Followers

Sunday, July 24, 2016

आँखों में ‘अश्क’ !                                                     


नीलाभ अश्क के कल सुबह दिल्ली में असामयिक निधन का दुह्संवाद सबसे पहले फेसबुक पर आया| वे कुछ दिन से बीमार थे| उनके पिता श्री उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ पिछले पचास के दशक के एक महत्वपूर्ण हिंदी लेखक थे – कहानी, उपन्यास, नाटक, सभी क्षेत्रों में उनका महनीय योगदान था| नीलाभ ने भी पिता की परंपरा में ही साहित्य-लेखन में नई पीढ़ी के लेखकों में पर्याप्त यश अर्जित किया| साहित्य-लेखन के साथ ही पत्रकारिता, रंगमंच, टीवी, रेडियो आदि से भी वे जुड़े रहे और अनुवाद के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां विशेष  उल्लेखनीय रही हैं| नेट पर हिंदी अखबारों में भी उनके निधन का समाचार विस्तार से आया है| समालोचन के ब्लॉग पर भी उनपर सामग्री प्रकाशित हुई है| मैंने भी उनके फेसबुक वाल पर  उनका लिखा अंतिम पोस्ट ‘प्रायश्चित्त’ पढ़ा जो अत्यंत ही मर्मस्पर्शी है|

मेरा नीलाभ से व्यक्तिगत परिचय नहीं था| एक दिन बस कुछ क्षणों के लिए साहित्य अकादेमी में लिफ्ट से नीचे उतरते हुए उनसे परिचय हुआ और उन कुछ मिनटों में ही हम आत्मीय हो गए जब मैंने उनको बताया कि अश्कजी से मेरी मुलाकात पचास के दशक में  कई बार हुई थी| फिर एक बार १९५५ में जब वे पटना आये थे तो वहां सम्मलेन-भवन में मेरे पिता से मिलने आये थे| उस समय मैंने उनका एक चित्र भी खींचा था, जिसके विषय में मैंने नीलाभ से उस समय कुछ मिनटों की भेंट में ही वादा किया कि वह चित्र मैं उनको भेजूंगा| चित्र में अश्क-दम्पति के साथ मेरे पिता आ. शिवपूजन सहाय और मेरे बहनोई श्री वीरेंद्र नारायण भी हैं जिनसे अश्कजी की विशेष मित्रता थी| ‘अश्क’ जी जब भी आते वीरेन्द्र जी  के घर पर ही ठहरते थे| वीरेन्द्रजी भी एक सफल नाटककार और लेखक थे और अश्कजी के साथ उनकी मित्रता १९५० से ही थी| ‘अश्क’-दम्पति का दूसरा चित्र भी मैंने उसी अवसर पर पटना के हिंदी साहित्य सम्मलेन में लिया था जब वे मेरे पिता से मिलने वहां आये थे| उन दिनों हमलोग सम्मलेन भवन परिसर में ही रहते थे|
 नीलाभ के निधन के समाचार से मैं और भी आहत अनुभव कर रहा हूँ कि ये चित्र मैं उनको नहीं भेज सका| अश्कजी और कौशल्याजी ने उन्हीं दिनों इलाहाबाद में ‘नीलाभ प्रकाशन’ की स्थापना की थी और अपनी पुस्तकों के प्रसारण के सिलसिले में मेरे पिता से मिलने पटना आये थे| अश्क-दम्पति के दोनों चित्र उसी समय के हैं| आज मेरा मन संतप्त है कि मैं नीलाभ से वादा कर के भी ये चित्र उनको नहीं भेज सका|  अत्यंत शोक की बात है, नीलाभ कल चले गए| उनके जाने से हिंदी का एक उज्ज्वल नक्षत्र असमय अस्त हो गया!          

नीलाभ अपने नाम के साथ ‘अश्क’ नहीं लिखते थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व में ‘अश्क’ जी वाला मस्तमौलापन, अक्खडपन, जुझारूपन, - सब कुछ वैसा ही था, बल्कि कुछ ज्यादा ही था| हिंदी को उनको जो देना था, उन्होंने दिया; और अभी शायद बहुत कुछ और भी देते| लेकिन संस्कृत का एक श्लोक है –
         एकसार्थ प्रयातानाम सर्वेषाम तत्र गामिनाम,
         यद्येकस त्वरिताम यताःयात्रा का परिदेवनाम|
-    “एक साथ गंतव्य की ओर निकले यात्रियों में यदि कोई एक पहले चला जाता है, तो उसके लिए शोक कैसा?”
हर की मंजिल अपनी होती है| हर की हासिल भी अपनी होती है| किसी आत्मीय से अलगाव का शोक भी स्वाभाविक है| पर जानेवाले ने जब अपनी मंजिल हासिल कर ली, तो इसे भी स्वीकारना ही होता है|

 आज मैं इन दो पुरानी तस्वीरों  में ही नीलाभ को याद कर रहा हूँ| हालाँकि मेरी यादों के अल्बम में ऐसी बहुत सारी और तस्वीरें भी हैं जिन्हें मैंने संजो कर रखा है, और इन तस्वीरों को देखने पर इनके साथ बहुत सी और भी  यादें जुडी हुई चली आती हैं| अश्क जी अक्सर पटना आते थे| सम्मलेन-भवन उन दिनों बिहार में साहित्य का प्रमुख केंद्र था| बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का कार्यालय भी तब वहीं था, मेरे पिता जिसके निदेशक थे| यह बात १९५७ की है|


अश्कजी ने उन्हीं दिनों ‘संकेत’ नाम का एक ग्रन्थ सम्पादित-प्रकाशित किया था जो शायद उनके ही सम्मान में



प्रकाशित एक स्मारक-ग्रन्थ जैसा साहित्यिक संकलन था| वे पटना आये थे और उसके लिए मेरे पिता से उन्होंने एक रचना की मांग की थी| शिवजी (मेरे पिता) ने अपनी डायरी में लिखा है : “श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का कोई अभिनन्दन-ग्रन्थ छप रहा है| उसके लिए एक रेखाचित्रात्मक संस्मरण आज ही लिखा और भेज दिया” (२५.१२.५७)| ‘महेस पांडे’ शीर्षक यह रेखाचित्र ‘संकेत’ में एकदम शुरू के पृष्ठों में विशेष सम्मान के साथ प्रकाशित हुआ और बाद में नलिन विलोचन शर्मा आदि द्वारा इस रेखाचित्र की बहुत प्रशंसा हुई| ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ में यह रेखाचित्र संकलित भी है (खंड-१)| संभव हुआ तो आगामी ९ अगस्त को शिवजी की १२३ वीं जयंती के अवसर पर उसे पुनः प्रकाशित भी किया जा सकता है|

‘अश्क’जी का उसी अवसर पर (२३.१२.५७) सम्मलेन-भवन में ‘हिंदी नाटक और रंगमंच’ पर एक व्याख्यान भी ‘बच्चनदेवी साहित्य गोष्ठी’ में हुआ था| शिवजी ने अपनी डायरी में फिर  लिखा है : “सम्मलेन-भवन में सात बजे रात के बाद डेढ़ घंटे तक श्रीमती बच्चन देवी गोष्ठी का २०वां अधिवेशन हुआ| मुख्य अतिथि रहे प्रयाग के श्री उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’| उन्होंने हिंदी के नाटक और रंगमंच पर वार्तालाप किय| कहा कि हिंदी में रंगमंच का अभाव होने से अच्छे नाटकों की बहुत कमी है| सुशिक्षित अभिनेताओं और पात्रियों की आवश्यकता है जो व्यापारिक नाटक-कंपनियों या नाटक-मंडलियों को सफलता से चलावें| सरकार को चाहिए कि नगर-नगर  में नाट्यशाला बनवा कर इस लोकहितकारी कला की उन्नति में सहायक हो| ‘अश्क’जी ने बीच-बीच में अभिनय की भावभंगी भी दिखाई| ‘अश्क’जी बड़े मधुरभाषी विनोदी हैं|”
 
आज हिंदी के इन प्रतिभावान लेखकों, स्मरणीय साहित्य-सेवियों को लोग भूलते जा रहे हैं जिन्होंने अपना खून-पसीना बहा कर हिंदी को आज विश्वस्तरीय भाषा-साहित्य का दर्ज़ा दिलाया| नीलाभ आज चुपचाप चले गए लेकिन बहुत सारे मित्रों, शुभैषियों को उस समृद्ध विरासत की याद दिलाते हुए गए जिसमें उन्होंने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था|              

 (C) Photo & Text : Dr BSM Murty





No comments: