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Tuesday, August 17, 2021

 












शिवपूजन सहाय का ‘महिला महत्त्व’

पिछले ९ अगस्त, २०२१ को संध्या ५-६ बजे  आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास और प्रसिद्ध सहित्यिक वेब-मंच ‘जानकीपुल’ के संयुक्त संयोजन में न्यास की वेबिनार-श्रृंखला में दूसरी कड़ी - “नारी-विमर्श और शिवपूजन सहाय का ‘महिला महत्त्व’ - का वेब-प्रसारण हुआ जिस क्रम में श्रोताओं की अनेक उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं | वेबिनार का सञ्चालन ‘जानकी पुल’ के संचालक श्री प्रभात रंजन ने किया, और उसमें बिहार की वरिष्ठ लेखिका एवं साहित्यकार पद्मश्री उषाकिरण खान, विदुषी लेखिका डा. भावना शेखर, बर्दवान वि.वि. की हिंदी विभागाध्यक्ष डा. रूपा गुप्ता एवं आचार्यश्री के कनिष्ठ पुत्र एवं न्यास के सचिव डा. मंगलमूर्त्ति ने अपने विचार व्यक्त किये | उल्लेखनीय है की वेबिनार की अध्यक्षा पद्मश्री उषाकिरण खान को न्यास की ओर से २०१६ में ‘श्रीमती बच्चंदेवी साहित्य गोष्ठी सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है | उनकी हिंदी और मैथिली की कई कृतियाँ हाल के वर्षों में प्रशंसित हुई हैं |  हम यहाँ अपने ब्लॉग – vibhutimurty.blogspot.com – पर इन विदुषियों और साहित्यकारों के संक्षिप्त वक्तव्य ( उन्हीं द्वारा अपने भाषण का संक्षिप्त आलेख) कुछ संबद्ध चित्रों के साथ प्रकाशित कर रहे हैं, जिन्हें आप अपनी सुविधा से पढ़ सकते हैं |    

श्री प्रभात रंजन

श्री प्रभात रंजन ने विषय का प्रवर्त्तन करते हुए पहले सब वक्ताओं का परिचय दिया और बताया कि आ. शिवपूजन सहाय की स्मृति में  आयोजित इस वेबिनार श्रृंखला से जुड़ कर ‘जानकीपुल’ गौरव का अनुभव करता है और अपने सभी श्रोताओं का अभिनन्दन करता है | नारी-विमर्श का यह विषय आज के समय का सबसे ज्वलंत और महत्त्वपूर्ण विषय है और आ. शिवजी पिछली सदी के प्रारम्भ में – आज से सौ साल पहले - अपनी कहानियों में इस विषय को ऐसा  महत्त्व दे रहे थे और अपने पहले कहानी संग्रह का नाम ही उन्होंने ‘महिला महत्त्व’ रखा था, यह बात आज उनकी १२८वी जयंती के अवसर पर विशेष अभिनंदनीय है और आज हम इसी प्रसंग  में उनकी कहानियों पर इन विदुषी महिलाओं के विचार सुनेंगे |

डा. मंगलमूर्त्ति

इस कोरोना-काल में एक सार्थक विचार मंच ‘वेबिनार’ के रूप में हमारे सामने आया है | आज १२८ वीं जयंती दिवस पर  न्यास के इस प्रयास का उद्देश्य नव-जागरण काल के साहित्य और साहित्यकारों पर प्रमख रूप से ध्यानाकर्षण करना है | इसमें हम समय-समय पर  जानकीपुल जैसे साहित्यिक मंचों से जुड़ कर वर्त्तमान में इस तरह के वेबिनारों का आयोजन करना चाहते हैं | आज का विषय व्यापक रूप से हिंदी-नवजागरण काल में नारी-विमर्श और विशेष रूप से आ. शिव के कथा-साहित्य में नारी-विमर्श पर केन्द्रित है |

आ. शिवजी आज से सौ साल पहले १९२१ में जब वे  २८ वर्ष के थे – उन्होंने अपनी गद्य-साधना का पहला चरण पूरा कर लिया था | ‘महिला महत्त्व’ की सभी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं | हिंदी नव-जागरण के दो तीन दशक बीत चुके थे | हिंदी गद्य का पर्याप्त विकास हो चुका था | प्रेमचंद और गुलेरी  की कहानियाँ  - ‘बड़े घर की बेटी’, ‘नमक का दारोगा’, ‘उसने कहा था’ सब आ चुकी थीं |  हिंदी के कथा-गद्य को उसका परिनिष्ठित स्वरूप प्राप्त हो चुका था  | कहानी और कथा-साहित्य के विकास में एक मील का पत्थर गड़ चुका था | प्रेमचंद का ‘सेवासदन’ और शिवजी की ‘देहाती दुनिया’ ने हिंदी में उपन्यास लेखन की सुदृढ़ नींव डाली थी, जिनमें भी वेश्यावृत्ति और स्त्रियों के यौनिक प्रपीडन के प्रश्न उजागर हुए थे | वस्तुतः, २० से ४० के दशक में वेश्या-समस्या, विधवा विवाह, नारी-उत्पीडन, नारी-शिक्षा और सुधार जैसे प्रश्न ही विमर्श के केंद्र में रहे |  आज की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होनी चाहिए |

इस आयोजन का दूसरा प्रमुख पक्ष है शिव के १९२२ में प्रकाशित ‘महिला महत्व’, उनकी तब तक की प्रकाशित १० कहानियों पर नारी-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में चर्चा | ‘महिला महत्त्व’  की सभी १० कहानियाँ १९१४-१९१९ के बीच प्रकाशित हुईं – लक्ष्मी, कायस्थ-महिला, आर्य महिला आदि में | नव-जागरण काल में नारी-विमर्श एक अलग महत्त्वपूर्ण विषय है जिस पर हम आगे भी विचार करेंगे – यथाशीघ्र इस प्रसंग में हम राजा राधिकारमण पर एक वेबिनार आयोजित करेंगे जिनके समग्र साहित्य में नारी-विमर्श की यह धारा प्रमुखता से प्रवाहित होती दिखाई देती है |    

 डॉ.भावना शेखर

अनेक कुरीतियों से जूझ रही 19 वीं सदी को देखते हुए तत्कालीन रचनाकारों ने साहित्य रचा। उस युग के लेखकों की नियति थी कि वे परंपरा को पूरी तरह छोड़ नहीं सकते थे और आधुनिकता को पूरी तरह ओढ़ नहीं सकते थे। इसी परिपाटी के अनुसार आचार्य शिवपूजन सहाय अपने रचना कर्म में प्रवृत्त हुए। उन्होंने अपने साहित्य में जिन स्त्री पात्रों की रचना की, उनमें परंपरा और प्रगति का अद्भुत संतुलन था। एक ओर उनकी ऐतिहासिक  नायिकाएं हाडा रानी, राजकुमारी प्रभावती और कृष्णा कुमारी उस देश काल के आदर्श के अनुकूल वीरांगना और मर्यादित थीं पर दूसरी ओर कुछ स्त्रियां लीक से छिटक कर चलने वाली थीं। बंकिमचंद्र प्रेमचंद जैसे कथाकारों की तरह स्त्री के आदर्श रूप के प्रति उनका वैचारिक आग्रह है किंतु विधवा विवाह के समर्थन और बेमेल विवाह के बहिष्कार का प्रखर स्वर आचार्यवर के कथा साहित्य में साफ दिखता है। देहाती दुनिया में सुगीया और बुधिया जैसे सशक्त पात्र और भगजोगनी (कहानी का प्लॉट) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बेमेल विवाह का विरोध और परंपरा का खंडन करते हैं। भावना शेखर का मानना है कि आज के लड़की बचाओ लड़की पढ़ाओ के नारे का बीज लगभग

100 साल पहले शिवपूजन सहाय के साहित्य में मिलता है। अपने अधिकांश निबंधो में आचार्यवर स्त्री शिक्षा और उसके स्वास्थ्य के प्रबल पैरोकार की भूमिका में दिखते हैं। उनकी दर्जनभर कहानियों और निबंधों के उद्धरण देते हुए भावना शेखर ने बंकिमचंद्र  प्रेमचंद, राजा राधिका रमण, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि समकालीनों के साथ तुलना करते हुए आचार्य शिवपूजन सहाय के नारी पात्रों का विशद विश्लेषण किया। उन्हें आधुनिक बिहार का साहित्यिक पिता मानते हुए उनके उदार चरित्र और निस्पृहता की प्रशंसा की। उनके अनुसार आचार्य ने चाटुकारिता राजनीति या द्वेषभावना से परे रहकर अपनी सारी उपलब्धियां अपनी ओजस्वी कलम के बल पर  प्राप्त की।

 

डा. रूपा गुप्ता

शिवपूजन सहाय जैसे समर्थ रचनाकार के साथ केवलदेहाती दुनियाऔरविभूतिका नाम जुड़ना उनपर हुए शोधकार्यों की अपूर्णता की ओर स्पष्ट संकेत है। उनके संपादक रूप से उपकृत और ऋणी हिन्दी संसार ने उन्हें सम्मान तो यथेष्ट दिया किंतु उनके लेखन के आलोक में उन पर समृद्ध चर्चा कम हुई। शिवपूजन सहाय के विपुल लेखन का प्रो. मंगलमूर्ति जी द्वारा श्रमसाध्य दस भागों में संपादन हिन्दी के गंभीर अध्येताओं के लिए विस्मयकारी के साथ चुनौतीपूर्ण भी है।

 कुछ वर्ष पूर्व अपनी डी. लिट. थीसिस के लेखन के दौरान मैंने शिवपूजन सहाय की भाषा दृष्टि का अध्ययन किया। उसी दौरान उनका समग्र खंगालते समय उनकी छोटी-सी पुस्तकमहिला महत्त्वपर ध्यान गया। छोटे से आकार की (कुल पैंतालीस पृष्ठ) यह पुस्तक बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों की स्त्री चिंता का प्रतिनिधि स्वर सामने रखती है। मुख्यत: 1915 से 1927 . तक लिखे गए कुल 13 आलेख शिवपूजन सहाय के लेखन में अन्यत्र फैले महिला चिंतन का निचोड़ हैं। विशेष तौर पर उनकेमतवालाके अग्र लेखों में स्थान-स्थान पर नारी और नारी जगत से सम्बद्ध पारम्परिक धारणाओं और प्रतीकों के प्रति उनका सजग-संवेदनापूर्ण व्यवहार उनमें और भी पुष्ट रूप में सामने आता है।

 शिवपूजन सहाय केमहिला महत्त्वऔर अन्यत्र नारी संबंधी लेखन को शिवपूजन सहाय के ही शब्दों में रखा जाए तो वह मुख्यत: ‘स्त्रियों के हितार्थ’, ‘महिलाओं के महत्त्व’, ‘महिलाओं के लाभ की उपयोगी बातें’, ‘समाज की देवियाँ’, उपदेशप्रद बातों औरमहिलाओं का यथेष्ट ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजनजैसी युगीन भावनाओं को पूरी तरह समेटते हुए उस पारम्परिक स्त्री को यथार्थ में देखना चाहता है जो कल्पना और आदर्श की स्त्री है तथा प्राचीन इतिहास और पुराण से पूरी तरह प्रेरित है। बीसवीं सदी की आधुनिक शिक्षा प्राप्त स्त्री को समाज में इसी आदर्श स्त्री को बचाए रखना है। इस कथन का यह व्यंजनार्थ कतई न लिया जाए कि शिवपूजन सहाय स्त्री विरोधी हैं क्योंकि वे पारम्परिक स्त्री को ही समाजोपयोगी मानते हैं। अपने समय की विचारधारा के अंतर्विरोधों के साथ भी शिवपूजन सहाय स्त्री, विशेषकर ग्रामीण स्त्री के प्रति पूरी ईमानदारी से चिंतित हैं। वे अतीत की स्त्री पर मोहित अवश्य हैं, लेकिन पित्तृसत्तात्मक समाज के स्त्री के प्रति न्यायविरुद्ध आचरण से आँखें नहीं मूँद लेते। शिवपूजन सहाय पर्दा प्रथा विरोधी, स्त्री शिक्षा समर्थक, दहेज प्रथा विरोधी और विधवा विवाह समर्थक हैं। उनके लेखन का मुख्य स्वर स्त्री पक्षधर है। 

 

पद्मश्री उषा किरण खान

इस मौके पर मैं साहित्य के क्लासिक के बारे में कहकर नीरसता पैदा नहीं करना चाहती। मैं आचार्यवरके बारे में कुछ ऐसी बातें बताना चाहती हूं जिनसे उनके सुपुत्र मंगलमूर्ति जी भी पूरी तरह भिज्ञ नहीं हैं । उन्होंने बताया कि पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय, दरभंगा) में संपादक के रूप में रहते हुए आचार्यजी उपेंद्र महारथी के साथ जगदीश भाई से मिलने के लिए खादी भंडार जाया करते थे | जगदीश भाई यानी मेरे पिता । वहां उग्र, मैथिलीशरण गुप्त, राय कृष्ण दास  जैसे साहित्यकारों का वहां जमावड़ा होता  रहता था और खूब साहित्यिक चर्चा हुआ करती थी । 

मेरे पिता ने जब मेरी बाल विधवा माता से विवाह किया तब आचार्य जी इसके साक्षी थे। इसका उल्लेख मैंने हवलदार त्रिपाठी की लिखी एक पुस्तक में देखा है, और तो और उसमें मेरे जन्म की और मंगलमूर्ति जी  के बचपन की भी चर्चा है। हम तब छोटे बच्चे थे, साथ साथ खेले खाए। मुझे लगता है शायद यही वजह थी आचार्यजी के प्रति मेरे विचित्र लगाव की। 

 

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन और महिला चरखा समिति से वे गहरे जुड़े थे। आचार्यजी के प्रति आकर्षण ही था जो कॉलेज के दिनों में छात्रावास से टहलते हुए मैं कई बार साहित्य सम्मेलन चली जाती थी, उनके पास बैठकर उनसे तरह-तरह की बातें सुनती थी । तब वे राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक थे। चरखा समिति से प्रकाशित उनकी अंतिम संपादित पुस्तक "बिहार की महिलाएं" हर व्यक्ति को पढ़नी चाहिए | अपने जीवन के अंतिम कुछ महीनों में, अपनी बीमारी के समय में भी उन्होंने बड़े कष्ट से इस पुस्तक का संपादन पूरा किया था । इस पुस्तक के प्रति उनकी लगन नारी उत्थान के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण को सिद्ध करती है।

जनवरी १९६३ में उनके निधन के बाद उनके शव को पटना कॉलेज लाया गया था । उनकी शवयात्रा के जुलूस में बहुत बड़ा जनसैलाब उमड़  पडा था | उस दिन को याद करते हुए मेरी आंखों में वो स्मृतियां तैर जाती हैं |

 

आचार्य जी का नवजागरण बंगाल से आयातित नहीं था, वरन वे महात्मा गांधी से प्रेरित थे। गांधीजी ने स्त्री-शिक्षा और स्त्रियों के लिए हर प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था पर जोर दिया था । उनके प्रेरणा से देश का सबसे पहला स्त्री शिक्षा केंद्र महिला विद्यापीठ के नाम से बिहार में खुला था । आचार्य जी ने गांधीजी के इसी आदर्श को अपने साहित्य में दोहराया। गांधीजी चाहते थे कि स्त्रियां पढ़-लिख कर भी प्राचीन नारी के सांचे में ढल कर रहें, किंतु गाँधी जी से  प्रेरित होने के बावजूद स्त्री की अस्मिता के मामले में आचार्यजी उन  से दो कदम आगे ही थे। वे चाहते थे कि स्त्रियां परंपरा से जुड़ी रहकर भी आधुनिक हों।

 

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 सबसे ऊपर चित्र में पद्मश्री उषा किरण खान को ९ अगस्त, २०१६ को आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास की ओर से लखनऊ में एक जयंती समारोह में 'श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी सम्मान' से सम्मानित किया गया था | श्रीमती बच्चन देवी आ. शिव जी की दिवंगता पत्नी थीं जिनकी स्मृति में आचार्य जी ने इस गोष्ठी की १९५४ में पटना में स्थापना की थी | सम्मान-पत्र उत्तर प्रदेश हिंदी संसथान के अध्यक्ष श्री उदय प्रताप सिंह द्वारा दिया गया था |

सामग्री और चित्र (C) आ. शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास

 

 

 

 

 

 

 

 

2 comments:

soma anand said...

Very nice🙏

pandit vinay kumar said...

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति !🙏🏻🙏🏻