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Thursday, October 10, 2024

 

जयंती स्मरण 

शिवपूजन सहाय, निराला और रामविलास शर्मा

मंगलमूर्ति 




डॉ
रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखी तीन खंडों में प्रकाशित अपनी पुस्तकनिराला की साहित्यसाधना’ ‘शिवपूजन सहाय की पुण्यस्मृति को सादर समर्पित करते हुए निराला के ये शब्द उद्धत किए थेµ‘‘शिवपूजन जी को समर्पण बहुत अच्छा है, बड़े सज्जन और चारू साहित्यिक हैं ’’ इस खंड के अंत में टिप्पणियों की तालिका मंे औरकृतज्ञताज्ञापनवाले अंतिम अध्याय में शिवपूजन सहाय के पत्रसंग्रह केमतवालामंडल वाले अनेक पत्रों से मिली संदर्भ सहायता एवं स्वयं शिवजी के साथ हुई तत्संबंधी महत्वपूर्ण बातचीत की विस्तार से चर्चा है निराला से शिवजी का संपर्कमतवालाकाल में ही विशेष रूप से सधा और आत्मसंस्मरणों की अपनी पुस्तकमेरा जीवनमें शिवजी ने निराला जी औरमतवालामंडल से संबद्ध अपने संस्मरणों को विस्तार से अंकित किया है निराला की साहित्यसाधनाके तीसरे खंड में निराला और शिवपूजन सहाय का परस्पर सारा पत्राचार प्रकाशित है

निराला पर पुस्तक लिखने की योजना रामविलास जी के मन में १९४० के दशक से ही काम करने लगी थी, यद्यपि पुस्तक अंतत% १९६९ में प्रकाशित हुई जब ४० के दशक में शिवजी राजेंद्र कॉलेज, छपरा में प्राध्यापक थे तभी से शर्माजी उनसे इस संबंध में पत्राचार करने लगे थे लेकिन आखिरकार लगभग दो दशक बाद ही शर्मा जी स्वयं पटना आकर शिवजी से जून, १९६२ में मिले और कई दिन पटना में रुक कर उन्होंने शिवजी के मूल्यवान पत्रसंग्रह से निराला औरमतवालामंडलसंबंधी उन बहुत सारे पत्रों को खंगालकर उनसे सूचनाएं इकट्ठी कीं

जून, १९६२ के प्रारंभ में दिनों के शर्माजी के इसी घटनाप्रवास में मुझे उनके प्रथम दर्शन हुए गर्मी की छुट्टियों में, मैं पटना में ही था और शर्माजी के सत्कार के साथसाथ चिट्ठियों को छांटने और काम की चिट्ठियों को शर्माजी को उपलब्ध कराने में मेरी भूमिका सहायक की थी मौसम लू के दिनों का था और शर्माजी सवेरे ही जाते थे और आते ही काम में जुट जाते थे मुझे हैरत होती थी कि सुबह बजे से शाम को लगभग बजे तक, जब अंधेरा होने लगता था तब तक शर्माजी एक ही आसन में बैठे चिट्ठियो के बंडलों में बिल्कुल डूबे रहते बीच में भोजन के लिए रुकते थे, पर उसके बाद जरासा विश्राम भी नहीं करते थे फिर काम शुरू कर देते थे यह सिलसिला इसी तरह या दिन चला शर्माजी से यही मेरी पहली मुलाकात थी और मैं उनकी कार्यशैली देखकर बहुत प्रभावित हुआ वैसे उससे कुछ पहले मैंने अपने पिता को भी इसी तरह सुबह से शाम तक लगातार काम करते देखा था जब उन्होंने अपने गांव के पुस्तकालय में गर्दगुबार और पसीने से लथपथ खाली बदन कई बोरों में चिट्ठियों को छांटने और सहेजने का काम कईकई दिनों तक किया था, जिसमें मैंने भी उनका साथ दिया था छांटी हुई चिट्ठियां या बोरों में पटना लाई गई थी, और फिर उन्होंने उन चिट्ठियों को वहां सिलसिलेवार छांटने का काम किया था, और फिर उन्हें अमेरिकी सूचना सेवा बुलेटिन वाले मोटे खाकी लिफाफों में छांटबांट कर रखते गए थे

इसके कुछ ही महीनों बाद २१ जनवरी १९६३ को शिवजी का निधन हो गया था, और उसके बाद कई वर्षों तक शर्मा जी के साथ मेरा भी पत्राचार चलता रहा, खासकर उन दिनों जब मैं प्रेमचंदसंबंधी पत्रों का एक संकलन संपादित कर रहा था इन्हीं दिनों १९७६ में उनसे मेरी दूसरी मुलाकात इसी प्रसंग में आगरा में उनके ३०, नई राजामंडी वाले मकान में हुई थी, जब मुझे पत्रों के संपादन के विषय में उनसे बहुत सारे मूल्यवान सुझाव मिले थे और उन्होंनेनिराला की साहित्यसाधनाके तीसरे खंड की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति मुझे भेंट में दी थी

आचार्य शिवपूजन सहाय की जन्मशती (१९९३) के प्रसंग में मुझको प्रेषित अपने पत्र में उन्होंने लिखा था

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने का श्रेय शिवपूजन सहाय औरमतवालामंडलके उनके सहयोगियों को है मानक हिंदी को संवारने में उनकी भूमिका अन्यतम है निराला के जीवनसंघर्ष में समयसमय पर उन्होंने उनकी जो नैतिक सहायता की, वह सचमुच अमूल्य है निराला के समर्थक सहज ही उनके स्नेहभाजन होते थे निराला की निरंतर बढ़ती हुई ख्याति से उन्हें जो अपूर्व आनंद प्राप्त हुआ था, उसकी झलक मैंने उनकी आंखों में देखी थी निराला कीसाहित्यसाधनालिखते समय अपना पत्रसंग्रह मुझे दिखाकर उन्होंने मेरा मार्ग सुगम बनाया था वह संपादक थे, आचार्य थे, कलाकार थे उनके गद्य लेखन में यह कलाकार रूप जहांतहां बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है हम उन्हें याद करें, उनसे हिंदी लिखना सीखें, यह मेरी कामना है ’’

मेरी तीसरी और अंतिम भेंट उनसे उनके दिल्ली स्थित विकासपुरी वाले आवास पर तब हुई जब दूरदर्शन की टेलीविजन टीम के साथ उनका एक साक्षात्कार रिकार्ड करने के लिए मैं उनसे मिला यह संभवत% १९९७ उत्तरार्द्ध की बात है दिल्ली दूरदर्शन द्वारा दो फिल्में शिवपूजन सहाय के जीवन और कृतित्व पर बन रही थीं जिनकी पटकथा मैंने ही लिखी थी इसके लिए उस टीम के साथ कलकत्ता, पटना, वाराणसी, लखनऊ और दिल्ली जाकर कई साहित्यकारों के साक्षात्कार रिकार्ड किए गए थे जिनमें प्रोकल्याणमल लोढ़ा, डॉबलदेव उपाध्याय, डॉनामवर सिंह आदि विद्वानों के साक्षात्कार शामिल किए गए थे इन सभी साक्षात्कारों में डॉरामविलास शर्मा का साक्षात्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण इस अर्थ में था कि उसमें समय के एक बहुत लंबे अरसे के संस्मरण थे जिनमें निराला, शिवपूजन सहाय और रामविलास शर्मा एक अटूट सूत्र में बंधे दिखाई पड़ते हैं

यहां उस विडियो साक्षात्कार का पाठ पहली बार प्रस्तुत किया गया है इस प्रस्तुति से, आशा है, उस पूरे महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रकरण पर प्रकाश पड़ेगा जो निस्संदेह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का एक स्वर्णिम युग था, जिसमेें कठोर जीवनसंघर्ष, समर्पित पत्रकारिता के रूप में भाषा और साहित्य की साधना और देश तथा समाजसेवा के नैतिक आदर्श एक ही हीरे के विभिन्न ज्योतित पहलू थे उस साक्षात्कार में रामविलास जी ने कहा था %

‘‘मैं पढ़ता था इंटरमीडिएट क्लास में जब पहलेपहल मैंने निराला जी की कविता पढ़ी और उस कविता को पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि इस तरह की कविता कोई दूसरा नहीं लिखता इंटर में हिंदी मेरा विषय था हाईस्कूल में भी मैंने हिंदी पढ़ी थी संस्कृत भी पढ़ी थी, तो थोड़ा तो हिंदी कविता से परिचित था मैथिलीशरण गुप्त की बहुत धूम थी पंडित जी (निराला जी) के विषय में लोग कम जानते थे, लेकिन मुझे लगा कि इस कवि की रचनाओं में जैसी ताकत है, और जितनी मिठास है उस तरह की मुझे और कविता में नहीं दिखाई देती थी

‘‘झांसी से मैं लखनऊ गया, और सन् १९३४ में मैंने एमपास किया वहां श्रीराम रोड पर एक पुस्तकभंडार था, वहां निराला जी कभीकभी आया करते थे वहां से विवेकानंद की पुस्तकों के कुछ मेरे किए हुए अनुवाद छपे थे जब मैं एममें पढ़ता था तब मैंने राजयोग का अनुवाद किया था, कर्मयोग का अनुवाद किया था वेदांत नाम से कुछ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया था जो सब विवेकानंद के अंग्रेजी लेखों के अनुवाद थे निराला जी विवेकानंद के भक्तों में से थे वहां उन्होंने वे अनुवाद देखे और मेरी हिंदी पढ़ी तो उन्होंने प्रकाशक से पूछा ये रामविलास शर्मा कौन हैं, तो उन्होंने कहा कि एक दिन वे आएंगे तो आपको मिला देंगे

‘‘उस समय तक मुझे यह नहीं मालूम था कि वे मेरे गांव के पास के ही रहने वाले हैं पर कुछ दिन बाद तो ऐसा साथ हुआ कि कोई दिन ऐसा नहीं होता था कि हम दोनों लखनऊ में हों और आपस में मिलें तो फिर निराला भी खड़ी बोली छोड़कर अवधी बोलने लगे और तब हम लोग गांव की बोली में ही आपस मंे बातें किया करते थे

‘‘फिर मुझेमतवालामंडल के बारे में मालूम हुआ, निराला जी ने कैसे संघर्ष किया था, ये सब मुझे मालूम हुआ, और उसी सिलसिले में मुझे शिवपूजन सहाय जी का नाम सुनने को मिला धीरेधीरे निराला जी पर मैंने लेख लिखना शुरू किया और सन् ४३ में जन प्रकाशन गृह, बंबई ने मुझसे कहा कि तुम निराला जी पर एक पुस्तक लिखो मैंने कहा, ठीक है, मैं पुस्तक लिखूंगा पुस्तक लिखने के सिलसिले में मैंने शिवजी को पत्र लिखे–––––

आदरणीय शिवपूजन सहाय जी % निराला जी से आपके बारे में बहुत कुछ सुना है और इस प्रकार परोक्ष रूप से आपसे परिचित हूं मैं उनके संपर्क में सन ३४ में आया था तब से वह परिचय गाढ़ा ही होता गया है, और अब आत्मीयता से परिणत हो गया है उनके एक साधारण प्रशंसक के रूप में आप मेरा परिचय ग्रहण करें

मैं उन पर एक पुस्तक लिखने का विचार कर रहा हूं उसमें उनकी कृतियों की आलोचना के अतिरिक्त उनके विरुद्ध प्रचार, उनके जीवनसंघर्ष आदि पर भी लिखना चाहता हूं इस कार्य में आपसे सहायता का प्रार्थी हूं आप यदि विस्तार से उन पर लिखना चाहें तो उस अंश के साथ आपका नाम देकर मैं उसे अपनी पुस्तक मंे सम्मिलित कर लूंगा अन्य प्रकार से जो भी बातें आप बताएंगे, उनके लिए आभार स्वीकार करूंगा मैंने नवजादिकलाल जी परविश्वमित्रमें आपका लेख देखा था और वह मुझे बहुत पसंद आया था निराला जी के कलकत्ते वाले साहित्यिक एवं असाहित्यिक जीवन के बारे में जो बता सकेंगे, उसके लिए कृतज्ञ हूंगा ’ (१७०२४३)

उन्होंने मेरे पत्रों के उत्तर दिए वे पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं

(शिवजी को लिखा रामविलास जी का अगला पत्र इस प्रकार था%)

‘‘निराला जी के प्रति आपके क्या भाव हैं, मैं अच्छी तरह से जानता हूं निराला जी के पास आपके बहुत से पत्र थे जो अब मेरे पास हैं मैंने उन्हंे पढ़ा है और हृदय से आपको सराहा है आपको बताने की जरूरत नहीं है, फिर भी कहता हूं कि निराला जी के हृदय में भी आपके लिए वैसा ही स्थान है जिस साहित्यिक के विरूद्ध उन्होंने कभी एक शब्द नहीं कहा और जिसकी उन्होंने सदा प्रशंसा की है वहएकमेवा द्वितीयम्’’ आप ही हैं मुझे आपके दर्शनों का बड़ा कुतूहल है ––––’’

‘‘शिवजी के लिखे हुए संस्मरण अनेक पत्रों में छपे थे लेकिन मुझे उनसे संतोष नहीं था, और मैं उनसे कहता था कि आप पूरा वृतांत सचसच लिखिए उन्होंने किसी एक पत्र मंे मुझे ये लिखा है कि अगर पूरी बात सचसच लिखूंगा तो लोग मुझ जीवित नहीं छोडेंगे उससे मुझे अनुमान हुआ कि उनका कितना विरोध हुआ था और उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा था बाद में जब मैं उनसे मिला तो मैंने उनसे फिर कहा कि आप खुद लिखें तो आप लिखकर मुझे दे दें तो मैं उसे कहीं प्रकाशित करवाऊंगा लेकिन सत्य तो सामने आना चाहिए लेकिन उन्होंने कहा कि तुम समझते नहीं हो, ये बातें बहुत गहराई में हैं, बहुत पेचीदा हैं लेकिन मुझे तो निराला पर एक आलोचना पुस्तक लिखनी थी, मैंने सोचा था कि उनके जीवन के बारे में भी कुछ बातें लिख दी जाएं तो अच्छा होगा

‘‘मैंने जब उनसे कहा कि सारी बातें सचसच लिख डालिए, तो इसका मतलब यह नहीं था कि अनेक संस्मरण जो उन्होंने लिखे थे उसमें वे झूठ लिख रहे थे लेकिन कुछ बातों को वे प्रकट नहीं करना चाहते थे यह बात सही है कि जो पत्र उन्होंने लिखे उसमें भी उन्होंने स्वीकार किया कि मैं पूरी बात नहीं कर रहा हूं

‘‘मैं शिवपूजन सहाय जी से कब, कहां मिला और उनकी तस्वीर मेरे दिमाग में कहां से आई, ये मैं आपको बताता हूं शायद सबसे पहले मैंने बनारस में उनको देखा था निराला जी की जयंती मनाई जा रही थी ये सन्४६की बात है और शिवजी वहां आए हुए थे नंददुलारे वाजपेयी थे, मैं भी था और निराला जी दूसरों के साथ जो व्यवहार करते थे उस समय उनकी मुखमुद्रा कैसी थी, यह मुझे बहुत अच्छी तरह याद है शिवजी से जब वह बातें करते थे तो उनका रूप जैसे बदल जाता था मैंने ऐसा केवल दो बार उनके साथ देखा एक बार राधामोहन गोकुलजी लखनऊ आए थे उन्हें निरालाजी मास्टर साहब कहा करते थे वे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में हैं कम्युनिज्म क्या हैये पुस्तक उन्होंने १९२७ में प्रकाशित की थी कलकत्ते में वे निरालाजी से राजनीतिक विषयों पर बातचीत किया करते थे भगत सिंह आदि से राधामोहन गोकुलजी का परिचय थाय––––– वर्मा से उन्होंने कहा था, बम वगैरह बनाते हो, ये तो ठीक है लेकिन मजदूरों में भी जाकर काम किया करो क्रांतिकारियों को मजदूरों की तरफ झुकाने में राधामोहन गोकुलजी का बहुत बड़ा हाथ था तो मैंने राधामोहन गोकुल जी के साथ निराला जी को देखा तो गोकुल जी तो निराला जी के कंधे तक थे, निराला जी तो उनसे बहुत बड़े थे लेकिन उनके सामने वे ऐसे बातें करते थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पिता या चाचा के सामने बात करता हो

‘‘ऐसा ही मैंने शिवपूजन सहाय जी के साथ देखा, कि जैसे कोई बड़ा भाई का अदब करता है बात का जवाब नहीं देता बहुतसी बातें सुन लेता है, दूसरे को बोलने का मौका देता है, वह बात मैंने निराला जी में देखी आम तौर से तो किसी से बात करते थे तो दूसरा कम बोलता था, वे खुद ही बोलते थे, और जो बात हो, वह ठीक नहीं लगे, तो उसका खंडन करना जरूरी था, ये प्रवृत्ति उनके अंदर थी नवजादिक लाल श्रीवास्तव के साथ मैंने उन्हें एक बार देखा था, लखनऊ में नवजादिकलाल आए थे और निराला जी के यहां ठहरे थे, और निराला उन्हें लेकर मेरे घर आए थे, और उनके साथ हम तीनों घूमने गए थे उस समय भी मैंने देखा था कि निरालाजी का भाव बदला हुआ है जैसे अपने से बड़े से बातें करते हैं, उस तरह का भाव था लेकिन नवजादिक लाल के साथ तो वे बहुत हंसीमजाक कर रहे थे यह मुझे याद है शायद इसलिए कि नवजादिक लाल स्वयं ही बहुत मजाक पसंद आदमी थे, और बिना हंसेहंसाए वे शायद रह ही नहीं सकते थे पर शिवजी अधिक गंभीर थे और उनके साथ निराला जी का जो व्यवहार था वह एक तरफ तो राधामोहन गोकुल जी के व्यवहार से मिलताजुलता था और एक जगह वह इन सबसे अलग था बहुत सी बातें कहीं नहीं जातीं, मुखमुद्रा से समझी जाती हैं, और मुझे ऐसा लगता था कि निराला जी का जैसा आत्मीय संबंध शिवजी से है उतना शायद और किसी दूसरे आदमी से नहीं है बिना कुछ कहे ही दो आदमी एक साथ बैठेउठें, एक साथ आगे बढ़ेंचलें, और मन में एकदूसरे को समझते रहें, इस तरह का आपस में संपर्क मैंने शिवजी में और निराला में देखा

‘‘मैं एक बार बांकीपुर (पटना) गया था वहां खडगविलास प्रेस में बहुतसी पुरानी सामग्री पड़ी हुई थी और मैं उसमें पुरानी पत्रिकाएं ढूं़ढ़ढूंढ़ कर कुछ चीजंे निकाल रहा था, और उसमें मेरे साथ एक साथी कन्हैया था मैं बोलता जाता था और वे नकल करते जाते थे वहां से मैं पटना आया और शिवपूजन सहायजी को मैनंे साहित्यसम्मेलन के भवन में देखा वहां एक गोष्ठी रखी गई, और लोगों ने मुझे उस समय बोलने के लिए कहा तब मुझे यह देखकर दुख हुआ कि शिवजी इतने प्रतिभशाली हैं, और इस तरह का काम कर रहे हैं हिंदी में संपादन का मतलब बहुत कुछ प्रूफरीडिंग होता है और वे प्रूफ रीडिंग बहुत अच्छा करते थे इसमें कोई शक नहीं लेकिन प्रूफ रीडिंग तो दूसरों को करना चाहिए था वह उनका मुूख्य काम नहीं था और मैंने उनसे कहा कि आप ऐसा काम क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि ये काम करें तो फिर खाएं कैसे

‘‘हिंदी लेखक का जीवन कितना असुरक्षित था सन्४७के पहले, आज हम लोग इसकी कल्पना नहीं कर सकते तो निराला और शिवपूजन सहाय ने साहित्यसेवा करते हुए (रो पड़ते हैं) जीवन बिताया यह एक बहुत बड़ी बात है

‘‘एक बार वे बीमार पड़ गए थे अस्पताल में पड़े हुए थे मैं अस्पताल में उन्हें देखने गया था देखकर बहुत दुख हुआ बिल्कुल अस्थिपंजर रह गया था थोड़ी देर बात की, हाथ में हाथ दिया फिर मैं चला आया इस पर मैंने एक लेख लिखा थाµ‘‘मृत्यु की प्रयोगशाला एक बार मैं पटना गया था ये बीमारी के पहले की बात है या बाद की यह मैं भूल गया हूं निराला की साहित्य साधनाके लिए मैं सामग्री एकत्र कर रहा था, और शिवपूजन सहाय जी से मैंने बहुत बार कहा था कि आप निराला के पत्र मुझे भेज दीजिए उन्होंने कहा, ‘मैं भेज दूंगा, नकल करवा रहा हूं पर कोई कारण रहा, वे भेज नहीं पाए, तो मैंने सोचा कि इनके घर पर जाकर ठहरना चाहिए और देखना चाहिए कि इनके यहां क्या सामग्री है तो शिवजी ने कहा कि मेरे पास बहुत सारी चिट्ठियां हैं, और तमाम थैलों में पड़ी हैं, ओर तुम कहां तक ढूंढ़ोंगे तब मैंने कहा मैं ये सब कर लूंगा, आप एक बार मुझे उन तक पहुंचा दीजिए तब उन्होंने यही किया फिर तो मैंने ऐसी बहुत सी चिट्ठियां उनमें ढूंढ़ ली जिनके बारे में शिवजी स्वयं भूल गए थे जैसेउग्रने उनको जो पत्र लिखे थेमतवालाकाल में, वे बड़े ही महत्वपूर्ण पत्र हैं उनमें मुझे पहली बार मालूम पड़ा कि शिवजी एक साल के बादमतवालाछोड़कर क्यों चले आए थे वो सब बातें मैंने लिखी तो उससे महादेवप्रसाद सेठ के परिवार के लोग मुझसे नाराज भी हो गए उन्होंने कहा कि उनको मालूम नहीं, लेकिन मैंने तो लिखित सामग्री देखी थी मैंने तो महादेव प्रसाद सेठ को कभी देखा ही नहीं था, और निराला जी से हमेशा उनकी प्रशंसा सुनी थी इसलिए मेरे मन में उनके प्रति कोई द्वेष भाव था ऐसी बात नहीं थी लेकिन ईश्वरीप्रसाद शर्मा के जो पत्र मैंने देखे वहां, याउग्रजी के पत्र देखे, उससेमतवालामंडल की आंतरिक स्थिति का मुझे पता चला ये बहुत अच्छा होगा कि शिवजी के पत्रों के साथ जो उनके संग्रह में दूसरों के लिखे हुए पत्र हैं, वे भी प्रकाशित कर दिए जाएं, क्योंकि तब उनसे एक पूरे युग का इतिहास लोगों के सामने जाएगा ¹

‘‘उन दिनों जो दिनों मैं वहां रहा था, बहुत अच्छा समय बीता वो दिन में शायद साहित्यसम्मेलन चले जाते थे और शाम को आते थे, जितनी देर बैठते थे, उतनी देर गपशप होती थी और गपशप घूमफिरकर निराला और कलकत्ते के बारे में जाती थी––––’’

इस प्रसंग की चर्चा शिवजी ने अपनी डायरी में की %

आगरा के डॉक्टर रामविलास शर्मा कलकत्ते से लौटकर आए निराला जी के जो आठ पत्र मैंने उन्हें भेजे थे, वापस कर दिए ये आठों पत्रत्रिपथगा’ (लखनऊ) केनिरालाअंक’ (खंड) में छप चुके हैं रात में डॉक्टर शर्मा को सादर सप्रेम भोजन कराया निराला जी की बड़ी देर तक चर्चा होती रही –––––मेरे पास साहित्यिक चिट्ठियों का जो संग्रह है उसे डॉक्टर रामविलास शर्मा ने आज () प्रात% से ही देखना शुरू किया बेसन का हलवा उन्हें नाश्ता कराया मैं परिषद चला गया आनंदमंगलजी को शर्माजी का आतिथ्य करने का भार सौंप गया –––––शाम को % बजे लौटा तो शर्मा जी ने मेरे परिवार के स्वागतसत्कार पर संतोष व्यक्त किया यह भी कहा कि पत्रों में काफी मसाला मिला –––––आज () प्रात% शर्माजी–––––मैं परिषद जाने को घर से ज्यों ही निकला त्यों वे धमके उनके लिए चिट्ठियों का पुलिंदा निकालकर बिजली का मेजपंखा उनके सामने चलाकर मैं तुरंत उसी रिक्शे में चला गया परिषद में १९ वीं शती उत्तरार्द्ध की संचिकाओं का निरीक्षणपरीक्षण करता रहा –––––आज (१०) डॉक्टर शर्मा दोपहर के बाद कहीं से भोजन करके आए शाम तक शेष चिट्ठियों को देखकर अपना काम पूरा कर लिया मुझसे कई प्रश्न भी पूछे स्मृति शक्ति बहुत क्षीण हो गई है, तभी यथाशक्ति उत्तर दिया उन्होंने नोटकर लिया ––––– (शिवपूजन सहाय की डायरी % १० जून, १९६२)

 

‘‘इस तरह बहुतसी पुरानी बातें मुझे मालूम हुर्इं तब मैंने शिवजी को देखा था उसके बादनिराला की साहित्यसाधनामैंने लिखी और निराला जी से पूछा था कि शिवजी केा पुस्तक समर्पित की जाए तो कैसा रहेगा ये पक्की बात है कि मैं इतनी बड़ी पुस्तक लिखने के बारे में नहीं सोच रहा था शायद पहली पुस्तक मैं लिख रहा था तभी मैंने पूछा और उन्होंने कहा थाµशिवजी बहुत अच्छे गद्य लेखक हैं, और मैं उनको पुस्तक समर्पित करूं तो यह बहुत अच्छा रहेगा तो मैंनेनिराला की साहित्यसाधनाउनको समर्पित की पर उस समय तो निराला भी नहीं थे और शिवजी भी नहीं थे लेकिन निराला जी गद्यलेखकों में यदि किसी की प्रशंसा करते थे तो शिवजी की प्रशंसा करते थे निराला जी का स्वभाव ऐसा था कि दूसरों की प्रशंसा जरा कम ही करते थे कविता में पंतजी को अगर कोई दूसरा गाली दे तो उससे लड़ने को तैयार हो जाते थे, और यदि खुद उनसे पूछें कि आपमें और पंतजी में कौन बड़ा कवि है तो कहेंगे कि पंतजी भी कोई कवि हैं ? जो पंतजी को कवि कहता है, वह मूर्ख है यानि इस तरह की बातें कहते थे

‘‘जयशंकर प्रसादजी की कविताओं के बारे में उन्होंने कभी गंभीरता से मुझसे बात नहीं की बल्कि एक बार मैंने उनसे कहा, ‘कामायनीके बारे में उन्होंने मुझसे पूछा, ‘कामायनीतुम्हें कैसे लगी प्रसंग ये था कि प्रसाद जी लखनऊ आए थे और निराला जी के साथ कान्यकुब्ज कॉलेज गए थे, और वहां उन्होंनेकामायनीके कुछ अंश सुनाए थे उसके बाद निराला ने मुझसे पूछा, प्रसाद जी की कविता तुम्हें कैसे लगी, तो मैंने कहा कि और तो सब ठीक है, ओज गुण की कमी है तो उन्होंने अर्द्धसहमति व्यक्त करते हुए कहा कि हां ये तो है, मानो कहना नहीं चाहते हो, पर मेरी बात काट भी नहीं सकते थे

‘‘प्रसाद जी का वे बहुत आदर करते थे, लेकिन कविता में अपने बाद वे किसी को नहीं मानते थे गद्य में भी बड़ा परिश्रम करते थे, गद्य लिखने में मैं एक मिसाल देता हूं उन्हें पोस्टकार्ड लिखना है एक वाक्य लिखा, लगा कि वाक्य ठीक नहीं बना, बस पोस्टकार्ड हटा दिया दूसरा पोस्टकार्ड लिखना शुरू किया मैंने प्रयत्न किया था कि इनके अधलिखे पोस्टकार्ड मैं इकट्ठे कर लूं, लेकिन वे बहुत होशियार थे वे इस तरह की सामग्री नष्ट कर देते थे मेरे हाथ नहीं लगने देते थे

‘‘गद्य की तरफ जो आदमी इतना ध्यान देता हो वो अगर शिवजी के गद्य की तारीफ करे तो वह तारीफ मेरे लिए बहुत मूल्यवान थी शिवजी बहुत बड़े गद्य लेखक हैं, ये मंैने जाना निराला जी से शिवजी ने संपादन का काम किया था, जो अच्छा काम है रंगभूमिका उन्होंने संपादन किया था और दूसरों की पुस्तकों या पत्रिकाओं का संपादन किया था उन्होंने लेकिन वे बुनियादी तौर से मेरी दृष्टि से कलाकार थे, पर जीवन की परिस्थितियां ऐसी थीं कि उन्हें अपने कलात्मक रूप को दबाना पड़ा कहीं एक लेख में उन्होंने रूपनारायण पांडेय का रेखाचित्रण किया है, वह कमाल का रेखाचित्र है –––––¹

गोरा छरहरा बदन, सिर पर किश्तीनुमा टोपी या साफा, कभी मलमली धोती या चूड़ीदार पाजामा, पालिशदार जूता, कोट की जेब में घड़ी, हाथ में चिकनी छड़ी, दोदो सुवासित रूमाल, मुुंह में पान की गिलौरी, आंखों में सूरमा, खासे छैलछबीला बनकर आईने के सामने मुस्कराते हुए खड़े होते थे–––––बातचीत करते समय वे प्राय% आंखें मूंदमंूदकर मुस्करातेमुस्कराते बतियाते थे –––––

‘‘जिसने रूपनारायण पांडेय को देखा होगा वो समझेगा कि कितने यथार्थवादी ढंग से, और कितने कलात्मक ढंग से शिवजी ने उनका चित्रण किया है रूपनारायण पांडेयमाधुरीके संपादक थे अफीम खाते थे पान का बीड़ा दबाए रहते थे मेज के पास कुर्सी पर बैठे हुए, प्रूफ वगैरह का काम किया करते थे अफीम के नशे में आंखे आधी बंद रहती थीं, और कभीकभी बात करते हुए बीच में मुस्करा देते थे इस धजा का बहुत ही बढ़िया चित्रण शिवजी ने किया है, और जहां तक मुझे याद है, उन्होंने निरालाजी का एक संस्मरण लिखा है, वो संस्मरणविश्वमित्रमें छपा था और उसमें निराला जी जो भंवे मटकाते थे उसमें बिहारी की नायिका से उनकी तुलना की गई हैµ‘सों कहें, भौं हंसे, नैन कहे नहिं जाय’µऔर निराला तो उस समय और भी जवान थे मैंने तो सन्३६में देखा था, और यह उससे १०१२ साल पहले की बात होगी, लेकिन निराला के भाव प्रगट करने का जो तरीका था उसका बहुतसी सटीक वर्णन उस लेख में हुआ है ये कलात्मक वृत्ति उनके अंदर थी, और मैं बराबर उनसे कहता था कि आप इस रूझान को पोषित करें इसके अनुसार आगे आप काम करें, और तब उनका उत्तर यही होता था कि ये सब लिखें तो खाएंगे क्या, और इसे छापेगा कौन

‘‘तो हिंदी में प्रकाशन की ये दयनीय स्थिति रही है कि कलाकारों की, साहित्यकारों की जो कलात्मक क्षमता रही है उसका पूरा उपयोग नहीं हुआ, और शिवजी के अंदर ये क्षमता थी मैंने क्रियापदों के बारे में जो बात कही वह केवल भाषाविज्ञान का विषय नहीं कोई भाषाविज्ञानी इस बात को पकड़ ही नहीं सकता, जब तक वह संवेदनशील हो जब तक उसके हृदय में कलात्मक क्षमता हो, तब तक वह नहीं देख सकता कि हिंदी का विकास जिस दिशा में हो रहा है उसमें क्रियापदों की संपदा क्षीण होती जा रही है ये बात उन्होंने पहचानी और ये भी उनके कलाकार होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण है वे स्वयं पुष्ट गद्य लिखते थे, रेखाचित्रण करते थे, संस्मरण लिखे हैं उन्होंने ये जो कलात्मक अंश है, ये सब ऊपर हैं उसके नीचे विवेचनात्मक गद्य है––––– ’’

साक्षात्कार वाला वह टेप अचानक यहीं समाप्त हो जाता है, लेकिन टेप के इस लंबे अपूर्ण उद्धरण में भी वे सारी जरूरी बातें गई हैं, जो उनकी स्मृति में अंकित थीं और मैं स्वयं इस पूरे प्रकरण का साक्षी भी था

मेरी जानकारी में हिंदी और अंगरेजी की वैसी अगाध विद्वत्ता और फिर भाषाविज्ञान और समाज और राजनीति की उतनी व्यापक पकड़ हिंदी समालोचना के क्षेत्र में शायद ही कहीं और देखी जा सकती है निराला की साहित्यसाधनाके तीन खंड हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं

रामविलास जी का यह विडियो इंटरव्यू दूरदर्शन द्वारा शिवजी पर बनी फिल्म के लिए था, जिसका एक संपादित अंश ही फिल्म में देखा जा सकता है पूरा विडियो शिवजी के संग्रहालय में है, और यहां उसी का पूरा पाठ दिया गया है पर विडियो में भी यह अचानक यहीं समाप्त हो जाता है इंटरव्यू में संस्मरण सुनाते समय वे बिलकुल तन्मय हो गए थे, और शिवजी और निरालाजी के जीवन संघर्ष के प्रसंगों का स्मरण करते हुए तो वे एक बार लगभग रो पड़े थे होंठ कापने लगे, और वे थोड़ी देर चुप हो गए थे

यहां संस्मरणसाक्षात्कार प्रसंग में एक बात की ओर ध्यानाकर्षण आवश्यक है इस संस्मरण में शिवजी के विषय में एक जगह, जब वे उनसे सम्मेलनभवन, पटना में मिलने गए थे, वे कहते हैं µ “हिंदी में सम्पादन का मतलब बहुत कुछ प्रूफरीडिंग होता है, और वे प्रूफरीडिंग बहुत अच्छा करते थे, इसमें कोई शक नहीं –––मैंने उनसे कहा कि ऐसा काम क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि ये काम करें तो फिर खाएं कैसे इसका पूरा प्रसंग यह है कि रामविलासजी शिवजी से मिलने जब गए थे, शिवजी परिषद् में निदेशक पद पर कार्यरत थे उस समय संभव है वे किसी आवश्यक प्रेससामग्री का प्रूफ देख रहे हों, क्योंकि भाषाशुद्धि पर उनकी कड़ी निगाह बराबर रहती थी लेकिन शिवजी की उस समय यह स्थिति बिलकुल नहीं थी कि प्रूफ देखें तो खाएं क्या ? फिर यह भी है कि प्रूफ संशोधन शिवजी के सम्पादनकर्म का अंतिम आवश्यक अंग होता था जो लोग प्रूफशोधन को एक निकृष्ट कर्म समझते हैं, उनको शायद नहीं पता कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने नोबेलपुरस्कृत उपन्यासओल्ड मैन एंड सीके प्रूफ दो सौ बार स्वयं देखे थे, जिसमें हर बार पाठ में कईकई परिवर्त्तन शामिल थे

सम्पादन और प्रूफरीडिंग के विषय में सामान्यत% लोगों में बहुत भ्रांतियां रहती हैं, जो उनका सम्बन्ध सृजनकार्य से कितनी गहराई से जुड़ा होता है, इसकी अच्छी परख नहीं रखते शिवपूजन सहाय के टकसाली गद्य की निरालाजी द्वारा उतनी प्रशंसा की जो चर्चा शर्माजी ने इस साक्षात्कार में की है, उसके पीछे सम्पादन और प्रूफिंग की यही बारीक कारीगरी है, जिसके कारण ही प्रसाद और प्रेमचंद से लेकर सांवलियाबिहारी लाल वर्मा तक हिंदी का हर छोटाबड़ा लेखक शिवजी के सम्पादनकौशल से लाभान्वित होना चाहता था, और जो कार्य वे हिंदीसेवा की भावना से ही करते थे सम्पादन और प्रूफरीडिंग के लिए भाषा और सृजनात्मकता दोनों की बहुत ऊंची पकड़ होनी चाहिए, और इसे शिवपूजन सहाय के सम्पादन और प्रूफिंग को बहुत ध्यान से देखकर ही जाना जा सकता है, जिसके प्रमाणसमग्रके खण्डों में यथास्थान दिए गए हैं हमारे यहां हिंदी में लेखक द्वारा संशोधित प्रूफशीटों को कूड़े में फेंक दिया जाता है, पर विदेशों में, सभी बड़े लेखकों की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखकसंशोधित प्रूफशीटों को संग्रहालयों में संरक्षित किया जाता है शिवजी ने अपने द्वारा संशोधित बहुत से प्रूफ अपने संग्रहालय में रखें हैं जिनको देखने से पता लगता है, यह कितनी बारीक कारीगरी की कला है

(C) डा.मंगलमूर्ति 

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