यादनामा : ५
बचपन में ‘निराला’
कल २१ फ़रवरी है. अंग्रेजी कैलेंडर में ‘निराला’ का बर्थडे. जन्म : १८९६ ई. मेरे पिता से वे तीन साल
छोटे थे. निरालाजी से ही जुडी एक मनोरंजक स्मृति कल के लिए. हमलोग तब छपरा में
रहते थे. अपनी १६.८.४२ की डायरी में बाबूजी ने लिखा है.
“आज कविवर निरालाजी अचानक आये. मेरे घर उतरे. कालेज में कविता-पाठ हुआ. मैं ही
सभापति था. रात की गाडी से लखनऊ गए...श्रीनिरालाजी मुझसे मिलने आये तो
‘मतवाला’-मंडल की पुरानी मधुर स्मृतियाँ जाग उठीं. ह्रदय में एक लम्बी आह उठी. वे
कैसे दिन थे. वे दिन लद गए. अब वैसे मौज-मजे के दिन फिर न आवेंगे. सुनहले दिन थे.”
छपरा में बाबूजी राजेन्द्र कालेज में हिंदी के प्रोफ़ेसर थे. मैं पांच साल का
था. ककहरा और गिनती की उम्र में. अभी स्कूल घर में ही था. लेकिन माँ नहीं थी,पर इसका एहसास भी मुझे नहीं था, क्योंकि दो साल
पहले ही वह चली गयी थी - वहां जहाँ से कोई फिर वापस नहीं आता. घर में मौसी, मामी,
भाई-बहन के होने से माँ के गायबाने का मुझको पता भी नहीं चलता था. छाया कि तरह
बाबूजी के साथ लगा रहता था. उन्ही के साथ खाता, उन्ही के साथ सोता, मंदिर जाता,
खेलता-खाता और गाता रहता था.
“मंगलमूर्ति दिन भर गाता फिरता है – प्रसन्न, मस्त...चित्र बनाने में ही उसका
मन लगता है. चित्र बनाते समय गाता ही रहता है. ‘तुलसीदास’ सिनेमा का गीत – ‘ तू
राम भजन कर प्राणी, तेरी दो दिन कि जिंदगानी’. प्रतिदिन मेरे साथ धर्मनाथ जी के
दर्शन के लिए जाता है. मंदिर में जाने के लिए घेरे रहता है...छोड़ देता हूँ तो रोने
लगता है.”
बात उन्हीं दिनों की है जब एक दिन निरालाजी अचानक हमारे यहाँ आये. कालेज की
किसी साहित्यिक गोष्ठी में बाबूजी ने उन्हें आमंत्रित किया था. साहित्यिक अतिथि
हमारे यहाँ बराबर आया करते थे. सुबह-सुबह मैं बाहर बरामदे में खेल रहा था. मैंने
देखा सामने एक बग्घी रुकी और एक लम्बा-तगड़ा व्यक्ति उतरा जिसके माथे पर घनी-लम्बी
काली-काली लटें लहरा रही थीं. बाबूजी जैसे ही बाहर निकले उस व्यक्ति ने लपक कर
बाबूजी को अपनी बाहों में भर लिया. फिर मुझे देख कर गोद में उठा कर प्यार किया और
बस कंधे पर बिठा लिया. मुझे लगा मैं अचानक किसी पहाड़ की छोटी पर पहुँच गया और
गिरने के डर से मैंने जोर से दोनों
मुट्ठियों में कस कर उनकी लम्बी लटें पकड़ लीं. फिर तो बाबूजी और निरालाजी के उस मिलन का मैं एक दर्शक ही नहीं, प्रतिभागी भी
बन गया.
बाहरी बरामदे के पीछे बैठक वाले लम्बे कमरे की छोर पर बाबूजी का छोटा-सा
पढने-लिखने का कमरा था. निरालाजी के साथ बाबूजी उसी कमरे में बैठ कर बातें करने
लगे. उस कमरे में जाने की खुली परमिट बस मुझको थी. पूरे वक़्त मैं वहीँ बैठा
निरालाजी को एक टक देखता रहा. रह-रह कर वह छोटा-सा कमरा ठहाकों से गूंजता रहा. मैं
क्या जानता था कि अभी-अभी जिस पहाड़ की चोटी पर मैं बैठा था, वही आधुनिक हिंदी कविता के एवरेस्ट- महाकवि निराला हैं !
बहुत दिन बाद उसी दिन की एक मजेदार घटना के विषय में मेरी बड़ी बहन सरोज दीदी
ने मुझे बताया. आज सोचता हूँ, उस दिन मेरी बहन सरोज से मिल कर निरालाजी को कैसा
लगा होगा. लेकिन यह तो दूसरी सरोज थी, शिवजी की बेटी, मेरी सरोज दीदी. छपरा की
चर्चा के प्रसंग में उसीने मुझको उस दिन की घटना के विषय में हँसते-हँसते बताया.
उसकी हंसी तो रूकती ही नहीं थी, और उसकी बातें उसकी हंसी में से जलेबियों की तरह
छन-छन कर निकल रही थीं.
निरालाजी सुबह-सुबह हमारे यहाँ पहुंचे थे. शौचकर्म का समय
था. तैयार होकर फिर तुरत कालेज कि सभा में जाना था. हमारे आँगन के पिछले बरामदे
में शौचालय था. बरामदे में ही पानी का नल लगा था. वहीँ एक पानी-भरा लोटा रक्खा था.
निरालाजी ने वह लोटा उठाया और शौचालय में घुस गए. कुछ देर बाद – दीदी की हंसी तो
अब रूकती ही नहीं थी, और उसी में वह बताने लगी – शौचालय के अन्दर से ही निरालाजी
ने जोर से पुकारा – “शिवजी, शिवजी!” बाबूजी तो वहीँ नल के पास खड़े थे. निरालाजी
अन्दर से ही बोले – “अरे, इस लोटे में क्या था. इसमें तो चने ही चने भरे हैं “.
बात यह हुई थी कि बाबूजी के नौकर भागवत ने उस लोटे में रात
में ही फूलने के लिए चने डाल रक्खे थे. लोटा वहीँ नल के पास टब पर रक्खा था. जल्दी
में निरालाजी ने पानी से भरा लोटा देखा, उसे लिया, और दाखिल-दफ्तर हो गए. फिर तो
वही हुआ जो होना था. भागवत दौड़ा, जल्दी से दूसरे लोटे में पानी ले जाकर दिया, और
तब निरालाजी फारिग होकर बाहर निकले. उसके बाद तो सारे घर में हंसी कि धारा बहने
लगी – पर होठों में दबी-दबी ही. और बाबूजी के साथ निरालाजी के अट्टहास तो जोर-जोर
से पूरे घर में गूंजने लगे. बाद में तैयार होकर दोनों व्यक्ति
कालेज चले गए.
निरालाजी की जयंती वसंतपंचमी को मनाते हैं. लेकिन आज उनके
अंग्रेजी बर्थडे पर अपने बचपन की इस मधुर-मनोरंजक याद को साझा करने का अपना सुख
है. निरालाजी पर मेरे पिता का लिखा मेरे द्वारा सम्पादित एक लम्बा संस्मरण ‘शिवपूजन
सहाय साहित्य-समग्र’ खंड-२ में छपा है जिसमे हास्य के कई और मधुर प्रसंग हैं. उस
पूरे संस्मरण का मेरा किया अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग में पहले २६.१०.१२ के पोस्ट
में देखा जा सकता है.
यहाँ जो ३ तस्वीरें हैं उनमें बाबूजी और निरालाजी की वो तस्वीरें हैं जैसे वे लोग उन दिनों लगते थे. और
एक तस्वीर छपरा के रतनपुरा मोहल्ले के उस मकान
की है जहाँ हमलोग उन दिनों रहते थे.
अचरज हुआ जब हाल में छपरा गया था तो देखा बचपन का वह मकान भी
बूढा लगने लगा था.
ओह! लेकिन बचपन के
वे दिन कितने सुख के दिन थे!
2 comments:
मोहक और समृद्ध यादनामा
कितना सहज सुन्दर स्मृति चित्रण। आनंद आ गया। साधु साधु।
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