‘कहानी का प्लाट’
पर आधारित भोजपुरी फिल्म
बात १९६२ फ़रवरी की है. मैं मुंगेर कॉलेज में पढाता था और छुट्टियों में पटना
आया था. हमलोग मीठापुर के भगवान् रोड में रहते थे. किराये के उस तीन कमरे के मकान
में बाहर के खुले बरामदे में ही मेरे पिता एक चौकी पर सोते थे. बहुत जाड़ा पड़ने पर
ही वे कमरे में अन्दर सोते थे. पंखा लिए नंगे बदन - यही उनका बाना था, ज़्यादातर बस
एक बनारसी गमछा लपेटे, वहीँ लेटे-लेटे बिना चश्मा के आँखें गडाए पढ़ते-लिखते थे.
उसी मुद्रा में डायरी लिखते उनकी एक तस्वीर मैंने चुपके से खिंच ली थी. कभी-कभी जब
मैं उनकी तस्वीरें खींचता था तो उनकी सरल मुस्कराहट फूट पड़ती थी. उनकी कुछ और
तस्वीरें मैं इस ब्लॉग पर लगाना चाहता हूँ. कुछ तस्वीरें अपने गाँव उनवांस की भी,
जो उनके लिखे उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का गाँव ‘रामसहर’ है. एक तस्वीर यहाँ मेरे
गाँव के उत्तर पोखरे और शिवालय की लगी है जहाँ जब वे गाँव जाते-लौटते तो ज़रूर रुक
कर माथा टेकते. बहरहाल बात ‘कहानी का प्लाट’ की.
कहानियाँ मेरे पिता ने कुल १५-१६ ही लिखीं. वह भी अपने जीवन के
प्रारम्भिक दशकों (१९१०-’३०) में ही; जभी
उपन्यास भी लिखा. स्वयं अपने जीवन के बारे में लिखा है कि वह ‘एक निराला उपन्यास
ही है’. ‘कहानी का प्लाट’ उनकी अंतिम कहानी है (१९२८). इसके नाट्य-रूपांतरण का
मंचन उनके जन्म-शती वर्ष १९९३ में पटना में हुआ था. उसकी भी कुछ तस्वीरें मैंने
लगायीं हैं. लेकिन उस पर कभी फिल्म भी बनेगी और फिल्म बनाने वाले करारनामें पर
उनसे दस्तखत करा लेने के बाद भी फिल्म में कहीं उनका नाम तक नहीं देंगे यह मैं नहीं
सोच सकता था क्योंकि दस्तखत मेरे सामने ही हुआ था और आदतन मैंने उसकी तस्वीर भी ली
थी जो अखबार में भी पूरे समाचार के साथ छपी थी. लीजिये पहले मेरे पिता की उस दिन
२८.२.६२ की डायरी पढ़िए :
“प्रातःकाल ही श्री व्रजशंकर वर्मा और श्री रामचंद्र भारद्वाज आये. उनके साथ
बंबई-प्रवासी एक बिहारी भाई [भगवान सिन्हा] भी आये, जो भोजपुरी का चलचित्र (गंगा
माई तोहे पियरी चढैबो) बनवाने में तत्पर हैं. उन्होंने मेरी कहानी (‘कहानी का
प्लाट’) भी इसीलिए लेने कि इच्छा प्रकट की तथा अनुमति मांगी. मैंने सहर्ष अनुमति
दे दी. उससे हिंदी चलचित्र बनेगा. उन्होंने कहा कि प्रदर्शन होने लगेगा तो द्रव्य
भी मिलेगा. मैंने मन में ही कहा कि भगवान की इच्छा होगी तो कोई न कोई आय का स्रोत
निकल ही आवेगा, अपने मन में तो आशा या कल्पना भी ऐसी नहीं है, प्रभु कि जो भी
इच्छा हो.”
‘गंगा मैया
तोहे पियरी चढैबो’ भोजपुरी की पहली फिल्म थी जिसे डा. राजेंद्र
प्रसाद की सलाह पर छपरा के प्रसिद्द अभिनेता नज़ीर हुसैन ने ५ लाख की लागत से
बनवाया था. इसके प्रोड्यूसर थे विश्वनाथ शाहाबादी. गीत शैलेन्द्र ने लिखे थे और
संगीत था चित्रगुप्त का.
उल्लेख्य है कि फिल्म का गीत-शीर्षक भी उन्ही की एक कहानी ‘अनूठी अंगूठी’ में पहली
बार आया था जो १९११ में प्रकाशित हुई थी. फिल्म १९६२ में रिलीज़ हुई जिसके विषय में
मैंने अपने फेसबुक पर ‘यादनामा’-४ में लिखा भी है. पैसा तो एक भी क्या मिलता, या
किसने बीच में ही लपक लिया, लेकिन फिल्म में कहीं नामोल्लेख तक नहीं हुआ. मेरे
पिता तो जनवरी, १९६३ में दिवंगत भी हो गए.
इसी प्रसंग में एक और बात उल्लेखनीय है. यह भोजपुरी की सबसे पहली अत्यंत सफल
फिल्म तो थी ही, पूरे भोजपुरी विश्व-समाज में इसे बहुत सम्मान मिला. निर्माता ने ५
लाख लगा कर ७५ लाख कमाया. फिल्म के गाने आज भी अतुलनीय हैं. इसके संगीत-निर्देशक चित्रगुप्त
एक बहुत गरीब परिवार से थे, हथुआ के पास के किसी गाँव के, और मेरे बड़े मामा
जगन्नाथ प्रसाद के यहाँ रह कर पढ़े थे. बाद में मेरे पिता ने उनको काशी में अपने
यहाँ रख कर भी पढाया था.
फिल्म की कहानी ‘विधवा-विवाह’ पर केन्द्रित थी जिस सामाजिक समस्या पर लिखी
‘कहानी का प्लाट’ हिंदी कथा-साहित्य में मील का एक पत्थर है. समाज ने केवल
‘भगजोगनी’ का ही शोषण नहीं किया उसके लेखक का भी क्रूर शोषण किया, उन दिनों जब वे
गंभीर आर्थिक कष्ट झेल रहे थे.
मेरे पिता ने कभी फ़िल्में नहीं देखी थीं. डायरी में १६.८.५० को लिखा- “केवल एक ही बार
जयशंकर प्रसाद के साथ ‘टेम्पुल बेल’ फिल्म देखी थी जिसमे सुलोचना नाम की अभिनेत्री
थी. फिर कभी नहीं देखा.” केवल एक बार फिर ५० के दशक में जब पटने में ‘रूपक’
सिनेमा का उदघाटन
हुआ था तब बेनीपुरीजी जबरन उनको उसमे ले गए थे.
मुझे बालीवुड से इसीलिए गहरी शिकायत है जिसने प्रेमचंद से लेकर फणीश्वरनाथ
‘रेणु’, गोपाल सिंह ‘नेपाली’ और शैलेन्द्र तक का शोषण और अनादर किया. विश्व के और
किसी देश में शायद ही ऐसा होता हो. विज्ञापन ठीक ही कहते हैं –
आश्चर्यजनक इंडिया!
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