जयप्रकाश नारायण की तीन हिंदी रचनाएं
मंगलमूर्ति
जेपी नाम अब इतिहास में जयप्रकाश नारायण का ही रहेगा| हजारीबाग जेल की नज़रबंदी से
१९४२में दीवाली के दिन जेल की दीवार लांघकर भागनेवाले क्रान्तिधर्मी जयप्रकाश ने
अपने जेलप्रवास में हिंदी में दो कहानियां और एक लेख लिखकर श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी
के हवाले दिया था| उन्हीं
दिनों पटना से शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी के सम्पादन में मासिक 'हिमालय' का प्रकाशन हुआ था जिसमें जुलाई, '४६ के अंक में जेपी का 'हमारा प्राचीन वांग्मय' लेख छपा था, और फिर दो कहानियाँ भी छपी थीं - 'दूज का चाँद' (नवं.'४६) और 'टॉमी पीर' ( दिसं. '४६)| इन तीनों रचनाओं के बारे में सबसे
पहले पता तब लगा था जब मैंने इनके अंग्रेजी अनुवाद साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'इंडियन लिटरेचर' (नवं.-दिसं.२०११) में प्रकाशित किये
थे| लेकिन
उससे भी पहले मेरे ये अनुवाद मेरे ब्लॉग vibhutimurty.blogspot.com पर
प्रकाशित हो चुके थे जहां ये अनुवाद आज भी पढ़े जा सकते हैं – २४ अगस्त, २०१० के
पोस्ट में|| उस
ज़माने में हिंदी साहित्य का सीधा जुडाव राष्ट्रिय आन्दोलन से था और उस समय जेपी के
हिंदी लेखन का विशेष महत्व था|
हिंदी में ये कहानियां अब अन्यत्र भी प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन हिंदी वाला लेख - 'हमारा प्राचीन वांग्मय'
- अभी
तक शायद सामने नहींआया है| आज वह लेख भी आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते
हैं| (मूल को स्कैन करके उसके चित्र यहाँ दिए गए हैं| यदि इस लेख को कहीं भी
प्रकाशित किया जाय तो कृपया इस ब्लॉग के प्रति आभार प्रकाशित अवश्य किया जायेगा
ऐसी आशा है)|, इन
तीनों अलभ्य रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है| आशा है हिंदी के साथ अंग्रेजी में
भी जेपी की ये रचनाएं आप ज़रूर पढेंगे| तीनों रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग पर पढने के
लिए पहले आर्काइव वर्ष २०१० पर क्लिक करें, फिर ‘ओल्डर पोस्ट्स’ पर क्लिक करके २४
अगस्त के पोस्ट पर इन्हें पढ़ें| यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जेपी जब लाहौर जेल से
छूट कर पहली बार पटना आये तब २१ अप्रिल, १९४६ को गांधी मैदान में उनके स्वागत में
हुई एक भारी भीड़-भरी सभा में श्रीदिनकर ने ‘कहते हैं उसको जयप्रकाश’ नामक ऐतिहासिक
कविता का ओजस्वी पाठ किया था जिसका मेरा किया अंग्रेजी अनुवाद भी वहीं पढ़ा जा सकता
है| साथ ही इमरजेंसी से ठीक पहले प्रकाशित श्रीधर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता ‘मुनादी’
का मेरा अंग्रजी अनुवाद भी वहां पढ़ा जा सकता है| लेकिन पहले आप यहाँ नीचे 'हमारा प्राचीन वांग्मय' के
चार प्रकाशित पृष्ठों को पढ़ें|
लेख के चित्रों के अलावा दोनों चित्र १९७४ के हैं जब मैं अपने कॉलेज प्राचार्य कपिलजी के साथ जेपी से मिलने गया था | ऊपर का चित्र उसी समय मैंने लिया था और यह चित्र मेरे मित्र jजीतेन्द्र बेनीपुरी ने लिया था जो कपिलजी के जामाता थे | कपिलजी अब दिवंगत हो चुके हैं और जीतेंद्र अभी गंभीर बीमारी में दिल्ली में कोमा में पड़े हैं| यह मेरे लिए इस कहानी का सबसे दुखद प्रसंग है|
(C) चित्र एवं सामग्री : डा. मंगलमूर्ति
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