प्रसंग : लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध -2
मंगलमूर्त्ति
यह कहानी
सुदूर अतीत के कुहासे में कहीं शुरू होती है – आज से लगभग २०० साल पहले १८२५ के
आस-पास जब कलकत्ता से नागरी लिपि में प्रकाशित पहला समाचार-पत्र ‘उदन्त-मार्तंड’
निकला था जिसके सम्पादक थे पं. युगल किशोर शुक्ल | अँगरेज़ अपना पांव फैला चुके थे
और कलकत्ता ही वस्तुतः देश की राजधानी था | प्रेस और मुद्रण का सारा व्यापार वहीँ
केन्द्रित था | लखनऊ का नवल किशोर प्रेस भी, जो फिर भारतीय उप-महादेश का सबसे बड़ा
प्रेस विदित हुआ, १८५८ में स्थापित हुआ था | यह बिखरते हुए मुग़ल हुकूमत का अंतिम चरण था, लेकिन अंग्रेजी के काबिज होने से पहले
यह ज़माना उर्दू-फारसी के बोलबाले का था | हिंदी का पौधा तो अभी रोपा ही जा रहा था |
और हिंदी के पहले गद्य लेखक मुंशी इंशा अल्ला खां ने यह काम उन्हीं दिनों लखनऊ में ही शुरू किया था | उस वक़्त के सभी लेखक
उर्दू-फारसी से ही अपनी तालीम शुरू करते थे | प्रेमचंद तो १९२४ के पहले नागरी लिपि में बमुश्किल लिख
पाते थे | शुरू में उनकी कहानियां और उपन्यास सब उर्दू में ही लिखे गए थे, और उस
वक़्त उर्दू के प्रकाशक उनको ज़्यादातर एकमुश्त पैसे दे दिया करते थे | कॉपीराइट
कानून बन चुका था, लेकिन किताबें छपने-बिकने का ज़माना अभिम आगे आने वाला था |
प्रेमचंद और निराला की जीवनियों में हिंदी के प्रकाशकों के साथ उनके ज़्यादातर
एकमुश्त लेन-देन, या उनके साथ हुई बेईमानियों और शोषण की थोड़ी-अधूरी जानकारी मिलती
है, लेकिन किसी ने अभी तक इस पक्ष पर अलग से कोई प्रमाणिक पुस्तक शायद नहीं लिखी है, जो शायद
अब कोई लिख डाले |
प्रेमचंद
(१८८०), शिवपूजन सहाय (१८९३) और निराला (१८९६) – थोडा आगे-पीछे – एक ही समय के
लेखक थे, और तीनों पत्रकारिता से भी जुड़े रहे –शिवजी तो जीवन में अंत तक – और
तीनों शुद्ध मसिजीवी ही रहे – बस कलम के बल
पर रोज़ी कमाने वाले ! कलम ही उनकी कुदाल रही, और लेखन ही उनका करघा | तीनों अपनी
फसल या बुनावट को प्रकाशकों की दूकानों पर ही बेचते रहे |
लेकिन यहाँ
अभी केवल शिवपूजन सहाय की शोषण-कथा थोड़े विस्तार से लिखी जानी है, और उसका भी केवल
वह अंश जिसका सम्बन्ध उनके प्रकाशकों से रहा | यद्यपि पैसों के मामले में
प्रकाशकों ने जिस प्रकार उनका शोषण किया, उनके साहित्यिक समानधर्माओं ने भी
भाषा-संशोधन-सम्पादन के नाम पर उनका लगभग उतना ही शोषण किया : प्रकाशकों ने धन का
और समानधर्माओं ने श्रम और समय का, जिसके कारण विलक्षण प्रतिभा-संपन्न होने के बाद
भी शिवजी का रचनात्मक अवदान यथाक्षम एवं यथा-प्रचुर नहीं हो पाया | लेकिन, यहाँ हम
उनके प्रकाशक-संबंधों पर ही मुख्यतः विचार करेंगे | यद्यपि उनके सम्पादकीय शोषण का
प्रश्न भी उनके प्रकाशकों से भी सीधे जुड़ा रहा |
शिवपूजन सहाय
पारिवारिक एवं आर्थिक कारणों से केवल मैट्रिक पास कर पाए थे और १९१७ से आरा में स्कूल-शिक्षक की सरकारी नौकरी करने
लगे थे जिससे गांधी के असहयोग आन्दोलन में १९२० में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था
| उसके बाद उनका लेखक-पत्रकार जीवन विधिवत ‘मारवाड़ी-सुधार’ के सम्पादक के रूप में
शुरू हुआ, जिसके व्याज से वे १९२१ में कलकत्ता जा पहुंचे और फिर वहां महादेव
प्रसाद सेठ के बालकृष्ण प्रेस में उनके साथ ही रहने लगे | उनके प्रकाशकीय शोषण की
कहानी का प्रारम्भ भी यहीं से होता है | वहीँ से ‘मतवाला’ साप्ताहिक निकला जिसका तीन
चौथाई काम दिन-रात शिवजी ही करते रहे |
अगस्त, १९२३ से फ़रवरी. १९२४ के ७ महीनों के हड्डी-तोड़ परिश्रम का पारिश्रमिक – जब वे
होली में अपने घर जाने लगे - उनको मात्र
२०० रु. सेठजी की और से मिल सका जिससे ही असंतुष्ट होकर उन्होंने ‘मतवाला’ छोड़
दिया और ८० रु. प्रति माह की पगार पर दुलारेलाल के विशेष आग्रह पर ‘माधुरी’ के
सम्पादन-विभाग में लखनऊ चले आये | इसी समय ‘माधुरी-सम्पादक के रूप में प्रेमचंद
१०० रु. की पगार पर लखनऊ आये थे | लेकिन दुलारेलाल भी उतने ही कठोर-मुट्ठी व्यवसायी
निकले, और शिवजी कुछ ही महीनों के बाद ‘माधुरी’ छोड़ कर फिर कुछ दिन बाद कलकत्ता ही
लौट गए | यद्यपि इस बार ‘मतवाला’ में नहीं, बल्कि कई छोटी-मोती अल्पजीवी पत्रिकाओं
– ‘मौजी’, ‘उपन्यास-तरंग’ के संपादक के रूप में | लेकिन इस बार दुबारा का कलकत्ता
भी उनको रास नहीं आया | आते ही, मार्च १९२५ में, एकमात्र पुत्री ‘वासंती’ का वहीँ
देहांत हुआ, वहीँ दूसरी पत्नी क्षयग्रस्त हो गयीं, और फिर मई, १९२६, में अंततः वे
अपनी रुग्णा पत्नी को लेकर काशी आ गए | लेकिन नवम्बर, १९२६ में इस दूसरी पत्नी का
भी देहांत हो गया | और यहीं से उनके लम्बे संघर्षमय जीवन और कठोरतम शोषण की कहानी शुरू हो गयी, जिसके प्रसंग की
चर्चा पिछले पोस्ट के पहले पत्र में मिलती है – जो उन्होंने ‘पुस्तक भंडार
(लहेरिया सराय, दरभंगा) के व्यवस्थापक को लिखी है |
अब इसकी
पृष्ठभूमि भी थोड़ी जान लें |’मतवाला’ से और ‘माधुरी’ से भी शिवजी के अलग होने का मामला प्रदोनों का साहित्य से लगाव पैसों के लिए अधिक था | इन्हीं परिस्थितियों
से जूझते हुए शिवजी दुबारा कलकत्ता गए थे, और ‘मतवाला’ से अलग-ही-अलग रहे थे, क्योंकि ‘मतवाला’ की चोट उनके दिल पर गहरी
लगी थी. जिसे वे अपने जीवन में अंत-अंत तक सहलाते रहे | इधर पुस्तक-भण्डार के
मालिक हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में शिवजी के सम्पादन-कौशल की ख्याति से परिचित हो
चुके थे, और उनकी दीठ भी शिवजी पर जम चुकी थी | बेनीपुरी माध्यम बने, और शिवजी
पुस्तक भंडार के पुस्तकों के सम्पादन-मुद्रण के सिलसिले में – जो तब काशी में ही
छपती थीं – काशी बुला लिए गए | काशी उन दिनों शिवजी के लिए धार्मिक ही नहीं, सबसे
प्रमुख साहित्यिक तीर्थ भी था – जहाँ प्रेमचंद थे, प्रसाद थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र
की वह नगरी, आधुनिक हिंदी साहित्य की जन्म-स्थली; शिवजी का मन सबसे अधिक वहीँ बाबा
विश्वनाथ की नगरी में ही रमता | और यहीं वह लम्बा, घनीभूत शोषण- चक्र शुरू हुआ
जिसका अंत उस उद्धृत पहले पत्र से पढ़ा जा सका है | काशी में शिवजी के उन दिनों के
शोषण का एक वास्तविक चित्र विनोदशंकर व्यास ने खींचा है –
शिवपूजन जी की
तरह का परिश्रमी व्यक्ति मैंने दूसरा नहीं देखा | वह जिस पाण्डुलिपि को ठीक करते,
उसके एक-एक अक्षर पर ध्यान रखते थे | पट्ट चटाई पर लेटे वह घंटों काम किया करते थे
और कभी थकते या घबडाते नहीं थे | उनके जीवन का अधिकाँश परिश्रम दूसरों की रचनाओं
के संशोधन में ही लगा | उनमें प्रतिभा थी, किन्तु उस प्रतिभा का सदुपयोग नहीं हुआ
| शिवपूजन जी की स्थिति देखकर मैं कभी-कभी मन में सोचता कि क्या विधाता ने इनके
जीवन में कभी शांति की व्यवस्था नहीं की है ? वैसे स्वभाव के भी वे कुछ संकोची ऐसे
थे कि जिसने अपने काम में उन्हें लगाया उसने पूर्ण रूप से उनकी शक्ति का रस
निचोड़ने का ही प्रयत्न किया | ऊबकर-घबडाकर भी वे मुक्त न हो पाते थे | कोई अन्य
साधन भी सामने दिखाई न पड़ता था | कभी लहेरिया सराय में हैं, कभी काशी में फुटकर
काम कर रहे हैं, कभी प्रयाग में किसी ग्रन्थ की छपाई में व्यस्त हैं | एक स्थान पर
स्थिर होकर रहने का अवसर ही उन्हें नहीं मिलता था |
काशी का शिवजी
का ऐसा साहित्यिक मजदूरी जीवन १९२६ से १९३३ तक चलता रहा, और जब अंततः १९३३ के बाद वे पुस्तक-भंडार में ‘बालक’ और ‘भण्डार’ के
प्रकाशनों का सम्पादन करने सपरिवार वहां चले गए, तब तो संपादन के नाम पर उनका
घर्षण-शोषण अपने चरम पर पहुँच गया | ( यहाँ के कुछ चित्र उसी समय के हैं )| ‘भण्डार’
के स्वामी श्री रामलोचन शरण उस समय भी शिवजी के रीढ़-तोड़ परिश्रम के लिए जो पगार
देते थे उसमें से आधा काटकर रख लेते थे*, यह कह कर कि दो बेटियों की शादी जब होगी
उसके लिए यह एक तरह का ‘प्रोविडेंट फण्ड’ जमा हो रहा है, यद्यपि जब बाद में
१९४७-४८ में ‘हिमालय’ को लेकर ‘भंडार’ से शिवजी का मतभेद हुआ, और वे ‘हिमालय’ से
और ‘भण्डार’ से भी अंतिम रूप से अलग हो गए तब ‘भण्डार’ के स्वामी ने बेटियों की
शादी के समय एक पैसा नहीं दिया | शिवजी ने ये सारी बातें अपनी डायरियों में साफ़
लिखी हैं | ‘देहाती दुनिया’ और ‘विभूति’ आदि पुस्तकों की रॉयल्टी का तो एक पैसा
नहीं ही दिया, ‘साहित्य सरिता’ नाम से एक गद्य-संकलन शिवजी से संपादित कराकर उन्हीं
के नाम पर पटना यूनिवर्सिटी के पाठ्य-क्रम में लगवाया, और सालों-साल तक उससे अकूत
धन कमाया, लेकिन शिवजी को उन्हीं के मुहावरे में –‘निबुआ नोन चटा दिया’! ‘भंडार’-व्यवस्थापक
के नाम का पहला पत्र इसी की व्यथा-कथा कहता है !
लहेरिया सराय
में ही मेरा जन्म हुआ था जिसके कुछ ही दिन बाद मेरे पिता राजेंद्र कॉलेज, छपरा के
हिंदी विभाग में प्राध्यापक-पद पर चले आये थे | दुर्भाग्यवश छपरा आने के साल-भर
बाद ही मेरी माता (बच्चन देवी, तीसरी पत्नी) का देहांत हो गया | लेकिन ‘भण्डार’ का
सम्पादन-प्रेत छपरा में भी उनके पीछे लगा ही रहा | ‘हिमालय’-सम्पादन-प्रकरण छपरा-प्रवास
के बीच का ही प्रसंग है, जिसके साथ शिवजी का ‘भंडार’ से अंतिम रूप से सम्बन्ध-विच्छेद
हुआ | ‘मतवाला’-काल से ‘भण्डार’-प्रकरण तक की इस संक्षिप्त कहानी में शिवजी के
सम्पादकीय शोषण की दो दशक लम्बी कहानी छिपी हुई है , जो पहली बार यहाँ प्रकाशित
पहले दो पत्रों से किसी हद तक आलोकित होती है |
*टिप्पणी : रामलोचन
शरण ने अपने १८.६.२८ के पत्र में लिखा था
- “यदि आप कहें तो जो योजना हो तो उसमें से आधा यहाँ आपकी दुल्हिन के नाम
पासबुक में जमा करने का प्रबंध करें | शेष आपको खर्च के लिए भेजा करें|” शिवजी ने
अपनी डायरियों में कई जगह लिखा है की उनकी पगार से काटकर जमा की जाने वाली यह राशि
उनकी म्पुत्रियों के विवाह के समय उन्हें फिर नहीं मिली| “सम्पादन-कार्य छोड़ देने
के कारण अब मास्टर साहब कन्याओं के विवाह में सहायता नहीं देंगे |” (देखें डायरी
-१६.१.४८) | देखें : ‘समग्र’, खंड ९,पृ.३६७ – सं. |
शिवपूजन सहाय
के ‘साहित्य-समग्र’ के दो खण्डों (६ और ७) में उनकी पूरी डायरी, विशेषतः १९४१ से १९६३
तक नियमित प्रकाशित है, और उसमें अनेक प्रविष्टियों में उन्होंने अपने प्रकाशकीय
शोषण की चर्चा की है | प्रेमचंद और निराला की जीवनियों में भी प्रकाशकों द्वारा
शोषण के ज़िक्र बार-बार आये हैं, लेकिन वहां खींच-तान भी काफी रही है, जो शिवजी के
मूक-शोषण में अनुपस्थित मिलती है |
आज अखबारों
में और सामाजिक मीडिया के इन्टरनेट मंचों
पर इस गंभीर विषय की कुछ चर्चा शुरू हुई है | विदेशों में – यूरोप और अमेरिका में – और
भारत में भी अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों में यह समस्या वैसी नहीं है, और अब पर्याप्त व्यवस्थित हो चुकी है | लेकिन हिंदी
में यह बीमारी बहुत पुरानी भी है, और जटिल
भी | इसके चार ‘स्टेक होल्डर्स’ हैं – पहला तो लेखक ही, जिसके बिना यह सारा
व्यापार संभव ही नहीं; दूसरा, प्रकाशक, जो इस दूषित व्यवस्था का मुख्य लाभार्थी और
दोषी है; तीसरा, पाठक - जो इस पूरे व्यवसाय का वास्तविक आधार होता है; और चौथी, वे असंख्य संस्थाएं जो
पुस्तकालय की खरीद से जुड़ी होती हैं, और जो इस व्यवसाय में व्याप्त सारे
भ्रष्टाचार में प्रकाशकों के साथ चट्टी-बट्टी होती हैं | विशेष चिंता की बात है कि
इस भ्रष्टाचार में सरकारी विभाग भी, जहाँ से केन्द्रीय या राज्य स्तर पर खरीदें की
जाती हैं, वे भी आकंठ डूबे दीखते हैं | अब इस भ्रष्टाचार-लिप्त दूषित व्यवस्था का
हिंदी भाषा और साहित्य के स्तर और विकास पर कैसा गहरा हानिकारक प्रभाव पड़ता रहा है,
इस पर सरकार और समूचे लेखक-वर्ग को ध्यान देना चाहिए |
सबसे पहले
सरकारी संस्थाओं – प्रकाशन विभाग, साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं
के लेखकीय अनुबंधों में लेखकों के प्रति जो अनुचित दोषपूर्ण वैधानिक प्रावधान हैं
उनमें पर्याप्त संशोधन किया जाना ज़रूरी है | मेरा निजी अनुभव इस तरह की सरकारी संस्थाओं के साथ भी अप्रिय ही
रहा है | पारिश्रमिक की दरों में दशकों से बढोत्तरी नहीं की गयी है | चयन-समितियों
में मनमानी और पक्षपात चलता ही रहा हैः | रॉयल्टी-विवरण कभी समय से नहीं भेजे जाते
| पत्रों के उत्तर बार-बार रिमाइंडर देते रहने पर भी महीनों तक नहीं मिलते | फोन तक नहीं उठाये जाते
| ऐसा लगता है, सरकारी नौकर अपने को किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं मानते, सिवा
अपनी माहवार मोटी तनखाह के | वस्तुतः, यदि केवल इस विशाल सरकारी व्यवस्था में
चुस्ती आ जाय तो स्थिति बहुत कुछ सुधर जा सकती है | सरकार यदि इस गंभीर समस्या पर ध्यान दे और इसका हल
निकालने पर कटिबद्ध हो जाय, और राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशन के केन्द्रीय संस्थानों की
स्थापना कर दे तो हिंदी के बड़े प्रकाशकों की धांधली बहुत कुछ खुद रुक जा सकती है |
इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार को रोकने का सबसे कारगर तरीका यही है कि ऐसी हर सरकारी
संस्था के प्रमुख का चुनाव उसकी ईमानदारी और कार्य-निष्ठा के आधार पर किया जाय | विश्वविद्यालयों
में भी पुस्तक-खरीद केन्द्रीय-स्तर पर इन्हीं मानकों के आधार पर, ईमानदार,
निष्ठावान प्रमुख की देख-रेख में हो | बड़े
प्रकाशकों की प्रकाशन एवं वितरण व्यवस्था की भी प्रति वर्ष सरकारी या विशेष अर्द्ध-सरकारी
एजेंसी द्वारा जांच हो और प्रकाशक भी अपना साफ़-सुथरा वार्षिक प्रकाशन-मुद्रण विवरण सरकार
को दें और सार्वजनिक भी करें | अनियमितताओं में चलने वाले प्रकाशकों के सभी प्रकार
के निबंधन न्यस्त किये जाएँ |
ऐसी स्थिति
में, लेखक यदि अपने रचना-कर्म का समुचित आर्थिक प्रतिदान प्राप्त करने लगेगा, तब
उसके सृजन का स्तर स्वतः ऊंचा उठेगा, क्योंकि उसके जीवन में सुख-शांति की व्यवस्था
सुनिश्चित हो सकेगी | विश्व के – विशेषतः यूरोप और अमेरिका के – देशों में साहित्य-सृजन
की, और पाठकों के पुस्तक-प्रेम और पुस्तक-खरीद की भी स्थिति हिंदी पुस्तक-व्यवसाय
की तुलना में कई गुना बेहतर है, यह तो सर्व विदित है | वहां हज़ारों लेखक ऐसे हैं
जो केवल अपने लेखन के बल पर ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जी रहे हैं, और दशकों से वहां ऐसा
माहौल है |
हिंदी के
पुस्तक-प्रकाशन व्यवसाय के दूषणों की वास्तविक जांच-पड़ताल करने वाली कोई पुस्तक प्रकाशित
हुई है, इसकी जानकारी अभी तक तो मुझे नहीं है, पर अब शीघ्र ही इस पर एक प्रमाणिक
शोध की पुस्तक लिखी जानी चाहिए जिससे इस घातक रोग की गंभीरता और उसके प्रसार, और
उसके उपचार का भी पता चल सके |
शिवपूजन सहाय के प्रसंग में जो तीसरा पत्र है, उसका सम्बन्ध
उस काल-खंड से है, जब वे छपरा से १९५० में बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् के सचिव होकर
पटना चले आये थे | लेकिन उनके प्रकाशकीय-शोषण की वह करुण- कथा वहां भी उनके साथ
लगी रही | अगली श्रंखला में उसी की चर्चा होगी |
चित्र-१ : शिवजी 'पुस्तक-भण्डार' (लहेरिया सराय, दरभंगा में, ल.१९३७ )
चित्र-२ : 'पुस्तक भंडार' का चित्र | आगे : रामलोचन शरण, भवानी दयाल सन्यासी और शिवपूजन सहाय |
[क्रमशः]
आलेख एवं चित्र (C) मंगलमूर्ति
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