गाँधी:
दुनिया
की
नजरों
में
मंगलमूर्त्ति
आज गाँधी की 155 वीं जयंती है | गाँधी को मरे आज 76 साल ही गए | लेकिन गाँधी अपने समर्थकों के साथ अपने विरोधियों के लिए आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं | गांधी का जीवन दुनिया-भर के लिए एक खुली किताब है | आज हम फिर गांधी को याद करते हैं – उनके महाप्रयाण पर उनको श्रद्धांजलि देने वाले कुछ विदेशी व्यक्तियों के शब्दों में |
30 जनवरी, 1948 को जब महात्मा गाँधी की हत्या हुई, सारी दुनिया में इस त्रासदी की प्रतिक्रिया हुई । हिंदुस्तान को आजादी हासिल होने से पहले ही देश की राजनीति में गाँधी हाशिए पर जा चुके थे, किंतु सत्याग्रह और अहिंसा के उनके प्रयोग ने सारी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया था । गाँधी के जीवन काल में ही उन्हें काल पुरूष माना जाने लगा था, और जब अहिंसा के इस पुजारी ने अपने प्राणों की बलि देकर अपने सिद्धांतों की सत्यता प्रमाणित कर दी तो सारी दुनिया के महापुरुषों एवं प्रमुख व्यक्तियों ने शांति के इस संत के बलिदान पर अपनी प्रतिक्रियाएं एवं श्रद्धांजलियां व्यक्त कीं । यहां प्रस्तुत हैं ऐसे चार व्यक्तियों के रूपांतरित आलेख जिनमें गाँधी की आत्मा से एक अंतरंग साक्षात्कार होता है । जो डेविडसन विश्व प्रसिद्ध शिल्पी हुए जिन्होंने गाँधी की अप्रतिम प्रतिमा बनाई थी । मार्ग्रेट बोर्कवाइट ‘लाइफ’ पत्रिका की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की फोटोग्राफर हुईं जिनके खींचे गांधी के चित्र आज सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । आइंसटाइन और जॉर्ज आरवेल के आलेख भी गाँधी विचारधारा पर मौलिक प्रकाश डालते हैं:
गाँधी की एक प्रतिमा : जो डेविडसन
गांधीजी 1930 में राउंड टेबुल कांफ्रेन्स में भाग लेने के लिए लंदन आने वाले थे । एसोशिएटेड प्रेस की ओर से मुझे गाँधी जी की एक आवक्ष प्रतिमा बनाने का भार दिया गया था । गाँधी और उनके लोगों को नाइट्स ब्रिज के एक मकान में ठहराया गया था । जब मैं वहां पहुंचा, गाँधी एक कंबल में लिपटे, दीवाल की ओर पीठ किए, फर्श पर बैठकर चर्खा कात रहे थे । एक मामूली घरेलू किस्म का व्यक्ति, लंबे कान और सामने के दांत टूटे हुए | मुस्कुराने
पर एक अँधेरी खाली जगह दिखाई पड़ी । मगर दूसरे ही क्षण एक अजीब आकर्षण लगा उस व्यक्ति में ।
मैंने
अपनी बनाई दूसरे महान व्यक्तियों - रवींद्रनाथ
ठाकुर, कोनरैड, वूडरो विल्सन, चैपलिन, अनातोले फ्रांस, हेलेन केलर आदि की प्रतिमाओं के चित्रों का अलबम उन्हें दिखाया । गौर से उसे देखते हुए हंसकर बोले - ‘आप मिट्टी के महापुरूष गढ़ते हैं ।’
अगली
सुबह गाँधी की बैठकी मेरे लिए तय हुई । सफेद खादी में लिपटे चर्खे के साथ बैठे गाँधी को देखते ही मुझे लगा यह व्यक्ति एक युगपुरूष है - अमरत्व का मूर्त्त रूप । जब महात्मा जी की प्रतिमा पर मैंने काम शुरू किया, मुझे लगा वे कुछ असमंजस–सा महसूस कर रहे हैं । पर वे अपना काम करते रहे | मैं भी अपना काम करता रहा । लोग आते, मिलते और जाते रहे, पर कुछ ही देर में लगा गाँधी को मेरे वहां उपस्थित होने का भान तक नहीं है । मैं कभी फर्श पर चुकमुक बैठता, कभी आधा लेटकर नीचे से गाँधी के चेहरे को देखता, कभी आगे जाता, कभी पीछे आता, पर गाँधी को मेरे होने का कोई अहसास ही नहीं था । वे अपना हर काम, बातचीत, लिखना–पढ़ना एक-जैसी और सधी हुई सहजता से करते रहे । शाम होते–होते मैंने आधे से ज्यादा काम लगभग पूरा कर लिया था । यह जानते हुए कि गाँधी जैसे व्यक्ति की प्रतिमा बनाने का यह अवसर मुझे बड़े सौभाग्य से मिला था, मैंने काफी जल्दीबाजी में काम किया था । पर प्रतिमा अच्छी उभर रही थी, मेरे लिए यह विशेष संतोष की बात थी । जब रात के आठ बजे मैं वहां से छूटकर अपने होटल पहुंचा, थककर चूर हो चुका था ।
दूसरे
दिन सुबह जब मैं फिर काम पर वापस पहुंचा, गाँधी के पुत्र देवदास ने बुरी खबर सुनाई | रात तो कच्ची प्रतिमा चादर से ढंककर एक कोने में रखी गई थी, पर उसका सर लुढ़क कर गिर गया था ।
गाँधी जब कमरे में आए, मुस्कुराकर बोले - आप बेकार यह जहमत मोल ले रहे हैं । मैं बिल्कुल सहम गया । फिर भी हिम्मत बांधकर मैंने इस बार केवल गाँधी जी के सिर की प्रतिमा गढ़ने का ही निश्चय किया । काम फिर शुरू हुआ और एक बार फिर गाँधी अपने दैनिक कार्य में मशगूल हो गए ।
काम
करते–करते जब मैं थक जाता, थोड़ी देर गांधीजी के साथ बातें करने लगता । तब वे अपना सारा स्नेह उड़ेल देते । बातें करते हुए उनके चेहरें पर अनेक प्रकार के भाव क्षण–क्षण आते जाते रहते, जिन्हें मैं मंत्रमुग्ध देखता रहता । तरह–तरह के लोग आते, और कुछ लोग तो अजीबोगरीब सवाल पूछते । एक ने पूछा - ‘महात्मा’ का अर्थ क्या होता है ? गाँधी तुरंत बोले – ‘एक नगण्य व्यक्ति’ ।
गांधीजी की बातचीत की शैली अपनी थी । वे हर सवाल को खुद दुहराकर तस्कीन कर लेते, फिर जवाब देते - बिलकुल सीधी–सादी भाषा में, नपे–तुले शब्दों में । झुंझलाते या तनिक भी संतुलन खोते मैंने उनको कभी नहीं देखा । शब्दों के साथ खिलवाड़ और हाजिर जवाबी तो उनकी अपनी चीज थी । वे रूस की क्रांति के हिंसा–पक्ष से असंतुष्ट थे । फोर्ड को वे मशीनीकरण का प्रतीक मानते थे । वे कला के लिए कला के हिमायती नहीं थे । कला का उद्देश्य मानवता का उन्नयन होना चाहिए, उनकी दृष्टि में ।
चार–पांच दिन गांधीजी के निकट बैठने का सौभाग्य पाकर जब मैं उनकी प्रतिमा लेकर वापस हुआ, मुझे लगा मैंने अपने समय के महानतम व्यक्ति की प्रतिमा मिट्टी में ही नहीं, अपने मन में भी गढ़ ली थी ।
गांधीजी
की
तस्वीरें
: माग्रेट बोर्कवाइट
‘लाइफ’ पत्रिका की ओर से मुझे गाँधी जी की तस्वीरें खींचने के लिए भेजा गया था । हिन्दुस्तान हाल ही में आजाद हुआ था, विभाजित होकर | और बहुत बड़ी तादाद में हिंदू–मुस्लिम आबादी का स्थान-परिवर्तन हो रहा था । ‘लाइफ’ के लिए मैंने इस ऐतिहासिक आवागमन
की भी बहुत सारी तस्वीरें खींची थी ।
मुझे
चर्खे के साथ गांधीजी की एक तस्वीर खींचकर तुरंत न्यूयॉर्क भेजनी थी । मैं पूना के पास गांधीजी के आश्रम में गई जहां वे अछूतों की एक कॉलोनी में काम कर रहे थे । एक–एक कर मुझे गांधीजी के कई सेक्रेट्रियों से मिलना पड़ा, और तब अंत में मुख्य सेक्रेटरी को मैंने अपना मिशन बताया । साफ खादी और मोटा चश्मा पहने उस आदमी ने मुझसे पूछा - क्या आप चर्खा कातना जानती हैं ? और जब मैंने हंसकर कहा - मैं तो केवल कैमरे का काम जानती हूं, तो वह तुरंत बोला - तब आप चर्खे का प्रतीकात्मक महत्व क्या समझेंगी ? पहले तो आपको यह समझना होगा कि गांधीजी के चर्खा कातने के पीछे कौन से आदर्श हैं । चर्खा मशीनीकरण का सबसे सशक्त निषेध है । यह गांधीजी के अनुसार मशीन का सर्वहाराकरण है । इससे मशीन की हैसियत घटकर आम आदमी के स्तर तक पहुंच जाती है ।
तब मुझे
तय करना पड़ा, मैं चर्खा कातना सीख लूंगी । लेकिन बार–बार मेरा धागा उलझ जाए और टूट जाए । खैर थोड़े अभ्यास के बाद मैं इस लायक हुई कि गांधीजी के पास ले जाई जा सकूं । लेकिन मुझे दो कड़ी हिदायतें दी गई थीं | आज सोमवार था, महात्माजी का मौन दिवस, और मैं उनसे कोई बातचीत नहीं कर सकती थी । दूसरा कि मैं कोई कृत्रिम प्रकाश का उपकरण प्रयोग नहीं करूंगी ।
गांधीजी
की कुटिया के अंदर प्रकाश बहुत कम था, और बिना फ्लैश के तस्वीर शायद ही आ पाती । किसी तरह मुझे तीन छोटे–छोटे फ्लैश काम में लाने की अनुमति मिली । कमरे में एक ही खिड़की थी जिससे प्रकाश की एक किरण आकर अँधेरे को किसी हद तक हल्का कर रही थी । जब मेरी आंखें अँधेरे में अभ्यस्त हुईं तो मैंने महात्मा जी को देखा - लंबी–लंबी टांगें, पालथी लगाए हुए, बिल्कुल खल्वाट खोपड़ी, और नाक की छोर पर लटका, पतला चश्मा । मुझे एकाएक लगा - इतना मामूली आदमी, कमर में बस एक धोती लपेटे हुए, जिसने सारी दुनिया में एक हलचल पैदा कर दी है, करोड़ों लोगों को आजादी की मंजिल तक पहुंचाया है ? मैं विस्मय और सम्मान–भाव से भर गई ।
वहां
बिल्कुल शांति थी । केवल गांधीजी अखबार की कतरने देख रहे थे | उनसे ही जो हल्की सरसराहट की आवाज कभी–कभी उठती थी, बस वही । बगल में उनका चर्खा विराजमान था । मैं अपने कैमरे को ठीक करने में लग गई । थोड़ी देर बाद कतरनों को एक ओर रखकर गांधीजी ने चर्खा पकड़ लिया और सूत कातने लगे । क्षण–भर में वे अपने काम में पूरी तरह तल्लीन हो गए, और उनके दोनों हाथ एक मोहक लय में उठने–गिरने लगे और चर्खे से सूत निकलने लगा ।
मेरा
पहला फ्लैश चमका, लेकिन शटर बाद में खुला । मौसम ने कैमरे में कुछ गड़बड़ी ला दी थी । मैंने फिर कैमरे को ठीक–ठीक कर, दूसरी बार फ्लैश किया । फ्लैश तो ठीक हुआ, शटर भी ठीक खुला, पर तब मैंने देखा कि प्लेट बदलना ही भूल गई थी । बहुत कोफ्त हुई मुझे अपने ऊपर । अब तीसरा और अंतिम फ्लैश बल्ब मेरे पास रह गया था । खैर, इस बार सब कुछ ठीक–ठाक रहा और मैंने चैन की सांस ली । जब मैं कुटिया से बाहर आई मुझे कुछ–कुछ मशीन पर से विश्वास उठने लगा था, और चर्खे की सार्थकता मुझे समझ में आने लगी थी । कैमरा धोखा दे सकता था, पर चर्खा हरदम कारगर था ।
हिंदुस्तान
के बंटवारे के साथ ही हिंदू–मुस्लिम आबादियां बड़ी तादाद में एक मुल्क से दूसरे मुल्क और यहां से वहां आने–जाने लगी थीं । लाखों लोग मारे जा रहे थे । दिल्ली में भी इस हादसे का जबर्दस्त असर था । हिंदू वहां की मस्जिदों पर हमला कर रहे थे । रिफ्यूजी हिंदुओं में बदले की भावना जोरों पर थी । कितने ही मुसलमान और हिंदू हलाक हुए थे ।
इन
घटनाओं से गांधीजी अंदर से टूटने लगे थे । वे किसी कीमत पर देश का बंटवारा नहीं चाहते थे । दंगा–फसाद, नफरत और बर्बादी की फैलती आग को वे अपनी जान की कीमत देकर भी बुझाना चाहते थे । उन्होंने आमरण उपवास की घोषणा कर दी । अहिंसा की उनकी तरकीब प्रेम का ही एक व्यावहारिक रूप था । इसी से उन्होंने अँगरेज़ हुकूमत को झुकाया था, और इसी से फिर वो हिंसक तत्वों को परास्त करना चाहते थे ।
ऐसे
हालत में उपवास की उपयोगिता के विषय में जब मैंने नेहरूजी से पूछा, तो बोले - किसी महान उद्देश्य के लिए अपने ऊपर कष्ट झेलना, एक तरह की तपस्या है, त्याग है, जिसका इस मुल्क के लोगों के दिलों पर आज भी बहुत गहरा असर पड़ता है । ऐसे उपवास से दो नतीजे निकलते हैं । लोग तुरंत सोचने को मजबूर हो जाते हैं, और उन्हें नए तरह से दोबारा सोचना पड़ता है ।
गांधीजी का उपवास ठीक 11 बजे शुरू हुआ । लोग उनके घेर कर बैठे थे । अपनी पतली आवाज में वे लोगों को अपने इस उपवास का औचित्य बता रहे थे । मैंने जब पूछा - कब तक चलेगा यह उपवास ? तो बोले - जब तक सभी मजहबों को मानने वाले आपस में भाई–भाई की तरह नहीं मिल जाते, और उनके मन का भय समाप्त नहीं हो जाता । नहीं तो मेरा यह उपवास कभी नहीं खत्म होगा । लेकिन मैं अकेला नहीं हूं । इस अँधेरे रास्ते में भी ईश्वर मेरे साथ है । मुझको लगा गांधीजी का प्रेम और अहिंसा का पूरा दर्शन ही दांव पर लग गया था । नफरत के एक बहुत बड़े दानव से यह अठत्तर साल का कमजोर बूढ़ा आदमी अकेले लड़ रहा है, अपनी जान हथेली पर लेकर ।
छठे
दिन सुबह जब मैं बिड़ला भवन पहुंची, सुबह–सुबह खबर मिली कि देश के कोने–कोने से आश्वासन के तार आने लगे हैं । गांधीजी शांति के उन संदेशों को अपनी मुट्ठियों में मजबूती से पकड़े हुए फर्श के अपने बिस्तर पर लेटे मुस्करा रहे थे । ठीक 11 बजे उन्होंने अपना उपवास भंग किया ।
जनवरी
29, 1948 मेरे
वापस जाने का समय आ गया था । मैंने गांधीजी की बहुत–सी तस्वीरें खींच ली थीं । आज मैं उनसे कुछ बातचीत के लिए आई थी | गांधीजी बाहर लॉन में एक खाट पर बैठे थे । उन्होंने धूप से बचने के लिए बांस का बना एक हैट पहन रखा था, जो किसी ने कोरिया से लाकर उन्हें दिया था । उनका चर्खा सामने रखा था । मैंने गांधीजी से पहला सवाल पूछा - आपने बराबर कहा है कि आप सवा सौ साल जिएंगे । ऐसा आप किस आधार पर कहते हैं
? गांधीजी का जवाब अचरज से भरा था - मैंने अब इसका उम्मीद छोड़ दी है । जब मैंने पूछा - क्यों, तो बोले - इस तरह के अँधेरे और पागलपन के बीच मैं और नहीं जी सकता । फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने रूई की एक पूनी चर्खे में डाली और उससे सूत निकालते हुए बोले - लेकिन अगर मेरी जरूरत होगी और लोग चाहेंगे तो मैं सवा सौ साल जीऊंगा ।
जाड़े
की सुबह की झीनी–झीनी धूप में , गांधीजी तन्मय होकर सूत कात रहे थे, और मैं उनके शब्दों को अपनी नोटबुक में दर्ज करती जा रही थ । मैंने पूछा - अमेरिका को अणु बम बनाना क्या बंद कर देना चाहिए ? छूटते ही उन्होंने कहा - बिल्कुल बंद कर देना चाहिए । उनके विचार से भलाई का रास्ता जैसे व्यक्ति के लिए खुला है वैसे ही किसी राष्ट्र के लिए भी उसे प्रशस्त होना चाहिए । अच्छे रास्त पर चलकर हम अच्छी मंजिल तक पहुंच सकते हैं । मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - लेकिन आप एटम बम का मुकाबला अहिंसा से कैसे करेंगे ? वे क्षणभर सोचकर बोले - प्रार्थनापूर्ण
कर्म से । एटम बम से बचने की मैं कोशिश नहीं करूंगा, बल्कि उस पाइलट के सामने होकर उसको दिखाने की कोशिश करूंगा कि मेरा हृदय दुर्भावना से रहित है, और उसमें केवल प्रेम है, मनुष्यता है, करुणा है । मेरे फिर टोकने पर बोले - मैं जानता हूं उतनी ऊंचाई से पाइलट हमारे चेहरों के भाव नहीं पढ़ सकेगा, लेकिन हमारे मन के सच्चे भाव उस ऊंचाई तक उसके पास जरूर पहुंच जाएंगे ।
दूसरे
ही दिन गोलियों से उनकी हत्या कर दी गई । जब यह दुखद घटना घटी, मैं पास के ही एक मकान में थी । मैं वहां पहुंची तब तक गांधीजी के शव को बिड़ला भवन में लाकर एक कमरे में रखा जा चुका था । लोगों की भीड़ उमड़ी आती थी, पर एक अजीब मनहूस सन्नाटा चारों ओर फैल गया था । गांधीजी के शव के पास गीता का पाठ और भजन चल रहा था ।
मैं
बाहर निकलकर वहां गई जहां गोलियां लगने पर गांधीजी गिरे थे । वहां कुछ अगरबत्तियां जल रही थीं और एक खाली टिन ठीक उस जगह रखा हुआ था जहां गांधीजी का शरीर गिरा था । किसी ने वहां एक मोमबत्ती जला दी थी । वैसे भी वहां एक पवित्र आभा चारों ओर फैल चुकी थी । कुछ लोग वहां घुटनों पर बैठकर प्रार्थना कर रहे थे, जिनमें सभी धर्मों के लोग थे । उनमें से कुछ लोग वहां की मिट्टी उठाकर अपने रुमालों में सहेज रहे थे - गांधीजी की स्मृति के रूप में ।
दूसरे
दिन मैं गांधीजी की शव यात्रा में भी शामिल हुई । लाखों लोगों की भीड़ बिना किसी शोर–शराबे के उस आखिरी जुलूस में, अपने प्यारे बापू की अंतिम यात्रा में, उनके साथ–साथ चल रही थी । मकानों की छतों पर, छज्जों पर, पेड़ों और खंभों पर भी, लोग खड़े थे, लटके थे । सबकी आंखें नम थी, चेहरे स्याह थे । मेरे कैमरे ने ऐेसे विशाल फलक की तस्वीरें इससे पहले कभी नहीं खींची थीं ।
यमुना
के किनारे पहुंचकर चंदन की लकड़ियों पर सजी चिता पर गांधीजी के शव को रखा गया था और मंत्रों के पाठ के बाद चिता को अग्नि दी गई थी । धीरे-धीरे लपटें उठीं और चिता धू-धू करके जल उठी ।
शाम
ढल चुकी थी और चिता के अंगारे बुझने लगे थे, लेकिन कोई वहां से हटना नहीं चाहता था । मुझे गर्व है कि उन अंतिम क्षणों की स्मृति मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान थाती बन चुकी थी ।
गाँधी
की
मिसाल
: अलबर्ट आइंसटाइन
गाँधी
की मौत एक त्रासदी है । जो लोग भी मानवता के बेहतर भविष्य के लिए सोचते हैं, उन पर इस त्रासदी का गहरा असर होगा । गाँधी स्वयं अपने अहिंसावादी सिद्धांत के लिए शहीद हुए । वे हिंसावादी सुरक्षा नहीं चाहते थे । हिंसा को किसी रूप में वे त्याज्य मानते थे । इस सिद्धांत के प्रति वे जीवन–भर निष्ठावान रहे और उसी सिद्धांत की रक्षा में उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया । जन–जन का समर्थन गाँधी राजनीतिक दाव–पेंच से नहीं, बल्कि एक उच्चादर्श–मंडित जीवन की मिसाल पेश करके हासिल करना चाहते थे ।
गाँधी ने सारी दुनिया का सम्मान यही मिसाल पेश करके पाया है । उन्होंने यह दिखा दिया है कि नैतिक पतन के इस माहौल में भी राजनीति में व्यक्तिगत शुचिता के आदर्श को प्रतिपादित किया जा सकता है । इन्होंने यह कठिन सबक हमें सिखाया है कि मानवता का भविष्य तभी सुरक्षित रह सकता है जब अंतर्राष्ट्रीय
मामलों में भी हम न्याय और व्यवस्था को मान्यता दें, न कि उच्छ्ंखल हिंसा का सहारा लें । गाँधी ने हमें यही मार्ग दिखाया है । उन्होंने बताया है कि आदमी अगर सही रास्ते पर चल सके तो वह कितनी बड़ी कुर्बानी दे सकता है । हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई उसका जीता–जागता प्रमाण है । मेरा तो मानना है कि हमारे समय के राजनीतिक नेताओं में गाँधी की तरह का ऊंचे विचार वाला दूसरा कोई नेता नहीं है । हमें उन्हीं की राह अपनानी चाहिए । हिंसा का पूर्ण परित्याग कर देना चाहिए और बुराई का हर रास्ता छोड़ देना चाहिए ।अहिंसक
क्रांति से गाँधी ने हिंदुस्तान को आजादी दिलाई । और मेरा विश्वास है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व शांति तभी संभव है जब हम गाँधी के विचारों पर बड़े पैमाने पर अमल करें । मैं थोरो के बारे में कुछ नहीं जानता । लेकिन ऐसे लोग हुए हैं, हालांकि बहुत नहीं, जिन्होंने अपने स्वतंत्र नैतिक बल से राज्यपोषित बुराइयों की खिलाफत की है । संभव है थोरों के विचारों ने गाँधी को प्रभावित भी किया हो । लेकिन मुझे लगता है, थोरों और टॉल्सटाय के प्रभाव के बिना भी गाँधी, गाँधी ही होते ।
आने
वाली पीढ़ियों के लिए विश्वास करना बहुत कठिन होगा कि हाड़–मांस का बना ऐसा एक आदमी कभी इस धरती पर अवतरित हुआ था ।
गाँधी
मेरी
दृष्टि
में
: जॉर्ज ऑरवेल
महात्मा
गाँधी की आत्मकथा मूलत: गुजराती में लिखी गई थी । उसका अंग्रेजी अनुवाद - ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ’ गाँधी के निजी सचिव महादेव देसाई ने किया था । प्रारंभ में यह अनुवाद किस्तों में ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित हुआ था और पहली बार पुस्तकाकार 1948 में प्रकाशित हुआ था । पुस्तक की एक समीक्षा ‘पार्टिजन रिव्यू’ में जनवरी, 1949 में छपी । समीक्षाकार थे अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेल । अपनी इस समीक्षा में ऑरबेल ने गाँधी के संश्लिष्ट व्यक्तित्व पर अत्यंत मौलिक एवं निरपेक्ष दृष्टिकोण से विचार किया था । आज जब एक बार फिर गाँधी के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत महसूस की जा रही है, ऑरवेल की यह समीक्षा विशेष प्रासंगिक प्रतीत होती है । उसी के कुछ रूपांतरित अंश :
हर
संत को भी तभी तक दोषी मानते हैं, जब तक वह पूरी तरह निर्दोष सिद्ध नहीं हो जाता । हालांकि हर संत के लिए एक ही कसौटी काम नहीं करती । गाँधी के विषय में भी ऐसे कुछ सवाल उठाए जा सकते हैं, जैसे गाँधी में अभिमान किस सीमा तक था ? एक ऐसा व्यक्ति, पूजा के आसन पर बैठा एक विनम्र, नंगा–बदन, बूढ़ा मानव, जिसमें सिर्फ अपनी अध्यात्मिक शक्ति से साम्राज्यों तक को हिला सकने की क्षमता का अहसास भरा हो, या फिर राजनीति को अपनाने में उसको अपने सिद्धांतों के साथ किस हद तक समझौता करना पड़ा हो । वैसी राजनीति जो कभी जोर–जबर्दस्ती, धोखा-धडी से अलग नहीं की जा सकती ? इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें गांधी के कार्यकलाप और लेखन को बारीकी से परखना होगा, क्योंकि गाँधी का पूरा जीवन एक तीर्थ यात्रा जैसा था, जिसका हर कदम महत्वपूर्ण था ।
महात्मा
गाँधी की आत्मकथा – ‘सत्य के प्रयोगों की कहानी’ जब पहली बार प्रकाशित हुई, मैंने उसके प्रारंभिक अंशों को हिंदुस्तानी किसी सस्ते–छपे अखबार के पृष्ठों में ही पढ़ा था । उनकी एक ताजा छाप मुझ पर पड़ी हालांकि गाँधी के व्यक्तित्व का कोई असर मुझ पर नहीं पड़ सका । गाँधी से जुड़ी चीजें जैसे घर–काता कपड़ा, अध्यात्म या निरामिष आहार, इनमें किसी का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं था । स्पष्ट लगता था, यह मध्यकालीन गांधी इस पिछड़े, भूखे, गरीब देश का कितना कल्याण कर पाएगा और अंग्रेजों के हाथ में तो वह एक अच्छा खिलौना मिल गया था (कम से कम उनकी समझ में) - जो एक तरह दुश्मन था, तो दूसरी तरह दोस्त भी था, क्योंकि कहीं कोई बौखलाहट होती तो गाँधी अपने अहिंसा से उसकी उफान घटा देता था । इसलिए गाँधी उनका एक दोस्त ही था, और ठीक यही हालत लखपतियों –धनिकों की भी थी । गाँधी पश्चाताप का सबक सिखाता था, और इसलिए जरूर उन समाजवादियों और साम्यवादियों से हर प्रकार अच्छा था जो मौका पाते ही उनका सारा धन हड़पने को तैयार थे । लेकिन गाँधी की मान्यता थी, धोखा देने वाले बस अपने को ही धोखा देते हैं । जो भी हो, इन्हीं कारणों से गाँधी को अंग्रेजों ने इतना ऊंचा दर्जा दे रखा था ।
मैंने
उन दिनों भी देखा था, बडे़–बड़े ब्रिटिश अफसर जो गाँधी की चर्चा दिल्लगी और नापसंदगी के लहजे में करते थे, वे भी अंदर से उसके सच्चे प्रशंसक थे । और उसको सम्मान देते थे । सब जानते थे, गाँधी भ्रष्टाचार मुक्त है, किसी ओछी महत्वाकांक्षा से ग्रस्त नहीं, और मन में कोई मलाल लेकर वह नहीं चलता । उसकी ‘आत्मकथा’ से भी स्पष्ट है कि उसमें शारीरिक सहिष्णुता काफी है, जिसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है गाँधी का बिना मौत से जरा भी डरते हुए अपनी प्रार्थना सभाओं में जाना । और भी न जाने कितने गुण थे उसमें । फॉरस्टर ने अपने उपन्यास ‘ए पैसेज टू इंडिया’ में कहा है -‘‘भारतीयों का सबसे बड़ा दोष है शंकालुता, जैसे - उसमें तुरंत यह भी जोड़ा है - जैसे, अंग्रेजों में गहरा कांइयांपन । गाँधी इनसे मुक्त था । मानव की अच्छाई में प्राय: उसका दृढ़ विश्वास था और निर्धनता या रूप–रंग के अनाकर्षण से गाँधी में कोई हीन भावना नहीं उपजी थी । रंगभेद, जातिभेद या स्तर-भेद उसके लिए कोई मानी नहीं रखता था । दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह के दिनों में भी उसके वहां कई यूरोपीय मित्र थे ।
गाँधी
का जीवन सामान्य ढंग से शुरू हुआ । पढ़–लिखकर बैरिस्टर बना । कुछ दिनों तक हैट–कोट पहन कर नाच सीखने जाया करता था । वायलिन सीखना भी शुरू किया था । और पैरिस के आइफल टावर पर भी बड़े शौक से चढ़ा था । गाँधी बचपन से मसीहा नहीं था । प्रारंभ की अपनी वासनात्मक या वैसी ही भूलों को उसने खुलकर स्वीकार किया था | थोड़ी सी भूलें जिनको इकट्ठा रखा जाए तो वे गाँधी की उन थोड़ी सी जरूरती चीजों के बराबर ही होंगी–चश्मा, घड़ी, कलम, खड़ाऊं, माला, गीता, तीन बंदर - कुल इतनी ही । वासना की भी बस इतनी ही थोड़ी पूंजी थी उसकी । मेरा दावा है, गाँधी के सबसे बुरे दुश्मन भी उसकी विलक्षणता के कायल थे । वह एक अजीब आदमी था और उसका पवित्र जीवन दुनिया के लिए एक अमानत है ।
इधर
(1949) लोग
गाँधी को पश्चिम के वामपंथ का समर्थक मानने लगे हैं । लेकिन उनसे एक भूल हो जाती है । गाँधी केवल केंद्रीकरण और राजकीय हिंसा का विरोधी नहीं था, उसके साथ कुछ अलौकिक, अमानवीय सिद्धांत भी थे, जिन्हें लोग नजरअंदाज कर देते हैं । गाँधी ने अपने जीवन को, और अपने साथ के लोगों के जीवन को भी, किसी हद तक एक कठिन अनुशासन में साध रखा था, जिसके बिना गाँधी का कहना था, न तो ईश्वर की भक्ति हो सकती है और न मानवता की । मांस और चर्बी युक्त भोजन सर्वथा वर्जित था । बस दूध तक के लिए गाँधी ने समझौता किया था । शराब, तंबाकू या चटपटी चीजों का कोई प्रश्न नहीं था । स्त्री–सहवास सर्वथा वर्जित, अथवा केवल संतानोत्पत्ति के उद्देश्य से किया जाए । जीवन के तीसरे दशक के बाद से ही गाँधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था । इसके लिए विशेषप्रकार का भोजन और सामयिक उपवास आवश्यक था । किसी प्रकार की मैत्रिक निकटता भी गाँधी नहीं चाहता था । गाढ़ी कही जाने वाली मित्रताएं गाँधी की दृष्टि में खतरनाक होती थीं । मित्रता में परस्परता होती है, और मित्रव्रतता कभी–कभी मनुष्य को भूल में डाल देती है । गाँधी अपने सिद्धांतों के पीछे अपनी पत्नी और बच्चों की बीमारियों में मांसाहार की डॉक्टरी सलाह का विरोध करता था, और कभी–कभी उन्हें मौत के मुंह तक जाते देखकर भी अपने सिद्धांत पर अटल रहता था । उसके विचार से सिर्फ जीवित रहने के उद्देश्य से एक सीमा तक अपने सिद्धांतों को कसा जा सकता है । यद्यपि मुझको ऐसा लगता है ये विचार उच्चादर्शवादी तो हैं पर पूर्णत: मानवीय नहीं हैं । मानव कभी संपूर्ण और आदर्श नहीं होता, कभी–कभी किसी वफादारी के तकाजे पर कुछ गलतियां भी करनी होती हैं । मानव जीवन में तपस्विता का अभ्यास उस सीमा तक नहीं किया जाना चाहिए जहां पारस्परिक मैत्री की संभावना ही समाप्त हो जाए । यदि किसी संत के लिए मादक द्रव्यों का सेवन वर्जित है तो साधारण मनुष्य के लिए संत जीवन भी दुष्कर ही है । किंतु आध्यात्मिक अथवा मानवीय मूल्यों में श्रेयस्कर कौन है, यहां इस विवाद में नहीं पड़ना है । तात्पर्य केवल इतना है कि इन दोनों प्रकार के मूल्यों में एक असंगति अवश्य दृष्टिगोचर होती है । जब भी ईश्वर और मनुष्य में चुनने का प्रश्न उठा है तो नरम उदारवादियों से लेकर उग्र अराजकतावादियों तक ने मानव को ही चुना है ।
गांधी का शांतिवाद पश्चिमी शांतिवाद से भिन्न था । उसकी प्रेरक शक्ति धार्मिक अवश्य थी, किंतु गांधी ने उसको एक निश्चित पद्धति का स्वरूप दे दिया था जिसके माध्यम से वह विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति करना चाहता था । दक्षिण अफ्रीका में जिस सत्याग्रह का प्रयोग गांधी
ने किया वह एक प्रकार का अहिंसक युद्ध ही था । जिसमें शत्रु को पराजित तो किया जाता था, किंतु उसमें या उसके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं उपजाई जाती थी । उसके अंतर्गत नागरिक अवज्ञा, हड़तालें, रेलगाड़ियों के सामने लेटना, पुलिस की ज्यादतियों को बिना प्रतिकार के झेल लेना, इस तरह की बातें होती थीं । एक बात ध्यान देने की है कि गांधी का संपूर्ण संघर्ष ब्रिटिश हुकूमत के ही खिलाफ था, अंतर्राष्ट्रीय अधिनायकवाद की ओर गांधी का ध्यान प्राय: नहीं गया था । गांधी ने विश्व चेतना को जगाने की बात अवश्य कही थी । किंतु यह भी तभी संभव था जब दुनिया के देशों में गांधी
की आवाज पहुंच सकती, क्योंकि गांधी के
तरीके भला उन देशों में कैसे सफल हो सकते थे । जहां दुश्मन के विरोधियों को रातों रात गुम कर दिया जाए और फिर उनका कुछ भी पता नहीं चले । जहां पत्रकारिता पर अंकुश लग चुका हो और जनता संगठित होने के अधिकारों से वंचित हो, वहां विदेश के जनमत को प्रभावित करने की बात कौन कहे, किसी प्रकार के जनांदोलन के उभरने की भी कल्पना नहीं की जा सकती, बल्कि वहां तो अपने विचारों को अपने उत्पीड़कों तक पहुंचाना भी संभव नहीं होता ।
फिर
भी यदि मान भी लें कि अपनी सरकार के प्रति अहिंसात्मक विरोध सफल हो सकता है, तब भी अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर इसका प्रयोग कहां तक संभव है ? गांधी की मूलभूत धारणा थी की मनुष्य मात्र में सद्भाव की स्वाभाविक प्रतिक्रिया शुभ होती है और हर मनुष्य के हृदय को छुआ जा सकता है । इसके बल पर ही व्यक्तिगत संबंधों में गांधी को विलक्षण सफलता मिलती रही थी । लेकिन इस धारणा
को हम किस हद तक स्वीकार कर सकते हैं ? जब पागलों से हमारा पाला पड़ जाता है तब इस धारणा की क्या सार्थकता रह जाती है ? तुरंत फिर सवाल उठता हैµकौन पागल नहीं है ? क्या हिटलर पागल नहीं था ? और क्या एक पूरी संस्कृति एक दूसरी संस्कृति के मुकाबले पागल नहीं करार दी जा सकती ? और यदि दो राष्ट्रों की भावनाओं को तौला जा सके तो क्या यह पता लग सकता है कि एक के सद्भावनापूर्ण व्यवहार में और दूसरे की मित्रोचित प्रतिक्रिया में कितनी दूर तक संबंध है ? अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो क्या अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कृतज्ञता का भी कोई स्थान होता है ?
ऐसे
प्रश्नों पर विचार होना चाहिए । इसका समय अब आ गया है । जो कुछ वर्ष हमारे सामने हैंµइसके पहले कि कोई बटन दबाता है और राकेट छूट पड़ते हैंµइसमें संदेह है कि मानव सभ्यता एक और विश्व युद्ध झेल सकेगी, और विकल्प के रूप में सोचा जा सकता है कि इस संकट से बच निकलने का मार्ग अहिंसा का ही मार्ग है । गांधी के बारे मंे ऐसा लगता है, बहुत सी बातें ऐसी थीं जिन्हें वह नहीं समझता था, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था जिसको सोचने में या बोलने में वह डरता हो । गांधी के प्रति मेरे मन में बहुत श्रद्धा के भाव कभी नहीं रहे हैं, लेकिन मुझको ऐसा नहीं लगता कि राजनीतिक विचार के रूप में गांधी मूलत% गलत था, और ऐसा तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि उसका जीवन असफल होकर रह गया ।
गांधी के प्रति एक प्रकार की सुरूचिवादी जुगुप्सा मन में हो, ऐसा संभव है, और मेरे मन में है भी । उसके संत होने का जो दावा किया गया था, उसको तो अस्वीकार किया जा सकता है, बल्कि संतत्व के आदर्श को भी नकारा जा सकता है और कहा जा सकता है कि गांधी के मूलभूत सिद्धांत मानवता विरोधी
और प्रतिक्रियावादी थे, लेकिन यदि गांधी को केवल एक राजनीतिक नेता के रूप में देखें और अपने युग के राजनीतिक नेताओं के बरक्स उसकी तुलना करके देखें तो लगता है गांधी अपने पीछे एक कैसी पावन सुरभि बिखेर गया है ।
मेरे
लिए
गांधी का संदेश
सुज़ान
श्वाइत्ज़र
महात्मा
गांधी की 125 वीं जयंती के अवसर पर जर्मनी में एक निबंध
प्रतियोगिता आयोजित की गई थी । विषय थाµ‘‘मेरे लिए गांधी का संदेश’ । प्रस्तुत आलेख उसी प्रतियोगिता की पुरस्कृता ‘सुज़ान श्वाइत्ज़र’ द्वारा मूल जर्मन में लिखा गया था जिसे जर्मनी के संसद के अनुवाद विभाग द्वारा हिंदी में अनूदित किया गया है । सुज़ान श्वाइत्ज़र को पुरस्कार–स्वरूप भारत आने का अवसर मिला था और वह बिहार विधान परिषद में भी आई थी । सुज़ान जर्मनी में स्टुटगार्ट नगर के समीप बार्थेलोमा गांव में रहती हैं ।
छह
महीने पहले मेरे एक बहुत अच्छे दोस्त की हत्या कर दी गई । डानियल के दो हम उम्र लड़कों के सिर पर एक दिन अचानक खून चढ़ गया । उन्होंेने डानियल पर पैंतीस बार छुरे से वार किया । बिना किसी मकसद के । उनका डानियल से कोई झगड़ा नहीं हुआ । डानियल उनके लिए कोई खतरा भी नहीं था । उनके मन में आया और उन्होंने उसे बिना वजह ही खत्म कर दिया । केवल मनमानी ही तो है यह ।
दोनों
हत्यारों के गिरफ्तार हो जाने पर मेरा दिल नफरत से भर गया । इस खून का बदला खून से लेने के अलावा मुझे और कोई ख्याल ही नहीं आया । मेरे दिमाग में इतनी उथल–पुथल मची कि दुख का स्थान पूजा ने ले लिया । और मेरा गुस्सा बढ़ते–बढ़ते बेपैमाना हो गया । मेरी बहन सोनिया ने मुझे इस स्थिति से उबारने के लिए गांधी जी
की किताब ‘शांति प्रवचन’ खरीद दी । गांधी जी
का नाम मैंने पहले भी काफी बार सुना था । गांधी जी,
जिन्होंने भारत को आजाद कराया था, उनको तो लोग जानते ही हैं । पर गांधी जी
के बारे में मैंने कभी ठीक से सोच–विचार नहीं किया था । हालांकि मुझे ‘गांधी’ फिल्म बहुत अच्छी लगी थी और गांधी जी
ने अंग्रेजों के विरूद्ध जिस ढंग से संघर्ष कियाµउससे मैं बहुत प्रभावित हुई थी । पर यह सब कुछ मुझे अपनी पहुंच के बाहर जान पड़ा था । गांधी जी
मुझे एक आदर्श ऐतिहासिक व्यक्तित्व प्रतीत हुए थे ।
डानियल
के कत्ल के बाद मैंने गांधी जी
को एक नए रूप में देखना सीखा । उनका हर वाक्य मुझे सोचने को मजबूर करताय मैं इस धरती
पर किसी भी प्राणी से घृणा करने में अपने को असमर्थ पाता हूं । मैंने 40 साल से प्रार्थना पर अनुशासन के जरिए नफरत करना बिल्कुल छोड़ दिया है । मैं जानता हूं कि यह बहुत बड़ा दावा है, पर मैं अपने आप से ऐसी विनीत अपेक्षा करता हूं । सर्वव्यापक सत्य की अग्नि–परीक्षा में खरे उतरने के लिए जरूरी है खुद जैसे निर्बल प्राणी से प्यार करना ।’
मुझे
ये विचार बाईबिल में भी पढ़ने को मिले हैं, पर इनका अर्थ मुझे कभी भी इतना स्पष्ट एवं पारदर्शी नहीं जान पड़ा था । जितना कि गांधी जी
के इन वाक्यों को पढ़कर । उनकी जीवन कहानी के द्वारा आदमी जान पाता है कि अपने सबसे बड़े शत्रु से प्यार करना वाकई मुमकिन है । गांधी जी
को न केवल दक्षिण अफ्रीका में, बल्कि भारत में भी काफी अपमान सहना पड़ा था । दक्षिण अफ्रीका में उनको अफसरों ने डांटा–फटकारा, दुत्कारा और पीटा । उन्होंने गांधी जी
पर थूका । पर उन्होंने एक बार भी इस अपमान का मुंह तोड़ जवाब नहीं दिया, बल्कि उन्होंने इस तिरस्कार को हंसते–हंसते झेला और इस गलत आचरण को बिना बल प्रयोग किए सुधारने की बात अपने मन में ठान ली । गांधी जी
इस अपमान के बावजूद कालों की वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में ठहरे । ‘यह मेरे लिए हमेशा एक पहेली बनी रही कि लोग दूसरों के अपमान में अपनी पुष्टि कैसे पाते हैं ।’ गांधी जी
इस पहेली का हल ढूंढ़ने के लिए, और लोगों को ताने–तुनकों से एक–दूसरे का जीवन असहनीय बनाने से रोकने के लिए, दक्षिण अफ्रीका में ठहरे ।
गांधी जी ने अपने शत्रुओं से जैसा बर्ताव किया, उससे मुझे सीखना होगा कि मैं डानियल के हत्यारों से नफरत करना छोड़ दूं और उन्हें सद्मार्ग पर आने की प्रेरणा दूं । बदले की भावना दिल से निकाल दूं । द्वेष–भाव असंगत है । पर मुझे अभी इसमें सफलता नहीं मिल पा रही है, चाहे मैं कितनी ही बार महात्मा जी के शब्दों को सुनूं और उन पर सोचूं–विचारूं । मुझे खुशी होगी, अगर मैं भी उनकी तरह सब लोगों के प्रति अहिंसा और मैत्री–भाव रख सकूं । पर यह संभव नहीं है । मेरी इस स्थिति में मुझे बार–बार एहसास होता है कि यह संभव नहीं है । यह अभी संभव नहीं है ।
घृणा
मौजूद ळै और इच्छा बराबर बनी हुई है कि डानियल के कातिलों को दुगुनी–चैगुनी बार छुरा भोकूं । मार्टिन लूथर किंग ने एक बार कहा थाय ‘अगर मानवता को प्रगति करनी है, तो गांधी जी
अपरिहार्य हैं । उन्होंने मानवता का एक सपना देखा, दिखाया और उसे जीया भी, जिसमें दुनिया शांति और मैत्री भाव से रहती है । हम उन्हें भुलाना चाहें, तो भुला सकते हैं, पर इससे नुकसान हमारा ही होगा ।’ वास्तव में गांधी जी
का जीवन सबके लिए अनिवार्य है, जो अहिंसात्मक विरोध
का समर्थन करते हैं ।
फिर
भी आज ऐसा लगता है, जैसे महात्मा जी कभी इस धरती
पर उतरे ही नहीं । जैसे उन्होंने दांडी–यात्रा कभी की ही न थी । ‘गांधी’ फिल्म में तो दिखाया गया था कि गांधी जी
के 2500 सहयोगी, सफेद वस्त्र पहने, एकजुट होकर, टोलियों में, 400 सिपाहियों की 5 फुट लौह–जड़ित लाठियों का प्रहार सहते हैं । प्रदर्शनकारियों के झुंड एकत्रित होते हैं और शांति से इंतजार करते हैं कि सेना उनकी हड्डी–पसली तोड़े । 1931 में भी बिल्कुल यही हुआ था । दो आदमी मारे गए थे और 320 जख्मी हुए थे ।
अगर
आदमी आज कल्पना करता है कि 2500 आदमी एक आदमी के विचारों से प्रभावित होकर ऐसे दर्दनाक जुल्म सहते हैं, और एक बार भी इन निर्दयियों का हिंसात्मक प्रतिकार करने की कोशिश नहीं करते, तो आदमी को एहसास होता है कि गांधी जी
का अपने जमाने में लोगों के दिलों–दिमाग पर कितना प्रभाव रहा होगा । पर आज की दुनिया में तो एक ही बात चलती है ‘जैसा तुम मेरे साथ व्यवहार करोगे, वैसा ही मैं भी तुम्हारे साथ करूंगा ।’
तो
ठुकरा दें हम आज गांधी जी
को ? क्या आज प्रतिस्पर्द्धा के युग में एक–दूसरे के साथ मिल–जुलकर शांति से रहना नामुमकिन है ? पर मेरा विश्वास है कि बहुत लोगों के मानस–पटल पर मानवता की एक तस्वीर अंकित है, जो इस संसार को शांति एवं पारस्परिक मैत्री की ओर बढ़ने को प्रेरित कर रही है । फिर भी बिना द्वेष के रहना मुश्किल ही जान पड़ता है । शांतिपूर्ण प्रदर्शनी में भी मुठभेड़ों के हादसे देखने को मिल ही जाते हैं । अचानक ही तनाव बढ़ने लगता है । तहलका मच जाता है । पत्थर बरसने लगते हैं । पुलिस जनता को तितर–बितर करने के लिए लाठी का प्रयोग करती है । बाद में कोई भी वहां नहीं होता, जो महात्मा गांधी की तरह गांव–गांव जाकर लोगों को शांत करे और आगामी अभियानों को बेहतर ढंग से आयोजित करे । कोई भी वहां विद्यमान नहीं होता, जो तब तक उपवार रखे, जब तक कि मनुष्य फिर से अहिंसा के मार्ग पर चलने को तैयार नहीं हो जाए ।
महात्मा
गांधी का संदेश हमें कठोर अनुशासन का पालन करने को कहता है । गांधी जी
के कहने पर हिंदुस्तानियों ने इंग्लैंड से आयातित वस्त्रों की होली जलाई थी । गांधी जी
का मानना था कि हिंदुस्तानियों को अपने कपड़ों के लिए भविष्य में खुद सूत कातना चाहिए । गांधी आश्रम ‘सेवाग्राम’ में सूत कातना दिनचर्या का आज भी एक अंग है । खाने की सब सामग्री आश्रम में खुद उगाई जाती हैं । मनुष्य गरीबी में सादा जीवन व्यतीत करते हैं । गांधी जी
द्वारा स्थापित आश्रम आज भी कार्यरत हैं । क्या गांधी जी
का संदेश आज हमारे लिए हैं कि हम थाईलैंड और मैक्सिकों में निर्मित कपड़े न पहनें, क्योंकि वहां कपड़ा जुलाहों का खून चूसकर तैयार किया जाता है ? हम यह कपड़ा खरीदकर किसका उपकार करते हैं ? आज श्रमिकों को इतनी मजदूरी भी नहीं मिलती कि वे अपना जीवन निर्वाह कर सकें और अधिकतर
पैसा जमींदारों, व्यापारियों व प्रबंधकों की जेब में चला जाता है ? क्या हमें अपनी खाद्य–सामग्री खुद नहीं पैदा करनी चाहिए और सस्ती कॉफी और केलों का बहिष्कार करना चाहिए ? गांधी जी
के संदेश के मुताबिक सादा जीवन–यापन करना हम सब के लिए बहुत बड़ा त्याग होगा । हमें बिना सोचे–समझे चीजों का उपभोग नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें जागरूक होना होगा कि हम केवल आवश्यकता की चीजों का ही प्रयोग करें ।
मेरे
लिए गांधी जी
की जिस बात का सबसे अ/िाक महत्व है, वह है उनका अछूतों के प्रति व्यवहार । गांधी जी
मानते थे कि वर्ग–व्यवस्था, और खासकर छुआछूत हिंदू धर्म
का सबसे बुरा पक्ष है । गांधी जी
ने अछूतों के कल्याण के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया और एक बार अछूतोद्धार के लिए किए अपने उपवास के दौरान तो वे मौत के द्वार तक चले गए । गांधी जी
ने अछूतों को ‘हरिजन’ कहकर पुकारा ।
हमारे
समाज में (जर्मनी में) अछूत कौन हैं ? असामाजिक लोग, जैसे खानाबदोश, विकलांग, पंगु, बेघरबार और आवारागर्द ? गांधी जी
के अनुसार हमारी नजरों में इन सबका स्थान एक होना चाहिए । हमंे इन सबके साथ अपना–सा व्यवहार करना चाहिए । हमें सबको एक–सा सम्मान देना चाहिए और सबकी जरूरतों का गांधी जी
की तरह ख्याल रखना चाहिए । अधिकतर ऐसा देखने को नहीं मिलता । अक्सर हम ऐसे लोगों को समाज से बाहर निकाल देते हैं । इन्हें कूड़ा–करकट मानते हैं । कूड़ा–कचरा, जो सामान्य लोगों की आंख का कांटा है ।
महात्मा
गांधी मुझे इस क्षेत्र में भी काफी प्रेरणा देते हैं । पर मैं उनके संदेश की थाह पाने में अपने को असमर्थ पा रही हूं । मुझ जैसे बहुत सारे युवा लोगों को विकलांगों का सम्मान करने में उतनी परेशानी नहीं होती, जितनी आवारागर्दों को अपना समतुल्य मानने में । ‘मैं इतना नीचे नहीं गिर सकती । ‘अगर आदमी काम करना चाहे, तो उसे भीख मांगने की नौबत नहीं आ सकती और वह बेघर नहीं हो सकता ।’ महात्मा गांधी ने खुद उदाहरण पेश किया है कि ऐसे लोगों के साथ रहना बिल्कुल सामान्य है और इन्हें समतुल्य मानना भी संभव है ।
मेरे
इन प्रस्तुत विचारों से प्रकट होता है कि मुझे गांधी जी
का संदेश कुछ–कुछ तो समझ में आने लगा है । फिर भी मेरी आशा मिटती–सी लगती है, जब मैं गांधी जी
की तरह रहने का प्रयास करती हूं । हर आदमी एक देश को आजादी नहीं दिला सकता, परंतु गांधी जी
के संदेश को अपने जीवन में धीरे–धीरे
व आंशिक रूप से अपनाने की कोशिश कर सकता है । अगर मैंने गांधी जी
को ठीक से समझा है, तो उनके लिए भी यही बहुत जरूरी था कि अहिंसा को जीवन के हर छोटे–बड़े क्षेत्र का अंग बनाया जाए और सब मनुष्यों को एक नजर से देखा जाए । हालांकि यह बहुत मुश्किल है, पर गांधी जी
मुझे शक्ति एवं आशा प्रदान करते हैं, जब वे कहते हैं : ‘मुझे जरा भी संदेह नहीं है कि हर आदमी और औरत वह सब कुछ पा सकता है जो मैंने पाया है, अगर वह मेरी ही तरह भरसक कोशिश करे और आशा एवं विश्वास को बनाए रखें ।’’
गाँधी पर इस श्रृंखला में कुछ और महत्त्वपूर्ण सामग्री आप आगे भी पढ़ सकेंगे जो
शायद आपकी नज़रों से नहीं गुज़री होगी | आप कृपया यहाँ अपनी टिप्पणी भी अंकित कर
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(C) डा. मंगलमूर्त्ति चित्र : सौजन्य गूगल
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