नीलाभ मिश्र
नीलाभ होते तो आज अपनी ५८ वीं सालगिरह मनाते | लेकिन वे तो
इसी साल २४ फरवरी को चेन्नई के अपोलो अस्पताल में अपना खराब लीवर बदले जाने की
उम्मीद लिए चले गए | मैं नहीं जानता क्या समस्या हुई थी | इतना सुना कि वे आइसीयू
से जिद करके बाहर आ गए थे और वहां अपनों के बीच आखिरी सांस ली |
इससे मुझको अपनी पत्नी के आइसीयू में निधन की याद आ गयी |
उनका केवल बुखार नहीं उतर रहा था | हमलोग
उनको पटना से दिल्ली लाये और वहां अपोलो में बड़ी उम्मीद से भरती कराया | वहां इलाज
ऐसा चला कि अंततः उनको आइसीयू में जाना पड़ा | दिल्ली के अपोलो के आइसीयू का हाल
मैंने इन्हीं आँखों देखा | एक लम्बा वार्ड | पर्दों से घिरे बगल-बगल बेड |
ज़्यादातर मरीज़ बेहोशी में | चारों और मशीनों की घरघराहट | रोजाना का बिल ३५,०००
रु.| हम कहाँ से लाते इतना धन | उनको किसी तरह एम्स में शिफ्ट किया | वहां भी सभी
मरीज़ मशीनों और ट्यूबों के जाल में जकडे हुए देखे | बस एक डाक्टर, दो नर्स उसी
कमरे में अलग टेबल पर ड्यूटी करते बैठे हुए | केवल मुझको दिन में एक बार शाम को १५
मिनट के लिए जाकर देखने की इजाज़त | आज उस मृत्यु-कूप को याद करना ही एक भयावह
यंत्रणा है | नीलाभ ने वहां से निकल कर आज़ादी की आखिरी सांस ली होगी |
नीलाभ पटना में मेरे भतीजे सीताराम शरण के सेंट जेविअर
स्कूल के सहपाठी थे और पुनाईचक के हमारे मकान के पास ही रहते थे | मैं मुंगेर से
पटना आ गया था | नीलाभ तब ‘नव भारत टाइम्स’
में पत्रकारिता कर रहे थे | यह १९९०-’९१ की बात होगी | पात्र के संपादक अरुण रंजन
भी मेरे परिचित थे | उन दिनों मेरे लेख और पुस्तक-समीक्षाएं उस अखबार में नियमित
छपते थे | ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ भी वहीँ से निकलता था, और उसके संपादक उत्तम सेन
गुप्ता भी मुझसे परिचित थे | उसमें भी यदा-कदा मैं लिखता था | नीलाभ प्रायः रोज़ ही मेरे घर सीताराम से
मिलने आते थे |
उसके कुछ दिन बाद सेवा-निवृत्त होकर मैं यमन में प्रोफेसरी
करने चला गया | और वहां से आने के बाद ही मेरी पत्नी का दिल्ली एम्स में निधन हुआ
था | फिर मैं बनारस अपने बेटे के साथ रहने लगा | नीलाभ भी इस बीच जयपुर चले गए,
फिर एनाडू टीवी में रहे, और तब अंततः दिल्ली में हिंदी ‘आउटलुक’ के सम्पादक हो गए
| जब भी दिल्ली जाता, उनसे उनके सफ़दरजंग एन्क्लेव के दफ्तर में ज़रूर मिलता | वही
रूप-रंग, वही सादगी, वही सदाबहार मुस्कराहट, वही आदर-भाव | छोटा-सा, मामूली-सा,
लगता दफ्तर - किताबों, पत्रिकाओं के बिखराव से लदा हुआ | कहीं कोई ताम-झाम नहीं |
मैंने अखबार के संपादकों के और भी दफ्तर देखे थे | लेकिन नीलाभ के दफ्तर पर जैसे
उन्हीं के व्यक्तित्व की छाप दीखती थी |
मेरी दो कहानियां नीलाभ ने ‘आउटलुक’ में छापीं | वह मेरी
पहली कहानी थी – ‘एक कहानी’ (मार्च, २०१४)| उसमें एक कहानीकार की मुलाकात अचानक कहानी
से ही होती है | कहानी सहज भाव से कहानीकार से कहती है –
“...जितना अनजाना, अनकहा रह जाता है, असली कहानी उसी में
छिपी रह जाती है | आदमी की तरह हर कहानी भी अधूरी रह कर ही ख़त्म हो जाती है | उसके
ख़त्म होने को ही हमें उसका पूरा होना मान लेना पड़ता है | कोई कहानी कभी पूरी नहीं
होती | मुझे देख कर भी यह न समझना की मैं पूरी हो चुकी हूँ | मैं भी अबतक अधूरी
हूँ | लेकिन मुझको इसका कोई गिला नहीं | मैं इस सच्चाई से वाकिफ़ हूँ और बेफिक्र भी
|”
मैंने अपनी वह पहली कहानी क्यों लिखी और क्यों उसको नीलाभ
ने अपनी पत्रिका में ही छापा – जबकि मैंने ३-४ ही कहानियां और २०-३० ही कवितायेँ
लिखी हैं | और उनमें से कुछ ही कहीं छपी भी हैं | लेकिन आज जब नीलाभ का जन्मदिन
आया है, तब मुझे लगता है मेरी कहानी ने जो बात मुझसे कही थी वह कितनी सच थी !
मैंने लखनऊ में अपने पिता का स्मृति समारोह २१ जनवरी, २०१४
में ही मनाया था | उसमें मैंने जानबूझ कर बिहार के दो प्रतिभाशाली युवक
साहित्यकारों को आमंत्रित किया था – अरुण कमल और नीलाभ मिश्र
| नीलाभ ने अपने भाषण में शिवपूजन सहाय के 'मुंडमाल' कहानी की विशेष रूप से चर्चा की थी और उसे एक कलात्मक कृति के रूप में व्याख्यायित किया था | नीलाभ हिंदी और अंग्रेजी साहित्य पर सामान रूप से अधिकार रखते थे और उनकी समीक्षा की दृष्टि भी बड़ी पैनी थी जिसका उदहारण उनके भाषण में पूरी तरह मिला | उस अवसर की नीलाभ की और कई तस्वीरें आप मेरी इस श्रद्धांजलि के साथ यहाँ देख सकते हैं, कुछ और सामग्री के साथ | गूगल पर आप नीलाभ मिश्र पर और सामग्री भी देख सकते हैं |
Obituary : 24 February, 2014
Neelabh Mishra : my mentor, my friend
Bhasha Singh. Co-editor Hindi ‘Outlook’
A selfless mentor,
a principled fighter, a true liberal, an effortless romantic, a patriot to the
core and above all, a kind soul. Yet, that is not all that one can say about
Neelabh Mishra
A perspicacious
editor, Neelabh could easily be ranked among the best of his times. His nose
for news, or what would make for news, was just peerless. His eyes glittered
when he shared knowledge. His thirst for knowledge just seemed unquenchable.
Such was his confidence and charisma that he never hid what he knew. He wasn’t
fussed about competition.
A
perspicacious editor, Neelabh could easily be ranked among the best of his
times. His nose for news, or what would make for news, was just peerless. His
eyes glittered when he shared knowledge. His thirst for knowledge just seemed
unquenchable. Such was his confidence and charisma that he never hid what he
knew. He wasn’t fussed about competition.
Filled
with humanity to the core, Neelabh believed in a life free of animosity and
discrimination. And he practised what he preached. He was a secular and
pro-people intellectual who had strongly opposed the politics of violence and
enmity all his life. He was ever ready to pay the price for standing by what he
believed in.
He was
uncompromising on honesty. Perhaps that was the reason why dodgy journalists
were wary of him. He inherited the simplicity in his lifestyle, clothing and
food habits from his father, who was a staunch Gandhian.
Read more
about Neelabh Mishra on google.
1 comment:
सर नमस्कार। नीलाभ भइया की ओरिजनल साइज की तस्वीरें क्या आप मुझे ईमेल कर सकते हैं?
सादर
आशीष महर्षि
9893569621
ashish.maharishi@gmail.com
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