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Monday, August 18, 2014

अमृतलाल नागर : नमन
अगस्त १७ को अमृतलाल नागरजी की ९९ वीं जयंती मनाई गई. वे पूर्वार्द्ध बीसवीं सदी में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण लेखक थे.’अमृत और विष’ उनका प्रसिद्ध  उपन्यास है. उपन्यास शैली में ही उनकी लिखित दो जीवनियाँ ‘खंजन नयन’ (सूरदास) और ‘मानस का हंस’ (तुलसीदास) हिंदी साहित्य की अन्यतम कृतियाँ हैं. लखनऊ पर केन्द्रित भी उनकी कई रचनाएँ हैं जिनमे ‘ये कोठेवालियां’ पुस्तक बहुत चर्चित हुई. वे ज्यादातर लखनऊ में ही रहे, यों कुछ दिन बम्बई में रह कर फिल्मो के लिए भी लिखा था. लखनऊ से उन्होंने कुछ दिन तक हास्य-व्यंग्य का एक पत्र ‘चकल्लस’ भी निकाला था. मेरे पिता शिवपूजन सहाय से उनका विशेष पत्राचार चालीस के दशक में हुआ था जब वे ‘चकल्लस’ निकाल रहे थे. नेट पर और कुछ ब्लॉगों में उनके विषय में सूचनाएँ मिलेंगी.
साहित्य के क्षेत्र से कम परिचित मित्रों के लिए लिखी मेरी इस छोटी-सी टिपण्णी का एक संस्मरणात्मक प्रसंग भी है जब संभवतः १९८४ में मैं नागरजी से उनकी चौक वाली पुरानी हवेली में जाकर मिला था. मैं कुछ ही घंटो के लिए शायद पहली बार एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए लखनऊ आया था. लेकिन मेरा असली मकसद नागरजी का दर्शन करना ही था. अपरान्ह में मैं चौक पहुंचा और स्थान-निर्देश के अनुसार एक पानवाले से उनका पता पूछा. बड़े उल्लास से उसने मुझे बताया – अरे, गुरूजी इसी सामने वाली गली में तो रहते हैं. एक बड़े से पुराने भारी-भरकम दरवाज़े की कुण्डी मैंने बजाई. कुछ देर बाद एक महिला ने दरवाज़ा खोला. मैंने अपना परिचय दिया और एक लम्बा आंगन, जिसके बीच में पेड़-पौधे लगे थे, पारकर एक बड़े-से कमरे में दाखिल हुआ. देखा नागरजी एक सफेद तहमद लपेटे खुले बदन बिस्तर पर पेट के बल लेटे लिखने में मशगूल थे. मैंने अपना परिचय दिया तो मोटे चश्मे से मुझे देखते हुए उठे और मुझे बाँहों में घेरते हुए कुछ देर मेरा माथा सूंघते रहे. अभिभूत मेरी आंखे भींग गयीं. फिर मुझे अपने पास बिस्तर पर बिठाया और पुरानी स्मृतियों का एक सैलाब जैसा उमड़ने लगा. मुझे लगा जैसे मेरे पिता भी वहीँ उपस्थित हों. मैं देर तक उनके संस्मरण सुनता रहा और बीच-बीच में अपनी बात भी उनसे कहता रहा. मैंने देखा मेरे पिता के संस्मरण सुनाते-सुनाते उनकी ऑंखें भी भर-भर आती थीं. मैंने यह भी देखा कि उस कमरे की एक ओर अंधेरी दीवार पर मिटटी की न जाने छोटी-बड़ी कितनी सारी मूरतें एक तरतीब से सजी थीं जिनमे मेरी आँखें उलझी ही रही पूरे वक्त. मैं नागर जी की बातें सुनता रहा उन माटी की मूरतों के अश्रव्य संगीत की पार्श्वभूमि  में. मुझे लगा वहां कुछ समय के लिए अतीत जैसे हमारे पास आकर बैठ गया हो और एक ऐसा प्रसंग बन गया हो जहाँ कथा, कथाकार, श्रोता, कृतियाँ और संगीत सब एक मधुर झाले की तरह बजने लगे हों. मेरी यह तन्द्रा तब भंग हुई जब किसीने चाय लाकर रखी. नागर-दर्शन की वह दुपहरी मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय प्रसंग है.नागरजी का वह स्नेहपाश, उनके वे संस्मरण जो हिंदी साहित्य के एक युग को जीवंत बना रहे थे’, उनकी आर्द्र आँखें, अँधेरी दीवाल पर रखी माटी की वे मूरतें जो उनके कथा-संसार का एक मूर्त-नाट्य प्रस्तुत कर रही थीं – सबने मेरे मानस-पटल पर एक ऐसी छाप छोड़ दी जो अब अमिट हो गई. अब जीवन के अंतिम चरण में मैं उसी लखनऊ में आकर रहने लगा हूँ, और यहाँ रहते हुए आज उस अमर साहित्य-पुरुष को अपना शत-शत नमन समर्पित कर रहा हूँ.             

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