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Thursday, December 14, 2017

राजेंद्र-जयंती : १३३  
३ दिसंबर, २०१७\





राष्ट्र-हित-चिंतन के मूर्त्त रूप डा. राजेंद्र प्रसाद

मंगलमूर्त्ति

आज  एक पवित्र दिवस है – ‘देशरत्न’ राजेंद्र बाबू की १३३ वीं जयंती | और यह स्थान भी बहुत पवित्र है जो शुरू से ही  एक प्रकार से भारतीय स्वाधीनता संग्राम की केंद्र-स्थली रहा |  चंपारण-सत्याग्रह के बाद असहयोग आन्दोलन के प्रारम्भ में, दिसंबर, १९२० में, इस सदाकत आश्रम की स्थापना हुई, और २१ फरवरी, १९२१ को महात्मा गाँधी ने इसी पुण्य-भूमि में बिहार विद्यापीठ का विधिवत उदघाटन संपन्न किया | डा. रज़ी अहमद जो बिहार विद्यापीत से लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं, उन्होंने ‘सदाकत आश्रम’ पर एक बहुत प्रामाणिक पुस्तक लिखी है जिसमें इस आश्रम और विद्यापीठ का पूरा इतिहास पढने को मिलता है | सबसे पहले मैं यहाँ की पवित्र मिटटी को नमन करना चाहता हूँ, जहां एक पवित्र तिथि को हम अपने ‘देशरत्न’डा. राजेंद्र प्रसाद की चर्चा करने को इकठ्ठे हुए हैं|
 
मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि एक अत्यंत साधारण मनुष्य होते हुए भी अपने जीवन के प्रारम्भ और अंत में  मैं बिहार के दो मानव-रत्नों से जुडा रहा : पहले तो अपने पिता से जो मेरे जीवनदाता ही नहीं रहे, बल्कि मेरे जीवन-निर्माता भी रहे, और फिर पूज्य राजेंद्र बाबू से भी, आज जिनकी जयंती के इस  शुभ अवसर पर हम यहाँ बिहार विद्यापीठ की  इस पवित्र-भूमि में एकत्र हुए हैं | और आपमें से बहुतों को ज्ञात होगा कि यह दोनों ही समकालीन  युग-पुरुष – डा. राजेंद्र प्रसाद और शिवपूजन सहाय -  जीवन पर्यंत एक दूसरे से भी अभिन्न रूप से जुड़े रहे | राजेंद्र बाबू मेरे पिता से ९ साल बड़े थे, यद्यपि दोनों का देहावसान केवल ५ हफ्ते आगे-पीछे हुआ – मेरे पिता का १९६३ की  २१ जनवरी को और राजेंद्र बाबू का २८ फरवरी को | अपनी मृत्यु से केवल दो महीने पहले राजेंद्र बाबू की ७८ वीं जयंती, ३ दिसंबर, १९६२, के अवसर पर उनको समर्पित किये जाने वाले अभिनन्दन ग्रन्थ ‘बिहार की महिलायें’ में  – जिसका सम्पादन भी मेरे पिता ने अपने जर्जर स्वास्थ्य की स्थिति में, अपने जीवन के अंतिम वर्ष में किया था, उन्होंने राजेंद्र बाबू की अभ्यर्थना में ये पंक्तियाँ लिखी  थीं –

“भारतीय जनता के ह्रदय-सम्राट पूज्यवर राजेंद्र बाबू भारत-गणतंत्र के सर्वप्रथम राष्ट्रपति का सिंहासन छोड़कर अब भारत-वासियों के ह्रदय-सिंहासन पर विराजमान हैं, जिस पर उनका एकाधिपत्य राष्ट्रपति होने से पहले भी था और राष्ट्रपति रहते समय भी बना रहा | उस सिंहासन से यह सिंहासन बहुत बड़ा और बहुत ऊंचा है | उस सिंहासन पर कालक्रम से बहुतों का अधिकार होगा या होता रहेगा; परन्तु इस सिंहासन पर ऐसा अजातशत्रु और आदर्श उत्तराधिकारी अब कोई शायद ही नसीब हो; क्योंकि यह अधिकार विश्ववन्द्य अवतारी महापुरुष महात्मा गाँधी के तपःपूत हार्दिक आशीर्वाद का मूर्त रूप है ...”

‘बिहार की महिलायें’ अभिनन्दन ग्रन्थ एक सर्वथा समीचीन विषय पर केन्द्रित एक  अमूल्य ग्रन्थ है जिसकी मूल परिकल्पना जयप्रकाश जी की थी, और उन्हीं के विशेष अनुरोध पर मेरे पिता ने अपनी गंभीर शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति में भी इस पुण्यकार्य  में अपना श्रम होम किया था | कुछ ही दिन पहले राजेंद्र बाबू की सहधर्मिणी राजवंशी देवीजी का स्वर्गवास हुआ था, और वास्तव में यह ग्रन्थ उन्हीं दिवंगता की स्मृति को समर्पित था | अंतिम दिनों में वियोग और गहरे विषाद की स्थिति में ऐसे ग्रन्थ का समर्पण राजेंद्र बाबू को दी गयी एक अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि ही थी | आज के नारी-विमर्श के समय में इस ग्रन्थ का महत्त्व बहुगुणित हो जाता है और जैसा ज्ञात हुआ है महिला चरखा समिति द्वारा इसका नवीन संस्करण शीघ्र ही प्रकाशित और उपलब्ध होने वाला है | जैसा जयप्रकाश बाबू ने अपनी भूमिका में लिखा है बिहार में महिला-जागरण का राजनीतिक प्रारम्भ महात्मा गांधी के चंपारण-सत्याग्रह से ही जुडा  हुआ है, और चंपारण-सत्याग्रह के इस शती-वर्ष में इस सदग्रंथ का पुनर्प्रकाशन एक अत्यंत सार्थक प्रयास होगा |

राजेंद्र बाबू को इस ग्रन्थ का समर्पण जयप्रकाश नारायण, प्रभावती देवी और शिवपूजन सहाय की उपस्थिति में ३ दिसंबर, १९६२ को महिला चरखा समिति के परिसर में ही हुआ था जिसकी संक्षिप्त चर्चा मेरी शीघ्र-प्रकाश्य राजेंद्र बाबू कि अंग्रेज़ी में लिखी जीवनी में भी हुई है, और जिस जीवनी की चर्चा ही आज के मेरे इस व्याख्यान का मुख्य विषय  है |

जैसा मैंने पहले कहा इस विषय की चर्चा में मैं बिहार के इन दो महामानवों को अपने प्रकाश वृत्त में रखना चाहता हूँ, क्योंकि जैसे स्वाधीनता-संग्राम की  राजनीति के सन्दर्भ में हम राजेन्द्र बाबू को महात्मा गाँधी से अलग करके नहीं देख सकते, उसी प्रकार स्वाधीनता-संग्राम के दौरान हिंदी भाषा के योगदान के  प्रसंग में हमें  राजेंद्र बाबू और शिवपूजन सहाय की अविभाज्य संयुक्तता को विशेष रूप से आलोकित करना ही   होगा |

‘बिहार की महिलायें’ के समर्पण के दो ही महीने बाद शिवजी का २१ जनवरी, १९६३ को निधन हुआ | और उसके ५ हफ्ते बाद  राजेंद्र बाबू का भी लोकान्तरण २८, फरवरी, १९६३ को हो गया | राजेन्द्र बाबू की जीवनी लिखने के क्रम में मुझे ज्ञात हुआ कि इन दोनों महापुरुषों के जीवनांत में भी एक साम्य रहा | दोनों की अंतिम बीमारी में राज्य सरकार की उपेक्षा रही | शिवजी तो ५ दिन की बीमारी के बाद अस्पताल में ही मरे, लेकिन राजेंद्र बाबू ने आखरी सांस ली इसी सदाक़त आश्रम में अपने लिए बने नव-निर्मित आवास में | दोनों ही व्यक्तियों को अंतिम समय में ‘कफ एक्सट्रैक्शन मशीन’ की जरूरत पड़ी जो शिवपूजन सहाय  को तो अस्पताल में भरती होने के कारण उपलब्ध रही, किन्तु देश के प्रथम राष्ट्रपति और देश की जनता के ‘ह्रदय-सम्राट’ हमारे ‘देशरत्न’ राजेन्द्र बाबू को वह भी उपलब्ध नहीं हुई | केंद्र और राज्य – दोनों सरकारों ने १२ वर्षों तक देश को प्रथम राष्ट्रपति के रूप में अपनी सेवा देने के उपरांत राजेंद्र बाबू और उनके रहने-सहने और इलाज के प्रति जैसी निष्ठुर, निर्मम उदासीनता दिखाई वह अब इतिहास में दर्ज एक शर्मसार घटना बन गयीहै | इसकी चर्चा भी किंचित विस्तार से मैंने अपनी लिखी जीवनी में की है |

शिवपूजन सहाय के निधन के ठीक महीने भर बाद, और अपनी मृत्यु से केवल एक सप्ताह पहले – १९ फरवरी, १९६३ के अपने शोकोद्गार में (जो ‘सा. हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था), राजेन्द्र बाबू ने शिवपूजन सहाय के विषय में लिखा –

“हिंदी सेवा अपने में एक बड़ी राष्ट्र सेवा है | मूक हिंदी सेवा ही व्रत था आचार्य शिवजी का | मेरे ऊपर तो सदा उनका बहुत स्नेह रहा | अभी पिछले ३ दिसंबर की बात है जब शिवजी द्वारा संपादित एक ‘अभिनंदन ग्रन्थ’ मुझे पुनः भेंट किया गया | १९५० में भी आरा नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘अभिनंदन ग्रन्थ’ मुझे शिवजी के ही सद्भावना-स्वरुप प्राप्त हुआ था |

“ मैं अपने को अभिनंदनीय नहीं मानता | अगर कोई चीज़ अभिनंदनीय है तो वे आदर्श या उद्देश्य जिनके लिए हम काम करते हैं | शिवजी ऐसे तपःपूत साहित्यकारों के प्रेम-भाव से मुझे बराबर प्रेरणा मिलती रही है, गांधीजी द्वारा बताये गए सत्य के मार्ग पर और साहस के साथ आगे बढ़ने की |

“एक साहित्य-प्रेमी के नाते मेरा साहित्यकार शिवजी से परिचय बहुत पुराना था | निजी परिचय भी काफी पहले हुआ | मेरे लिए यह कहना भी संभव नहीं है कि मेरा निजी परिचय आचार्य शिवपूजन सहाय के साथ कब हुआ | उनकी हिंदी सेवा की ख्याति उनसे मिलने से पहले ही मुझ तक पहुँच चुकी थी | शुरू से ही शिवजी हिंदी के अत्यंत निस्पृह, मूक सेवक थे और अपनी सारी ज़िन्दगी इसी प्रकार की मूक सेवा में उन्होंने बिता दी | फिर भी धीरे-धीरे उनके त्याग का सौरभ फैलने लगा | उन्हें ख्याति मिली और यश भी |

“मेरा भी उनसे एक निजी काम पडा और मेरा उनका परिचय एक घनिष्ठ सम्बन्ध में परिणत हो गया | मैंने जेल में बैठ कर अपने ‘आत्मकथा’ लिखी थी | जेल से निकलने पर मुझे इतना समय नहीं मिला कि मैं उसको दुहाराऊँ | यह शिवजी की ही कृपा का फल था कि वह ‘आत्मकथा’ प्रकाश में आ सकी | अत्यंत अपनापे से उन्होंने हस्तलिखित प्रति ले ली और बहुत परिश्रम कर के आद्योपांत सब कुछ पढ़ा ही नहीं, बल्कि जहां-तहां लिखने में जो थोड़ी भूलें रह गई थीं उनको भी सुधारा और मुद्रण-प्रति तैयार कर दी | मैं उनकी इस प्रेमपूर्ण सहायता की जितनी प्रशंसा करूं, वह थोड़ी है |

“ इसका महत्त्व तब बढ़ जाता है, जब हम जानते हैं कि इस प्रकार की सहायता नामालूम उन्होंने कितने लोगों की की थी | उनके पास समय का नितांत अभाव था | फिर भी सृजन, संशोधन तथा सम्पादन के गुरुतर भार का सतत निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने वरदहस्त द्वारा नए लेखक पैदा किये | पुराने लेखकों को तो उनसे सहारा मिलता ही था | बिहार के हिंदी साहित्य की जानकारी जितनी उनको थी, शायद ही और किसीको हो | उनके निधन से बिहार ही नहीं, समस्त हिंदी-जगत को बड़ी क्षति पहुंची है | बिहार के साहित्य-सेवी तो एक प्रकार से निस्सहाय से हो गये हैं | मेरी यह आशा और कामना है कि इस प्रकार के हिंदी-सेवक देश में और अधिक पैदा हों | हिंदी-सेवा देश-सेवा का अभिन्न अंग है |
                                                           - सदाक़त आश्रम, पटना : १९ फरवरी, १९६३       

इस लम्बे वक्तव्य में कुछ पंक्तियों पर विशेष ध्यान देना चाहिए |

“मूक हिंदी सेवा ही व्रत था आ. शिवजी का |...शिवजी  ऐसे तपःपूत साहित्यकारों के प्रेमभाव से मुझे बराबर प्रेरणा मिलती रही है, गांधीजी द्वारा बताये गए सत्य के मार्ग पर और साहस के साथ आगे बढ़ने   की |.... मेरी यह आशा और कामना है कि इस प्रकार के हिंदी-सेवक देश में और अधिक पैदा हों | हिंदी-सेवा देश-सेवा का अभिन्न अंग है |”




राजेंद्र बाबू का यह वक्तव्य शिवपूजन सहाय के सम्पूर्ण साहित्यिक योगदान को उनकी एक भाव-भीनी श्रद्धांजलि है; और साथ ही इन दो महामानवों के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध पर भी इससे पर्याप्त प्रकाश पड़ता है | अपनी लिखी जीवनी में भी मैंने इन दोनों महापुरुषों की इस हिंदी-हितैषणा की चर्चा यथास्थान  विस्तार से की है | यहाँ यह उल्लेख्य है कि जब चंपारण-सत्याग्रह के दौरान ही इंदौर में अ.भा.हिंदी साहित्य सम्मलेन का ८ वां अधिवेशन हुआ था, जिसका सभापतित्व गांधीजी ने किया था, उसमें राजेंद्र बाबू भी शामिल हुए थे | अपनी पुस्तक ‘गाँधी और हिंदी राष्ट्रीय जागरण’ में डा. श्री भगवान सिंह ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य पर बल दिया है कि “गांधीजी स्वराज्य की लड़ाई में शामिल होने से पहले राष्ट्रभाषा के सवाल को हल कर लेना चाहते थे |” लेकिन १९१८ से पहले भी जब राजेन्द्र बाबू कलकत्ता में पढ़ ही रहे थे, तभी उनका यह हिंदी-प्रेम उनके राष्ट्र-प्रेम का पर्यायवाची बन चुका था | अंग्रेजी वाली मेरी जीवनी के प्रारम्भ में ही इसकी चर्चा है | वहाँ हिंदी साहित्य परिषद्  में वे जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी आदि के संपर्क में तभी आ गए   थे | उन्हीं दिनों पं. मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में अ. भा. हिं. सा. सम्मलेन का पहला अधिवेशन बनारस में हुआ था जिसमें वे गए थे | और फिर १९१२ में जब उसका तीसरा अधिवेशन बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’के सभापतित्व में कलकत्ता में हुआ तब भी उन्होंने स्वागत समिति के मंत्री के रूप में उसमें भाग लिया था | फिर १९२३ में उन्होंने अ. भा. हिं. सा. सम्मलेन के कोकिनाडा अधिवेशन का सभापतित्व भी किया | और यह सिलसिला आगे भी चलता रहा | १९२५ में  सम्मलेन के ७ वें दरभंगा अधिवेशन का, फिर गुरुकुल कांगड़ी में १९२७ के उ.प्र. हिं. सा. सम्मेलन का  तथा १९३६ में  नागपुर में अ. भा. हिं. सा. सम्मलेन का भी  उन्होंने सभापतित्त्व किया | राष्ट्रभाषा हिंदी पर उनके सभी भाषण उनकी पुस्तक  ‘साहित्य शिक्षा और संस्कृति’ में संकलित हैं, जिसका सम्पादन भी शिवपूजन सहाय ने ही किया था | कोकनाड़ा, दरभंगा और नागपुर के भाषण लम्बे-लम्बे हैं, और उनसे राजेंद्र बाबू के हिंदी, उर्दू-फारसी और संस्कृत के साहित्य के  व्यापक और गहन अध्ययन का पता चलता है | इन अध्यक्षीय भाषणों के शीर्षकों से ही उनकी गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है | दरभंगा का भाषण ‘हिंदी और उर्दू की एकरूपता’ तथा नागपुर का भाषण ‘हिंदी का व्यापक स्वरुप’ – दोनों ही राष्ट्रीय भाषागत एकता को रेखांकित करते हैं | इन दोनों भाषणों में हिंदी-उर्दू के लम्बे लम्बे पद्य-उद्धरण प्रमाण के रूप में उद्धृत हैं | नागपुर वाले भाषण में से ये उद्धरणीय पंक्तियाँ लेखक के मंतव्य को बड़ी स्पष्टता से व्यक्त करती हैं |  उसी भाषण में वे मुहम्मद ‘इकबाल’ की ये पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं   -

“पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है,
खाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है |
आ गैरियत के परदे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे-दुई मिटा दें |
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती,
आ एक नया शिवाला इस देश में बना दें |”

और फिर अंत में कहते हैं –

कोई विदेशी भाषा हमारी संस्कृति और हमारे स्वरुप तथा भाव को व्यक्त करने की शक्ति नहीं रखती | और यद्यपि भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ हैं और अनेक धर्म हैं , तथापि सबकी तह में संस्कृति का एक ही स्रोत बहता है | उस स्रोत तक कोई विदेशी भाषा हमको नहीं पहुंचा सकती | इसीलिए, हमारे लिए राष्ट्रभाषा कोई भारतीय भाषा ही हो सकती है  |और अपने प्रचार और प्रसार के कारण वह भाषा हिंदी ही है |”

उनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण हिंदी पुस्तक है ‘संस्कृत का अध्ययन : उसकी उपयोगिता और उचित दिशा’ | खेद है, कई कारणों से अंग्रेजी में होने के कारण मैं इस जीवनी में उनकी समुचित चर्चा नहीं कर सका | संभव है अलग से राजेंद्र बाबू की हिंदी सेवा पर मैं कोई लेख लिख सकूँ |

हिंदी के प्रश्न पर शिवपूजन सहाय से राजेन्द्र बाबू का सम्बन्ध अपने हिंदी-लेखन और हिंदी-सेवा-भाव के कारण असहयोग आन्दोलन के समय से ही बना रहा | अमृतसर  हत्याकांड के बाद प्रारम्भ हुए १९२० के असहयोग आन्दोलन के समय से ही राजेन्द्र बाबू ने गाँधी-दर्शन के अनुसार राष्ट्रभाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय एकता एवं अस्मिता के सवाल से अविभाज्य रूप से जोड़ दिया था | लगभग यही समय था जब शिवपूजन सहाय भी असहयोग आन्दोलन में आरा के टाउन स्कूल की सरकारी नौकरी छोड़ कर राष्ट्रीय पत्रकारिता से जुड़ गए थे और कलकत्ता में ‘मारवाड़ी सुधार’ और ‘मतवाला’ का सम्पादन करने लगे थे | यह स्वाधीनता-संग्राम के दौरान हिंदी पत्रकारिता का प्रारम्भिक दौर था और इसमें राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की अस्मिता के साथ स्वाधीनता और राष्ट्रीयता का प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ था | यह एक तरह से दो मोर्चों वाली लड़ाई थी – एक ओर, हिंदी को राष्ट्रभाषा की पहचान और व्याप्ति देना और दूसरी ओर, इसी हथियार से आज़ादी की लड़ाई भी लड़ना | पत्रकारिता का अर्थ उस ज़माने में अंग्रेजी पत्रकारिता ही मुख्य रूप से था | अतः, हिंदी पत्रकारिता को राष्ट्रीय स्वीकृति भी प्राप्त करनी थी और इस हथियार से राष्ट्रीय चेतना को भी जागृत करना था | इसी से सम्बद्ध मेरी जीवनी-पुस्तक में उन दिनों बिहार से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी और हिंदी पत्रों का ज़िक्र है, जिनकी पहुँच कस्बों-गावों की आम जनता तक नहीं थी | उस वक्त बिहार में प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी पत्र थे ‘बिहारी’, ‘एक्सप्रेस’, ‘सर्चलाइट’ और मज़हरुल हक़ द्वारा सदाकत आश्रम से सम्पादित और प्रकाशित ‘मदरलैंड’ | लेकिन राजेन्द्र बाबू का मानना था कि स्वाधीनता संग्राम का सन्देश गावों तक पहुंचाने के लिए हिंदी में एक अखबार का प्रकाशन ज़रूरी था | इसी उद्देश्य से उन्होंने असहयोग आन्दोलन के प्रारम्भ में ही ’देश’ नाम का हिंदी साप्ताहिक अपने सम्पादन में प्रकाशित करने का निर्णय लिया | इसी प्रसंग में राजेंद्र बाबू ने शिवपूजन सहाय को ६ मार्च १९२५ के अपने एक पत्र में लिखा –

“हमारे साप्ताहिक पत्र ‘देश’ का एक विशेषांक आगामी ६ अप्रैल को निकलने वाला है | उस दिन सत्याग्रह सप्ताह शुरू होता है और ‘देश’ का वही जन्म दिवस भी है | आपसे प्रार्थना है कि आप किसी विषय पर अपना लेख शीघ्र भेजने की कृपा करें | आशा है कि ‘देश’ पर आपकी कृपा सदा बनी रहेगी |”

फिर २ जुलाई १९३१ के पत्र में शिवजी को विशेष आग्रहपूर्वक लिखा –

“काम का बोझ लादते हुए बुरा मालूम होते हुए भी आपके लेखों के लालच से मैं अपने को नहीं रोक सकता | इसी से कष्ट देता हूँ, जब कभी हो कुछ लिखा करें | ‘देश’ में साहित्यिक लेखों की बहुत ज़रुरत है | अभी हमारे मुल्क में ऐसी अवस्था नहीं आयी है कि एक पत्र से एक ही काम लिया जाये | गरीब देश की गरीब प्रजा मुश्किल से एक अखबार मंगा लेती है | उसे तो सब साधन उसी पत्र में मिलने चाहिए – ‘देश’ में साहित्यिक लेखन सानंद छपेगा | अगर छपता नहीं है तो इसका कारण यही है कि साहित्यिकों ने कभी लेख लिखने की चेष्टा नहीं की | यदि प्रत्येक हफ्ते ८० या ९० लाइन के कुछ व्यंग्य, चुटकुले आप लिख दिया करें तो इससे बढ़ कर कुछ हो ही नहीं सकता | आपका और हंसी-मजाक का लेख इससे ज्यादे अकथनीय किस में हो सकता है |”

शिवजी तबतक ‘मतवाला’ और अन्य पत्रिकाओं में अपने व्यंग्य अग्रलेखों और चुटीली टिप्पणियों के लिए हिंदी जगत में पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके थे | इस दूसरे पत्र में राजेन्द्र बाबू का इशारा उसी ओर था | ‘देश’ के अंक मुझको उपलब्ध नहीं हुए और ज्ञात नहीं है कि शिवजी के लेख उसमें छपे हैं या नहीं, और यदि छपे थे तो वे निश्चय ही बहुत महत्त्वपूर्ण रहे होंगे |

राजेंद्र बाबू की हिंदी सेवा पर मैंने इस जीवनी में पर्याप्त प्रकाश डालने की चेष्टा की है, जिस कारण शिवपूजन सहाय की चर्चा भी उसमें यदा-कदा हुई है | दोनों हिंदी-सेवकों के बीच असहयोग आन्दोलन के समय से ही बना हुआ यह सम्बन्ध अंत तक प्रगाढ़ भाव से निभता रहा | ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ के खंड ९ में शिवजी को लिखे राजेन्द्र बाबू के १२ पत्र छपे हैं, जिनमें २ पत्रों में विशेष रूप से हिंदी की चर्चा  है | ये दो पत्र राजेंद्र बाबू की अगस्त,१९४२ की गिरफ्तारी के पहले के हैं, जब शिवजी राजेंद्र कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे | इन दोनों पत्रों में राजेंद्र बाबू ने उर्दू शायरों पर हिंदी में लिखी और प्रकाशित पुस्तकों की एक सूची शिवपूजन सहाय से मांगी थी | दोनों पत्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं | मैं उनके मूल अंश यहाँ उद्धृत कर रहा   हूँ | शिवजी को राजेंद्र बाबू ने लिखा -

“मैंने छपरा कॉलेज के मैगज़ीन में आपका एक लेख कवि ‘अकबर’ के सम्बन्ध में पढ़ा था | उसमें आपने लिखा है कि हिंदी में बहुतेरे उर्दू के कवियों और साहित्यिकों की कृतियाँ नागरी अक्षर में छप चुकी हैं, यहाँ पूज्य  महात्मा गाँधी से बातों-बात में यह बात निकल आई कि नागरी अक्षरों में बहुत उर्दू के ग्रन्थ छप चुके हैं | उन्होंने कहा कि ऐसे ग्रंथों की सूची और उनके मिलने का पता मुझे बताओ | आप कृपा कर ऐसी सूची जहाँ तक जल्दी हो सके बना कर सीधे उनके पास वर्धा भेज दीजिये अथवा मेरे पास पटने में भेज दीजिये तो मैं भेज दूंगा |...महात्माजी यह जानना चाहते हैं कि हिंदी पढने वाले इस प्रकार बिना उर्दू लिपि जाने ही कहाँ तक उर्दू के साहित्य से परिचय पा सकते हैं, और इसलिए यह सूची चाहते हैं |”

शिवजी ने तुरत इस मांग की तामील दो ऐसी सूचियाँ भेज कर की जिनमें एक वर्धा गई या डाक में खो   गयी | राजेन्द्र बाबू ने दूसरे पत्र में लिखा - “दूसरी सूची जो मिली है उसकी नक़ल महात्माजी को भेज     रहा हूँ |” इस दूसरे पत्र में राजेंद्र बाबू ने अपनी मांग को और स्पष्ट करते हुए लिखा कि “अच्छा हो अगर एक विस्तृत सूची विशेष करके ऐसे कवियों और साहित्यिकों की कृतियों की बन जाये जिनकी कवितायें हिंदी या देवनागरी लिपि में निकलीं हों |” उस पत्र में उन्होंने शिवजी को यह भी लिखा कि यदि संभव हो तो  “ऐसी सूची हिंदी लेखकों और कवियों की भी दें जिनकी कृतियाँ उर्दू अक्षर में मिल सकती हैं |”

राजेंद्र बाबू वाले ये पत्र तो उपलब्ध थे और ‘समग्र’ में संकलित हो गए, लेकिन शिवजी ने जो अनेक पत्र राजेंद्र बाबू को लिखे उनका कोई पता नहीं चल सका | स्पष्ट है कि राष्ट्रभाषा हिंदी के इस प्रश्न से, जो स्वाधीनता-संग्राम के सन्दर्भ में निश्चय ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, शिवपूजन सहाय भी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की तरह जुड़े रहे | ध्यातव्य यह भी है कि राजेंद्र बाबू की तरह ही शिवपूजन सहाय भी इंट्रेंस क्लास तक उर्दू-फारसी के ही छात्र रहे थे, और दोनों ने राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर हिंदी-उर्दू के सामंजस्य पर बराबर समान रूप से बल दिया | इस प्रश्न पर मेरा एक लेख अंग्रेजी की पत्रिका जिसका नाम ‘हिंदी’ है,और जो वर्धा के ‘महात्मा गाँधी अंतर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय’ से प्रकाशित  होती है, उसके जुलाई-सितम्बर, २०१३ के अंक में छपा है, और जिसमें इस प्रश्न से सम्बद्ध यह सारा पत्राचार छप चुका है |
राजेन्द्र बाबू वाली अंग्रेजी में लिखी मेरी जीवनी में यह सारा कुछ इतने विस्तार से नहीं वर्णित है जिसकी चर्चा मैं यहाँ कर रहा हूँ | वास्तव में मेरी इच्छा तो है कि मैं हिंदी में भी राजेंद्र बाबू की एक अलग जीवनी लिखूं, यदि ईश्वर मुझको इतना समय दें | अपने पिता की जीवनी भी हिंदी में लिखने की मेरी इच्छा है, क्योंकि बहुत सी बातें मेरी स्मृति में हैं जो और कहीं उपलब्ध नहीं हैं | लेकिन उनके साहित्य को ‘समग्र’ के १० खण्डों में संकलित और संपादित करके वह कार्य मैंने किसी हद तक पूरा कर दिया है | इसके विपरीत राजेंद्र बाबू की ‘आत्मकथा’ तो हिंदी और अंग्रेजी में भी प्रकाशित हो चुकी है, लेकिन उनकी कोई प्रमाणिक जीवनी न तो  हिंदी में और न अंग्रेजी में ही अभी तक प्रकाशित हुई है | महात्मा गाँधी की जैसी जीवनी अंग्रेजी में लुई फिशर की है, या नेहरूजी की माइकेल ब्रेशर की है, वैसी जीवनी राजेंद्र बाबू की अंग्रेजी या हिंदी में भी नहीं है | राजेंद्र बाबू की वैसी जीवनी पहले अंग्रेज़ी में लिखने का मेरा प्रयास इसी कारण है, क्योंकि आज भी भारत के कई भागों में और विदेशों में  प्रबुद्ध पाठकों के बीच राजेन्द्र बाबू की ऐसी अंग्रेजी में लिखी जीवनी का ही अधिक प्रचार-प्रसार संभव है |
           
हिंदी से जुड़े प्रश्नों पर शिवजी और राजेंद्र बाबू के बीच  ऐसा अन्तरंग पत्राचार आगे भी होता रहा | वर्ष १९५४ में जब शिवजी बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के निदेशक थे तब परिषद् के साहित्यिक संचालक मंडल के प्रस्ताव पर एक ही समारोह में राजेंद्र बाबू को उनकी ‘आत्मकथा’ पर १,५००रु. का पुरस्कार दिया गया और शिवपूजन सहाय को भी उतनी ही राशि वयोवृद्ध पुरस्कार के रूप में दी गयी | दोनों व्यक्तियों ने पुरस्कार को क्रमश परिषद् और हिंदी साहित्य सम्मलेन को दे दिया – राजेंद्र बाबू ने परिषद् को साहित्यकारों के सहायतार्थ एक ‘साहित्यिक निधि’ की स्थापना के लिए जिसमें बाद में बिहार सरकार को कुछ और राशि मिलानी थी,  और शिवजी ने हिंदी साहित्य सम्मलेन को अपनी पत्नी के नाम पर ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना के लिए वह राशि दान कर दी | हिंदी के हित में ये दोनों योजनाएं लम्बे समय तक चलती रही हैं |

एक बार १९५९ में भी राजेन्द्र बाबू ने परिषद् द्वारा ‘आत्मकथा’ पर मिले पुरस्कार के हिंदी-हित में  सदुपयोग के इसी प्रसंग में शिवजी को लिख कर पूछा – “पुरस्कार के इन रुपयों का उपयोग मैं किसी ऐसे काम में लगाना चाहता हूँ जिससे हिंदी का कुछ प्रचार और सेवा हो सके | यथासाध्य यह अहिन्दी-क्षेत्र में होना ठीक होगा |...मैं आपकी निजी सलाह के लिए ही यह लिख रहा हूँ |” उन्होंने शिवजी से एक से अधिक सुझाव मांगे ताकि वे उनमें से किसी एक को चुन सकें | राजेंद्र बाबू ने १,५०० रु. में अपनी ओर से १,००० मिला कर परिषद् को पुरस्कार-राशि लौटाई थी | परिषद् ने उस राशि से एक ‘राजेंद्र-निधि’ की स्थापना की थी जिससे असमर्थ साहित्यकारों को कुछ आर्थिक सहायता देने की योजना थी | इसके अतिरिक्त परिषद् ने  बिहार सरकार  से उसी मद में १०,००० का वार्षिक अनुदान उस निधि के लिए माँगा था जिसमें बिहार सरकार ने ८,००० रु. का वार्षिक अनुदान स्वीकृत किया था | आज उस निधि की क्या स्थिति है यह मुझे ज्ञात नहीं है | शिवजी ने राजेंद्र बाबू के आदेशानुसार जो सुझाव भेजे थे वे इस प्रकार थे – प्रतिवर्ष एक अहिन्दी-भाषी लेखक को उसकी सद्यः प्रकाशित हिंदी पुस्तक या हिंदी अनुवाद पर १,००० का पुरस्कार दिया जाय | अहिन्दी-भाषी क्षेत्रों की राष्ट्रभाषा हिंदी की परीक्षाओं में उत्तीर्ण सर्वाधिक अंक पाने वाले   परीक्षार्थी को प्रति वर्ष २,५० रु. का पुरस्कार दिया जाए | ‘राजेंद्र-निधि’ की राशि के हिंदी के हित में सदुपयोग के लिए जो सुझाव दिए गए थे वे परिषद् में बाद में किस हद तक कार्यान्वित हुए इसकी तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन इन पत्रों से इतना स्पष्ट है कि शिवजी और राजेंद्र बाबू -  दोनों को हिंदी के हित और प्रसार की चिंता बराबर ही रही | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि संविधान बनाने के दौरान भी राजेंद्र बाबू ने हिंदी को राष्ट्र-भाषा बनाने के प्रश्न पर काफी जोर दिया था, और राष्ट्रपति के रूप में अनेक अवसरों पर दिए गए अपने भाषणों में भी उन्होंने इस बात पर बराबर बल दिया था | मैंने जो जीवनी लिखी है उसमें इन बातों पर यथास्थान पर्याप्त प्रकाश डाला गया है | फिर भी, मेरा मानना है कि इस प्रश्न पर अलग से एक पूरा ग्रन्थ ही लिखा जा सकता  है  |

राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रश्न पर शिवजी ने भी अपनी अनेक सम्पादकीय टिप्पणियों और लेखों में राष्ट्रभाषा हिंदी की  ज़ोरदार हिमायत की है | और मुझे इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती कि राष्ट्रभाषा हिंदी के हक की लड़ाई में  बिहार का योगदान संभवतः सर्वाधिक है  - जिसमें राजेंद्र बाबू और शिवजी का योगदान तो सबसे महत्त्वपूर्ण  है | यहाँ यह भी स्मरणीय है कि राजेंद्र बाबू का हिंदी प्रेम सबसे अधिक इसमें झलकता है कि अपनी ‘आत्मकथा’ उन्होंने  हिंदी में ही लिखी, और उसका बहुत श्रमपूर्ण सम्पादन शिवजी ने महीनों कॉलेज से छुट्टी लेकर इलाहाबाद में रहकर किया | राजेंद्र बाबू की ‘आत्मकथा’ के शिवजी द्वारा सम्पादन पर इधर मेरा एक लेख ‘आजकल’ पत्रिका के फरवरी, २०१७ के अंक में छपा है, जिसकी प्रति मैंने विद्यापीठ में भी जमा की है | यहाँ से उसकी फोटोकॉपी लेकर देखी जा सकती है | ‘आत्मकथा’ के अलावा भी राजेंद्र बाबू की प्रायः सभी  हिंदी पुस्तकों का सम्पादन शिवजी ने ही किया, राजेंद्र बाबू के ही विशेष आग्रह पर | अंगरेजी वाली जीवनी में भी इसकी चर्चा की गई है | शिवजी द्वारा संपादित राजेंद्र बाबू की कुछ और हिंदी पुस्तकों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि जिन पुस्तकों का संपादन शिवजी ने किया है और जो पुस्तकें  शिवजी द्वारा किन्हीं कारणों से सम्पादित नहीं हुईं, उन दोनों की भाषा को देखने से अंतर स्पष्ट हो जाता है कि शिवजी के भाषा-सम्पादन के बाद राजेंद्र बाबू की भाषा का प्रवाह कैसा हो जाता है | इस प्रसंग की थोड़ी चर्चा अंग्रेजी जीवनी में की गई है | इसका एक स्पष्ट उदाहरण है राजेंद्र बाबू की अंतिम पुस्तक ‘असमंजस’, जो उनकी मृत्यु के काफी बाद इधर अपने मूल रूप में प्रकाशित हुई है | आप उसकी भाषा की तुलना ‘आत्मकथा’ की भाषा से अथवा ‘बापू के कदमों में’ की भाषा से  करें तो यह अंतर बिलकुल स्पष्ट हो   जायेगा | मेरी किताब में इस प्रसंग की थोड़ी चर्चा है |

राजेंद्र बाबू ने हिंदी में  अपनी ‘आत्मकथा’ १९४२- ‘४५ के अपने पटना जेल-प्रवास के दौरान और जेल से छूटने के बाद पूरी की थी,  यद्यपि उसका  लिखना उन्होंने १९४० में अपनी अस्वस्थता के दौरान  राजस्थान के सीकर में शुरू किया था | जेल से छूटने के बाद जनवरी, १९४७ में पटना में ही ‘साहित्य संसार’ से -  जिसके अधिष्ठाता समाजवादी नेता अवधेश्वर प्रसाद सिंह थे – वहाँ से यह पुस्तक प्रकाशित   हुई | इसके इस प्रथम संस्करण के प्रकाशित होने की एक छोटी-सी कहानी है जो ‘आजकल’ में प्रकाशित मेरे लेख में थोड़े विस्तार से कही गई है | इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में राजेंद्र बाबू ने एक पंक्ति में लिखा है – “श्री शिवपूजन सहाय ने प्रेस में जाने के पहले बहुत परिश्रम से उसे देखा”, यद्यपि अपनी श्रद्धांजलि में उन्होंने अपना कृतज्ञता-ज्ञापन किंचित विस्तार से किया था | इस प्रसंग की पूरी कहानी में कुछ और रोचक बातें हैं, जिन्हें यहाँ दुहराना आवश्यक लगता है |

१९४५ में जब सभी नेता और स्वतंत्रता-सेनानी जेल से रिहा कर दिए गए तब श्री रामवृक्ष बेनीपुरी भी हजारीबाग जेल से छूट कर पटना आए और शिवपूजन सहाय और बेनीपुरीजी के सम्पादन में साहित्यिक मासिक ‘हिमालय’ का प्रकाशन शुरू हुआ | बेनीपुरीजी राजेन्द्र बाबू से उनकी अप्रकाशित ‘आत्मकथा’ को ‘हिमालय’ में श्रंखला-रूप में छापने के लिए मांग लाये थे, यद्यपि राजेंद्र बाबू ने पुस्तक को उसके मूल असंपादित रूप में ही छापने की हिदायत की | फलतः ‘हिमालय’ के पहले ५ अंकों में ‘आत्मकथा’ के पहले १३ परिच्छेद अपने मूल असंशोधित रूप में ही छपे | लेकिन उसके बाद  अचानक राजेंद्र बाबू के निजी सचिव का सदाकत आश्रम से फोन आया कि ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लौटावें | शिवजी ने १४.२.४६ को अपनी डायरी में लिखा – “’आत्मकथा’ के प्रसंग में कई सज्जनों का भेद खुला | महान पुरुषों के साथ ऐसे गण रहते ही हैं जो उनके पास किसी को टिकने नहीं देते |” लेकिन बाद में ‘आत्मकथा’ के भावी प्रकाशक अवधेश्वर बाबू ने फिर ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लाकर शिवजी को दिया कि वे इसका सांगोपांग सम्पादन करने की कृपा करें ताकि पुस्तक मेरठ कांग्रेस (१९४६) के अवसर पर प्रकाशित की जा सके | इसके लिए अब मात्र ३ महीने बचे थे | शिवजी कॉलेज से छुट्टी लेकर २९ अक्टूबर,’४६ को अवधेश्वर बाबू के साथ पुस्तक का भाषा-सम्पादन करने, प्रूफ पढ़ने और उसको छपवाने इंडियन प्रेस. इलाहाबाद के लिए रवाना हो गए, और २  महीने वहीं प्रेस की अतिथिशाला में रह कर उन्होंने पुस्तक को प्रकाशित कराया | २३ नवम्बर, ’४६ की डायरी में उन्होंने लिखा – “ एक हज़ार पृष्ठों की पांडुलिपि का सम्पादन करने में दिन-रात घोर परिश्रम करना पड़ा | शुरू के ३००  पेज पहले ही संपादित कर चुका था | लगभग ६०० या ७०० पन्नों की पुस्तक होगी |” शिवजी का भाषा-सम्पादन कैसा था इसका एक नमूना ‘समग्र’ के खंड-५ में देखा जा सकता है जिसमें मूल के असंपादित अनुच्छेदों के साथ उनके संपादित अंशों को देखकर इसे समझा जा सकता है | मेरी लिखी अंग्रेजी जीवनी में इस प्रसंग की चर्चा की गई है |        
Rajendra Babu’s Atmakatha, written in Hindi, was published in January, 1947, just before the Meerut Congress. Being a strong proponent of Hindi, Prasad usually preferred to write his books in Hindi. The second edition of the Atmakatha was published in 1957, but in the new edition, and all subsequent editions, even the Preface to the first edition containing a one-liner acknowledgement of Shivpujan Sahay’s editorial labour, was quietly removed. Besides, the text of these later editions also came to be peppered with various kinds of errors when compared with the text of the first Hindi edition as edited by Shivapujan Sahay. The English translations of the Atmakatha, as the Autobiography (1957), as also of some other books by Prasad, like At the Feet of Mahatma Gandhi and Mahatma Gandhi in Champaran were done by others and not by Dr Prasad himself. These two books in their original Hindi versions were also originally edited by Shivapujan Sahay with the same meticulous labour as the Atmakatha. Though in the present Hindi editions of even these two books the editorial work done by Shivapujan Sahay remains unacknowledged.  The English version of the Atmakatha was also translated by others though that also remains unmentioned in the Foreword in the recently published English version of the Autobiography, implying by default that the translation may have been done by the author himself, which is not entirely true. Also, the translated text of the present version of the Autobiography not only omits some of the chapters of the Hindi version but even telescopes many of its chapters reducing the number of chapters from the original 163 to just 114. In the translation itself, the text often appears to be heavily edited through summarizing and abridgement of the matter in many places.

Surprisingly, the current edition of the Atmakatha in Hindi is again a somewhat garbled and error-laden version, with no mention of its editing by Shivapujan Sahay, and its English version, the Autobiography, too, is a rather bowdlerized and selectively translated version, where its original translator’s name remains unmentioned.

राजेंद्र बाबू की हिंदी ‘आत्मकथा’ उनके १९४६-४७ के अंतरिम सरकार तक आकर समाप्त हो जाती है, और अपनी डायरियों में वे बार-बार इसकी चर्चा करते हैं कि वे इसकी कहानी को राष्ट्रपति भवन तक लाकर समाप्त करना चाहते हैं | दुर्भाग्यवश उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी, और मेरी लिखी जीवनी में, राजेंद्र बाबू की ‘आत्मकथा’ में लिखी गई १९४६-४७ तक की कहानी का पूर्णतर रूप तो है ही , आगे के १६ वर्षों के कालखंड (१९४७ से १९६३) की अनलिखी कहानी की पूरक कहानी भी  किंचित विस्तार से लिखी गयी है | स्वतंत्रता-पूर्व की कहानी लिखने में, स्वाभाविक है, मेरी अंग्रेजी में लिखी जीवनी राजेंद्र बाबू की ‘आत्मकथा’ पर पूरी तरह निर्भर है, यद्यपि उस महत्त्वपूर्ण कालखंड के इतिहास के लेखन में मैंने अनेक आधुनिक इतिहास लेखकों की पुस्तकों का भी उपयोग किया है | राष्ट्रपति-भवन में राजेंद्र बाबू १९५० में आये, और फिर १९५२ के पहले चुनाव के बाद १९६२ तक वहाँ रहे |भारत के इतिहास में स्वातंत्र्योत्तर भारत का यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कालखंड है, और स्वाधीनता-संग्राम के इतिहास पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद की कहानी में संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में और फिर १९५० से १९६२ के १२ वर्षों में राष्ट्रपति के रूप में राजेंद्र बाबू की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, इसकी संतोषजनक चर्चा अभी तक नहीं हुई है, और इस महत्त्वपूर्ण कालखंड पर मेरी लिखी जीवनी में नया और विशेष प्रकाश डाला गया  है |

मेरी पुस्तक को आप प्रमुखतः ३ खण्डों में विभाजित देख सकते हैं | पहले खंड में  कहानी अंतरिम सरकार के गठन तक की है जिसमें बचपन से लेकर राजेन्द्र बाबू के चंपारण-सत्याग्रह में भाग लेने और फिर सीधे स्वाधीनता-संग्राम की जद्दोजहद में उतरने और ‘बिहार के गांधी’ के रूप में उभरने का प्रकरण वर्णित है | इस पहले खंड में लगभग आधी सदी की राजनीतिक उथल-पुथल में राजेन्द्र बाबू के ‘देशरत्न’ के रूप में सार्वदेशिक लोकप्रियता प्राप्त करने की कहानी विस्तार से कही गई है, जिसमें राजेन्द्र बाबू का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था और उन्होंने हर कठिन मोड़ पर राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभाली थी | दूसरे खंड में  राजेंद्र बाबू के१९४६ में सदाकत आश्रम छोड़ कर दिल्ली की अंतरिम सरकार की कैबिनेट में शामिल होने, और फिर संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में संविधान-निर्माण में उनके सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका-निर्वहन का विस्तृत विवरण है | यद्यपि ४-५ वर्षों का यह कालखंड छोटा है लेकिन उतना ही महत्त्वपूर्ण भी है जिसमें मुख्यतः संविधान-निर्माण का सांगोपांग विवेचन है, और उसमें केवल राजेंद्र बाबू की अध्यक्षता की ही नहीं, बल्कि उस सारी प्रक्रिया की चर्चा है जिसके अंतर्गत देश के संविधान को एक उत्तर-औपनिवेशिक जामा पहनाया गया, और जिसमें उन सभी मूल्यों को ख़ारिज किया गया जो सही अर्थों में भारतीय थे, और जिसकी रूपरेखा में न तो गाँधी की कहीं उपस्थिति थी और न राजेंद्र बाबू की, और न बहुत सारे और राष्ट्र-भक्तों की ही सहमति थी |

इस संविधान की सबसे बड़ी चारित्रिक विशेषता यही थी कि इसका भारत के ७०% गाँव में रहने वाली जनता से कोई लेना-देना नहीं था, क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा अपने स्वार्थ-हित में बनाए गए १९३५ के   ऐक्ट को इस निर्माणाधीन संविधान पर पूरी तरह आरोपित किया गया था | इस संविधान के मुख्य निर्माता डा. आंबेडकर ने भारत के पारंपरिक ग्राम-आधारित जनतंत्र के विषय में तो यहाँ तक कहा था –

“ I hold that these village republics have been the ruination of India....What is the village but a sink of localism, a den of ignorance, narrow-mindedness and communalism? I am glad that the Draft Constituion has discarded the village and adopted the individual as its unit.”

अभी प्रकाशित ‘इंडिया टुडे’ के हिंदी विशेषांक में एक लेख में हिंदी के प्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने संविधान-निर्माण में नेहरु और आम्बेडकर के उपनिवेशवादी दृष्टिकोण को खारिज करते हुए लिखा है – “भारतीय सामाजिक और भौगोलिक संरचना में गाँव की उपस्थिति आज भी महत्त्वपूर्ण है | और आजादी से पूर्व के विमर्शों पर दृष्टि डालें तो गाँधी और नेहरु या आम्बेडकर के विचारों में शहर और गाँव को लेकर बहुत मतभेद रहा है | गांधी शहर को उपनिवेशवाद के प्रतीक की तरह देख रहे  थे | उनका  कहना था कि शहर की इमारत का निर्माण जिस सीमेंट से होता है, वह गाँव के रक्त से बनाया जाता है | नेहरु को गाँव की पारंपरिक सामाजिक संरचना के पुनर्जीवन में किसी तरह की नैतिकता दिखाई नहीं देती | उन्होंने कहा कि गाँव की संरचना मनुष्य की स्थिति को अवमूल्यित करती है | आम्बेडकर ने भी तीखी आलोचना के स्वर में कहा कि गाँव स्थानीयता के नाबदान ( sink of localism ). अज्ञानता की मांद (den of ignorance), दिमागी संकीर्णता और साम्प्रदायिकता (narrow-mindedness and communalism) के घर के सिवा और क्या है ?”

आज २०१७ में जब भारतीय संविधान को बने लगभग ७० वर्ष हो चुके हैं हिंदी का एक प्रबुद्ध कवि बड़ी तल्खी से इस बात की ओर ध्यान खींच रहा है, और मेरी पुस्तक में मैंने भी संविधान की इस बड़ी कमी की ओर नए सिरे से ध्यान आकृष्ट  किया है |  राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रश्न पर  भी हमारा संविधान अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी के प्रति ऐसी ही उपेक्षा का भाव दिखाता है, जो उसी उपनिवेशवादी व्यवस्था का दूसरा पक्ष है | राजेन्द्र बाबू ने पूरे संविधान-निर्माण सत्रों में और उसके बाद अपने राष्ट्रपति-काल में भी इन दोनों ही प्रश्नों पर और अनेक अन्य प्रश्नों पर – जैसे राष्ट्रपति के अधिकार, जल्दीबाजी में हिन्दू कोड बिल को पारित करने के सवाल, तथाकथित धर्म-निरपेक्षता के सवाल आदि पर बड़ी निर्भीकता से अपने विचार व्यक्त किये  और यथाशक्ति उनमें परिमार्जन कराने का निरंतर प्रयास करते ही रहे |
पुस्तक के अंतिम अध्यायों में इन्हीं प्रश्नों पर विस्तार से विचार किया गया है, और तार्किकता के साथ इनके उचित समाधान की विवेचना भी की गई है | १९५० से १९६२ के बारह वर्षों में राष्ट्रपति पद पर आसीन होने में, या आसीन रहते हुए, ऐसे कई अवसर आये जब नेहरूजी ने राजेन्द्र बाबू  के साथ उनके  विचारों से बिलकुल उलट रुख अपनाया, जिससे दोनों के बीच एकाधिक बार सीधे टकराव के अवसर आ गए | उदाहरण के लिए संविधान सभा के अध्यक्ष-पद पर निर्वाचन में, या १९५०, १९५२ और १९५७ में राष्ट्रपति के रूप में राजेंद्र बाबू के चुनाव के प्रश्न पर नेहरूजी ने खुल कर राजेन्द्र बाबू का विरोध किया, और १२ वर्षों की अवधि में भी अनेक प्रश्नों पर  - जैसे राष्ट्रपति के अधिकार,उनकी विदेश यात्राएं, उनके द्वारा  सोमनाथ मंदिर का उदघाटन, या राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रश्न अथवा हिन्दू कोड बिल के पारित होने के प्रश्न - आदि पर, नेहरूजी ने राजेन्द्र बाबू के प्रति सार्वजनिक रूप से सर्वथा आपतिजनक रुख अपनाया | यहाँ तक कि राजेन्द्र बाबू  के निधन पर नए राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन के कहने के बावजूद नेहरूजी उनके अंतिम संस्कार में पटना नहीं आये, जिससे बिहार-वासी बहुत क्षुब्ध हुए | इस तरह के कई अप्रिय प्रसंग हैं जिनको मेरी किताब में सामने लाया गया   है | राजेन्द्र बाबू  की समाधि भी गांधीजी की समाधि की बगल में नहीं बने, बल्कि वहां नेहरूजी की समाधि बने, इसके लिए भी नेहरूजी ने गुप्त रूप से जो प्रयास किया था, इसकी पूरी कहानी भी बहुत क्लेशकारी है | ऐसी बहुत सी बातों का जिक्र मेरी किताब में नेहरूजी की या और किसी की मर्यादा को कमतर करके आंकने के लिए नहीं किया गया है, बल्कि यह बताने के लिए किया गया है कि राजेन्द्र बाबू, जो गाँधी के बाद गाँधी के प्रति पूर्णतः समर्पित सारे देश में  कांग्रेस के सबसे अग्रणी और सम्मानित नेता थे, उनके प्रति न नेहरूजी ने और न उनके समर्थक कांग्रेस के और नेताओं ने उनको वह सम्मान और सहयोग दिया जो गांधीजी उनको बराबर देते रहे या देश की जनता ने उनको बराबर दिया | गाँधी ने अपने किसी और सहयोगी के विषय में ऐसा नहीं कहा कि – “कम से कम राजेंद्र बाबू एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें मैं ज़हर का प्याला दूं तो वह उसे निस्संकोच पी जायेंगे |” राजेंद्र बाबू गांधीजी के लिए ऐसे सहयोगी थे जिनके बारे में गाँधी जी ने यहाँ तक कहा कि राजेन्द्र बाबू के सहयोग के बिना वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते |

परिषद् के समारोहों में राजेन्द्र बाबू  जब भी पटना आये मुझे उनकी बहुत्र-सी तस्वीरें खीचने का भी मौका मिला था, और जब वे मई, १९६२ में राष्ट्रपति-पद से सेवा-मुक्त होकर सीधे पटना  सदाकत आश्रम में आये थे तो मुझे उनसे उनकी पुरानी कुटिया के सामने, आम्र-वृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर बैठे, उनसे मिलने का भी  सौभाग्य प्राप्त हुआ था | यहाँ मैं अपनी किताब के उस प्रकरण का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूंगा | राजेंद्र बाबू मई, १९६२ में राष्ट्रपतिके पद से सेवा-निवृत्त होकर अंतिम रूप से पटना आए थे | मैं अपने कॉलेज से गर्मी की छुट्टियों में पटना आ गया था |

I remember that summer afternoon distinctly, a week or so after his coming to Sadaqat Ashram, when I got an opportunity to meet and pay my respects to him. I had gone there with Dr Ramji Varma, a close associate of Dr Prasad - their association going back to the Hazaribag jail days when both were imprisoned during the latter’s incarcerations in the early thirties of the Civil Disobedience days. Dr Varma was related to me and I owed this privilege of a close half-hour meeting with Dr Prasad solely to him. When we met Dr Prasad, he was sitting on that concrete platform beneath the mango tree in front of his old cottage . He was wearing a half-sleeve khadi vest and dhoti, and was sitting on a mat. Dr Prasad started by asking me about my father’s health and welfare. My father, too, was not keeping well at that time and had not till then come to meet him. But I answered all his queries about my father and the work he was engaged in. Dr Varma mostly kept enquiring about Dr Prasad’s health and his future plans. When I asked him about the manuscript of his ‘Atmakatha’ which my father had edited for publication, he said that all his papers still remain unsorted and he hoped to get that done soon. This was the only time when I had an opportunity of meeting him personally, but I treasure that half-hour’s memory, particularly now that half-century later I have the privilege to retell his life story…
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मेरे इस व्याख्यान में इस जीवनी के कुछ ही प्रसंगों की चर्चा हुई है | लगभग ८० वर्षों के सुदीर्घ और अत्यंत कार्य-संकुल जीवन को एक मध्यम आकार  की  पुस्तक में समेटना बहुत बड़ी चुनौती थी | मैं इस कार्य में कहाँ तक सफल हुआ हूँ यह तो पुस्तक के प्रकाशित होने के बाद पाठक ही बता सकेंगे | लेकिन जीवनी लिखने के क्रम में मैंने महसूस किया कि अभी तक देश और मानवता के इतने बड़े ‘रत्न’ की कोई अच्छी जीवनी न तो हिंदी में लिखी गई है और न अंग्रेजी में ही | यहाँ तक कि महात्मा गाँधी, नेहरु और पटेल की जीवनियों में भी अनुक्रमणिकाओं तक  में राजेन्द्र बाबू का नाम ज्यादातर अनुल्लिखित ही मिलता है | विदेशी लेखकों ने भी राजेंद्र बाबू की ओर अपनी पुस्तकों में कम ही ध्यान दिया है | मेरी दृष्टि में महात्मा गांधी की असली विरासत को यदि किसी ने आजीवन संभाल कर रखा तो राजेंद्र बाबू ने ही | अपनी पुस्तक में मैंने गाँधी, नेहरु और राजेंद्र बाबू के अंतर्संबंधों की नए सिरे से विवेचना की है जिससे यह स्पष्ट होता है कि जहां देश की स्वाधीनता का अर्थ गाँधी और राजेंद्र प्रसाद की दृष्टि में ब्रिटिश हुकूमत के उपनिवेशवादी चरित्र को जड़ से मिटाकर देश की सबसे ज्यादा शोषित-पीड़ित ७०% जनता को भूख, निर्धनता, पिछड़ेपन और शोषण से मुक्ति दिलाना था, वहीं नेहरु और उनके सत्ताकामी समर्थकों के लिए उसका अर्थ उपनिवेशवादी सत्ता को जल्दी से जल्दी प्राप्त करना और उसी औपनिवेशिक व्यवस्था को पश्चिमी आधुनिकीकरण के नाम पर स्थायी रूप देना-मात्र था |

मैंने जब यह जीवनी लिखना शुरू किया तो सबसे पहले मैं जीरादेई, छपरा, मोतिहारी और बेतिया की यात्रा पर गया और वहाँ मैंने चंपारण-सत्याग्रह की उस पुण्य-भूमि  को माथा टेका और वहाँ के कई गावों में घूम-घूम कर निलहों की भग्न कोठियों और उन हौजों के चित्र लिए जिनमें नील के पौधों को पहले पानी में सडाया  जाता था और पानी सूख जाने पर उनके गोले बनाए जाते थे | वहां मैंने मोतिहारी के पास बगही-भेलवा में भग्न कोठियों, हौजों आदि के चित्र लिए | फिर बेतिया के पास गांधीजी द्वारा स्थापित  भितिहरवा आश्रम में और उसी के पास मुरली-बरवा गाँव में गया जहां अत्याचारी नीलहा ज़मींदार मि. ब्लूमफील्ड के मेनेजर मि. एमन की कोठी थी जिसे अब एक्टर मनोज वाजपेयी के परिवार ने खरीद लिया है | दुबारा मोतिहारी लौट कर मैंने पास के ही बड़हरवा-लखनसेन का वह स्कूल देखा जिसे महात्मा गांधी ने स्थापित किया था | फिर बेलवा कोठी, बावन कोठी आदि गावों में जाकर भी चित्र खींचे | मेरी इस यात्रा का उद्देश्य एक तरह से बीज बोने से पहले खेत की मिटटी तैयार करने जैसा था | वहाँ से लौट कर मैंने पुस्तक का प्रारम्भ किया और उसमें चंपारण-सत्याग्रह वाले परिच्छेद में आपको इसकी झलक मिलेगी | यही वो निर्माण-स्थली थी जहां राजेंद्र बाबू का गांधीवादी स्वरूप तैयार हुआ था |  पुस्तक को पूरा करने में मुझे ६ वर्षों का समय लग गया और अभी यह पुस्तक प्रकाशन के दौर में है | 
   
राजेन्द्र बाबू के जीवन को  महात्मा गाँधी की ग्रामोत्थान वाली परिकल्पना के समरूप ही देखा जा सकता है, और उनकी कोई भी जीवनी नेहरु के दृष्टिकोण से उनके इस मौलिक मतभेद को आँखों से ओझल नहीं कर सकती | इसी अर्थ में राजेन्द्र बाबू का जीवन गाँधी-चिंतन का सम्पूर्ण भाष्य था | एक अमेरिकी पत्रकार जोहान्ना मैकगियरी ने ‘टाइम’ मैगज़ीन के  दिसंबर,१९९९ के अंक में ‘सहस्त्राब्दी-पुरुष’ (‘Person of the Millenium’) के रूप में गांधी के लिए जो पंक्ति लिखी थी, राजेन्द्र बाबू के लिए भी उसी पंक्ति से मैंने उनकी जीवनी का समापन किया है | मैकगियरी ने लिखा था - 
           
“He shines as a conscience for the world. The saint and the politician go hand in hand, proclaiming the power of love, peace and freedom”.

 जिसका हिंदी अनुवाद है : “यह युगपुरुष विश्व की अंतरात्मा की भांति जाज्वल्यमान है | इसके व्यक्तित्व में संत और राजनेता दोनों एकमेक होकर प्रेम, शान्ति और स्वतंत्रता की उद्घोषणा करते हैं |”
अंत में मैं बिहार विद्यापीठ के निदेशक श्री विजयप्रकाशजी, और  विद्यापीठ से जुड़े सभी व्यक्तियों का विशेष आभारी हूँ कि आज इस पवित्र दिवस पर, इस पवित्र भूस्थली में, पूज्य राजेन्द्र बाबू के इस जयंती-समारोह में  मुझको सम्मिलित होने का सौभाग्यशाली अवसर दिया | और आपलोगों ने मेरे इस लम्बे वक्तव्य को धैर्यपूर्वक सुनने की कृपा की इसके लिए मैं आप सबलोगों का भी विशेष आभारी हूँ | धन्यवाद |


               

                          
डा.राजेंद्र प्रसाद का चित्र (C) डा. मंगलमूर्त्ति

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के वार्षिकोत्सव (१९५६) में डा. राजेंद्र प्रसाद का अध्यक्षीय भाषण देते हुए मेरे द्वारा लिया गया चित्र | शेष दो चित्र :  ३ दिसंबर, २०१७ को बिहार विद्यापीठ के सभागार में, बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक की अध्यक्षता में संपन्न १३३ वीं जयंती  समारोह के अवसर पर | बाएं से : श्री विजय प्रकाश, अध्यक्ष, बिहार विद्यापीठ, महामहिम राज्यपाल , डा. तारा सिन्हा (राजेंद्र बाबू की पौत्री), डा. मंगलमूर्त्ति.  बि. विद्यापीठ के सचिव, श्री अवधेश नारायण |

 © Dr BSM Murty                             bsmmurty@gmail.com      Mob. +91-7752922938

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