिया किन्तु ईश्वर ने लाज रख ली। सबने पसन्द किया। शीर्षक था - 'आत्म 'परिचय' ।"
सन् १९६२ में मैंने आचार्य शिवजी से उनकी साहित्यिक साधना तथा जीवन दर्शन एवं साहित्यिक सिद्धान्त के सम्बन्ध में विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रकट की। इसके उत्तर में आपने जो पत्र लिखा, उसमें हिन्दी जगत् को अत्यन्त मूल्यवान सन्देश है और है हिन्दी संसार की विभिन्न प्रवृत्तियों पर उनकी निर्भीक एवं निष्पक्ष टीका । पत्र का अन्तिम अंश इस प्रकार है-
'अब शरीर काम नहीं करता। आंख भी जवाब दे रही है। अब कपास ओटना छोड़ हरिभजन का ही इरादा है। मगर जब तक पेट विश्राम नहीं लेने देगा तब तक तो चर्खा चलाना ही पड़ेगा - चाहे जैसे-तैसे भी चले । साहित्यिक सेवा तो जीवन में कभी हुई नहीं, उदर-सेवा में ही जीवन समाप्त हो चला । कोई उल्लेखनीय साहित्य सेवा गतवर्ष हुई होती तो मैं उसका विवरण लिख भेजता । किन्तु मेरी दृष्टि में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ ही नहीं जिसका ढिढोरा पीटने का साहस करूँ ।गत वर्ष कुछ फुटकल लेख और संस्मरण अवश्य लिखे गये, पर उनका कोई रचनात्मक महत्त्व मैं नहीं समझता । कृपालु पत्र सम्पादकों का आदेश तो मानना ही पड़ता है । उसी के व्याज से कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हो जाती है ।
जीवन-दर्शन और साहित्यिक सिद्धान्त के विषय में आपका आदेश भी कृपा पत्र में अंकित है। भला एक हाथ से कमाकर दूसरे हाथ से खाने वाले मसिजीबी का जीवन-दर्शन ही क्या ? हाँ, जीवन का सार यही अनुभव है कि साहित्य-क्षेत्र मेपूरे सन्तोष के साथ आना और खटना चाहिए। सुखभोग की आशा से जो आवेंगे, वे खिन्न होंगे। निस्पृह भाव से साहित्य-सेवा करने के लिए पर्याप्त धैर्य, सहिष्णुता और अध्यवसाय की आवश्यकता है । दूसरे किसी साहित्यिक बन्धु का उत्कर्ष देखकरजो ईर्ष्याग्नि में जलते हैं वे स्वयं भी यश के भागी नहीं होते ।
जो कमाऊ खाऊ के रूप में जीता है उसके जीवन-दर्शन में संसारी लोगों के लिए कुछ तत्त्व नहीं । फिर साहित्यिक सिद्धान्त की बात भी इस युग में बड़ी अटपटी है । सिद्धान्त निबाहने के लिए घोर कठिनाइयों और असुविधाओं को झेलना पड़ता है । सिद्धान्त पर दृढ़ रहने के लिए दुःख दारिद्र्य को आजीवन गले लगाना पड़ता है । इस विषय के निजी अनुभव भी सहसा प्रकाशित करने योग्य नहीं होते । आजकल प्रायः सभी साहित्यिक संस्थाएँ राजनीतिक दलबन्दी और गुटबन्दी का अखाड़ा बन रही हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर गद्य-पद्य रचनाओं में घोर अराजकता तथा निरंकुशता व्याप्त हो रही है। नये-नये अनोखे प्रयोगों के दोर बेधड़क चल रहे हैं- ऐसी स्थिति में साहित्यिक सिद्धान्त की चर्चा करना असमय का बेसुरा राग अलापना है। तब भी यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि हिन्दी बड़े वेग से उन्नति पथ पर अग्रसर हो रही है । धन्यवाद !"
सप्रेम आपका
शिवपूजन सहाय
प्रस्तुति : मंगलमूर्ति आभार : श्रीविनय श्रीवास्तव
चित्र (C) आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास
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Friday, August 18, 2023

आ.शिवपूजन सहाय जयंती :१३० 

गत ९ अगस्त को आ. शिवजी की १३० वीं जयंती थी | अनेक संस्थाओं ने विभिन्न स्थानों में इस अवसर पर जयंती समारोह  का आयोजन किया था | संयोग से मैं उस दिन गोवा में था जहां पिछले मई माह से मैं अपनी अस्वस्थता के कारण स्वास्थ्य-लाभ की दृष्टि से वहाँ था | गोवा वि.वि. के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक डा. बिपिन तिवारी ने विभाग में आचार्यजी की जयंती मनाने का आयोजन किया था | कुछ ही दिन पूर्व (३१ जुलाई को) प्रेमचंद की जयंती पड़ी थी | आ. शिवजी उनसे १३ साल छोटे थे | साहित्य के दोनों ही महारथी एक-दूसरे के अभिन्न मित्र भी रहे थे | अतः आ. शिवजी की जयंती के दिन इन दो साहित्य-मनीषियों का एक साथ स्मरण सर्वथा समीचीन था | डा. तिवारी ने इसी विशेष अवसर पर एक व्याख्यान के लिए मुझे आमंत्रित किया था | व्याख्यान का विषय मैंने प्रेमचंद और आ. शिवजी की कथा-भाषा सुझाया था और उस अवसर पर मैंने पूर्वे में लिखे अपने तद्विषयक व्याख्यान को आधार बनाकर मुक्त चर्चा करने का प्रस्ताव्प्रस्तव रखा था | यहाँ प्रस्तुत है वही लिखित व्याख्यान जिस पर उस दिन किंचित विस्तार से मैंने वहां चर्चा की| उसी अवसर के चित्र भी यहाँ देखे जा सकते हैं |


 प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय : कथा-भाषा का प्रश्न                

जब कोई लेखक अपनी किसी कृति के कारण साहित्य-दीर्घा में स्थापित हो जाता है, तब जैसे-जैसे युगानुसार साहित्य कि प्रगति होती है, वह लेखक सामान्यतः अपनी उस कृति के साथ एकाकार हो जाता है | अर्थात आज जब हम प्रेमचंद अथवा शिवपूजन सहाय कि चर्चा करते हैं तो प्रायः उनके जीवन प्रसंगों से लगभग अलग उनकी कृतियों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं | जब लेखक का जीवन लोकान्तरित हो चुका होता है तब उसका व्यक्तित्त्व उसकी कृतियों में ही जीवित रहता है | लेकिन आज हिंदी के जिन दो कथा-लेखकों का हम स्मरण कर रहें हैं, उनके प्रसंग में हम उस शहर और उस वर्ष पर भी ध्यान केन्द्रित करेंगे जहाँ कथा-भाषा के प्रसंग में हम उन दोनों कथा-लेखकों कि उन दो कृतियों पर दृष्टि-पात करेंगे जो एक ही शहर में लगभग एक ही समय लिखी गयीं, और एक-दूसरे के आस-पास ही प्रकाशित भी हुईं | वह शहर था लखनऊ और वह वर्ष भी १९२४ था – आज से ठीक लगभग 100 साल पूर्व | और ये दो कृतियाँ थीं प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ और शिवजी का अपने समय में लगभग  उतना ही प्रसिद्ध उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ | आज इसी साहित्यिक संयोग पर हम विचार करेंगे – जिसके केंद्र में होगी हिंदी में धीरे-धीरे अपना स्वरुप निर्धारित कर रही उपन्यास की विधा, जिसका शिल्प  उन दिनों उसके साथ ही निर्मित हो रही ‘कहानी’ विधा के शिल्प से  बहुत भिन्न नहीं था, और यही बात काफी हद तक उस समय विकसित हो रहे समग्र कथा-साहित्य में  इन दोनों विधाओं की कथा-भाषा पर भी लागू होती दीखती है | एक और बात की ओर ध्यान रखना आवश्यक है  कि उस समय बीसवीं सदी प्रारम्भ में  हिंदी की इन दोनों विधाओं के विकास में उर्दू-फारसी कथा-परंपरा के साथ-साथ तत्कालीन अंग्रेजी और बंगला कथा-साहित्य का स्पष्ट प्रभाव दिखाई दे रहा था

यह प्रसंग वर्ष १९२४ का है | लखनऊ का नवल किशोर प्रेस तब अखिल भारत का संभवतः सबसे बड़ा प्रकाशन संस्थान था, और उसी समूह के दुलारे लाल भार्गव, जो हिंदी साहित्य के प्रेमी थे, उनके सम्पादन में  उसी समय लखनऊ से एक साहित्यिक पत्रिका निकली थी ‘माधुरी’ | इससे पूर्व  आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के गौरवशाली सम्पादन में  दो दशकों के अपने नियमित प्रकाशन से  ‘सरस्वती’ ने जैसे साहित्यिक पत्रकारिता की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी | लखनऊ की इसी ‘माधुरी’ के सम्पादन विभाग में, इसी वर्ष १९२४ में, पहले शिवपूजन सहाय और उसके कुछ महीनों बाद प्रेमचंद  लगभग एक साथ शामिल हुए | शिवजी कलकत्ता से  १९२३ से लिखे जा रहे  और वहीँ अर्द्ध-मुद्रित  अपना उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ लेकर लखनऊ आये और प्रेमचंद आये अपना उपन्यास ‘रंगभूमि’ लेकर, जिसे दुलारेलाल छापना चाहते थे | यह सारा साहित्यिक घटना-क्रम लखनऊ में अप्रैल, १९२४ से जनवरी, १९२५ के बीच का रहा | यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रेमचंद ने अपना यह उपन्यास, जो उन्होंने पहले उर्दू में ‘चौगाने-हस्ती’ नाम से लिखा था, लेकिन जिसे अब वे हिंदी का अच्छा पाठक-प्रसार देखकर हिंदी में प्रकाशित करना चाहते थे, और जिसे उन्होंने पहली बार अपनी कलम से हिंदी में दुबारा लिखा था, जो बिलकुल उर्दू का हिंदी में सीधे-सीधे अनुवाद भी नहीं था, लेकिन जिस पर अब भी उर्दू कथा-भाषा की स्पष्ट छाया मौजूद थी; और शायद इसीलिए प्रेमचंद की सहमति से ही  दुलारेलाल ने ‘रंगभूमि’ को शिवजी को भाषा-संशोधन-परिमार्जन के लिए दिया था, जिनको अपने ‘मतवाला’-सम्पादन के कारण हिंदी के एक सुयोग्य सम्पादक के रूप में तब तक पर्याप्त ख्याति मिल चुकी थी | प्रेमचंद और शिवजी दोनों एक-दूसरे से तबतक पूर्ण परिचित हो चुके थे | प्रेमचंदजी से शिवजी कि पहली भेंट कलकत्ता में १९२१ में ही हो चुकी थी | प्रेमचंद वाले अपने विशेष महत्त्वपूर्ण संस्मरण में शिवजी ने लिखा है –

दूसरी बार (१९२४ में) उनसे घनिष्ठता बढाने का सुयोग मिला लखनऊ में | मैं ‘माधुरी’ के सम्पादन विभाग में काम करता था | कुछ दिनों बाद वे भी ‘माधुरी’ के सम्पादक होकर आये | उसी समय उनका ‘रंगभूमि’ नामक बड़ा उपन्यास वहाँ छपने के लिए आया था | उसकी पूरी पांडुलिपि उन्होंने पहले-पहल देवनागरी लिपि में अपनी ही लेखनी से तैयार की थी | श्री दुलारेलालजी भार्गव ने उसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने के लिए मुझे सौंपी | उस समय ‘माधुरी’-सम्पादन-विभाग अमीनाबाद पार्क से उठकर लाटूश रोड पर आ गया था |.....वह नागरी लिपि में लिखा पहला उपन्यास दर्शनीय था | शायद ही कहीं लिखावट की भूल हो तो हो | भाषा तो उनसे कोई बरसों सीखे | लेखनी का वेग ऐसा कि संयोगवश ही कहीं कट-कूट मिले | कथा-वस्तु की रोचकता लिपि-सुधार में बाधा देती थी | घटना-चक्र में पड़ जाने पर सम्पादन शैली के निर्धारित नियम भूल जाते थे |....

आश्चर्यजनक है कि शिवजी और प्रेमचंद का महीनों तक एक साथ ‘माधुरी’ के सम्पादकीय विभाग में रहने, और ‘रंगभूमि’ के शिवजी द्वारा संपादित होने का यह पूरा प्रसंग  जिसका शिवजी के संस्मरण में अविस्मरणीय चित्रण है -  उसका अमृत राय के ‘कलम का सिपाही’ में कोई चर्चा ही नहीं है | अमृत राय पटना में कई बार मेरे पिता से मिलने आये थे, प्रेमचंद की चिट्ठियां मांग कर ले गए थे, जिसे ‘चिट्ठी-पत्री’ में छापा भी था, फिर प्रेमचंद का नया साहित्य ८ या 10 खंडो में प्रकाशित होने पर – जिसमें ‘कलम का सिपाही’ भी था – उसे लेकर मेरे पिता को भेंट करने और उसकी बिहार में खरीद की सिफारिश करने पटना आये थे, जब मैं वहीं था | लेकिन ‘कलम का सिपाही’ में, लखनऊ वाले विवरण में भी, कहीं एक बार भी शिवपूजन सहाय का नाम नहीं आया है, बल्कि ‘रंगभूमि’ के सम्पादन की कोई चर्चा ही उसमें नहीं हुई है | मदन गोपाल ने अपनी जीवनी में ज़रूर इस प्रकरण का हल्का-सा उल्लेख किया है | आज यहाँ इसका उल्लेख इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि आज की इस चर्चा का पूरा प्रसंग ‘रंगभूमि’-सम्पादन के उसी कथा-भाषा प्रकरण से जुड़ा है | क्या प्रेमचंद की कथा-भाषा की चर्चा में ‘रंगभूमि’ के भाषा-सम्पादन के इस पक्ष पर गंभीरता से विचार नहीं होना चाहिए? लेकिन इस पूरी चर्चा के प्रसंग में यह याद रखना ज़रूरी है  कि प्रेमचंद शिवजी से उम्र में १३ साल बड़े थे, और एक प्रकार से शिवजी की ज्येष्ठ पीढी के साहित्यकार थे | क्योंकि शिवजी की पहली रचना जब १९१२ में छपी थी, तबतक प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य में एक विख्यात कथाकार के रूप में स्थापित हो चुके थे | कलकत्ते में जब पहली बार शिवजी से उनकी भेंट हुई थी, तब तक प्रेमचंद के कई कहानी-संग्रह और कम-से-कम तीन उपन्यास हिंदी में प्रकाशित हो चुके थे, जबकि शिवजी अभी अपना साहित्यिक जीवन शुरू ही कर रहे थे, जो पहली बार १९२३ में ‘मतवाला’ के सम्पादन के साथ हिंदी-जगत में सुख्यात हुआ था |

यह भी ध्यान में रखना होगा कि प्रेमचंद का शुरूआती लेखन उर्दू में होता रहा, जो पहले पहल उनके उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोजे-वतन’ के प्रकाशन के साथ सामने आया था | और जब १९२० के आसपास वे अंततः उर्दू से हिंदी की ओर लौटे  तो स्वाभाविक रूप से उर्दू-लेखन का वह लम्बा अभ्यास उनकी हिंदी पर अपनी गहरी छाप  डाल चुका था | प्रेमचंद और शिवजी - दोनों की उम्र में तेरह साल का यह अंतर, फिर शिवजी का १९१० में संकल्पपूर्वक उर्दू-फारसी की पढ़ाई छोड़कर हिंदी-लेखक बनने का निर्णय, और उन्हीं दिनों उर्दू-फारसी से हिंदी को मुक्त करने का चल रहा उग्र  आन्दोलन, ‘सरस्वती’ में हिंदी को उर्दू-फारसी से मुक्त  एक विकसित और मानक रूप देने का आचार्य द्विवेदीजी का संकल्पित प्रयास - इन सभी बातों को इस प्रसंग में हमें ध्यान में रखना होगा | यही समय था जब हिंदी कथा-साहित्य और उसकी कथा-भाषा का एक साथ निर्माण हो रहा था जिसमें हिंदी को उसके मौलिक रूप में सजाने-संवारने का एक विशेष आग्रह था | शिवजी जब उर्दू-फारसी से छूटकर हिंदी की ओर आये  तब उनकी हिंदी सायास तत्सम-बहुल अनुप्रास-अलंकृत रूप लेकर उभरी, जैसा उस समय के अन्य हिंदी लेखकों में भी दिखाई देता है | शिवजी की शुरू (१९१४) की कहानी ‘तूती-मैना’ की कथा-भाषा की तुलना  प्रेमचंद की उसी के आस-पास प्रकाशित कहानियों – ‘सौत’, ‘पञ्च परमेश्वर’ और ‘नमक का दारोगा’ – की कथा-भाषा से करने पर यह अंतर अधिक स्पष्ट हो जाता है दोनों ही कथा-लेखकों में तेरह साल का उम्र का अंतर  और उर्दू से हिंदी की ओर वापसी का स्वाभाविक उत्प्रेरण, उनके कथा-लेखन और कथा-भाषा में किस तरह प्रतिच्छवित हुआ  इसकी तुलना दोनों की कथा-भाषा के बाद के विकास में देखी जा सकती है | और यह प्रश्न तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब इन दो लेखकों की  कथा-भाषा का परस्पर आग्रह और संस्कार  शिवजी द्वारा प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ के परिमार्जन द्वारा प्रेमचंद की कथा-भाषा को एक ऐसा स्वरुप प्रदान करता है  जो प्रेमचंद के बाद के उपन्यासों में भी अपना स्वाभाविक प्रवाह बनाए रखता है | किसी हद तक यह कहना अनुचित नहीं होगा कि प्रेमचंद कि कथा-भाषा के स्वरुप-स्थिरीकरण में शिवजी का महत्त्वपूर्ण योगदान है, और निश्चय ही यह भाषा-शोध का एक अच्छा विषय होगा |                        

कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद-साहित्य के बहुत गंभीर अध्येता हैं | उनकी प्रेमचंद की कथा-भाषा पर पाठ-शोध की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है ‘प्रेमचंद और शतरंज के खिलाड़ी’, जो उन्होंने लोथार लुत्से के साथ लिखी है | उसमें उन्होंने उस कहानी के तीन पाठों का तुलनात्मक विश्लेषण किया है – ‘ज़माना’ में प्रकाशित उसके उर्दू पाठ, ‘माधुरी’ (अक्टूबर, १९२४) में प्रकाशित उसका हिंदी पाठ, और प्रेमचंद की हस्तलिपि में लिखी उसकी मूल हिंदी पांडुलिपि का पाठ -  जिसका पूरा चित्र भी उन्होंने उस पुस्तक में प्रकाशित किया है | ‘माधुरी’ में प्रकाशित पाठ और मूल पाण्डुलिपि के विषय में उन्होंने लिखा है कि प्रकाशित कहानी ‘शतरंज के खिलाडी’ के अंतिम प्रकाशित पाठ का सम्पादन दुलारेलाल ने किया था, जो स्पष्टतः भ्रांतिपूर्ण है, क्योंकि प्रेमचंद की कथा-भाषा के सम्पादन का यह कार्य दुलारेलाल की क्षमता के बाहर था | शिवजी को लिखे दुलारेलाल के पत्रों की भाषा देखने से तो यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है | फिर उस समय शिवजी ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में इसी भाषा-सम्पादन के लिए बुलाये गए थे, और उसी समय (अप्रैल से सितम्बर, १९२४ में) वे वहां रह कर ‘रंगभूमि’ का सम्पादन कर रहे थे | फिर उस कहानी और ‘रंगभूमि’ की प्रकाशित कथा-भाषा को मिला कर देखने पर, और गोयनका के पाठ-शोध को ध्यान से देखने पर वह तुलनात्मक अध्ययन तो  शिवजी के अत्यंत सतर्क सम्पादन-कार्य को ही उजागर करता है | अर्थात, गोयनका द्वारा ‘ शतरंज के खिलाड़ी’ के हिंदी प्रकाशित पाठ का पाठ-शोध जहाँ एक तरफ शिवपूजन सहाय के सम्पादन-कार्य का सूक्ष्म दिग्दर्शन कराता है, वहीं दूसरी तरफ वह उसी समय उन्हीं के द्वारा चल रहे ‘रंगभूमि’ के सम्पादन की पूरी तफसील भी प्रच्छन्न रूप से पूरी तरह उजागर कर देता है | यहाँ उस सूक्ष्म विश्लेषण को विस्तार में बताना अनावश्यक है, और संभव भी नहीं, पर यहाँ यह रेखांकित कर देना ही पर्याप्त है कि गोयनका का ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का पाठ-शोध वास्तव में शिवजी द्वारा ‘रंगभूमि’ के सम्पादन का प्रकार और आयाम कैसा था, इसे ही विगोपित करता है | मैंने जब गोयनकाजी का ध्यान इस और खींचा तो वे इस विषय में मेरे साथ पूरी तरह सहमत भी हुए, और कहा कि इस तरफ तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था !

निष्कर्ष यह, कि गोयनका द्वारा ‘शतरंज के खिलाडी’ का पाठ शोध वह स्पष्ट संकेत है जो हमें भाषा-वैज्ञानिक रूप में साफ़ दिखा देता है कि शिवजी द्वारा ‘रंगभूमि’ के सम्पादन का असली स्वरुप कैसा था | शिवजी  ने अपने संस्मरण में जब लिखा कि  ‘भाषा तो उनसे कोई बरसों सीखे’ तो यह एक वाक्य एक साथ कई बातों की ओर संकेत करता है, जिसमें यह इशारा भी है कि प्रेमचंद उनसे पहले की  पीढ़ी के स्थापित कथाकार थे, और शिवजी केवल विकसित हो रही हिंदी की कथा-भाषा की दृष्टि से उनकी भाषा का परिमार्जन कर रहे थे, और उस पर जो अभ्यस्त उर्दू-लेखन का बोझ था उसे हल्का कर रहे थे | ‘रंगभूमि’ को पढने पर आज भी यह स्पष्ट दिखाई देता है | शिवपूजन सहाय प्रेमचंद की कथा-भाषा के प्रवाह और उसकी जादुई रोचकता की भी बात करते हैं, जो शिवजी के भाषा-परिमार्जन से बहुत ऊपर की कलात्मक वस्तु थी | इस कार्य में शिवजी तो साहित्य-मंदिर के उस सेवक की तरह थे जो आराध्य प्रतिमा के चारों और की उतरी हुई बासी फूल-पत्ती की सफाई-धुलाई करके, नए फूलों से प्रतिमा की नई सजावट कर रहा हो | शिवजी का सम्पादन कहीं प्रतिमा के मूल सौन्दर्य से छेड़छाड़ नहीं करता, वह केवल बहुत कलात्मक ढंग से उसके शोभा-श्रृंगार की अभिवृद्धि ही करता है, जिससे प्रतिमा का सौन्दर्य और उद्भासित हो जाय | उनका सारा सम्पादन कार्य इसी का प्रमाण है |  आचार्य द्विवेदीजी के सम्पादन में जहाँ भाषा की सादगी और शुद्धता पर जोर होता था, शिवजी के सम्पादन में लेखन के सम्पूर्ण कलात्मक सुष्ठुता का सौन्दर्य उभरता था | ‘रंगभूमि’ की मूल पांडुलिपि का बहुत खोजने पर भी मुझे पता नहीं चला, लेकिन गोयनका द्वारा ही संपादित उसके मूल संस्करण का पुनर्प्रकाशित संस्करण, जो इधर सस्ता साहित्य मंडल से छप कर आया है (जिसमें भी मुद्रण की कई नई भूलें दिखाई देती हैं) उसको देखने से मुझे अपने इन निष्कर्षों की पुष्टि होती दिखाई देती है | कुछेक उद्धरण वहीँ से शिवजी के सम्पादन की विशिष्ठता को उजागर करते लगते हैं, जैसे – “यहाँ के न्यायालयों से न्याय की आशा रखना चिड़िया से दूध निकालना है|” यह प्रेमचंद का अपना टकसाली वाक्य है, जिसमें यह मुहावरा हिंदी का नहीं है, और जिसे शिवजी ने बिलकुल नहीं छेड़ा है | अथवा दीवान साहब की यह पात्रोचित प्रसंगानुकूल प्रेमचंद की टकसाली उर्दू-भाषा भाषा –“हम सब इस हरमसरा के हब्शी ख्वाजासरा हैं|” इसमें भी कहीं  कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है | या यह वाक्य – “उसकी निगाह में धार्मिकता से बढ़कर कोई अवगुण न था”  जहाँ शिवजी के कोमल स्पर्श कि संभावना स्पष्ट दिखाई देती है  जिसमें ‘निगाह’ प्रेमचंद का अपना शब्द है, और ‘अवगुण’ शिवजी का शब्दांतर हो सकता है |

शिवजी के सम्पादन की गुणवत्ता को सम्मानित करते हुए प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ की जो पहली प्रति शिवजी को भेंट में भेजी थी, उसके साथ संलग्न २२ फरवरी, १९२५ के पत्र की उनकी यह पंक्ति विशुद्ध प्रेमचंद की गंगा-जमुनी भाषा-शैली की परिचायक है – “ लीजिये जिस पुस्तक पर आपने कई महीने दिमागरेज़ी  की थी वह आपका एहसान अदा करती हुई आपकी खिदमत में जाती है और आपसे विनती करती है कि मुझे दो-चार घंटों के लिए एकांत का समय दीजिये और तब आप मेरी निस्बत जो राय कायम करें वह अपनी मनोहर भाषा में कह दीजिये |” यही प्रेमचंद की मौलिक भाषा-शैली थी, उर्दू के गुलाबी रंग में रंगी हुई, जो उनके कथेतर गद्य में हर जगह  नमूदार होती है, और चूंकि  शिवजी उर्दू-फारसी का भी उतना ही गहन ज्ञान रखते थे, इस लिए प्रेमचंद कि कथा-भाषा में उर्दू-फारसी के स्वाद को अच्छी तरह पहचानते हुए उन्होंने उस विशिष्ट शैली से कहीं छेड़-छाड़ नहीं की है, इसे ‘रंगभूमि’ को इस दृष्टि से ध्यान से पढ़ कर समझा जा सकता है |

कथा-भाषा के प्रसंग में हिंदी के दो प्रारम्भिक कथा-लेखकों का परस्पर भाषिक सम्बन्ध कैसा था, और उसमें उर्दू-फारसी से हिंदी की ओर वापसी से कैसा परिवर्त्तन आया, तथा एक बड़े उर्दू-दां- कथा-लेखक की कथा-भाषा का दूसरे कनीय हिंदी-प्रधान लेखक के सम्पादन से कैसा स्वरुप-निर्धारण हुआ इसकी थोड़ी चर्चा मैंने अभी की, यद्यपि इस पर अभी और सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए | लेकिन प्रेमचंद ने भाषा-परिष्कार के उस ऋण को कैसी शालीनता से स्वीकार किया यह भी हमने उनके पत्र में देखा | अब कथा-भाषा के प्रसंग में ही मैं आपका ध्यान एक दूसरे पक्ष की ओर आकृष्ट करना चाहूँगा – शिवजी के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ और उसकी विशिष्ट आंचलिक कथा-भाषा की ओर | यद्यपि आज की इस चर्चा की सीमा में इस पर भी विस्तार से विचार करना संभव नहीं है |

शिवजी जब असहयोग आन्दोलन में प्रेमचंद की ही तरह सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर साहित्यिक पत्रकारिता में आजीविका की तलाश में १९२१ में कलकत्ता पहुंचे थे, तो सबसे पहले तो उन्होंने अपनी तब तक की लिखी, और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी १० कहानियों का संग्रह ‘महिला-महत्त्व’ १९२२ में प्रकाशित किया जिसकी कथा-भाषा में स्पष्टतः उर्दू-फारसी से परहेज करते हुए शुद्ध तत्समी हिंदी की ओर लौटने का आग्रह था, जैसा प्रेमचंद की उसी दौर में लिखी हिंदी कहानियों में बिलकुल नहीं था | और जब कलकत्ता ‘मतवाला’ में ही रहते हुए शिवजी ने अपने पूर्व-संचित विचार के अनुसार अपने देहाती भाइयों के लिए उन्हीं की बोलचाल और समझने की भाषा में एक उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ अपने एक भोजपुरी-भाषी मित्र-प्रकाशक के उत्प्रेरण से लिखना शुरू किया, और उसके ४-५ फर्में वहां छपने भी लगे, तभी कुछ कारणों से शिवजी को ‘मतवाला’ छोड़कर अप्रिल, १९२४ में लखनऊ की ‘माधुरी’ में आना पड़ा | ‘देहाती दुनिया’ के वे ५ छपे फर्में  शिवजी अपने साथ लेते आये  और लखनऊ में रहते हुए उस उपन्यास को दुबारा शुरू से पूर्णतर रूप में लिखने लगे | लेकिन सितम्बर,

१९२४ में लखनऊ में जब दंगा हुआ तब शिवजी अमीनाबाद के जिस होटल में रहते थे वहां कमरे में अपना सारा सामान, जिसमें ‘देहाती दुनिया’ की वह नई पूर्णतर पांडुलिपि भी थी, छोड़-छाड़ कर भागे और काशी होते हुए अपने गाँव चले गए | बाद में होटल से शिवजी का वह सारा सामान - जिसमें ‘देहाती दुनिया’ की वह नई पांडुलिपि और उनकी तब तक की लिखी बहुत-सी डायरी आदि साहित्यिक सामग्री थी – दुलारेलाल ने मंगवा ली, लेकिन जो शिवजी को कभी वापस नहीं मिल सकी | शिवजी अक्टूबर में फिर लखनऊ लौटे लेकिन थोड़े दिन बाद ही दुलारेलाल के व्यवहार से असंतुष्ट होकर कलकत्ता लौट गए, जहाँ से मई, १९२६ में वे काशी आये और तीसरी बार फिर ‘देहाती दुनिया’ का अंतिम ड्राफ्ट पूरा किया जो अंततः ‘पुस्तक-भण्डार’ लहेरियासराय से प्रकाशित हुआ | ध्यातव्य है कि बाद में दुलारेलाल के व्यवहार से क्षुब्ध होकर प्रेमचंद भी काशी आ गए, और १९२६ से १९३३ के बीच  एक बार फिर प्रेमचंद और शिवजी काशी में निरंतर घनिष्ठ संपर्क में रहे, जैसा शिवजी के संस्मरणों से ज्ञात होता है |

मैंने प्रारंभ में कथा-भाषा के प्रसंग में हिंदी के दो कथाकारों – प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय की लगभग एक ही समय और एक ही स्थान पर लिखी गयी दो कृतियों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट किया था | शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ वह दूसरी कृति है जो लगभग ‘रंगभूमि’ के साथ ही लिखी गयी और प्रकाशित भी हुई | कथा-भाषा के प्रसंग में उस छोटे से उपन्यास  पर विचार करने के लिए कुछ बिंदु हैं जिन पर अब मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा |

पहला, ये दोनों औपन्यासिक कृतियाँ हिंदी-साहित्य के कथा-साहित्य के प्रारम्भिक निर्माण काल में, एक ही समय में, दो परिचित, एक-साथ रहने वाले, दो हिंदी लेखकों द्वारा, एक ही विधा में लिखी जाने के बावजूद, अपने शिल्प और अपनी कथा-भाषा में बिलकुल भिन्न हैं | यहाँ यह भी रेखांकित करना आवश्यक है कि शिवजी उसी समय प्रेमचंद कि कथा-भाषा का परिमार्जन भी कर रहे थे, किन्तु जहां एक ओर वे प्रेमचंद की कथा-भाषा से ‘सीखने’ कि बात कर रहे थे, वहां दूसरी ओर ‘देहाती दुनिया’ के लिए एक विशेष प्रकार की कथा-भाषा भी आविष्कृत कर रहे थे, जो ‘रंगभूमि’ की भाषा से बिलकुल भिन्न थी | दोनों उपन्यासों की चित्रभूमि गाँव ही थे, लेकिन दोनों के परिवेश, उनका कथा-शिल्प, उनका चरित्र-संयोजन, उनका अभिप्रेत आदि सब कुछ एकदम भिन्न थे | कथा-भाषा के प्रसंग में यहाँ एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह था कि जहाँ प्रेमचंद की कथा-भाषा नगरीय पाठक-वर्ग के लिए लिखी जा रही थी, और उसका सारा सन्देश भी उसी नगरीय पाठक-वर्ग को संबोधित था, शिवजी के उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ की विशिष्ट कथा-भाषा तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ की तरह प्रमुखतः ऐसे  ग्रामीण श्रोता-वर्ग के लिए सृजित हुई थी जिसको “ठेठ देहाती निरक्षर हलवाहे और मजदूर भी उसकी हरेक बात को अच्छी तरह समझ जाएँ” | अपनी उसी भूमिका में शिवजी आगे लिखते हैं : ‘भाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है |....गाँव-गवंई में यह खूब पसंद किया गया |”

(कथा-भाषा के इस प्रसंग में यहाँ 'देहाती दुनिया' के दूसरे परिच्छेद 'बुधिया का भाग्य' का एक छोटा सा उद्धरण द्रष्टव्य है, जिसकी भाषा 'रंगभूमि' की कथा-भाषा से न सिर्फ बिलकुल भिन्न है -  ठेठ देहात की देसज मुहावरों से पगी निम्न वर्ग की औरतों वाली भाषा - बल्कि उसमें ग्राम्यांचल को अभिव्यंजित करने वाली एक ऊर्जा है | कथा-प्रसंग यह है कि ज़मींदार बाबू रामटहल सिंह की रखैल बुधिया अपना दुखड़ा खेदू चमार की औरत सोनिया से साझा कर रही है, जिसके जवाब में सोनिया उससे कहती है :

"बहिन, बड़े आदमी किसी के नहीं होते | जब देखा की तुम्हें तीन लड़कियां ही गयीं, उन्हें दान-दहेज़ देकर ब्याहना पड़ेगा, तब कन्नी दबाने लगे | जब तक हाड में हरदी नहीं लगी थी तब तक जो कुछ रही सो बुधिया | और अब मुहंझौंसे मनबहाल की बेटी के सिवा किसी को पासंग के बराबर भी नहीं जानते |...सुना है कि नहीं? आते ही सास से झोंटा-झोंटी होने लगी |...भिखमंगे बाप की बेटी ठहरी , बड़े घराने में पड़ते ही उतान हो गयी | मगर जब ब्रह्म पिचास नाच नचाने लगेगा तब सब गुमान और टिमाक तेलहंडे पर चला जायेगा |")     

निश्चय ही जहाँ प्रेमचंद कि कथा-भाषा, हिंदी की एक टकसाली कथा-भाषा बनने के प्रयास मेंउर्दू से चलकर, शिवपूजन सहाय के सहयोग से, अपने को हिंदी में संस्कारित कर रही थी, वहीँ शिवपूजन सहाय हिंदी कथा-साहित्य में एक ऐसी ग्रामीण-जन-सुलभ भाषा का सृजन कर रहे थे जो अपनी मिसाल खुद बन कर रह गयी | उसका फिर आगे कोई दूसरा उदाहरण सामने नहीं आ सका | इस दृष्टि से ‘देहाती दुनिया’ की कथा-भाषा की तुलना आगे उसी मॉडल पर लिखे गए अन्य आंचलिक उपन्यासों - ‘मैला आँचल’, ‘बलचनमा’ आदि से करने पर ‘देहाती दुनिया’ की कथा-भाषा की मौलिकता और स्पष्ट हो सकेगी | रचना के पाठक-वर्ग को सामने रख कर रचना की भाषा के निर्माण का ‘देहाती दुनिया’  हिंदी में शायद अकेला प्रायोगिक उदाहरण है | मैं यहाँ जो कह रहा हूँ, उसकी तस्दीक ‘देहाती दुनिया’ को दुबारा गहराई से पढ़ कर किया जा सकता है | यह भी मनोरंजक है कि जहाँ एक ओर शिवजी प्रेमचंद कि कथा-भाषा का हिंदी-संस्कार कर रहे थे, वहीँ वे हिंदी में एक सर्वथा नये प्रकार की ग्रामोन्मुखी कथा-भाषा का सृजन भी कर रहे थे | प्रेमचंद ने शिवजी की जिस ‘मनोहर’ भाषा का हलके से अपने पत्र में ज़िक्र कर रहे थे, वह एक संकेत था कि हिंदी के दो प्रतिष्ठित कथा-लेखक एक दूसरे के भाषा-सामर्थ्य का कितना सम्मान करते थे |

लेशमात्र स्पर्द्धा कहीं थी भी तो कितनी प्रच्छन्न और अलक्षित थी, और कथा-साहित्य के विकास के लिए एक स्तरीय और मानक कथा-भाषा और उसके नगरीय और ग्रामीण प्रकार के निर्माण के प्रति कैसा समर्पण-भाव था | वे दिन थे जब साहित्य-सृजन को एक मिशन की तरह देखा जाता था – चाहे वह कथा-साहित्य के लेखन में हो, पत्रकारिता में हो, अथवा किसी साहित्यिक विधा में हो | कहीं कुछ कटुता भी थी तो कितना मर्यादापूर्ण उसका व्यवहार था | शिवपूजन सहाय ने अपने संस्मरणों में उस युग का जैसा जीवंत चित्र खींचा है - ‘बच्चनजी’ के शब्दों में – “खेद के साथ कहना पड़ता है, (कि वह युग) अपनी सदाशयता, आदर्शवादिता तथा रोचकता लिए सदा के लिए चला गया | मेरा तो विचार है कि हिंदी के कथा-साहित्य में कथा-भाषा के निर्माण और विकास पर एक संगोष्ठी अलग से आयोजित की जानी चाहिए | आज की इस चर्चा में प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय के स्मरण के साथ इसी प्रसंग को उजागर करने का एक छोटा-सा विनम्र प्रयास किया गया है | आशा की जानी चाहिए कि कथा-भाषा के इस महत्त्वपूर्ण पक्ष पर आगे भी विस्तार हे चर्चा अवश्य की जाएगी | 






 

 






(C) डा. मंगलमूर्ति 

  

Wednesday, March 8, 2023

 

श्रद्धांजलि                                    

पं.कृष्णबिहारी मिश्र

[१९३६-२०२३]

हिंदी के उद्भव और विकास में कलकत्ता (अब कोलकाता) का योगदान अनन्य और बहुमूल्य रहा है | हिंदी पत्रकारिता के विकास में भी कलकत्ता की इस केन्द्रीयता का महत्त्व विशेष रूप से रेखांकित किया जाता रहा है | लेकिन स्मरणीय यह है कि इस क्षेत्र में एक सुदीर्घ कालावधि में सर्वाधिक अग्रगामी और पथ-प्रदर्शक भूमिका जिस एक समर्पित साहित्यसेवी – पं. कृष्णबिहारी मिश्र - की रही है, जिनका कल (७.३.’२३ को) लम्बी बीमारी के बाद कोलकाता में ही निधन हुआ, मुख्यधारा हिंदी साहित्य जगत में उसकी अनदेखी ही अधिक हुई |

हिंदी के वट-वृक्ष की जड़ें उन्नीसवीं सदी उत्तरार्द्ध में कलकत्ता में ही सुदृढ हुईं, और उसकी शाखें भी हिंदी पत्रकारिता के विकास के रूप में वहीँ पल्लवित् हुईं, लेकिन उस क्षेत्र में सर्वाधिक लोकोपयोगी शोध करने वाले हिंदी के इस समर्पित हिंदीसेवी के ऐतिहासिक महत्त्व के कार्य की चर्चा अत्यल्प ही हुई | पं. मिश्र द्वारा संपादित एवं ‘भारतीय विद्या मंदिर, कोलकाता से प्रकाशित ‘हिंदी-साहित्य:बंगीय-भूमिका (द्वि.सं., २०१४, पृ. ५५०) नामक ग्रन्थ इसका एक सशक्त प्रमाण है | इस ग्रन्थ में आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी और डा. सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय से लेकर आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय तक के लगभग ६०  अत्यंत महत्त्वपूर्ण निबंध संकलित हैं, जो एक कालावधि-विशेष में बंगीय-भूमि पर हुए सांस्थानिक हिंदी-कार्य पर सम्यक प्रकाश डालते हैं | इस पुस्तक में हिंदी पत्रकारिता की शिला-स्थापना करने वाले सम्पादकाचार्यों – पं. गोविन्दनारायण मिश्र,पं. सकल नारायण शर्मा,  श्रीबालमुकुंद गुप्त, आ. ललिता प्रसाद सुकुल, पं. रुद्रदत्त शर्मा, पं. माधव प्रसाद मिश्र, पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे, प्रभृति – के महार्घ योगदान की विशद चर्चा है |

पं.कृष्णबिहारी मिश्र का मुख्य शोधकार्य-क्षेत्र पत्रकारिता रहा | बंगीय क्षेत्र के अतिरिक्त उनका एक अन्य शोध-ग्रन्थ राजस्थान की हिंदी पत्रकारिता पर भी है | वास्तव में वे हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के अध्येता के रूप में ही विशेष प्रतिष्ठित रहे और हिंदी पत्रकारिता पर उनके पांच मानक शोध-ग्रन्थ प्रकाशित हैं | लेकिन अपने ललित निबंधों के लिए भी मिश्रजी को उतनी ही ख्याति प्राप्त हुई है | उपर्युक्त शोध-ग्रंथों के अलावा भी उनकी अन्य विधाओं में कई पुस्तकें – ‘आँगन की तलाश, ‘मकान उठ रहे हैं, ‘अलोकपंथा’, आदि प्रकाशित हैं | लेकिन उनकी सर्वाधिक मूल्यवान कृति है ‘कल्पतरु की उत्सव लीला– परमहंस रामकृष्ण की औपन्यासिक जीवनी जिसकी भेंट-प्रति मुझको स्वयं उनसे प्राप्त हुई |

मिश्रजी से मेरा परिचय पत्राचार से ही हुआ था | अपने शोध के प्रसंग में मेरे पिता से सम्बद्ध  सूचनाओं के लिए वे अक्सर मुझसे पत्र-संपर्क में रहते थे | यहाँ प्रदर्शित पत्र मेरे पिता की जन्म-शती के अवसर पर प्रकाशित एक स्मारिका से सम्बद्ध है| उनकी लिखावट बहुत महीन और रची हुई, सुन्दर होती थी | यद्यपि पत्राचार के माध्यम से उनसे मेरी बहुत सुदीर्घ अंतरंगता हो गयी थी, लेकिन उनके साक्षात् दर्शन का अवसर मुझे कई वर्षों बाद २००५ में मिला, जब प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती के अवसर पर मुझको शान्तिनिकेतन में एक व्याख्यान के लिए आमंत्रण मिला, और वहां से वापसी में मैं मिश्रजी के बुलावे पर कोलकाता में उनके बेलियाघाटा निवास पर उनसे मिलने गया |

उनका यह निम्न मध्य-वर्गीय परिवार का किराए का पुराने ढंग का बना मकान काफी अन्दर के मोहल्ले में था और बहुत पूछते-पूछते कठिनाई से मैं वहां पहुँच सका था | सीढ़ी से चढ़ कर पहली मंजिल पर उनका कमरा था जहाँ का यह चित्र है | बलिया (उ.प्र.) के होने के कारण उनसे भोजपुरी में ही बातचीत हुई, और पहली बार मिलने पर भी सदा से परिचित होने का बोध सहज भाव से बना रहा | बातचीत में मेरे पिता के प्रति मिश्रजी का अकूत श्रद्धा का अपना भाव बराबर मुखर रहा | ‘बंगीय भूमिका वाली पुस्तक के संपादन के दौरान ‘मतवाला के प्रसंग में पिताजी के सम्बन्ध में मेरी उनसे बराबर पत्राचार और फोन-वार्त्ता होती रही थी | राजस्थान की पत्रकारिता वाली पुस्तक में भी ‘मारवाड़ी सुधार के विषय में विस्तार से चर्चा है | ‘बंगीय भूमिका वाली पुस्तक में तो ‘मतवाला-मंडल से सम्बद्ध प्रचुर सामग्री संकलित है | दोनों ही पुस्तकें मिश्र जी ने मुझको भेजी थीं, जिनमें आज मेरे पास मिश्र जी की स्मृति सुरक्षित है |

उस दिन की भेंट बहुत स्नेह-मय वातावरण में हुई | मैं शान्तिनिकेतन के समारोह से सीधे वहां गया था इसलिए शान्तिनिकेतन की चर्चा स्वाभाविक रूप से होने लगी | रवि बाबू के अपने संस्मरण में मेरे पिता ने हिंदी के प्रति रवि बाबू के अवज्ञा-भाव का उल्लेख किया है,      जब ‘मतवाला’-मंडल के चारों  सदस्य – मेरे पिता, निरालाजी, महादेव प्रसाद सेठ और नवजादिक लाल श्रीवास्तव – रवि बाबू से मिलने गए थे | रवि बाबू हिंदी समझते ज़रूर थे पर बोलते नहीं थे | सेठजी तो उनसे बंगला में ही बात करते रहे पर मुंशीजी ने बराबर हिंदी में ही बात करने की कोशिश की जिस कारण रवि बाबू ने उनकी ओर कम ध्यान दिया | अंत में दबी जुबान मुंशीजी ने महाकवि से कहा कि आप टूटी-फूटी हिंदी भी बोलें तो बहुत बड़ी बात होगी, और हिंदी भी पढने की कृपा दर्शाइए | लेकिन रवि बाबू ने रुखाई से कहा – तुम्हारी हिंदी में अभी मेरे पढने योग्य कुछ नहीं है | उस समय तो महाकवि को इसका उत्तर कौन देता लेकिन अत्यंत मर्माहत होकर जब मंडली वहां से निकली तब निराला बहुत रोष में आ गए और बोले – कबीर और मीरा की जूठन चाट कर नोबेल पुरस्कार पा लिया तो अब हिंदी का ऐसा अपमान कर रहे हैं, धिक्कार है ! यद्यपि निराला स्वयं कवीन्द्र रवीन्द्र से प्रभावित रहे पर यह भी सच है कि निराला की काव्य-यात्रा में कवीन्द्र रवीन्द्र बहुत पहले ही पीछे छूट चुके थे | उसके बाद फिर कभी ‘मतवाला’-मंडल के सदस्य रवि बाबू से मिलने नहीं गए | अंग्रेजी में अनूदित होने के बाद भी किसी और भारतीय साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला | लेकिन जब राजनीतिक कारणों से महात्मा गांधी को ही बार-बार नामांकित होने पर भी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला और जब सार्त्र के अलावा कइयों ने इस नोबेल पुरस्कार को नकार दिया तब ऐसे नोबेल पुरस्कार की महत्ता तो जग-जाहिर है | मिश्र जी ने कहा - कवीन्द्र रवीन्द्र को भी तो यह पुरस्कार जब १९१३ में  मिला था तब तक उन्होंने कितना लिखा था और  उनके लेखन की ऊँचाई कहाँ तक पहुंची थी ?  पुरस्कारों के पीछे कुछ न कुछ राजनीति तो रहती ही है, ऐसा तो स्पष्ट है |

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में कलकत्ता की हिंदी पत्रकारिता के तो पं. कृष्ण बिहारी मिश्र विश्वकोष ही थे | हिंदी पत्रकारिता के विषय में अपने शोध-ग्रंथों में जो ज्ञान वे संचित छोड़ गए वह तो बहुमूल्य है ही लेकिन उसका अनंत स्रोत तो मिश्र जी के साथ ही चला गया |

मैं जिस दिन उनसे मिला, उन्होंने स्नेह-सिक्त भाव से अपनी सद्यः प्रकाशित श्रीरामकृष्ण परमहंस की औपन्यासिक जीवनी ‘कल्पतरु की उत्सव लीला की प्रति मुझे भेंट की | पुस्तक की प्रतियां अभी तुरत छप कर आई ही थीं | इस साहित्य-प्रसाद को प्राप्त कर के तो मैं अभिभूत-धन्य ही हो गया ! आज वह पुस्तक मेरे लिए साहित्यिक स्नेह और सौहार्द की एक धरोहर है |  

परमहंस रामकृष्ण की जीवनी तो रोम्यां रोलां ने १९२९ में ही लिखी थी, और वह जगत-प्रसिद्ध पुस्तक है, किन्तु पं.कृष्णबिहारी मिश्र-लिखित यह औपन्यासिक जीवन-चित्रण एक अद्वितीय महत्त्व की साहित्यिक कृति है | पूरी पुस्तक आत्मकथा के रूप में परमहंस की ही वाणी में प्रस्तुत हुई है | मिश्र जी ने जैसे अपने जीवन-नायक के चरित्र में काया-प्रवेश कर लिया हो, और पूरा आत्म-चरित उन्हीं की बोली में रच दिया हो | पहली ही पंक्ति उस स्वर को झंकृत कर देती है –

“दुर स्साला, वेद के नाम पर ताल ठोंकता है | बिलायती बोली में उपनिषद् झाड़ता है! गँवई-गंवार को वे डराते हैं मां ! यह पंडितों की पंचायत है कि पागलों का मेला! ब्रह्म=ब्रह्म चिल्लाते हैं ! सूखा तर्क, नीरस बतकही | कितना रस है मां तेरे नाम में !”

छः सौ पृष्ठों का यह ‘आत्म-चरित हिंदी साहित्य की एक गौरव-कृति है | जैसा पुस्तक के प्रारम्भिक ‘विधायक विकल्प में रचनाकार ने कहा है –

“परमहंस श्री रामकृष्ण का जीवन जितना सहज था,उसे अक्षर में रूपायित करना उतनी ही विकट चुनौती | और फिर कथा रचने के लिए जिस शिल्प को चुना, उससे मेरी कठिनाई और बढ़ गयी | ठाकुर के मुहावरे में, उन्हीं के मुंह से, पूरी कथा कहलाना सचमुच बड़ी चुनौती थी | असमंजस गहरा था, पर जब लिखना शुरू किया तो लगा जैसे ठाकुर अपनी सहज कौतुकी शैली में मुझसे बोल-बतिया रहे हैं, मुझे केवल लिपिक की भूमिका पूरी करनी है |”

अनोखे, अनन्य शिल्प में रचित यह जीवन चरित सचमुच हिंदी जीवन-चरित माला की मध्य- मणि जैसी भासमान है | इस एक कृति से पं.कृष्णबिहारी मिश्र की साहित्य-यात्रा न सिर्फ अपने गंतव्य को पूर्णतः प्राप्त कर लेती है, वरन हिंदी साहित्य की ज्योतित ग्रंथमाला में अपना श्रेष्ठ स्थान स्वतः अर्जित कर लेती है |

चित्र एवं आलेख (C) मंगलमूर्ति

'कल्पतरु की उत्सव लीला' 

भारतीय ज्ञानपीठ. प्र. सं. २००४