लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध
: प्रसंग-3
शिवपूजन सहाय
का प्रारम्भिक जीवन
शिवपूजन सहाय
के पितामह देवीदयाल गहन आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे | परिवार
संयुक्त था और थोड़ी खेतीबारी थी, लेकिन देवीदयाल दिन-रात धर्म-ग्रंथों के पठन-पाठन
में ही लगे रहते, खेती-बारी की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते, इसलिए उनके भाइयों ने उनको
थोड़ी ऊसर-बंजर ज़मीन और महुए-नीम के कुछ पेड़ देकर अलग कर दिया | ‘मेरा बचपन’ में
शिवपूजन सहाय ने यह पूरी कहानी लिखी है | पिता वागीश्वरी दयाल गाँव में ही थोड़ी
हिंदी-उर्दू और हिसाब-किताब सीख कर आरा के
एक जमींदार की पटवारीगिरी करने लगे और तब जा
कर घर की आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी | निर्धनता के कारण बालक शिव ने भी जिला-मुख्यालय आरा के निकट रिश्तेदारों के यहाँ
रह कर कुछ उर्दू-फारसी-अंग्रेजी सीखी और १९०३ में पिता के साथ आरा में स्कूल में
दाखिल हुए, पर १९०६ में ही पिता की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण वे अपने चाचा लोगों पर आश्रित हो गए, और किसी तरह
आरा में ट्यूशन पढ़ा कर मैट्रिक की परीक्षा पास कर सके | बाद में आरा में ही उनको स्कूल-मास्टरी
मिली जिससे भी गाँधी के १९२० के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया | तत्कालीन स्वदेशी आन्दोलन
के कारण उसके बाद उनको पत्रकारिता का ही रास्ता अपनाना पड़ा, क्योंकि आरा के साहित्यिक मंडल से जुड जाने के कारण साहित्य-लेखन
के प्रति उनका रुझान बढ़ गया था, और
पत्रकारिता ही उनके लिए तब एक सहज विकल्प रह गया था | उन दिनों साहित्य-लेखन
से जुड़े हुए अधिकांश लेखकों के साथ जीवन-यापन के लिए ऐसी ही विवशता थी – चाहे
प्रेमचंद हों, या निराला, या इस तरह के
बहुत सारे समानधर्मा लेखक |
आरा-कलकत्ता-लखनऊ-काशी
का जीवन : पृष्ठभूमि
‘मारवाड़ी
सुधार’-सम्पादक बन कर कलकत्ता जाने और फिर ‘मतवाला’ और ‘माधुरी’ से जुड़ने की कहानी
पहले कही जा चुकी है | लेकिन विशेष ध्यान देने की बात यह है कि महादेव प्रसाद सेठ
हों, दुलारेलाल भार्गव हों, या रामलोचन शरण
हों – किसी के साथ शिवजी स्वेच्छा से नहीं जुड़े, सबने अपने व्यावसायिक स्वार्थ के
लिए उनको आग्रहपूर्वक अपने साथ रखा और उनका भरपूर शोषण किया जिसमें काशी और
लहेरिया सराय (पुस्तक भंडार) में बीते १९२६ से १९३९ के १३-१४ वर्ष शिवजी के जीवन में सर्वाधिक संघर्ष और शोषण के
वर्ष रहे | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि १९२४ में शिवजी जब दंगे के कारण लखनऊ से भागे
तो वहां होटल में उनकी सारी साहित्यिक सामग्री वहीँ छूट गयी जो बाद में दुलारेलाल
के हाथ लगी, जिसमें ‘देहाती दुनिया’ की मूल पांडुलिपि के साथ उनकी तब तक की अत्यंत
महत्त्वपूर्ण डायरियां, तथा और बहुत सारी मूल्यवान साहित्यिक सामग्री थी जो रख ली
गयी और फिर उन्हें वापस नहीं मिली | और
फिर जब वे पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय) से छपरा आये तो उनका पांडुलिपियों और १९२५
से १९३९ (१४ वर्ष) की डायरियों से भरा एक ट्रंक ‘भण्डार’ में ही रख लिया गया, जिसमें इस अवधि की डायरियां भी
थीं, जो सब गुम हो गयीं | यह सब शिवजी ने अपनी बाद की डायरियों में ही लिखा है |
निश्चित रूप से १९२० से १९३९ के उन २० वर्षों की डायरियां मूल्यवान साहित्यिक
सामग्री से परिपूर्ण होंगी, और कहीं गुम पड़ी होंगी या नष्ट हो गयी होंगी | उन
वर्षों के कठोर संघर्ष और शोषण की बहुत सारी कहानी भी उन्हीं के साथ गुम हो गयी
होगी |
छपरा आने के
बाद – और राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में भी वे स्वेच्छा से नहीं, वरन बहुत दबाव के बाद
लाये गए थे | ‘भण्डार’ तो उनको छोड़ना ही नहीं चाहता था (यह सब कई पत्रों में है ),
लेकिन स्वयं शिवजी भी ‘भण्डार’ के शोषण से घबरा गए थे, और प्राध्यापन-कार्य उनके
मनोनुकूल भी था| लेकिन प्रकाशकीय शोषण का यह प्रेत छपरा में भी उनके साथ छाया की
तरह मंडराता रहा, जैसा उनकी डायरियां बताती है (जो उसके बाद उनके पास १९४० से १९६३
तक सभी सुरक्षित रहीं ) जिनमें प्रतिदिन का रोजनामचा अंकित है |
अब आप पहले
१९४९ से १९६२ तक की उनकी (‘समग्र’- खंड ६-७ में प्रकाशित) डायरियों के प्रासंगिक
अंश पढ़ें जिनमें उनकी शोषण की यह व्यथा-कथा अंकित है | पिछले पोस्ट में प्रकाशित
पत्रों का इन डायरी-अंशों से सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है – विशेष कर उस तीसरे पत्र
से जो अशोक प्रेस के व्यवस्थापक के नाम से है | (व्यक्तियों का नाम यहाँ सार्वजनिक
करना निरर्थक लगा, लेकिन प्रकाशित ‘समग्र’
के डायरी-खण्डों-६ और ७ में उन्हें भी देखा जा सकता है |)
१.
छपरा :१९३९-१९४९
पुस्तक
भंडार
(२३.२.४९) बिहार प्रकाशक संघ में कल एक
पत्र भेजा था कि पुस्तक भंडार से झगडा तय करा दें | गत २२.२.४९
को पांडे नर्मदेश्वर सहाय वकील को पत्र भेजा कि भण्डार को नोटिस दे दें |
(१८.१०.५१) मुझ पर हृदयहीन प्रकाशकों ने अत्याचार किया पर मैंने किसी के साथ धोखा
नहीं किया | मेरे नोटिस देनेंपर भी पुस्तक भंडार ने मेरी पुस्तकों को छापना बंद नहीं किया | पुस्तक
भंडार को धन का गर्व है | मैं गरीब साहित्यिक हूँ, अदालत में जाकर उससे लड़ नहीं सकता | (३.११.६०) एक महान प्रकाशक
मेरी कन्या के विवाह के लिए मेरे वेतन से रुपये काटकर प्रति मास मेरे नाम पर जमा
करते थे (ऐसा ही कहते रहे - सच-झूठ भगवान
जानें ); किन्तु मैं जब उनकी सेवा से कार्य मुक्त हो गया तब मेरी कन्या का विवाह
हुआ | सम्बन्ध-विच्छेद के बाद भारतीय स्वामी अपने सेवक के बाकी पैसे नहीं देते,
यही परंपरा है | (१७.४.५२ ) भगवान रामचंद्र का परम अनुरक्त भक्त होने का दावा करने
वाला भी इतना बड़ा पाखंडी हो सकता है | जिसने मुझसे ५०० पुस्तकों का सम्पादन करा कर
अपना ही नाम सम्पादक की जगह रखा और कभी कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं लिखा या कहा तथा जिसने मेरी मौलिक पुस्तकों के कई
संस्करण प्रकाशित करके भी मुझे कभी एक कौड़ी तक नहीं दी, ( हे प्रभु!) उसके अंतःकरण में बैठ कर
आप मेरी ही क्षीण काया निरख रहे हैं ? ....बहुतों ने मेरे साथ बदी की, पर मैं नेकी
की राह पर ही रहा |
निकौडिया
(२५.१०.४९) आज
तीन पैसे ही पास रह गए हैं |शाम को एक पैसे का पान खा गया | बाकी बचे दो पैसे | गत
एक पखवारे से पैसे के अभाव में कष्ट हो रहा है | (३०.११.५१) महीने का अंत होते-होते बिलकुल निकौडिया हो जाता
हूँ |
२.
पटना: १९५०- १९६३
समय का
शोषण
(३१.१.५१) रचनात्मक
शक्ति कुंठित हो रही है | मन के भाव मन में ही विलीन हो जाते हैं | लेखक को नौकरी
नहीं करनी चाहिए. मगर रोज़ी-रोटी का सवाल बड़ा बीहड़ है | (२१-२४ .८.५१) साहित्य सेवा
के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता| मन में भाव और विचार उठाते हैं , पर लिपिबद्ध
नहीं हो पाते, विलीन हो जाते हैं | बहुत कुछ लिखने की लालसा है | उपन्यास, कहानी,
निबंध, सब मन में तरंग उठाकर लुप्त हो
जाते हैं | लेख भी लिखे हुए अधूरे पड़े हैं , कब पूरे होंगे राम जाने | अभिमन्यु’
अधूरा पड़ा है | ‘भीम’ भी लिखना ही है | समय मिलता तो ये दोनों पुस्तकें पूरी हो
जातीं | ‘तोता मैना’ भी अधूरा लिखा पड़ा है | वह एक अच्छा कथा-ग्रन्थ होगा
|’सिंहासन बत्तीसी’ और ‘बैताल पचीसी’ को भी सुन्दर हिंदी में लिखना है | बहुत
दिनों से दोनों रख छोड़ा है |
अशोक प्रेस और अजंता
प्रेस
(२०.१०.४९) ’साहित्य
मणिमाला’ पाठ्य पुस्तक ८ वीं श्रेणी के लिए है | अशोक प्रेस मेरे नाम से ही
निकालेगा | ‘सारिका’ भी मेरे ही सम्पादकत्त्व में निकली है | (१९.५.५१) ----- पुस्तकों को मंज़ूर कराने में घूस देने की बात करने लगे | (१.९.५३) मेरी
सब पुस्तकें पाठ्य-क्रम में ३-४ साल से हैं ---- ने लाखों रुपये पैदा किये | मैं
भिखारी!! (५.४.५२) ----ने मेरी रॉयल्टी छीन ली | मेरी ७-७ पुस्तकें लाखों प्रतियां
बेच कर सेन्ट्रल बैंक में लाखों रुपये जमा कर चुके और मेरी दोनों कन्याओं के विवाह
में फंसे हुए खेतों को ऋण मुक्त करने की मेरी कल्पना एवं भावना को बड़ी ह्रदय हीनता
से कुचल-मसल डाला (८.८.५१)------अपना दुखड़ा रोने लगे | उनके अभाव मेरे अभावों से
कहीं बढे-चढ़े हैं | उनकी कठिनाइयों का वर्णन सुनकर मेरी कठिनाइयां सहम जाती हैं |
मैं किसके आगे दुखड़ा रोऊँ ?
(३.१२.६०)
मेरी पुस्तक ‘सारिका’ बिहार-भर में
प्रवेशिका परीक्षा की पाठ्य-सूची में स्वीकृत है और प्रतिवर्ष १५ से २०
हज़ार प्रतियाँ छपती तथा बिकती हैं...अशोक प्रेस ने केवल मेरी पुस्तकों की बिक्री
से लगभग दस वर्षों में दस लाख रुपये बैंक में जमा किये हैं | (४.९.५२)----का मैनेजर बड़ा कुटिल और दुष्ट है | उसी के झूठ बोलने से
मेरी रॉयल्टी मारी गयी | छपरा में २०% रॉयल्टी की बात हो चुकी थी | उसी की दुष्टता
से मेरी रोयल्टी के हज़ारों रुपये डूब गए | ---प्रेस की ४-५ रीडरों के सम्पादन और
प्रूफ-संशोधन में घोर परिश्रम कर के भी
मैं खूब ठगा गया | मेरे नाम से लाभ उठाकर हज़ारों –लाखों रुपये बैंक में जमा
कर दिए | (२१.७.५५) ५-६ वर्षों से मेरे नाम पर ‘साहित्य-चन्द्रिका’ के ४ भाग
स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक के रूप में बिक रहे हैं
जिनसे उन्होंने लाखों रुपये बैंक में जमा कर रखे हैं | पर मुझे जबरदस्ती
कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते | (१०.१०.५६) मुझे तो खूब मूडा, उलटे छुरे से हजामत बना
दी |
(२९.७.५५) दोनों
(प्रेस के मालिक) जानते हैं कि मैं शील छोड़कर अदालत में नहीं जाऊंगा; क्योंकि
मुक़दमा लड़ने के लिए मेरे पास पैसे और समय
का अभाव है | ---- में मेरी पुस्तक ‘सारिका’
इस साल १५,००० छपी है और आधी संख्या पर ही
मुझे रॉयल्टी मिली है | ‘व्याकरण दर्पण’ की रॉयल्टी में भी बेईमानी हुई है |...धनी
होना चाहो तो बेईमान बनो | (४.११.५५) ---- दोनों ने मेरे साथ जो बेईमानी की है वह
भगवान की आँखों से ओझल नहीं हो सकती| मनुष्य समझता है कि शीलवान व्यक्ति से अनुचित
लाभ उठाकर हम सुखी रहेंगे, पर रामजी उसको
सर्वनाश के मार्ग पर सरपट दौडाते हैं | भगवान के न्यायालय में सच्चा न्याय होता है
|
(१४.६.६१)----आजतक
मेरी बालोपयोगी पुस्तकें छापकर बेचते जाते हैं और अनेक बार निवेदन करने पर भी मेरा
हिसाब नहीं करते पाता| ‘दो घडी’ की १०,००० प्रतियाँ छापकर भारत सरकार को
प्रचारार्थ दिया और उसका रूपया भी पा गए , पर लब्धांश का हिसाब नहीं कर रहे हैं |
कई सज्जन मुझे अदालत जाने को भड़काते हैं,
पर मुकदमेबाजी की परेशानी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता | दुनिया की आँखों का पानी
गिर जाये भले ही, मेरी आँखों का पानी नहीं गिरना चाहिए | भूखों मरने पर भी
दु:शील होना मुझे सह्य न होगा | (३०.९.६१)
----प्रेस से आज तक एक पैसा नहीं आया | वे न पत्रोत्तर देते हैं और न हिसाब करते
हैं | मैं एक-एक पैसे के लिए कष्ट झेल रहा हूँ | (२२.१०.६१) आज तक हिसाब नहीं किया
| टालते-टालते एक साल बिता दिया |
इन उद्धरणों
में शोषण की वह कहानी उजागर होती है जो १९५० में राजेन्द्र कॉलेज, छपरा, से शिवजी
के बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के सचिव के रूप में पटना चले आने के बाद घटित हुई | लेकिन
वह इस श्रृंखला की चौथी और अंतिम कड़ी होगी जो अगले सप्ताह आप यहीं पढ़ सकेंगे |
चित्र १. परिषद् अपने कार्यालय में (१९५५)
२. छपरा का किराए का मकान जिसमें मेरा बचपन बीता (१९३९- १९४९)
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