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Sunday, October 2, 2022

 

गाँधी: दुनिया की नजरों में

मंगलमूर्ति

30 जनवरी, 1948 को जब महात्मा गाँधी  की हत्या हुई, सारी दुनिया में इस त्रासदी की प्रतिक्रिया हुई हिंदुस्तान को आजादी हासिल होने से पहले ही देश की राजनीति में गाँधी  हाशिए पर जा चुके थे, किंतु सत्याग्रह और अहिंसा के उनके प्रयोग ने सारी दुनिया का ध्यान  आकृष्ट किया था गाँधी  के जीवन काल में ही उन्हें काल पुरूष माना जाने लगा था, और जब अहिंसा के इस पुजारी ने अपने प्राणों की बलि देकर अपने सिद्धांतों की सत्यता प्रमाणित कर दी तो सारी दुनिया के महापुरुषों  एवं प्रमुख व्यक्तियों ने शांति के इस संत के बलिदान पर अपनी प्रतिक्रियाएं एवं श्रद्धांजलियां व्यक्त कीं यहां प्रस्तुत हैं  ऐसे  व्यक्तियों के रूपांतरित आलेख जिनमें गाँधी  की आत्मा से एक अंतरंग साक्षात्कार होता है जो डेविडसन विश्व प्रसिद्ध शिल्पी हुए  जिन्होंने गाँधी  की अप्रतिम प्रतिमा बनाई थी मार्ग्रेट बोर्कवाइटलाइफपत्रिका की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की फोटोग्राफर हुईं जिनके खींचे गांधी  के चित्र आज सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं आइंसटाइन के आलेख भी गाँधी विचारधारा  पर मौलिक प्रकाश डालते हैं:

 

गाँधी  की एक प्रतिमा : जो डेविडसन

गांधीजी  1930 में राउंड टेबुल कांफ्रेन्स में भाग लेने के लिए लंदन आने वाले थे एसोशिएटेड प्रेस की ओर से मुझे गाँधी जी की एक आवक्ष प्रतिमा बनाने का भार दिया गया था गाँधी  और उनके लोगों को नाइट्स ब्रिज के एक मकान में ठहराया गया था जब मैं वहां पहुंचा, गाँधी  एक कंबल में लिपटे, दीवाल की ओर पीठ किए, फर्श पर बैठकर चर्खा कात रहे थे एक मामूली घरेलू किस्म का व्यक्ति, लंबे कान और सामने के दांत टूटे हुए  | मुस्कुराने पर एक अँधेरी  खाली जगह दिखाई पड़ी मगर दूसरे ही क्षण एक अजीब आकर्षण लगा उस व्यक्ति में

मैंने अपनी बनाई दूसरे महान व्यक्तियों - रवींद्रनाथ ठाकुर, कोनरैड, वूडरो विल्सन, चैपलिन, अनातोले फ्रांस, हेलेन केलर आदि की प्रतिमाओं के चित्रों का अलबम उन्हें दिखाया गौर से उसे देखते हुए हंसकर बोले - आप मिट्टी के महापुरूष गढ़ते हैं

अगली सुबह गाँधी  की बैठकी मेरे लिए तय हुई सफेद खादी में लिपटे चर्खे के साथ बैठे गाँधी  को देखते ही मुझे लगा यह व्यक्ति एक युगपुरूष है - अमरत्व का मूर्त्त रूप जब महात्मा जी की प्रतिमा पर मैंने काम शुरू किया, मुझे लगा वे कुछ असमंजससा महसूस कर रहे हैं पर वे अपना काम करते रहे | मैं भी अपना काम करता रहा लोग आते, मिलते और जाते रहे, पर कुछ ही देर में लगा गाँधी  को मेरे वहां उपस्थित होने का भान तक नहीं है   मैं कभी फर्श पर चुकमुक बैठता,  कभी आधा  लेटकर नीचे से गाँधी  के चेहरे को देखता, कभी आगे जाता, कभी पीछे आता, पर गाँधी  को मेरे होने का कोई अहसास ही नहीं था वे अपना हर काम, बातचीत, लिखनापढ़ना एक-जैसी और सधी  हुई सहजता से करते रहे शाम होतेहोते मैंने आधे  से ज्यादा काम लगभग पूरा कर लिया था यह जानते हुए कि गाँधी  जैसे व्यक्ति

की प्रतिमा बनाने का यह अवसर मुझे बड़े सौभाग्य से मिला था, मैंने काफी जल्दीबाजी में काम किया था पर प्रतिमा अच्छी उभर रही थी, मेरे लिए यह विशेष संतोष की बात थी जब रात के आठ बजे मैं वहां से छूटकर अपने होटल पहुंचा, थककर चूर हो चुका था

दूसरे दिन सुबह जब मैं फिर काम पर वापस पहुंचा, गाँधी  के पुत्र देवदास ने बुरी खबर सुनाई | रात तो कच्ची प्रतिमा चादर से ढंककर एक कोने में रखी गई थी, पर  उसका सर लुढ़क कर गिर गया था

गाँधी  जब कमरे में आए, मुस्कुराकर बोले - आप बेकार यह जहमत मोल ले रहे हैं मैं बिल्कुल सहम गया फिर भी हिम्मत बांधकर  मैंने इस बार केवल गाँधी जी  के सिर की प्रतिमा गढ़ने का ही निश्चय किया काम फिर शुरू हुआ और एक बार फिर गाँधी  अपने दैनिक कार्य में मशगूल हो गए

काम करतेकरते जब मैं थक जाता, थोड़ी देर गांधीजी  के साथ बातें करने लगता तब वे अपना सारा स्नेह उड़ेल देते बातें करते हुए उनके चेहरें पर अनेक प्रकार के भाव क्षणक्षण आते जाते रहते, जिन्हें मैं मंत्रमुग्ध देखता रहता तरहतरह के लोग आते, और कुछ लोग तो अजीबोगरीब सवाल पूछते एक ने पूछा - महात्माका अर्थ क्या होता है ? गाँधी  तुरंत बोले – ‘एक नगण्य व्यक्ति’

गांधीजी  की बातचीत की शैली अपनी थी वे हर सवाल को खुद दुहराकर तस्कीन कर लेते, फिर जवाब देते - बिलकुल सीधीसादी भाषा में, नपेतुले शब्दों में झुंझलाते या तनिक भी संतुलन खोते मैंने उनको कभी नहीं देखा शब्दों के साथ खिलवाड़ और हाजिर जवाबी तो उनकी अपनी चीज थी वे रूस की क्रांति के हिंसापक्ष से असंतुष्ट थे फोर्ड को वे मशीनीकरण का प्रतीक मानते थे वे कला के लिए कला के हिमायती नहीं थे कला का उद्देश्य मानवता का उन्नयन होना चाहिए, उनकी दृष्टि में

चारपांच दिन गांधीजी  के निकट बैठने का सौभाग्य पाकर जब मैं उनकी प्रतिमा लेकर वापस हुआ, मुझे लगा मैंने अपने समय के महानतम व्यक्ति की प्रतिमा मिट्टी में ही नहीं, अपने मन में भी गढ़ ली थी

 

गांधीजी की तस्वीरें :  माग्रेट बोर्कवाइट

लाइफपत्रिका की ओर से मुझे गाँधी जी की तस्वीरें खींचने के लिए भेजा गया था हिन्दुस्तान  हाल ही में आजाद हुआ था, विभाजित होकर | और बहुत बड़ी तादाद में हिंदूमुस्लिम आबादी का स्थान-परिवर्तन हो रहा था लाइफके लिए मैंने इस ऐतिहासिक आवागमन की भी बहुत सारी तस्वीरें खींची थी

मुझे चर्खे के साथ गांधीजी की एक तस्वीर खींचकर तुरंत न्यूयॉर्क भेजनी थी मैं पूना के पास गांधीजी के आश्रम में गई जहां वे अछूतों की एक कॉलोनी में काम कर रहे थे एकएक कर मुझे गांधीजी  के कई सेक्रेट्रियों से मिलना पड़ा, और तब अंत में मुख्य सेक्रेटरी को मैंने अपना मिशन बताया साफ खादी और मोटा चश्मा पहने उस आदमी ने मुझसे पूछा - क्या आप चर्खा कातना जानती हैं ? और जब मैंने हंसकर कहा - मैं तो केवल कैमरे का काम जानती हूं, तो वह तुरंत बोला - तब आप चर्खे का प्रतीकात्मक महत्व क्या समझेंगी ? पहले तो आपको यह समझना होगा कि गांधीजी के चर्खा कातने के पीछे कौन से आदर्श हैं चर्खा मशीनीकरण का सबसे सशक्त निषेध है यह गांधीजी  के अनुसार मशीन का सर्वहाराकरण है इससे मशीन की हैसियत घटकर आम आदमी के स्तर तक पहुंच जाती है

तब मुझे तय करना पड़ा, मैं चर्खा कातना सीख लूंगी लेकिन बारबार मेरा धागा उलझ जाए और  टूट जाए खैर थोड़े अभ्यास के बाद मैं इस लायक हुई कि गांधीजी  के पास ले जाई जा सकूं लेकिन मुझे दो कड़ी हिदायतें दी गई थीं | आज सोमवार था, महात्माजी का मौन दिवस, और मैं उनसे कोई बातचीत नहीं कर सकती थी दूसरा कि मैं कोई कृत्रिम प्रकाश का उपकरण प्रयोग नहीं करूंगी

गांधीजी की कुटिया के अंदर प्रकाश बहुत कम था, और बिना फ्लैश के तस्वीर शायद ही पाती किसी तरह मुझे तीन छोटेछोटे फ्लैश काम में लाने की अनुमति मिली कमरे में एक ही खिड़की थी जिससे प्रकाश की एक किरण आकर अँधेरे को किसी हद तक हल्का कर रही थी जब मेरी आंखें अँधेरे में अभ्यस्त हुईं तो मैंने महात्मा जी को देखा - लंबीलंबी टांगें, पालथी लगाए हुए, बिल्कुल खल्वाट खोपड़ी, और नाक की छोर पर लटका, पतला चश्मा मुझे एकाएक लगा - इतना मामूली आदमी, कमर में बस एक धोती  लपेटे हुए, जिसने सारी दुनिया में एक हलचल पैदा कर दी है, करोड़ों लोगों को आजादी की मंजिल तक पहुंचाया है ? मैं विस्मय  और सम्मानभाव से भर गई

वहां बिल्कुल शांति थी केवल गांधीजी  अखबार की कतरने देख रहे थे | उनसे ही जो हल्की सरसराहट की आवाज कभीकभी उठती थी, बस वही बगल में उनका चर्खा विराजमान था मैं अपने कैमरे को ठीक करने में लग गई थोड़ी देर बाद कतरनों को एक ओर रखकर गांधीजी  ने चर्खा पकड़ लिया और सूत कातने लगे क्षणभर में वे अपने काम में पूरी तरह तल्लीन हो गए, और उनके दोनों हाथ एक मोहक लय में उठनेगिरने लगे और चर्खे से सूत निकलने लगा

मेरा पहला फ्लैश चमका, लेकिन शटर बाद में खुला मौसम ने कैमरे में कुछ गड़बड़ी ला दी थी मैंने फिर कैमरे को ठीकठीक कर, दूसरी बार फ्लैश किया फ्लैश तो ठीक हुआ, शटर भी ठीक खुला, पर तब मैंने देखा कि प्लेट बदलना ही भूल गई थी बहुत कोफ्त हुई मुझे अपने ऊपर अब तीसरा और अंतिम फ्लैश बल्ब मेरे पास रह गया था खैर, इस बार सब कुछ ठीकठाक रहा और मैंने चैन की सांस ली जब मैं कुटिया से बाहर आई मुझे कुछकुछ मशीन पर से विश्वास उठने लगा था, और चर्खे की सार्थकता मुझे समझ में आने लगी थी कैमरा धोखा  दे सकता था, पर चर्खा हरदम कारगर था

हिंदुस्तान के बंटवारे के साथ ही हिंदूमुस्लिम आबादियां बड़ी तादाद में एक मुल्क से दूसरे मुल्क और यहां से वहां आनेजाने लगी थीं लाखों लोग मारे जा रहे थे दिल्ली में भी इस हादसे का जबर्दस्त असर था हिंदू वहां की मस्जिदों पर हमला कर रहे थे रिफ्यूजी हिंदुओं में  बदले की भावना जोरों पर थी कितने ही मुसलमान और हिंदू हलाक हुए थे

इन घटनाओं से गांधीजी अंदर से टूटने लगे थे वे किसी कीमत पर देश का बंटवारा नहीं चाहते थे दंगाफसाद, नफरत और बर्बादी की फैलती आग को वे अपनी जान की कीमत देकर भी बुझाना चाहते थे उन्होंने आमरण उपवास की घोषणा कर दी अहिंसा की उनकी तरकीब प्रेम का ही एक व्यावहारिक रूप था इसी से उन्होंने अँगरेज़ हुकूमत को झुकाया था, और इसी से फिर वो हिंसक तत्वों को परास्त करना चाहते थे

ऐसे हालत में उपवास की उपयोगिता के विषय में जब मैंने नेहरूजी से पूछा, तो बोले - किसी महान उद्देश्य के लिए अपने ऊपर कष्ट झेलना, एक तरह की तपस्या है, त्याग है, जिसका इस मुल्क के लोगों के दिलों पर आज भी बहुत गहरा असर पड़ता है ऐसे उपवास से दो नतीजे निकलते हैं लोग तुरंत सोचने को मजबूर हो जाते हैं, और उन्हें नए तरह से दोबारा सोचना पड़ता है

गांधीजी  का उपवास ठीक 11 बजे शुरू हुआ लोग उनके घेर कर बैठे थे अपनी पतली आवाज में वे लोगों को अपने इस उपवास का औचित्य बता रहे थे मैंने जब पूछा - कब तक चलेगा यह उपवास ? तो बोले - जब तक सभी मजहबों को मानने वाले आपस में भाईभाई की तरह नहीं मिल जाते, और उनके मन का भय समाप्त नहीं हो जाता नहीं तो मेरा यह उपवास कभी नहीं खत्म होगा लेकिन मैं अकेला नहीं हूं इस अँधेरे  रास्ते  में भी ईश्वर मेरे  साथ है मुझको लगा गांधीजी का प्रेम और अहिंसा का पूरा दर्शन ही दांव पर लग गया था नफरत के एक बहुत बड़े दानव से यह अठत्तर साल का कमजोर बूढ़ा आदमी अकेले लड़ रहा है, अपनी जान हथेली पर लेकर

छठे दिन सुबह जब मैं बिड़ला भवन पहुंची, सुबहसुबह खबर मिली कि देश के कोनेकोने से आश्वासन के तार आने लगे हैं गांधीजी शांति के उन संदेशों को अपनी मुट्ठियों में मजबूती से पकड़े हुए फर्श के अपने बिस्तर पर लेटे मुस्करा रहे थे ठीक 11 बजे उन्होंने अपना उपवास भंग किया

जनवरी 29, 1948 मेरे वापस जाने का समय गया था मैंने गांधीजी की बहुतसी तस्वीरें खींच ली थीं आज मैं उनसे कुछ बातचीत के लिए आई थी | गांधीजी बाहर लॉन में एक खाट पर बैठे थे उन्होंने धूप से बचने के लिए बांस का बना एक हैट पहन रखा था, जो किसी ने कोरिया से लाकर उन्हें दिया था उनका चर्खा सामने रखा था मैंने गांधीजी  से पहला सवाल पूछा - आपने बराबर कहा है कि आप सवा सौ साल जिएंगे ऐसा आप किस आधार पर कहते  हैं ? गांधीजी  का जवाब अचरज से भरा था - मैंने अब इसका उम्मीद छोड़ दी है जब मैंने पूछा - क्यों, तो बोले - इस तरह के अँधेरे और पागलपन के बीच मैं और नहीं जी सकता फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने रूई की एक पूनी चर्खे में डाली और उससे सूत निकालते हुए बोले - लेकिन अगर मेरी जरूरत होगी और लोग चाहेंगे तो मैं सवा सौ साल जीऊंगा

जाड़े की सुबह की झीनीझीनी धूप में , गांधीजी तन्मय होकर सूत कात रहे थे, और मैं उनके शब्दों को अपनी नोटबुक में दर्ज करती जा रही मैंने पूछा - अमेरिका को अणु बम बनाना क्या बंद कर देना चाहिए ? छूटते ही उन्होंने कहा - बिल्कुल बंद कर देना चाहिए उनके विचार से भलाई का रास्ता जैसे व्यक्ति के लिए खुला है वैसे ही किसी राष्ट्र के लिए भी उसे प्रशस्त होना चाहिए अच्छे रास्त पर चलकर हम अच्छी मंजिल तक पहुंच सकते हैं मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - लेकिन आप एटम बम का मुकाबला अहिंसा से कैसे करेंगे ? वे क्षणभर सोचकर बोले - प्रार्थनापूर्ण कर्म से एटम बम से बचने की मैं कोशिश नहीं करूंगा, बल्कि उस पाइलट के सामने होकर उसको दिखाने की कोशिश करूंगा कि मेरा हृदय दुर्भावना से रहित है, और उसमें केवल प्रेम है, मनुष्यता है, करुणा है मेरे फिर टोकने पर बोले - मैं जानता हूं उतनी ऊंचाई से पाइलट हमारे चेहरों के भाव नहीं पढ़ सकेगा, लेकिन हमारे मन के सच्चे भाव उस ऊंचाई तक उसके पास जरूर पहुंच जाएंगे

दूसरे ही दिन गोलियों से उनकी हत्या कर दी गई जब यह दुखद घटना घटी, मैं पास के ही एक मकान में थी मैं वहां पहुंची तब तक गांधीजी के शव को बिड़ला भवन में लाकर एक कमरे में रखा जा चुका था लोगों की भीड़ उमड़ी आती थी, पर एक अजीब मनहूस सन्नाटा चारों ओर फैल गया था गांधीजी के शव के पास गीता का पाठ और भजन चल रहा था

मैं बाहर निकलकर वहां गई जहां गोलियां लगने पर गांधीजी गिरे थे वहां कुछ अगरबत्तियां जल रही थीं और एक खाली टिन ठीक उस जगह रखा हुआ था जहां गांधीजी का शरीर गिरा था किसी ने वहां एक मोमबत्ती जला दी थी वैसे भी वहां एक पवित्र आभा चारों ओर फैल चुकी थी कुछ लोग वहां घुटनों पर बैठकर प्रार्थना कर रहे थे, जिनमें सभी धर्मों के लोग थे उनमें से कुछ लोग वहां की मिट्टी उठाकर अपने रुमालों में सहेज रहे थे - गांधीजी  की स्मृति के रूप में

दूसरे दिन मैं गांधीजी की शव यात्रा में भी शामिल हुई लाखों लोगों की भीड़ बिना किसी शोरशराबे के उस आखिरी जुलूस में, अपने प्यारे बापू की अंतिम यात्रा में, उनके साथसाथ चल रही थी मकानों की छतों पर, छज्जों पर, पेड़ों और खंभों पर भी, लोग खड़े थे, लटके थे सबकी आंखें नम थी, चेहरे स्याह थे मेरे कैमरे ने ऐेसे विशाल फलक की तस्वीरें इससे पहले कभी नहीं खींची थीं

यमुना के किनारे पहुंचकर चंदन की लकड़ियों पर सजी चिता पर गांधीजी के शव को रखा गया था और मंत्रों के पाठ के बाद चिता को अग्नि दी गई थी धीरे-धीरे लपटें उठीं और चिता धू-धू करके जल उठी

शाम ढल चुकी थी और चिता के अंगारे बुझने लगे थे, लेकिन कोई वहां से हटना नहीं चाहता था मुझे गर्व है कि उन अंतिम क्षणों की स्मृति मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान थाती बन चुकी थी

 

गाँधी की मिसाल :  अलबर्ट आइंसटाइन

गाँधी की मौत एक त्रासदी है जो लोग भी मानवता के बेहतर भविष्य के लिए सोचते हैं, उन पर इस त्रासदी का गहरा असर होगा गाँधी  स्वयं अपने अहिंसावादी सिद्धांत के लिए शहीद हुए वे हिंसावादी सुरक्षा नहीं चाहते थे हिंसा को किसी रूप में वे त्याज्य मानते थे इस सिद्धांत के प्रति वे जीवनभर निष्ठावान रहे और उसी सिद्धांत की रक्षा में उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया जनजन का समर्थन गाँधी राजनीतिक दावपेंच से नहीं, बल्कि एक उच्चादर्शमंडित जीवन की मिसाल पेश करके हासिल करना चाहते थे

गाँधी ने सारी दुनिया का सम्मान यही मिसाल पेश करके पाया है उन्होंने यह दिखा दिया है कि नैतिक पतन के इस माहौल में भी राजनीति में व्यक्तिगत शुचिता के आदर्श को प्रतिपादित किया जा सकता है इन्होंने यह कठिन सबक हमें सिखाया है कि मानवता का भविष्य तभी सुरक्षित रह सकता है  जब अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भी हम न्याय और व्यवस्था को मान्यता दें, कि उच्छ्ंखल हिंसा का सहारा लें गाँधी  ने हमें यही मार्ग दिखाया है उन्होंने बताया है कि आदमी अगर सही रास्ते पर चल सके तो वह कितनी बड़ी कुर्बानी दे सकता है हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई उसका जीताजागता प्रमाण है मेरा तो मानना है कि हमारे समय के राजनीतिक नेताओं में गाँधी की तरह का ऊंचे विचार वाला दूसरा कोई नेता नहीं है हमें उन्हीं की राह अपनानी चाहिए हिंसा का पूर्ण परित्याग कर देना चाहिए और बुराई का हर रास्ता छोड़ देना चाहिए

अहिंसक क्रांति से गाँधी ने हिंदुस्तान को आजादी दिलाई और मेरा विश्वास है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व शांति तभी संभव है जब हम गाँधी के विचारों पर बड़े पैमाने पर अमल करें मैं थोरो के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन ऐसे लोग हुए हैं, हालांकि बहुत नहीं, जिन्होंने अपने स्वतंत्र नैतिक बल से राज्यपोषित बुराइयों की खिलाफत की है संभव है थोरों के विचारों ने गाँधी  को प्रभावित भी किया हो लेकिन मुझे लगता है, थोरों और टॉल्सटाय के प्रभाव के बिना भी गाँधी, गाँधी ही होते

आने वाली पीढ़ियों के लिए विश्वास करना बहुत कठिन होगा कि हाड़मांस का बना ऐसा एक आदमी कभी इस धरती पर अवतरित हुआ था