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Tuesday, February 13, 2024

 

महाप्रस्थान !

श्रीमती उषाकिरण खान 

[१९४५-२०२४]                             

हर पीढ़ी के जीवन में पतझड़ का एक मौसम आता है, जब लगातार एक तरह की बर्फ़बारी के बीच पेड़ की डालें पर्ण-विहीन हो जाती हैं | एक बार १९५०-६० के दशक में भी ऐसा हुआ था जिसमें काल के पतझड़ में एक के बाद एक कितने पत्ते झड़ते गए थे जिनका लेखा-जोखा ‘साहित्य की अपनी शोक-संस्मरण-टिप्पणियों में शिवपूजन सहाय ने लगातार कई अंकों में प्रकाशित किया था | इस अवधि में` – १९५५ से १९६२ के बीच - दिवंगत होने वाले पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों में थे बाबू राव विष्णु पराड़कर, पं. रूप नारायण पाण्डेय, आ. चन्द्रबली पाण्डेय, पं. कृष्ण बिहरी मिश्र. पं. प्रमोद शरण पाठक, पं. देवीदत्त शुक्ल, आ. क्षितिमोहन सेन, लक्ष्मण नारायण गर्दे, रामनरेश त्रिपाठी, पुरुषोत्तम दास टंडन प्रभृति - कोई बीसेक इन दिवंगत साहित्यकारों पर शिवजी ने मर्मान्तक शोक-टिप्पणियाँ लिखी हैं, जो अब उनकी संस्मरण-पुस्तक ‘स्मृति-शेष में और ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र (खंड २) में  संगृहीत हैं |  निराला और नलिन विलोचन शर्मा का निधन भी इसी अवधि में हुआ था | नलिन जी के निधन के प्रसंग में शिवजी की एक मार्मिक टिप्पणी उद्धरणीय है |

“एक दिन बिहार-हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के अनुशीलन-कक्ष में हम दोनों बैठे थे | उन्होंने सहसा कहा कि ‘साहित्य के सम्पादकीय स्तम्भ में स्वर्गीय साहित्य सेवियों पर लिखी आपकी संस्मरणात्मक टिप्पणियाँ मुझे बहुत पसंद हैं | मैंने कहा कि आपकी पसंद ही उनकी सार्थकता है; किन्तु मेरे निधन पर आपको भी वैसी ही टिपण्णी लिखनी पड़ेगी | छोताते हो बोल उठे कि कहीं आपको ही मेरे लिए लिखना पद गया तो आपकी अभ्यस्त लेखनी मुझसे बाजी मार ले जाएगी |”...

ऐसा दुर्योग कि उसके कुछ ही दिन बाद नलिन जी का १२ सितम्बर १९६१ को देहांत हो गया | शिवजी ने अपनी डायरी में अंकित किया :

“आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का आकस्मिक निधन हो गया | कलेजा काँप उठा | देह थरथराने लगी | मस्तिष्क अर्वथा शून्य हो गया |तुरंत वहां पहुंचा | उनका शव देखकर करुना का बंधन टूट गया | मैं अश्रु-प्रवाह न रोक सका | उनकी अरथी में कन्धा लगा कर घर के चौपाल से सड़क तक ले आया |...

शिवजी के जीवन के भी कुल डेढ़ साल शेष थे | ‘साहित्य के ‘नलिन विलोचन शर्मा स्मृति-अंक’ के संपादन में, अपने तेजी से गिरते स्वास्थ्य में भी, उन्होंने दिन-रात परिश्रम किया | इसी बीच, महीने भर बाद १५ अक्टूबर को निराला जी का देहांत हो गया | शिवजी ने डायरी में लिखा – “नलिनजी का घाव अभी हरा ही था, निरालाजी के निधन ने उसमें बड़ी क्रूरता से नख लगा दिया | कलेजे पर अंगार रख गया कोई !”

कुछ ऐसा ही दुर्योग इधर कोरोना-काल में या उससे कुछ पहले और बाद में भी आया है जब हिंदी साहित्य की एक जाज्वल्यमान परवर्त्ती पीढ़ी के साहित्यकारों – डा. नामवर सिंह, डा. मेनेजर पाण्डेय, विष्णु खरे, केदारनाथ सिंह, गिरिराज किशोर, मंगलेश डबराल, राजकिशोर, रमेश उपाध्याय आदि, और गए कल में उषाकिरण खान का महाप्रस्थान हुआ है |

मिथिला क्षेत्र ने हालिया पुरानी पीढ़ी में हिंदी को कई ख्यातिलब्ध साहित्यकार दिए हैं – जनार्दन झा ‘जनसीदन, बालकृष्ण मिश्र, गंगानाथ झा, अमरनाथ झा, हरिमोहन झा, भुवनेश्वर सिंह ‘भुवन आदि | उसी परंपरा में २१वीं सदी में सर्वाधिक सुविख्यात नाम उषाकिरण खान का है | उनके पति श्री रामचंद्र खान मुंगेर के दिनों से मेरे आत्मीय थे, और मेरे पिता की स्मृति में स्थापित “आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास (१९९३) के प्रारम्भिक सम्मान्य सदस्य रहे | कुछ ही दिन पहले वे दिवंगत हुए थे | उन दोनों पति-पत्नी की एक दूसरे को फूल भेंट करते एक बहुत प्यारी तस्वीर नेट पर लगी है | रामचंद्र खान के निधन के बाद उषाजी को हमलोगों ने न्यास के सदस्य के रूप में मनोनीत कर लिया था |

मेरा संपर्क पटना में उनसे यदा-कदा नियमित होता था | उम्र में मुझसे छोटी होने पर भी मेरे लिए वे बराबर ‘दीदी ही रहीं, और वे भी मुझको बराबर ‘भाईजी’ ही पुकारा करती थीं | वे आज के बिहार में देश-स्तर पर सर्वाधिक ख्यातिलब्ध एवं अभ्यर्थित साहित्यकार रहीं | पति-पत्नी दोनों से आत्मीय होने के कारण मेरा उनसे एक पारिवारिक सम्बन्ध बराबर बना रहा | उनकी किताबें जब भी प्रकाशित होतीं उसकी हस्ताक्षरित प्रति वे मुझे अवश्य देतीं | वे एक सम्पूर्ण सार्थक रचनाशील जीवन व्यतीत कर पति का अनुसरण करती हुई गयीं | इस नश्वर जीवन को अपनी अन्यतम सृजनशीलता से गरिमामय बनाते हुए उनका महाप्रस्थान एक संश्लिष्ट संवेदनात्मक अनुभूति है |

लखनऊ भी वे बराबर आती थीं | एक बार २०१६ में जब २१ जनवरी को आ. शिवजी की पुण्यतिथि के अवसर पर न्यास की ओर से लखनऊ में साहित्यिक समारोह आयोजित हुआ तब उनको ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य-गोष्ठी सम्मान’ प्रदान किया गया था | उस समारोह में डा. मेनेजर पाण्डेय का ‘आ.शिवपूजन सहाय स्मारक व्याख्यान’ ‘मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता विषय पर हुआ था | उस समारोह की कुछ तस्वीरें यहाँ आप देख सकते हैं | मैं पिछले दिनों जब पटना गया था और उनसे मिलने के लिए फोन किया तो उनके सुपुत्र तुहिन शंकर ने बताया कि वे बहुत गंभीर रूप से बीमार अस्पताल में भरती हैं | मैं पल-पल उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना करता रहा, लेकिन लखनऊ लौटते ही उनके देहांत का समाचार फेसबुक से मिला | मेरा अपना जीवन भी अब संध्या-गामी है | मैं चाहूँगा ‘दीदी उषाकिरण खान की स्मृति में पत्रिकाओं के विशेषांक निकलें जिनमें उनके संस्मरण और साहित्यिक अनुशीलन प्रकाशित हों | नारी-विमर्श के क्षेत्र में उनके द्वारा संस्थापित संस्था ‘आयाम इस दिशा में अवश्य प्रयासशील होगी, ऐसी आशा है |


आलेख एवं चित्र (C) आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास 












     

       

Sunday, November 12, 2023


 आचार्य श्रीशिवपूजन सहाय

[पं. लक्ष्मी शंकर व्यास का संस्मरण]

सन् १९६० में जब आचार्य शिवपूजन सहाय जी काशी आये थे, तब कौन जानता था कि यह उनको अन्तिम काशी यात्रा है। 'मतवाला' मण्डल के अपने अन्यतम सहयोगी और अभिन्न मित्र महाकवि निराला कीअत्यधिक अस्वस्थता का समाचार सुनकर आप उन्हें देखने प्रयाग गये थे। निराला जी से मिलकर तथा उनके पुत्र तथा परिवार वालों से बातचीत कर आप दो दिनों के लिए काशी आये थे। आपकी यह यात्रा अपने पुराने पुराने साथियों से मिलने के ही उद्देश्य से हुई थी। यही कारण था कि वे अपने पुराने मित्र तथा सहयोगी बन्धुवर पण्डित विनोदशंकर व्यास जी के यहाँ ठहरे थे।
सन्ध्या को बन्धुवर व्यास जी के भेलुपुर निवास स्थान पर जब मैं उनके दर्शनार्थ पहुँचा, तब सौम्यमूर्ति और क्षीणकाय शिवजी ऊनी कुरता पहने तथा चादर ओढ़े हुए थे। शारीरिक दुर्बलता स्पष्ट, किन्तु साहित्य साधना का तेज उनके मुखमण्डल को दीौप्त कर रहा था। प्रणाम तथा कुशल-मंगल के बाद संस्मरणों की पेटिका खुल गयी। उनमें आचार्य शिवजी के काशी निवास, तत्कालीन साहित्य निर्माण तथा विकास के अनक महत्त्वपूर्ण अध्यायों को स्मृति सजीव हो उठी। इधर साहित्यिक संस्मरणों का अनवरत और सुखद क्रम चल रहा था, जिसमें पण्डित विनोदशंकर जी व्यास भी बीच-बीच में अनेक मधुर प्रसंगों को सुना रहे थे कि भोजन तैयार होने की सूचना मिली। आदरणीय व्यास जी कहने लगे कि शीघ्र भोजन कर लिया जाय। मेैं विदा माँगना ही चाहता था पर मुझे छुट्टी कब मिलने वाली थी । आचार्य शिवजी, भाई आनंदमूर्ति और मैं - सभी साथ बैठे। घण्टों के परिश्रम से व्यास जी ने शिवजी के लिए काशी का प्रसिद्ध मटर- चूड़ा तैयार किया था। अनेक मेवों के साथ ही उसमें मलाई मिलाई गयी थी । मगदल भी काशी की प्रसिद्ध दुकान से मँगाया गया था । जब आचार्य शिवजी ने मटर-चूड़ा और मगदल के स्वाद की प्रशंसा आरम्भ की तब महाकवि 'प्रसाद', कलाविद् रामकृष्णदास जी आदि के साथ ऐसी ही गोष्ठियों की चर्चा चल पड़ी। वार्ता के कारण मन्द गति से आहार ग्रहण हो रहा था। उधर, उनसे बन्धुवर व्यास जी अधिकाधिक ग्रहण करने का आग्रह कर रहे थे। शिवजी अस्वस्थता की बात कह उन्हें विरत कर रहे थे पर व्यास जी भला कब मानने वाले थे। स्वभावतः सभी को नित्य के भोजन से बहुत अधिक ग्रहण करना पड़ा।

भोजन के बाद शीघ्र ही आचार्य शिवजी से विदा लेने को दृष्टि से मैं भी उनके निकट कोच पर बैठ गया। उधर व्यास जी ने सामने कुर्सी पर बैठ छोटे टेबल पर रखे अपने पान के डब्बे को खोला। डब्बे की खोलते ही केसर-कस्तूरी की महक से कमरा सौरभ-युक्त हो गया। गुलाब जल में सिक्त कत्थे की भीनी- भीनी महक चारो ओर फैल गयी। जब व्यास जी ने केसर कस्तूरी-युक्त मगही पान का बीड़ा शिवजी की ओर बढ़ाया, तब सहज स्नेह से उसे जमाते हुए शिवजी मुस्करा उठे ।

हम सभी ने पान जमाये ही थे कि बन्धुवर व्यास जी ने 'प्रसाद' अध्ययन ग्रन्थ को चर्चा छेड़ दी। आचार्य शिवजी ने 'प्रसाद' अध्ययन ग्रन्थ की योजना में पूर्ण सहयोग का वचन दिया। इस सम्बन्ध में साहित्यिकों को भेजे जाने वाले परिपत्र की भी रूप-रेखा आपने बतायी । व्यास जी के आग्रह पर आपने काशी आकर तीन-चार महीने रहने तथा 'प्रसाद' अध्ययन-ग्रन्थ का सम्पादन करने की भी स्वीकृति दे दी। इस चर्चा में रात के ग्यारह बज चुके थे। सबेरे की गाड़ी से आचार्य शिवजी को पटना जाना था। अतः मैंने अतृप्त मन से विदा माँगी ।
सवेरे अपर इण्डिया एक्सप्रेस से आचार्य शिवजी पटना चले गये । आशा थी कि कुछ ही महीनों के बाद आचार्य शिवजी पुनः काशी आयेंगे और उनके सान्निध्य के अनेक अवसर मिलेंगे, पर पटना जाकर वे अनेक बार ऐसे अस्वस्थ हुए कि फिर उनका काशी आना सम्भव हुआ ही नहीं। आचार्य शिवजी की यही अन्तिम काशी यात्रा थी।
आचार्य श्री शिवपूजन सहाय की साहित्यिक साधना में उनके काशी प्रवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। काशी में रहकर जहाँ उनकी अन्तरात्मा आनन्द एवं आत्म-सन्तोष की अनुभूति करती थी, वहीं इस विद्या एवं संस्कृति की नगरी में उन्हें हिन्दी- साहित्य की महान् विभूतियों के सान्निध्य तथा निकट सम्पर्क का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महाकवि 'प्रसाद', प्रेमचन्द, पण्डित केदारनाथ पाठक, आचार्य श्यामसुन्दरदास, पण्डित रामनारायण मिश्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पण्डित भोलानाथ पाठक, कदाविद् राम कृष्णदास, पण्डित दिनोदशंकर व्यास आदि की साहित्यिक मण्डली के मध्य आचार्य शिवजी का अपना विशेष व्यक्तित्व था। महाकवि 'प्रसाद', शिवजी की विद्वत्ता, लेखन एवं सम्पादन के प्रशंसक थे शिवजी की सम्मति उनके निकट अत्यन्त महत्व रखती थी।
द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना तथा उसके प्रकाशन में आचार्य शिवजी का महान् योग था। आपके हो प्रस्ताव पर अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना स्वीकार की गयी। यही नहीं, इस ग्रन्थ के सम्पादन आदि में भी शिवजी ने अनेक कठिनाइयों के रहते हुए भी सहयोग दिया। इस निमित्त आप कई महीनों तक प्रयाग रहे। इस सम्बन्ध में पण्डित रामनारायण मिश्र जी ने द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की भूमिका में आचार्य शिवजी का इस रूप में सादर उल्लेख करते हुए साधुवाद किया है 'जनवरी १९३२ ई० में पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी चौबीस घण्टे के लिए काशी पधारे थे। उस समय काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन पत्र दिया गया था। उनके चले जाने के कई दिन बाद श्री शिवपूजन सहाय ने सभा के मन्त्री से चर्चा की कि सभा को केवल मानपत्र देकर ही न रह जाना चाहिए। आचार्य द्विवेदी जी के अभिनन्दनार्थ एक सुन्दर ग्रन्थ भी निकलना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त अवसर भी आ रहा है, क्योंकि संवत् १९९० के वैशास में वे सत्तर वर्ष में पदार्पण करेंगे। इस समुचित प्रस्ताव का सभा ने सहर्ष और सादर स्वागत किया और इसे कार्यरूप में परिणत करने का आयोजन प्रारम्भ कर दिया।
श्री शिवपूजन सहाय जी ने जो बीज बोया, उसे पल्लवित करने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है । लेखों के सम्पादन में उन्होंने पूरी सहायता दी और इस थोड़े समय के अन्दर ही जहाँ तक बन पड़ा है, उन्होंने प्रूफ भी बड़ी सतर्कता और सतत परिश्रम से देखा है।' आचार्य श्यामसुन्दरदास जी सम्बन्धी संस्मरण में आचार्य शिवजी ने स्वयं लिखा है- 'श्री द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन के समय लगभग डेढ़ दो साल तक मुझे पुराकृत पुण्यवश उनके निकट सम्पर्क का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। काशी के यशोधन कलाविद् श्रीमान् रायसाहब ( राय कृष्णदास जी ) और बाबूसाहब के सतत संलग्न रहने से ही वह अद्वितीय ग्रन्थ तैयार हो सका।' निष्कर्ष यह कि आचार्य शिवजी ने दो वर्षों के सतत परिश्रम से द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना स्वीकृत करायी और उस महान् ग्रन्थ के सम्पादन कार्य में भी चिरस्मरणीय योग दिया ।
आचार्य शिवजी ने अपनी साहित्यिक सेवा का श्रीगणेश यद्यपि आरा में मासिक 'मारवाड़ी सुधार-पत्रिका' के सम्पादन से किया और उसके बाद आप 'मतवाला' मण्डल में चले गये, किन्तु काशी में आपको साहित्य के व्यापक तथा विस्तृत कार्य क्षेत्र में सेवा तथा साधना का अवसर मिला। आरा, कलकत्ता, लखनऊ के बाद आप अनेक वर्षों तक स्थिर होकर साहित्य सम्बन्धी कार्य काशी में ही कर सके । प्रारम्भ में आपने पाँच वर्षों तक लगातार पुस्तक भण्डार ( लहेरिया सराय) का साहित्य कार्य सम्पादन किया। पाँचवें वर्ष में तो आपने इसी संस्था से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध मासिक पत्र 'बालक' का भी सम्पादन किया। इस अवधि में 'बालक' के आपने अनेक सुन्दर विशेषांक निकाले, जिनमें 'भारतेन्दु-अंक' विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
सन् १९३२ ई० की ११ फरवरी को काशी से 'जागरण' नामक जो साहित्यिक पाक्षिक पत्र प्रकाशित हुआ, उसके सम्पादक आचार्य शिव जी हुए। इसके संस्थापक तथा संचालक थे पण्डित विनोदशंकर व्यास - शिव जी के अभिन्न मित्र । इस पत्र के प्रथम सम्पादकीय में शिव जी ने लिखा है- 'हममें न कोई चमत्कारपूर्ण प्रतिभा है, न कोई विलक्षण शक्ति है, केवल ओढरदानी विश्वनाथ का अटल भरोसा, जिसकी राजधानी से यह 'जागरण' प्रकट हो रहा है। उसी की प्रेरणा है, वही इसे संभाले ।' 'जागरण' शुद्ध साहित्यिक पत्र था। साहित्यिक दलबन्दी और ईर्ष्या-द्वेष को मिटाकर साहित्य-संसार में पारस्परिक बन्धुत्व और सौहार्द की स्थापना इसका प्रमुख लक्ष्य था ।
'जागरण' का नामकरण महाकवि 'प्रसाद' ने किया था और उसके स्तम्भों का भी । 'जागरण' को शुद्ध साहित्यिक पत्र बनाने में आचार्य शिवजी को वे सदा प्रोत्साहन तथा परामर्श दिया करते थे । 'जागरण' में साहित्य की गतिविधि तथा हिन्दी साहित्य के निर्माताओं के सम्बन्ध में अत्यन्त विशिष्ट सामग्री प्रकाशित हुआ करती थी । हिन्दी-संसार में अपने ढंग का एक ही पत्र होने पर भी यह सामान्य पाठकों में साहित्यिक अभिरुचि के अभाव में आर्थिक दृष्टि से सफल न हो सका। इसलिए, छः महीने के बाद इसे साप्ताहिक के रूप में निकालने का निश्चय हुआ। इसका प्रकाशन सरस्वती प्रेस से प्रेमचन्द जी के सम्पादकत्व में हुआ। आचार्य शिवजी ने पाक्षिक 'जागरण' के अन्तिम अंक में जो सम्पादकीय लिखा, उसमें उक्त बातों का संकेत है-' जिमि नूतन पट पहिरि के नर परिहरे पुरान" - उसी प्रकार 'जागरण' अब जगन्नियन्ता परमात्मा की इच्छा के अनुसार, साप्ताहिक रूप में परिवर्तित होने जा रहा है। अब इसके सम्पादक होंगे हिन्दी के स्वनामधन्य उपन्यासकार श्री प्रेमचन्द जी और प्रकाशक होंगे मुद्रणकला-कुशल श्री प्रवासीलाल जी वर्मा । आशा है, दो यशस्वी कलाकारों के हाथ में रहकर यह विशेष सुन्दर, समुन्नत और सुविख्यात होगा।' प्रसाद जी जब कुछ नई रचना प्रस्तुत करते, तब शिवपूजन जो को सुनाये बिना उन्हें सन्तोष नहीं होता था ।'
काशी में शिवजी का दूसरा मुख्य निवास स्थान था— बुलानाला के निकट काशी के 'महाशक्ति साहित्य-मन्दिर' के मकान में। इसके अध्यक्ष पण्डित हनुमान प्रसाद शर्मा वैद्य शास्त्री थे। इनके यहां भी साहित्य तथा संगीतप्रेमियों का जमघट लगा रहता था। अपने इस निवास स्थान के सम्बन्ध में स्वयं शिवपूजन जी ने लिखा है- "सौभाग्य से यह वैद्यजी भी साहित्यिक ही मिले। इनके यहाँ भी दिन-रात साहित्यिक बैठकबाजी होती रहती थी। बाहर का शायद ही कोई ऐसा साहित्यसेवी आता, जो यहाँ तक न पहुँचता हो ।"
आचार्य शिवजी स्वास्थ्य सुधार के सिलसिले में काशी के क्वींस कॉलेज, जहाँ आजकल संस्कृत विश्वविद्यालय बन गया है, के निकट तेलिया बाग के एक बगीचे में महीनों रहे थे। दुर्भाग्यवश, वहाँ गृह प्रवेश करते ही छत से अचानक गिर गये। दाहिने पैर की हड्डी टूट गयी और महीनों की चिकित्सा के बाद कहीं अच्छे हो सके । शिवजी पुस्तक भण्डार ( लहेरिया सराय ) की पुस्तकों के प्रकाशन तथा तथा सम्पादन के सिलसिले में ज्ञानमण्डल ( आज ) की प्रकाशन संस्था में नित्य ही जाते थे । सम्पादकाचार्य पराड़करजी से उनकी काफी घनिष्ठता थी । घर से कार्यालय आते-जाते पराड़करजी, दण्डपाणि गली तथा भैरवनाथ की चौमुहानी के निकट उनके मकान पर प्रायः जाते थे और सुख-दुःख की बातें हार्दिकतापूर्वक पूछ लिया करते थे । उक्त घटना के विषय में जब उन्हें समाचार मिला, तब वे शिवजी को देखने बगीचे वाले मकान में गये और अनेक प्रकार से सान्त्वना दी । शिवजी के प्रणाम के उत्तर में पराड़करजी ने कहा - "दुर्घटना से बचा हुआ मनुष्य दोर्घायु होता है । तुमसे ईश्वर को अभी बहुत कुछ काम लेना है ।"
आचार्य शिवजी की हार्दिक इच्छा थी पराड़करजी के सान्निध्य में कार्य करने की । 'आज' में लेखादि के रूप में तो वे योग देते ही थे, पर चाहते थे कि स्थायी रूप से उनके साथ कार्य करें। जब पराड़करजी ने महिलोपयोगी पत्रिका 'कमला' का सम्पादन आरम्भ किया, तब उसमें लेखादि से सहयोग माँगा, साथ ही पत्रिका के सम्बन्ध में उनकी सम्मति भी माँगी । आचार्य शिवजी ने पत्रिका का स्वागत करते हुए सहयोग का वचन दिया । इसी प्रसंग में उन्होंने पराड़करजी को जो पत्र लिखा था, उसकी सम्बद्ध पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- "मेरी आभ्यन्तरिक अभिलाषा है कि आपके तत्वावधान में काम करके अनुभव प्राप्त करूँ । पर ऐसा सौभाग्य अभी मुझसे दूर जान पड़ता है ।"
सन् १९५४ ई० की बात है। आचार्य शिवजी के बड़े पुत्र श्री आनन्दमूर्ति का विवाह था । बारात पटना से बनारस आई थी और चेतगंज मुहल्ले में ठहरी थी। हम लोगों को यथासमय निमन्त्रण मिल चुका था। हमारे साथ ही सम्पादकाचार्य पराड़करजी बारात में गये थे । सन्ध्या का समय था। आचार्य शिवजी के स्नेह- सम्बन्ध से काशी के शीर्षस्थ साहित्यिक तथा विद्वानों की मण्डली जमी थी। सम्पादकाचार्य पराड़करजी के अतिरिक्त कलाविद् रामकृष्णदास, पण्डित विनोद- शंकर व्यास, डाक्टर मोतीचन्द्र, डाक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल, श्रीयुत् रामचन्द्र वर्मा आदि सभी प्रौढ़ एवं प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे। आचार्य शिवजी ने सबसे गले मिल कर जिस हार्दिकता से सभी आगतों का स्वागत किया, वह देखते ही बनता था । बरात जब चलो, तब पराड़करजी और शिवजी अस्वस्थता तथा निर्बलता के कारण पीछे से रिक्शे पर बैठ कर गये। दोनों दिग्गजों को यह जोड़ी देखते ही बनती थी। सड़क के बाद जब गली आ गयी, तब पराड़करजी एक व्यक्ति के सहारे जनवासे में पहुँचे। वहाँ शिवजी ने उनसे कष्ट के लिए विनयपूर्वक क्षमा मांगी। पराड़करजी ने मुस्कराते हुए कहा कि इस आनन्द की वेला में आज कष्ट की कथा क्यों चला रहे हैं ? यही नहीं, शिवजी ने पराड़करजी के साथ ही हम लोगों से भी बार-बार अनुरोध कर कई तश्तरी मिठाई खाने के बाद ही छुट्टी दी। उस समय आचार्य शिवजी जिस प्रसन्नता और पुलक से हमें भरपेट मिठाई खिला रहे थे, उनकी वह मोदमयी मुद्रा कभी विस्मृत न होगी ।
आचार्य शिवजी ने अपना साहित्यिक जीवन पत्रकारिता से ही आरम्भ किया और जीवन भर उसी में संलग्न रहे । अनी सुदीर्घ साहित्यिक साधना के पिछले चालीस वर्षों में उनका सम्बन्ध अल्पाधिक काल के लिए दस पत्र-पत्रिकाओं से रहा। जिन पत्रों से उनका सम्बन्ध रहा, उनके नाम हैं- मारवाड़ी सुधार, मतवाला, आदर्श उपन्यास तरंग, माधुरी, जागरण, गंगा, हिमालय तथा साहित्य | साहित्यिक प्रगति का लेखा-जोखा रखने वाला आप जैसा सम्पादक शयद ही मिले | हिन्दी की नयी-नयी पत्रिकाओं और प्रवृत्तियों का सर्वेक्षण कर उनके गुण-दोषों का निष्पक्ष भाव से रचनात्मक विवेचन एवं उनकी समीक्षा आपकी सम्पादन कला की अपनी विशेषता रही है । आचार्य शिवजी की सम्पादन कला का जो चमत्कार 'मतवाला' मण्डल में दृष्टिगोचर हुआ, उसका ऐतिहासिक महत्त्व है । २३ अगस्त, सन् १९२३ को 'मतवाला' का प्रकाशन हुआ। 'मतवाला' मण्डल के सम्पादकों में महाकवि
आचार्य शिवपूजन सहाय, मुंशी नवजादिक लाल, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' और सेठ महादेव प्रसाद थे। 'मतवाला' के प्रथम अग्रलेख लिखने के समय आचार्य शिवजी को क्या अनुभूति हुई, उसका वर्णन उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है- "२३ अगस्त, बुधवार को लेख लिखने बैठा, कई बार कई तरह से लिखा और फाड़ डाला । बहुत रात बीत गयी। नीद नहीं आती थी । दिमाग चक्कर काट रहा था । मन जहाज का पंछी हो रहा था। एकाएक एक शैली सूझ पड़ी । लिखने लगा । भाव टपकने लगे । धारा चली। मन तृप्त हो गया । अग्रलेख पूरा करके सो रहा। सुबह उठते ही सेठ जी ने माँगा । तब डरते ही डरते हो दिया किन्तु ईश्वर ने लाज रख ली। सबने पसन्द किया। शीर्षक था - 'आत्म 'परिचय' ।"
सन् १९६२ में मैंने आचार्य शिवजी से उनकी साहित्यिक साधना तथा जीवन दर्शन एवं साहित्यिक सिद्धान्त के सम्बन्ध में विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रकट की। इसके उत्तर में आपने जो पत्र लिखा, उसमें हिन्दी जगत् को अत्यन्त मूल्यवान सन्देश है और है हिन्दी संसार की विभिन्न प्रवृत्तियों पर उनकी निर्भीक एवं निष्पक्ष टीका । पत्र का अन्तिम अंश इस प्रकार है-
'अब शरीर काम नहीं करता। आंख भी जवाब दे रही है। अब कपास ओटना छोड़ हरिभजन का ही इरादा है। मगर जब तक पेट विश्राम नहीं लेने देगा तब तक तो चर्खा चलाना ही पड़ेगा - चाहे जैसे-तैसे भी चले । साहित्यिक सेवा तो जीवन में कभी हुई नहीं, उदर-सेवा में ही जीवन समाप्त हो चला । कोई उल्लेखनीय साहित्य सेवा गतवर्ष हुई होती तो मैं उसका विवरण लिख भेजता । किन्तु मेरी दृष्टि में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ ही नहीं जिसका ढिढोरा पीटने का साहस करूँ ।गत वर्ष कुछ फुटकल लेख और संस्मरण अवश्य लिखे गये, पर उनका कोई रचनात्मक महत्त्व मैं नहीं समझता । कृपालु पत्र सम्पादकों का आदेश तो मानना ही पड़ता है । उसी के व्याज से कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हो जाती है ।
जीवन-दर्शन और साहित्यिक सिद्धान्त के विषय में आपका आदेश भी कृपा पत्र में अंकित है। भला एक हाथ से कमाकर दूसरे हाथ से खाने वाले मसिजीबी का जीवन-दर्शन ही क्या ? हाँ, जीवन का सार यही अनुभव है कि साहित्य-क्षेत्र मेपूरे सन्तोष के साथ आना और खटना चाहिए। सुखभोग की आशा से जो आवेंगे, वे खिन्न होंगे। निस्पृह भाव से साहित्य-सेवा करने के लिए पर्याप्त धैर्य, सहिष्णुता और अध्यवसाय की आवश्यकता है । दूसरे किसी साहित्यिक बन्धु का उत्कर्ष देखकरजो ईर्ष्याग्नि में जलते हैं वे स्वयं भी यश के भागी नहीं होते ।
जो कमाऊ खाऊ के रूप में जीता है उसके जीवन-दर्शन में संसारी लोगों के लिए कुछ तत्त्व नहीं । फिर साहित्यिक सिद्धान्त की बात भी इस युग में बड़ी अटपटी है । सिद्धान्त निबाहने के लिए घोर कठिनाइयों और असुविधाओं को झेलना पड़ता है । सिद्धान्त पर दृढ़ रहने के लिए दुःख दारिद्र्य को आजीवन गले लगाना पड़ता है । इस विषय के निजी अनुभव भी सहसा प्रकाशित करने योग्य नहीं होते । आजकल प्रायः सभी साहित्यिक संस्थाएँ राजनीतिक दलबन्दी और गुटबन्दी का अखाड़ा बन रही हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर गद्य-पद्य रचनाओं में घोर अराजकता तथा निरंकुशता व्याप्त हो रही है। नये-नये अनोखे प्रयोगों के दोर बेधड़क चल रहे हैं- ऐसी स्थिति में साहित्यिक सिद्धान्त की चर्चा करना असमय का बेसुरा राग अलापना है। तब भी यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि हिन्दी बड़े वेग से उन्नति पथ पर अग्रसर हो रही है । धन्यवाद !"
सप्रेम आपका
शिवपूजन सहाय
प्रस्तुति : मंगलमूर्ति आभार : श्रीविनय श्रीवास्तव
चित्र (C) आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास
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