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Sunday, April 17, 2022

 

लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध : प्रसंग-4                               

राष्ट्रकवि दिनकर के ‘कुरुक्षेत्र’ की ये पंक्तियाँ एक विशेष प्रसंग को आलोकित करती हैं :

            “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो

            उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो |”

बहुत गहराई में ये पंक्तियाँ शिवपूजन सहाय और उनके प्रकाशकों के सन्दर्भ में भी बहुत अर्थपूर्ण प्रतीत होती हैं | शिवजी ने अपने कंठ में गरल धारण किया, जो वे ही कर सकते थे | उनके विनीत और सरल होने को जो लोग उनकी सांकल्पिक दुर्बलता समझते थे, उन लोगों की दृष्टि बहुत संकीर्ण थी | इस बात के प्रमाण शिवजी की  डायरी के पृष्ठों में भरे पड़े हैं | यह और बात है कि अपनी समग्रता में उपलब्ध हो जाने के बाद आज भी हिंदी संसार उस महत्त्वपूर्ण साहित्य से  प्रायः अनवगत ही है | हिंदी के प्रकाशकों पर उनकी नीचे उद्धृत पंक्तियाँ हिंदी के लिए एक भविष्यवाणी जैसी हैं | पहले इन पंक्तियों को पढ़ें, फिर हम इस विमर्श की कड़ियाँ जोड़ेंगे |

हिंदी के प्रकाशक

साहित्यिकों के पैसे हड़प कर प्रकाशक धनी हो गए हैं | देश में जब क्रांति मचेगी तब गरीबों को चूसने वाले पूँजीपतियों के साथ बेईमान प्रकाशक भी  लूटे जायेंगे | लेखक और कवि उस लूटपाट का लोमहर्षक  वर्णन करेंगे (१२.११.५५)|  लेखक को प्रकाशक के सामने याचना करते देख विधाता की निर्ममता पर क्षोभ होता है  (१४.११.५५)| हिंदी संसार के प्रकाशक यदि लेखकों के स्वार्थ की भी चिंता रखते तो साहित्य निर्माण में बड़ी सहायता मिलती |...जब तक नैतिक बल की ओर प्रकाशक और लेखक ध्यान नहीं देंगे तब तक हिंदी की अभीष्ट उन्नति नहीं होगी |...देशवासियों का नैतिक बल भी तभी बढेगा जब साहित्यकारों में सच्चा नैतिक बल आ जायेगा  | साहित्य निर्माता ही राष्ट्र निर्माता है | जिस देश में त्यागी और तपस्वी साहित्यसेवी होते थे, उस देश में कीर्तिलोलुप और अहंकारी लोगों के हाथ में साहित्य पड़ गया है | युग की गतिविधि देख बड़ी चिंता होती है कि आगे का युग कैसा होगा  (३०.९.५८) | आजकल के प्रकाशक यदि उदार होते तो साहित्य का बहुत उपकार होता और साहित्यसेवकों को प्रोत्साहन और अवलंबन मिलता | हमारे हिंदी के प्रकाशक कब अंग्रेजी के प्रकाशकों के आदर्श पर ध्यान देंगे (२०-२१.५.४९) | बार-बार लिखने पर भी प्रकाशक  कभी रॉयल्टी का हिसाब नहीं समझाते – चुकाना तो दूर रहा | प्रकाशक अहंकारवश समझते हैं कि निर्धन असहाय लेखक हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं (९.१२.५३) | हिंदी के प्रकाशक हम लेखकों का खून चूस कर मोटे हो गए है | उनके बच्चे दूध-घी चाबते हैं और हमलोगों के बच्चे सूखी रोटी पर नमक भी नहीं पाते (९.१२.५३) | पटना के  हिंदी पुस्तक प्रकाशकों में एक भी ईमानदार होता तो हिंदी साहित्यसेवियों की दशा दयनीय न होती | ईमान  खो देने पर जो उन्नति नज़र आती है वह चार दिन की चाँदनी है | कभी-न-कभी पाप का घड़ा भर कर फूटता ही है (२.५.५६)|

ये प्रामाणिक पंक्तियाँ हैं, शिवजी की कलम से लिखीं |  जो लोग उनको ‘विनीत सरल’ कह कर उनको अव्यावहारिक करार देते थे, ये हिंदी के वही साहित्यकार थे जिनकी अपनी साहित्यिक नैतिकता सदा प्रश्नांकित रही | वास्तव में साहित्यिक नैतिकता आचरण और सृजन के बीच के संतुलन पर आश्रित होती है | आचरण और सृजन में यदि एकमेकता बनी रहेगी, यदि वे एक दूसरे को संपुष्ट करते रहेंगे,  यदि उनमें परस्पर विलोम-सम्बन्ध नहीं होगा, तब वे कभी साहित्यिक नैतिकता को क्षत-च्युत नहीं करेंगे | परन्तु आचरण और सृजन की यह एकमेकता, यह सम्पृक्ति बहुत कम साहित्यकारों में देखी जाती है | शिवजी में यह एकमेकता अनन्य थी, वैसी जैसी उन्हीं के समय के अन्य किसी साहित्यकार में नहीं दिखाई देती | जिन  लोगों ने उनके साहित्य को पढ़ा है, उनके संस्मरणों, उनकी साहित्यिक पत्रकारिता और उनकी डायरी अथवा पत्रों को ध्यान से पढ़ा है, वे जानते हैं की अपने समय में हिंदी साहित्य-लेखन में वे अकेले साहित्यकार हैं जिनके लेखन में साहित्य के आदर्श मूल्यों का जैसा प्रतिपालन दिखाई देता है, उन मूल्यों का वैसा ही प्रतिबिम्बन उनके भौतिक जीवन में भी देखा जा सकता है | वास्तव में, उनका पूरा जीवन ही आदर्श साहित्यिक मूल्यों का प्रमाणीकरण प्रतीत होता है, जिसमें किसी प्रकार के कलुष का एक भी दाग कहीं नहीं दिखाई देता | साहित्य को उसकी सम्पूर्णता और श्रेष्ठता में अपने जीवन में पूरी तरह सार्थक करने वाले – अपने सभी समकालीनों के बीच भी – वे अकेले साहित्यकार हैं | इसका एक प्रमाण बेल्जियन संत फादर कामिल बुल्के की श्रद्धांजलि में पढ़ा जा सकता है –

परलोक में पहुँचने पर  मुझे अपनी जन्मभूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी; पर अपनी नई मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमें एक शिवपूजन जी हैं | परलोक में पहुंचकर मुझे उनसे मिलकर अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव होगा और मैं उनके सामने नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूंगा कि उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरुप क्या है |   

मैं स्वयं फादर बुल्के से रांची में उनके टिन छत वाले एक कमरे के आवास में मिला था और उनकी आँखों में अपने दिवंगत पिता के प्रति गहन श्रद्धा की वह झांकी देखी थी | वैसे भी शैशव में ही मातृहीन हो जाने के कारण, और सबसे छोटी संतान होने के कारण, मैं अपने पिता के जीवन के अंतिम २५ वर्षों में छाया की तरह उनके साथ रहा, और मेरा यह दुर्लभ एवं ईर्ष्य सौभाग्य रहा कि मैंने उस देवतुल्य साहित्य-पुरुष  की पावन जीवन लीला का अंतिम संघर्षित परिच्छेद अपनी इन भौतिक आँखों से देखा | मेरे सामने घटित हुआ १९४० से १९६३ का यह कालखंड तो पिता के जीवन में किंचित स्थिरता का समय रहा, जब कि ठीक उससे पहले के डेढ़ दशक (१९२६-१९३९) उनके जीवन के कठिनतम संघर्ष के वर्ष रहे जिनका संकेत पिछले विवरणों में उद्धृत पत्रों में आया है | लेकिन मेरे समय के स्थिरता के वर्षों में भी मेरे पिता के जीवन में शोषण की वह गाथा अविरत  चलती रही जिसका संकेत भी उन्हीं पत्रों से मिल जाता है, जहाँ १९५०-६२ के बीच दो प्रेसों  द्वारा  उनका गर्हित शोषण किया गया था (देखें पिछला प्रसंग-३) |

पूर्वोल्लिखित डायरी अंशों में एक अन्य  प्रकार के शोषण की भी चर्चा है, जो उनके जीवन में समय का शोषण था, जब लोग जैसे-तैसे लिखे अपने मोटे-मोटे ग्रंथों को उन पर सम्पादन-संशोधन के लिए लाद देते थे, जिसकी चर्चा भी बार-बार उनकी डायरियों में भरी पड़ी है – लोग एक, घंटा, एक दिन भी उनका अपना नहीं होने देते थे ताकि वे कुछ अपना लिख-पढ़ सकें; दूर-दराज़ के शहरों के सम्मेलनों में, अस्वष्ठाता की स्थिति में भी, जबरदस्ती खींच कर ले जाया करते थे  | और यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने ही होता रहा | जब मेरे पिता को  – जिनको राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपनी विशेष अनुशंसा पर ‘पद्मभूषण’ प्रदान किया. और जिन्होंने राज्यसभा की सदस्यता का बिहार कांग्रेस का प्रस्ताव भी अस्वीकृत कर दिया था  -  बिहार की ही सरकार ने समय से पूर्व अवैधानिक ढंग से सेवानिवृत्त कर दिया, जिससे उनको पेंशन नहीं मिल सका, और १९५९ से १९६३ के ४ वर्ष किस मुफलिसी में बीते, जब मेरे पिता को दवा, दूध और फल तक नहीं मिलते थे, जिसके कारण समय से पूर्व उनका शरीरांत हुआ | इन सब के पीछे प्रकाशकों का, साहित्यिक मित्रों का और सबसे बढ़कर बिहार सरकार का निर्मम व्यवहार था जिससे हिंदी के एक संत का असमय जीवनांत हुआ, और जिस कारण हिंदी को बहुत कुछ और नहीं मिल सका, जो उसे मिलता | उनके जीवन के अंतिम दो वर्षों (१९६१-’६२) में यह कहानी और भी दारुण हो गयी जब ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ के खण्डों का सम्पादन करने के लिए बिहार सरकार ने उनके लिए केवल रिक्शा-भाड़ा की मंज़ूरी दी, और उसी क्रम में जनवरी में वे परिषद् से १० से ५ तक खट कर रिक्शे से लौटते हुए वे वर्षा में भींग गए, बीमार होकर अस्पताल गए, और वहीँ ५  दिन बाद  उनका निधन हो गया |

अंत में दो शब्द इस बात पर कि इतने महान हिंदी-सेवी और रचनाकार को रामविलास शर्मा और उसी स्तर के  कुछ अन्य साहित्यकारों ने केवल प्रूफ-रीडर और भाषा-संशोधक की तरह मूल्यांकित किया, उनके साहित्यिक सृजन-कार्य को कभी ठीक से समालोचित नहीं किया | क्या यह हिंदी के लिए शोभा की बात है ? प्रूफ-रीडिंग और भाषा-सम्पादन क्या होता है, अगर ऐसे साहित्यकार समझते तो वे हिंदी गद्य की महिमा समझते और यह समझते कि निराला ने क्यों रामविलासजी को कहा था कि वे उनकी जीवनी शिवजी को समर्पित करें – “शिवपूजन जी को समर्पण बहुत अच्छा है, बड़े सज्जन और चारु साहित्यिक हैं |”  मेरी समझ से निराला और शिवजी के अनन्य स्नेह-सम्बन्ध को समझने के लिए, और निराला शिवजी को और सभी साहित्यकारों से कितना अलग मानते थे यह जानने के लिए, ऐसे लोगों को शिवजी का निरालाजी पर लिखा संस्मरण ‘देवोपम पुरुष निराला’ (सा. हिंदुस्तान,५.११.६१)  पढना चाहिए था | निराला शिवजी के गद्य-लेखन की महिमा को समझते थे| यह और बात है कि बहुत से ऐसे लोग जो निराला को समझने वाले माने जाते रहे, वे शिवजी को एक भाषा-संशोधक और प्रूफ-रीडर से बहुत ऊपर हिंदी का एक श्रेष्ठ साहित्य-सर्जक कभी नहीं समझ सके |

शिवजी उस युग के लेखक थे जब हिंदी अभी साहित्य की भाषा के रूप में निर्मित ही हो रही थी | आप उस  युग के लेखकों के संस्मरणों और चिट्ठियों में पढ़िए कि वे शिवजी की साहित्य-साधना को किस समादर-दृष्टि से देखते थे | शिवजी के ‘साहित्य समग्र’ में प्रकाशित श्रीधर शर्मा,महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, बनारसी दास चतुर्वेदी, माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर प्रभाकर माचवे और अज्ञेय के पत्रों को पढ़ने पर यह जाना जा सकता है | मैंने अपनी संस्मरणों की नई प्रकाशित पुस्तक ‘दर्पण में वे दिन’ में ऐसे बहुत से अल्पज्ञात प्रसंगों की चर्चा की है जिनसे पता चलता है कि हिंदी नवजागरण के उत्तर-कालखंड में हिंदी के साहित्य-निर्माताओं का जीवन कितना असुरक्षित और संघर्षपूर्ण था, और वे सब शिवजी को कितना सम्मान देते थे |

सम्पादन और प्रूफ-रीडिंग उस लेटर-प्रेस युग में कितने अनिवार्य, संश्लिष्ट और कठिन कार्य थे जिन्हें निराला, प्रसाद और प्रेमचंद की कोटि के लेखक भी स्वयं नहीं कर सकते थे, और इसके लिए भाषा की उच्च-स्तरीय समझ और सामर्थ्य उस समय के बहुत कम ही लोगों में थी | यह दुष्कर कार्य शिवजी ने इसलिए अपने ऊपर नहीं ले लिया था कि यह उनके लिए कोई सुखदायी कर्म था, जैसा भ्रम कुछ लोगों को था, जैसे जगदीश चन्द्र माथुए का यह लिखना कि “शिवपूजन जी को एक त्रुटिपूर्ण पृष्ठ का सांगोपांग प्रूफ संशोधन करने में वही आनंद मिलता था, जो किसी सेठ को अपने शेयरों के सूद का मिलान करने पर मिलता है, अथवा किसी पेटू पांडे को सुस्वादु भजन पाने पर “! लेकिन पिछले प्रसंगों में  विनोदशंकर व्यास ने अपने संस्मरण में  शिवजी के इस प्रकार के हृदयहीन श्रम-शोषण का वास्तविक चित्र अंकित किया है | यह सच है कि प्रूफ-संशोधन भले ही एक मशीनी हुनर हो, लेकिन उसमें आँखों का तेल तो निकल ही जाता था, और अच्छे प्रूफ-रीडर उस ज़माने में भी बहुत नहीं  होते थे, लेकिन गहन भाषा-साधना से अर्जित भाषा का जैसा ज्ञान शिवजी को था, वह उनके समय में किसी और के पास नहीं था | इसका एक छोटा-सा उदाहरण ‘जागरण’ में प्रकाशित, शिवजी द्वारा संशोधित ‘प्रसाद’ जी की कविता की दो पंक्तियाँ हैं: – “विभुता विभु-सी दुख-सुख  वाली, दिखलाती हो सत्य बनी रे” (मूल), और शिवजी द्वारा  संशोधित : “विभुता पड़े दिखाई विभु-सी, दुख-सुख वाली सत्य बनी रे”| यहाँ यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि गद्य के प्रसाद गुण की प्राप्ति  से कविता कैसे स्वाभाविक रूप से निखर जाती है | इस प्रसंग पर अलग से विस्तार से विचार हो सकता है |  इसे  पेट-पूजा और सूद-मिलान का वासना-शमन  जैसा कार्य समझना अपनी नासमझी को ही दर्शाना है |

 ‘जागरण’ में प्रकाशित, शिवजी द्वारा संशोधित लगभग सभी पांडुलिपियाँ शिवजी के संग्रह में उपलब्ध हैं | ‘ द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’, राजेंद्र अभिनन्दन ग्रन्थ’, ‘प्रवासी-प्रपंच’ (ब्रह्मदत्त भवानी दयाल का उपन्यास) – इन सबकी मूल पांडुलिपियाँ संग्रहालयों में आज भी सुरक्षित हैं, और उनको देखकर समझा जा सकता है कि शिवजी के संशोधनों में इनमें भाषा की कैसी बारीक कारीगरी दिखाई देती है | ‘रंगभूमि’ संशोधन भी शिवजी ने किया था, पर वह प्रेस-कॉपी दुलारेलाल के गोदाम में गुम हो गयी | फिर भी भाषा-वैज्ञानिक शोध से यह देखा जा सकता है कि प्रेमचंद की कथा-भाषा का स्वरूप उसके पहले और बाद के उनके  उपन्यासों में कितना अप्रभावित या प्रभावित रहा है | डा. कमल किशोर गोयनका ने ‘शतरंज के खिलाडी’ (‘माधुरी’, अक्टूबर, १९२४) का पाठ-शोध लोथार लुत्से के साथ प्रकाशित किया है, पर उसमें भी कई प्रकार की असंगतियाँ रह गयी हैं | क्योंकि जिस कहानी का संशोधन-सम्पादन  निश्चय ही शिवजी ने अगस्त-सितम्बर, १९२४ में, लखनऊ में रहते हुए ‘रंगभूमि’ के साथ ही किया था, उसको दुलारेलाल द्वारा किया मान लिया गया है, जबकि दुलारेलाल में  प्रेमचंद की भाषा का सम्पादन करने में क्षमता भला कहाँ  होती, यह तो शिवजी को लिखे (‘समग्र’-८ में प्रकाशित) उनके पत्रों की भाषा को पढ़ कर ही जाना जा सकता है | इसीलिए हिंदी के समीक्षात्मक इतिहास-लेखन की यह सबसे बड़ी कमी है कि वह शिवजी के साहित्यिक अवदान का केवल उचित मूल्यांकन नहीं करती, इतना ही नहीं है, वह निश्चित रूप से उसका अवमूल्यन और उसकी असंगत उपेक्षा करती है, और उनके श्रम और हिंदी-हित में किये गए आदर्श समर्पण और त्याग की अवमानना करती हुई आगे बढ़ जाती है | वह इस पर रुक कर सोचने की जहमत ही  नहीं उठाती कि क्यों प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ के शिवजी द्वारा संशोधन-सम्पादन को उनकी ‘महीनों की दिमाग-रेज़ी’ कह कर अपना आभार जताया था |

अभी इस लेखक-प्रकाशक-शोषण प्रसंग का समापन शिवजी के एक वैसे ही मार्मिक वाक्य से किया जा रहा है, जो  प्रकाशकीय शोषण से किसी हद तक मुक्त होकर कॉलेज की प्राध्यापकी में आने पर अनुभूत राहत से फिर और उच्चतर साहित्य-सेवा के नाम पर वहां से भी खींच कर सरकारी शिक्षा विभाग की सेवा में बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् के मंत्री पद पर आने के बाद, उनकी डायरी में,  शिवजी की करुण-कथा का एक शीर्ष-वाक्य बन गया -                 

 राजेन्द्र कॉलेज छोड़कर मैंने बहुत भारी भूल की | परिषद् में साहित्यसेवा करने आया; पर यहाँ तो बस कुटिलों का कुचक्र ही आगे आया (४.७.५६) | “

चित्र: १. जब राजेन्द्र कॉलेज में थे  २. छात्र  की रचना का संशोधन   ३. उस समय के प्रूफ-पाठ का नमूना  ४. सिंघासन बत्तीसी (मूल पुस्तक) जिसका हिंदी अनुवाद 'तोता-मैना' की तरह करना चाहते थे, पर वह पूरी योजना अधूरी रह गयी |  


आलेख एवं चित्र (C) मंगलमूर्त्ति

इसी क्रम में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और शिवपूजन सहाय’ पर भी एक २-३ किस्तों की श्रृंखला



मैं लिखना चाहता हूँ जिसे आगे के सप्ताहों में आप मेरे इसी ब्लॉग पर पढ़ सकेंगे, जिसमें १९५० से १९६३ तक की कहानी के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंग होंगे | बाद में संभव होगा तो इस श्रंखला-सामग्री को एक पुस्तक का रूप भी दिया जा सकेगा |

 

           

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