यादनामा
: ११
प्रेमचंद:पत्रों
में
हिंदी में पत्रों के दो सबसे बड़े संग्राहक
हुए – बनारसीदास चतुर्वेदी और शिवपूजन सहाय. चतुर्वेदीजी ने अपना विशाल संग्रह
राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा कराया और शिवजी का संग्रह – मूलतः २०,००० से भी
ज्यादा पत्र, जिनमे से खुद छाँट कर लगभग १०,००० पत्र वे गाँव से पटना लाये और फिर
उनमें से दुबारा छांटकर मैंने ७.५०० पत्र नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में जमा कराया.
हाल में मेरे द्वारा संपादित ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ (१० खंड) में उनमें से
चुन कर लगभग २,००० पत्र ३ खण्डों में प्रकाशित हुए, जिनमें शिवजी के भी लगभग २००
पत्र हैं.
‘समग्र’ पर काम करने के क्रम में ही मैंने
शिवजी के उस विशाल पत्र-संग्रह से चुन कर लगभग २०० पत्र ऐसे छांटे जिनमें प्रेमचंद के वे २५ पत्र
तो थे ही, विभिन्न साहित्यकारों के १७५
ऐसे पत्र थे जिनमे या तो प्रेमचंद की
स्पष्ट उपस्थिति थी अथवा उनसे जुड़े प्रसंगों की चर्चा थी. इसका पहला संस्करण ‘प्रेमचंद:पत्र-प्रसंग’
नाम से १९८५ में इलाहाबाद से छपा था और बाद में २००६ में ‘प्रेमचंद पत्रों में’
नाम से २२५ पत्रों का यह नया परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ. पुस्तक का लोकार्पण प्रेमचंद
की १२५ वीं जयन्ती के अवसर पर विख्यात साहित्यकार श्री अशोक वाजपेयी ने किया था.
मैं उन दिनों ‘सुलभ अंतर्राष्ट्रीय संस्थान’ से सम्बद्ध था और वहीँ दो साल दिल्ली
में रहा. उन्हीं दिनों ये पुस्तक लोकार्पित हुई थी. लोकार्पण समारोह वहीँ दिल्ली में ३१ जुलाई, २००६ को शास्त्री भवन, मानव
संसाधन विभाग, के एक सभागार में हुआ था.ये कुछ चित्र उसी अवसर के हैं.
. इन चिट्ठियों की कहानी कुछ ऐसे शुरू होती
है. मेरे पिता ‘मतवाला’ छोड़ कर अप्रैल १९२४ में दुलारेलाल के गंगा पुस्तक माला
कार्यालय में लखनऊ आ गए थे जहाँ से प्रेमचंद के सम्पादन में ‘माधुरी’ निकलती थी.
उसी समय दुलारेलाल ने उन्हें ‘रंगभूमि’ की पांडुलिपि सम्पादन के लिए दी थी. सितम्बर
१९२४ में लखनऊ में दंगा हुआ. मेरे पिता अमीनाबाद में छेदीलाल धर्मशाला के पास रॉयल
हिन्दू होटल में रहते थे. दंगे में वे भी लखनऊ से भाग कर गाँव चले गए थे. दंगा
शांत होने के बाद दुलारेलाल बार-बार शिवजी को बुलावे का ख़त लिख रहे थे. ‘रंगभूमि’
की पांडुलिपि जल्दी में होटल में ही छूट गयी थी. बुलावे के ख़त इसीलिए जा रहे थे. एक
ख़त में दुलारेलाल ने शिवजी को लिखा : “भोला चाचा को आपने टेलीफोन से स्पष्ट क्यों नहीं बतला दिया...उसी
समय मोटर खाली नहीं था तो दूसरे दिन तो मिल सकता था...”.उस
संकट में उन दिनों फोन भी कितना दुर्लभ था मेरे पिता के लिए जिनके जान पर बनी थी.
बाद में शिवजी गाँव से लखनऊ लौटे और ‘रंगभूमि’ की पांडुलिपि का सम्पादन पूरा हुआ और वह फ़रवरी १९२५ में
निकल गयी. दंगे का हाल शिवजी ने एल लम्बे पत्र में महादेव प्रसाद सेठ को लिखा जो
‘मतवाला’ में छपा. यह पूरा पत्र भी ‘प्रेमचंद पत्रों में’ में छपा है. उसी में
‘रंगभूमि’ के छपने की पूरी कहानी भी दुलारेलाल और प्रेमचंद के पत्रों में दर्ज है.
प्रेमचंद की लिखावट में ही आप उनके उस पत्र को पढ़ सकते हैं.
उन दिनों प्रेमचंद बनारस और लखनऊ
में रह कर अपने उपन्यास लिख रहे थे. प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय एक दूसरे के मित्र
तभी बने थे, यों पहला परिचय १९२० के आस-पास कलकत्ते में ही हुआ था. शिवजी फिर कुछ
दिन ‘मतवाला’ के सम्पादन- विभाग में निराला के साथ रह कर लखनऊ आ गए और निराला भी
कुछ दिन बाद वहीँ आये. डा. रामविलास शर्मा ने यह सारी कहानी निराला की जीवनी में
लिखी है.जीवनी उन्होंने शिवजी को ही समर्पित भी की है, उन्होंने जीवनी के तीसरे खंड
में निराला के और निराला से सम्बद्ध पत्रों का एक संग्रह भी छापा है.
‘प्रेमचंद पत्रों में’ पुस्तक में १९२४ से
१९३६ के बीच प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय के समकालीन १४ साहित्यकारों के लिखे पत्र
कालक्रम से प्रकाशित किये गए हैं जिनसे उन दिनों के साहित्यिक परिवेश का एक औपन्यासिक
चित्र-सा उभरता है.एक के बाद एक अलग-अलग व्यक्तियों के पत्र कालक्रम में आगे बढ़ते
हुए उन दिनों के साहित्य-जगत की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करते हैं जिन सब में
प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रेमचंद की झांकी दीखती है. उनका ज़माना दीखता है. उनके सरोकार
दीखते हैं. परस्पर संबंधों की तस्वीरें दिखाई देती हैं.
लोकार्पण प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती के
अवसर पर २००६ में हुआ था. लोकार्पण करते हुए श्री अशोक वाजपेयी ने इस बात
को रेखांकित किया. उन्होंने कहा -
“ प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती के अवसर पर यह एक अनूठी, महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित
हुई है जिसके लिए मंगलमूर्ति जी बधाई के पात्र हैं. इस पुस्तक का प्रकाशन सचमुच एक
सुन्दर, सुविचारित शुरूआत है. इन पत्रों से प्रेमचंद के जीवन संघर्ष, उनके मित्रों
के साथ परस्पर संबंधों पर एक दिलचस्प रोशनी पड़ती है. एक बहुत दिलचस्प दुनिया उभर कर
हमारे सामने आती है. पुस्तक की विशेषता इसमें है कि इसको आप एक उपन्यास की तरह पढ़
सकते हैं. इसमें प्रेमचंद और उनके परिसर के लोगों का मटमैलापन भी सामने आता है –
उनके बीच का सद्भाव, वैमनस्य, उनकी चिंताएं, इन सबका एक दिलचस्प वृत्त बनता है. यह
वही वृत्त है जो प्रेमचंद के जीवन का बुनियादी संघर्ष था – साधारण की महिमा की
प्रतिष्ठा, साधारण लोगों के जीवन का स्पंदन, आकांक्षाएं, हताशाएं - जिनमे कितनी
ज़िन्दगी छिपी होती है. और प्रेमचंद आज इसीलिए ज़िंदा हैं. उनका समय, समाज – सब बदल
गया, फिर भी प्रेमचंद इन्हीं कारणों से आज भी जिंदा हैं क्योंकि उन्होंने जिस
मनुष्य को गढ़ा वह नहीं बदला है, वह आज भी उसी तरह जिंदा है, और उसी तरह अपने
संघर्ष में लगा है. इस पुस्तक के पत्रों में वह पूरा युग साकार हो उठता है और इसी
लिए इस पुस्तक के प्रकाशन का इस अवसर पर
विशेष महत्व है.”
उस
अवसर की एक विडियो फिल्म भी है जो देखी जा सकती है.
पुस्तक
में प्रेमचंद पर लिखा शिवजी का संस्मरण भी है जिससे पूरे प्रसंग की पृष्ठभूमि बन
जाती है, हिंदी में साहित्यिक पत्रों के संकलन कम हैं. लेकिन ‘प्रेमचंद पत्रों
में’ मात्र एक पत्र-संकलन न होकर प्रेमचंद और उनके युग पर जैसे एक दस्तावेजी
इतिहास है.

के संस्मरण का मेरा अंग्रेजी अनुवाद आप इसी ब्लॉग पर पहले २६.५.११ के पोस्ट में पढ़ सकते हैं
इसी
ब्लॉग में पहले के कई पोस्ट रेणु, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा आदि पर भी पढ़े जा
सकते हैं.
- प्रेमचंद की १३५ वीं जयंती के अवसर पर
यहाँ प्रकाशित
© डा. मंगलमूर्ति
आगामी
पोस्ट : श्रीमती बच्चनदेवी साहित्य गोष्ठी
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