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Tuesday, June 12, 2018


राहुल सांकृत्यायन और ‘हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी’ का सवाल

मंगलमूर्त्ति

यह वर्ष हिंदी नव-जागरण के दो महत्त्वपूर्ण हिंदी लेखकों – महापंडित राहुल सांकृत्यायन और आचार्य  शिवपूजन सहाय – का १२५ वां जयंती वर्ष है | इन दोनों समवर्त्ती लेखकों के जन्म (१८९३) और निधन (१९६३) के वर्ष भी एक ही रहे - यदि इसे हम एक आकस्मिक संयोग के रूप में ही न देखें, तो इस महत्त्वपूर्ण संवर्त्तिता का महत्त्व द्विगुणित हो जाता है; जब हम देखते हैं कि इसी ऐतिहासिक काल-खंड में भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के दौरान कार्यशील इन दोनों महान साहित्यकारों के साहित्यिक जीवन में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रश्न पर भी एक प्रछन्न समानांतरता स्पष्ट परिलक्षित होती है |

भाषा का प्रश्न राजनीति से कहीं अधिक समाज से जुडा होता है | समय और समाज ही भाषा के नद-प्रवाह के दो किनारे होते हैं | साहित्य भाषा के इसी निरंतर प्रवहमान विकास का एक सांस्कृतिक एवं अनिवार्य पक्ष होता है | भाषा, समय और समाज परस्पर एक दूसरे के साथ प्रवाहित होते हुए, एक दूसरे को अनिवार्यतः प्रभावित करते हुए विकासमान होते हैं | इतिहास के विशेष काल-खण्डों में इन पर राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव अवश्य पड़ते हैं, पर वे इनके प्रवाह की मूल दिशा को परिवर्तित  नहीं कर सकते – अर्थात, इनकी दिशा को बिलकुल दायें-बाएं या पीछे की ओर नहीं मोड़ सकते | हिंदी नव-जागरण और स्वाधीनता-संग्राम के काल-खंड में हिंदी के राष्ट्रभाषा-सम्बन्धी प्रश्न को भी हम इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते है | वस्तुतः इस दौर के सम्पूर्ण  हिंदी भाषा-साहित्य के विकास को हम इस भाषागत दृष्टिकोण से देख सकते हैं, और इसमें ये दो अनन्य हिंदी-सेवी – आचार्य शिवपूजन सहाय और राहुल सांकृत्यायन हमारे लिए विशेष महत्त्वपूर्ण और प्रातिनिधिक व्यक्तित्व प्रतीत होते हैं | साहित्य-लेखन के क्षेत्र में आधुनिक हिंदी के इन दो महान लेखकों की चर्चा इधर कई संगोष्ठियों, परिचर्चाओं-प्रसंगों में हो रही है; किन्तु राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रश्न पर – राष्ट्रीय एकता और अस्मिता के सन्दर्भ में - इन दो महान साहित्यकारों के विचारों में कितना साम्य रहा है, उसमें कितने महत्त्वपूर्ण विन्दुओं पर विचार हुए हैं, और इस दिशा में इनका योगदान कितना महत्त्वपूर्ण रहा है, इस पर भी इस दौर में गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है |

हिंदी नव-जागरण काल में स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान अखिल भारतीय-स्तर पर अंग्रेजी भाषा और शिक्षा के विरुद्ध भारतीय भाषाओं – विशेषतः हिंदी – में एक पुनर्जागरण का भाव आप्लावित हुआ था  | यही दौर आधुनिक हिंदी साहित्य के आविर्भाव और पत्रकारिता के विपुल प्रसार का दौर भी रहा | इसमें एक धारा साहित्य-सृजन और पुस्तक-प्रकाशन की रही और दूसरी राष्ट्र-धर्मी अथवा साहित्य-धर्मी पत्रकारिता की रही | शिवपूजन सहाय पहली धारा में प्रारम्भिक अवगाहन के बाद व्यक्तिगत कारणों से दूसरी धारा की ओर मुड गए, और राहुलजी अपनी यायावरी के वेग से दोनों ही धाराओं में बहते हुए अग्रसर होते रहे |

तीस के दशक में, असहयोग आन्दोलन के दौरान, राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रश्न – विशेषतः सांप्रदायिक वैषम्य के परिप्रेक्ष्य में - कांग्रेस के लिए भी एक बहुत अहम् मुद्दा बन चुका था | हिंदी-उर्दू और ‘हिन्दुस्तानी’ का सवाल देश के सम्मुख एक ज्वलंत प्रश्न बन कर खड़ा हो गया था | तीस के दशक के अंत के साथ राहुलजी अपने जीवन के लगभग ४५ वर्ष पूरा करते हुए  हिंदी-साहित्य-जगत में कीर्ति के शिखर पर पहुँच चुके थे | उनके जीवन-क्रम पर दृष्टिपात करने पर सहज ही लगता है कि उस समय तक (और उसके बाद भी) वैसा गतिमान यायावरी जीवन, उतना कार्य-सघन, संघर्षशील, सृजनशील, मूर्त्तिभंजक व्यक्तित्त्व हिंदी क्या किसी भारतीय भाषा के साहित्यकार का नहीं था | वास्तव में, राहुलजी का जीवन इस अर्थ में सर्वथा विस्मयकारी है – वे कब कहाँ कितने दिन रहते थे, जीवनानुभव और स्वाध्याय में किस तरह संलिप्त रहते थे, कितना और कैसे अनवरत उतना लेखन कर पाते थे, उनका ज्ञान-संसार कितना अपरिमित था –  हिंदी साहित्य में फिर वैसा कोई तुलनीय और दूसरा व्यक्तित्त्व तो दिखाई नहीं देता | यह अविरल, निर्बाध गतिशीलता जितना उनके  व्यक्तित्त्व का अंग थी, उतनी ही वह उनकी लेखन-शैली में भी दृष्टिगोचर होती है | उनके गद्य को पढ़ने पर – उनकी वाक्य-संरचनाओं में, शब्द-चयन में – सब में एक सरपट प्रवाह का भाव हर जगह दिखाई पड़ता  है | जैसे सम्प्रेषण के आवेग में लेखन-क्रिया विचार-प्रवाह से सदा पीछे पड़ती जा रही हो |

राहुलजी के युवा-जीवन का लगभग एक दशक बिहार में बीता था जिसमें उनका हजारीबाग जेल का कारा -जीवन भी शामिल है | इस अवधि में साधु-जीवन के अभ्यास-काल में भी हिंदी भाषा और साहित्य से उनका गहरा लगाव रहा | वे अरबी-फारसी और कई विश्व-भाषाओं के विद्वान् तो थे ही, भोजपुरी, मगही, अंगिका, आदि कई स्थानीय बोलियों और लोक-संस्कृति का उनका ज्ञान भी अत्यंत विस्तीर्ण था | तीस के दशक के अंत तक उनकी लगभग ४५-५० पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं जिनमें अधिकांश धर्म और भाषा-विज्ञान तथा यात्रा-विवरण से सम्बंधित थीं | इस दौरान वे ३-४ बार तिब्बत की यात्रा के अलावा रूस, जापान, ईरान और योरोप के देशों की यात्रा कर चुके थे | समय-समय पर इन्हीं वर्षों में वे बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशनों में भी भाग लिया करते थे | इन सम्मेलनों में अक्सर भाषा-सम्बन्धी प्रस्ताव ही प्रस्तुत किये जाते थे, और ज़्यादातर प्रस्तावों का सम्बन्ध शिक्षा अथवा कचहरियों में फारसी या हिंदी भाषा अथवा लिपियों के प्रयोग से हुआ करता था | देश में स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में हिन्दू और मुसलमान सम्प्रदायों के बीच बढ़ाते वैमनस्य के परिप्रेक्ष्य में हिंदी-उर्दू बनाम अरबी-फारसी का झगडा एक बड़ी समस्या बन चुका था जिसे एक-दूसरे से बिलकुल अलग अरबी-फारसी और देवनागरी लिपियों के सवाल ने लगभग असाध्य बना दिया था |
  
बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के ११ वें भागलपुर अधिवेशन (अक्तूबर,१९३३) में राहुलजी ने  हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसार की दृष्टि से देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि अपनाने का प्रस्ताव प्रस्तुत करना चाहा था, जो कड़े विरोध के कारण प्रस्तुत नहीं हो सका था, यद्यपि वहाँ राहुलजी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर मिला था | जैसा डा. भगवान सिंह ने अपनी पुस्तक ‘गाँधी और हिंदी राष्ट्रीय जागरण’ (पृष्ठ ८४) में लिखा है, स्वयं जवाहरलाल नेहरु उन दिनों इस असाध्य समस्या के प्रसंग में अंतर्राष्ट्रीयता के नाम पर रोमन लिपि की हिमायत करने लगे थे | यद्यपि महात्मा गाँधी शुरू से रोमन लिपि के इस अव्यावहारिक  सुझाव के बिलकुल खिलाफ थे |

 बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के इन अधिवेशनों में ज्यादा चर्चा उन दिनों इन्हीं प्रश्नों पर हुआ करती थी, और इन सम्मेलनों में उस समय बिहार और अन्य प्रान्तों के भी सभी प्रमुख साहित्यकार-पत्रकार सम्मिलित हुआ करते थे, जिनमें शिवपूजन सहाय भी होते थे | आगे चलकर सम्मलेन के १६ वें रांची अधिवेशन (दिसम्बर, १९३८) में तो राहुल सांकृत्यायन ही सभापति मनोनीत हुए थे | और अगले १७ वें पटना अधिवेशन (फरवरी, १९४१) में आचार्य शिवपूजन सहाय सभापति मनोनीत हुए थे | इन दोनों अधिवेशनों में सभापति के भाषणों में हिंदी-उर्दू बनाम ‘हिन्दुस्तानी’ का प्रश्न ही उभर कर सामने आया था | अक्सर सम्मलेन के इन अधिवेशनों में डा. राजेंद्र प्रसाद भी उदघाटनकर्त्ता  अथवा स्वागताध्यक्ष के रूप में उपस्थित रहा करते थे | पटना वाले १७ वें अधिवेशन का उदघाटन डा. राजेंद्र प्रसाद ने ही किया था | इस सम्मलेन में भी हिन्दुस्तानी के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव उपस्थित किया गया था जिस पर काफी उत्तेजनापूर्ण वाद-विवाद हुआ था, लेकिन प्रस्ताव पर मत-विभाजन नहीं हो सका था |
राहुलजी के सभापतित्त्व में हुए १६ वें रांची अधिवेशन में भी हिन्दुस्तानी का प्रश्न उठा था लेकिन सरकार द्वारा “व्यावहारिक क्षेत्र में ‘हिन्दुस्तानी’ शैली को आदर्श के प्रतिकूल, कृत्रिम तथा अव्यावहारिक बनाने का जो प्रयत्न हो रहा था उसका विरोध किया गया था” (बि.हिं.सा. स. का इतिहास, पृष्ठ ८४) | एक अन्य प्रस्ताव में भी  “नागरी लिपि के स्थान में रोमन लिपि के प्रचार के प्रयत्न की निंदा की गई थी”|




इन दोनों अधिवेशनों में राहुलजी और शिवपूजन सहाय के अध्यक्षीय भाषणों में ‘हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी’ के प्रश्न पर विस्तार से विचार किया गया था | (राहुलजी वाले रांची अधिवेशन में पटना कॉलेज के प्रो. इश्वर दत्त का “भारत की लिपि-समस्या” पर एक सुन्दर और ओजस्वी भाषण भी हुआ था |) राहुलजी ने लगभग ३० पृष्ठ लम्बे अपने अध्यक्षीय भाषण में मुख्यतः ‘हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी’ के प्रश्न पर ही विचार किया है | उनका संस्कृत-अरबी-फारसी आदि भाषाओं का गहन अध्ययन उस लम्बे भाषण में प्रतिबिंबित होता है | (राहुलजी और शिवपूजन सहाय के ये दोनों अध्यक्षीय भाषण बि. हिं. सा. सम्मेलन द्वारा संकलित भाषण-श्रंखला में प्रकाशित हुए हैं |)

राहुलजी ने अपने भाषण में सबसे पहले भाषा को धर्म के दायरे में समेटने और उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा मानते हुए उसे हिंदी से बिलकुल अलग करने के लिए उसको अरबी-फारसी शब्दों से  अधिक से अधिक बोझिल और आम लोगों के लिए कठिन और अबूझ बनाने का कड़ा विरोध किया है | ईरान और तुर्की का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि उन देशों की जनता तो मुसलमान ही है, पर वहां “वे लोग अपनी भाषा में अरबी के एक भी शब्द को रखने के लिए तैयार नहीं मालूम होते” | लेकिन हिंदुस्तान के मुसलमान उर्दू भाषा को इस्लाम से जोड़ कर “उसमें ५०-७५% अरबी के लफ्ज़ रखने पर जोर देते हैं’ – “उर्दू का सवाल उसके हामियों द्वारा इस्लाम का सवाल बनाया जा रहा है, जो बड़े अफसोस की बात है” | हिंदी-भाषियों से भी राहुलजी कहते हैं कि जिस हिंदी का वे प्रयोग करते हैं वह केवल हिन्दुओं की ही नहीं, मुसलमानों, सिखों, ईसाईयों – सभी सम्प्रदायों के आम लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली सार्वजनीन भाषा है, और उसको केवल हिन्दू धर्म और संस्कृति के दायरे में समेट कर नहीं रखा जा सकता | - “सारांश यह कि भाषा के सवाल में मज़हब को किसी तरह का दखल देने का अधिकार नहीं” |

राहुल सांकृत्यायन भाषा-विज्ञान के महापंडित थे | वे जानते थे उर्दू और हिंदी बोलचाल और जन-प्रयोग में एक ही भाषा के दो रूप हैं, और हिंदी-उर्दू जिस भाषा-परिवार की भाषा हैं, अरबी उस भाषा-परिवार की भाषा ही नहीं है | वह इस्लाम धर्म की भाषा ज़रूर है, जैसे संस्कृत हिन्दू-धर्म की मूल भाषा है | किन्तु संस्कृत से प्राकृत, पालि और अपभ्रंश के रास्ते चलकर हिंदी खड़ी बोली बनी है | अतः जैसे हिंदी हिन्दू धर्म की भाषा नहीं है, वैसे ही उर्दू इस्लाम धर्म की भाषा नहीं है, और धर्म के नाम पर हिंदी को संस्कृत से अथवा उर्दू को अरबी-फारसी से बोझिल बनाना भाषा के विकास के नियमों के सर्वथा विरुद्ध है | “हिंदी जिस तरह संस्कृत के ‘आवश्यक शब्दों’ को स्वीकृत करने का अधिकार रखती है, उर्दू को अरबी लफ़्ज़ों को स्वीकृत करने का वैसा अधिकार हरगिज़ नहीं, यदि वह अपने नई हिन्दुस्तानी ज़बान होने का दावा करती है| संस्कृत हिन्दुस्तान की पुरानी ज़बान थी, जिसकी विरासत हिंदी को जन्म से मिली है | भारत में अरबी संस्कृत का स्थान लेने का दावा नहीं कर सकती”, क्योंकि वह एक सर्वथा भिन्न भाषा-परिवार की भाषा है | मूल प्रश्न यह है कि धर्म और भाषा क्या समवृत्त धारणाएं हैं ? क्या किसी भाषा के बोलने वाले अनिवार्यतः सभी एक ही धर्म के लोग हो सकते हैं, और क्या उस भाषा की व्याप्ति उसी धर्म के शब्दकोष में सीमित होती है ? धर्म के नाम पर किसी जन-उपयोग की भाषा का धार्मिकीकरण भाषा-विज्ञान के नियमों के सर्वथा विरुद्ध है | हिंदी-उर्दू एक जन-उपयोग की भाषा हैं, उनको धर्म के शब्द कोष से ज़बरदस्ती बांधना गलत है | भाषा के विकास को न धर्म और न ही राजनीति कभी बाधित कर सकते हैं | भाषा अपना विकास अपनी स्वच्छंद गति से करती है |

राहुलजी के लम्बे भाषण के अंत में लिपि-समस्या पर भी संक्षेप में विचार किया गया है | उर्दू में अरबी-फारसी लिपि के अधिग्रहण से भी समस्या की जटिलता बढ़ी है | उर्दू-हिंदी के लिए अरबी के मुकाबले नागरी लिपि भारत की राष्ट्रीयता और अस्मिता को देखते हुए अधिक उपयुक्त हो सकती है | अरबी लिपि में लिखावट की अवैज्ञानिकता बहुत है, जो उर्दू भाषा में भी एक दोष बन जाती है | फिर भी महात्मा गाँधी मुस्लिम-जन-भावना का ध्यान रखते हुए उर्दू की अरबी लिपि को नागरी के समकक्ष मानने को सदा तैयार रहे, और राहुलजी भी उसका विरोध नहीं, समर्थन ही करते हैं | उनका मूल कथन यही है कि भले ही भारत की राष्ट्रभाषा उर्दू-हिंदी नागरी और अरबी - दोनों लिपियों में लिखी जाय, पर साम्प्रदायिक वैमनस्य  के नाम पर उस उर्दू-हिंदी जन-भाषा को धर्म और सम्प्रदाय के बाड़ों में खींच कर नहीं ले जाया जाय, उसे स्वच्छंद रूप से अपनी राह पर चलने दिया जाय, जैसे वह साहित्य के क्षेत्र में अब तक रसखान. जायसी, आलम, रहीम आदि के काव्य में गतिमान रही है | भाषा और साहित्य का यही अन्योनाश्रय सम्बन्ध किसी देश की संस्कृति का आधार होता है | भाषा का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए, और न उसका धार्मिकीकरण करना ही  ही देश के हित में हो सकता है | अगर हिंदी और उर्दू को एक दूसरे के और निकट लाने के लिए, नागरी और अरबी – दोनों लिपियों को स्वीकार करने की आवश्यकता पड़ती है, अथवा हिंदी और उर्दू - दोनों में कुछ भाषागत परिवर्त्तन भी करने पड़ते हैं, तो इनको भी स्वीकार करना देशहित में होगा, लेकिन इसके लिए किसी कृत्रिम ‘हिन्दुस्तानी’ जैसे नए नाम की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | हिंदी और उर्दू अलग-अलग रूप में दिखती हुई भी, बिना किसी वैमनस्य  के, एक जन-भाषा के रूप में अपना विकास कर सकती हैं, और इस भाषागत समन्वयन  में साहित्य-लेखन की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है | साहित्य ही भाषा में वह रस उत्पन्न कर सकता है, जिससे साम्प्रदायिक-सामुदायिक जीवन सौहार्द-सिंचित हो सके, क्योंकि साहित्य ही संस्कृति का संचित कोष होता है, जो समाज को दिशा-निर्देशन  देता है | भाषा और साहित्य को धर्म और राजनीति के रंग में रंगना कभी  जनहित में नहीं हो सकता | भाषा जनता की जुबान  पर गढ़ी जाती है, और साहित्य उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को संरक्षित करता है |
 
हिंदी भाषा और साहित्य के विषय में – विशेष कर उत्तरार्द्ध  हिंदी नव-जागरण-कल में – राहुलजी और शिवपूजन सहाय के सुदीर्घ लेखन और साहित्य-कर्म में हमको ऐसे ही चिंतन के दर्शन होते हैं | बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अगले १७ वें पटना अधिवेशन में शिवपूजन सहाय के भाषण में (‘साहित्य-समग्र’-४/१३३-४८) भी ‘हिंदी बनाम हिन्दुस्तानी’ के प्रश्न को बड़े ओजस्वी ढंग से उठाया गया है | बिहार के  तत्कालीन साहित्यिक परिदृश्य का आशाजनक आकलन उपस्थित करने के बाद शिवपूजन सहाय अपने अध्यक्षीय भाषण में इस प्रश्न पर विचार करते हुए कहते हैं –

“सरकार जानती है कि हिंदी में राष्ट्र-निर्माण की अद्भुत सत्ता विद्यमान है | (इसलिए) राष्ट्रभाषा की तो बात ही क्या, केवल भाषा के अर्थ में भी ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द का ग्रहण असंभव है |...कुछ लोग राष्ट्रीय एकता की दुहाई देकर हमसे ‘हिन्दुस्तानी’ का समर्थन कराना चाहते हैं ...(लेकिन) हिंदी के जीते-जी भाषा के क्षेत्र में हिन्दुस्तानी को पैर रखने का कोई अधिकार नहीं |”

शिवपूजन सहाय का विरोध ‘हिन्दुस्तानी’ नाम की एक कृत्रिम भाषा की ईजाद से था | भाषा ईजाद की चीज़ नहीं होती | वह तो सदियों में, विशेष भूभाग में रहने वाले, सांस्कृतिक सूत्रों से बंधे हुए, लोगों की जुबान पर गढ़ी जाती है | उसी प्रक्रिया में उस भाषा का साहित्य भी निर्मित होता है | भाषा की अस्मिता उसमें सृजित साहित्य से ही सिद्ध होती है | इसीलिए कोई भी कृत्रिम निर्माण से बनी भाषा का कोई साहित्य नहीं हो सकता | और जिस भाषा का कोई साहित्य नहीं है, उसके मूल में कोई संस्कृति भी नहीं हो सकती | संस्कृति-हीन कोई भाषा निष्प्राण और निष्प्रयोजन ही हो सकती है | इसीलिए उत्तरार्द्ध नव-जागरण-काल में, जब हिंदी भाषा और साहित्य का तेजी से चतुर्दिक विकास हो रहा था, और वह  स्वाधीनता-संग्राम की उर्जस्वी संवाहिका बन रही थी, उस समय शिवपूजन सहाय और राहुल सांकृत्यायन का राष्ट्रभाषा हिंदी का पुरजोर समर्थन और ‘हिन्दुस्तानी’ का उग्र विरोध एक समानांतर स्वदेशी विचारधारा का उद्घोष था | और इस समर्थन का आधार इन दोनों विद्वानों का हिंदी-उर्दू प्रेम ही था जो आम बोलचाल के इस राष्ट्रभाषा-रूप में विभेद पैदा करने वालों का घोर विरोध कर रहा था |

शिवपूजन सहाय का लगभग उन्हीं दिनों – जब ‘हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी’ का यह सवाल अपने शबाब पर था -  अपने कॉलेज की ‘उर्दू लिटरेरी सोसाइटी’ के सालाना जलसे (१९४५) में सभापति-पद से पढ़ा गया  ‘अकबर इलाहाबादी’ पर एक परचा विशेष ध्यान देने योग्य है | शिवपूजन सहाय की प्रारम्भिक शिक्षा भी उर्दू-फारसी-अरबी में ही हुई थी, और इसका गंगा-जमुनी प्रभाव उनकी विकसित गद्य-शैली में स्पष्ट दिखाई पड़ता है | अपने उस पर्चे में उन्होंने लिखा है – “आप यह सुन कर हैरत में आ जायेंगे कि हिंदी के मुसलमान कवियों की कवितायें अगर निकल-बाहर कर दी जाएँ तो हिंदी के भंडार का एक कोना ही सूना हो जायेगा | अमीर खुसरो, कबीर, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम खानखाना, उस्मान, मुबारक, आलम, शेख और ‘मीर’ वगैरह हिंदी को मालामाल और निहाल कर गए हैं |...रहीम ने तो संस्कृत में भी सुन्दर कविता की है | ...(दर-असल) हम और आप दूध-मिसरी की तरह घुल-मिल कर हिन्दुस्तान की ताकत बढ़ा सकते हैं |” और वहीं ‘अकबर इलाहाबादी’ के ही हवाले से शिवपूजन सहाय ने उनका एक शेर ‘हिन्दू-मुस्लिम एका’ के लिए इस सन्दर्भ में उद्धृत किया है –

                हिन्दू-मुस्लिम एक हैं दोनों, यानी ये दोनों एशियाई हैं |


            हमवतन, हमज़ुबानों, हमकिस्मत, क्यों न कह दूं कि  भाई-भाई हैं |

आज हिंदी-उर्दू का वही ‘हमजुबान’ रूप हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी का रूप है, जो अब राष्ट्रीय से अधिक अंतर्राष्ट्रीय रूप लेता जा रहा है | आज हिंदी का राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय रूप विश्व में अधिकाधिक सम्मान प्राप्त कर रहा है | भले ही आज भी धार्मिक साम्प्रदायिकता का ज़हर राजनीति के क्षेत्र में जान-बूझ कर फैलाया जा रहा है, लेकिन साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी के उस उर्दू-हिंदी समन्वित रूप का वह सपना आज साकार हो रहा है जिसे राहुल सांकृत्यायन और शिवपूजन सहाय जैसे हिंदी के कर्णधारों ने हिंदी नवजागरण-काल में देखा था |

['आजकल', अप्रैल, २०१८ में प्रकाशित]

चित्र (१९५४) कापीराईट : डा. मंगलमूर्त्ति

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