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Sunday, August 9, 2020

 



आ. शिवपूजन सहाय 

जयंती : १२७ 


कहानीकार आचार्य शिवपूजन सहाय

आनन्दमूर्त्ति

कहानी का प्लॉट’ : एक दृष्टिकोण

 कहानी का प्लॉटकामैं’ (‘मैं कहानी-लेखक नहीं हूँ’) वह चेतना-केन्द्र चरित्र है, जिसकेकहानी-लेखक’-जीवन अथवा कलाकार-जीवन (व्यक्तिगत जीवन नहीं, वैयक्तिक जीवन नहीं: क्योंकिमैंकथा-साहित्य में चरित्र या पात्र होता है, स्वयं रचनाकार कभी नहीं) में एक घटना घटी है: यथार्थ के अन्त:खण्डनगत काव्य-सौन्दर्य को यथावत् प्रस्तुत करने की कलाकारोचित विकलता, अपने विशिष्ट माध्यम की सीमाओं की परिधि में, एक सवप्निल वेदना के अपूर्णत्व की सौन्दर्यानुभूति भी है।

            यहाँ स्वप्निल वेदना वह जीवन्त प्रक्रिया है, जो, यथार्थ के अन्त:खण्डनगत काव्य के ही समान (अथवा अनुरूप), अपने अपूर्णत्व में ही पूर्णत्व का सौन्दर्य अर्जित कर लेती है और कलाकार के व्यक्तित्वपरक जीवन की वह घटना हो रहती है, जो घनीभूत सत्य-मर्म तथा एक महत्त्वपूर्ण अर्थ-दर्शन के रूप में उसके चारित्रिक वैशिष्ट्य का सत्य भी है।

कहानी का प्लॉटकहानी इसी स्वप्निल वेदना की रमणीय अभिव्यक्ति है। यह स्वप्निल वेदना ही कहानी की उपाकृति है, इसी पद्धति पर पूरी कहानी चरम केन्द्रित है।कहानी का प्लॉटके प्लॉट का आधार यही पद्धति है: पूरा वृत्त-विन्यास इसी पर केन्द्रित है।बूढ़े मुंशीजीतथाभगजोगनीऔरउसका सौतेला बेटाइस वृत्त-विन्यास के आलम्बन-पात्र हैं, औरमैंकलाकारोचित स्वप्निल वेदना की अनुभूति की घनीभूत मार्मिकता का वह दृष्टिकोण-चरित्र, जो, कलाकार-जीवन के एक महत्त्वपूर्ण अर्थ-दर्शन का प्रतीक हो रहता है।

यह स्वप्निल वेदना, सामाजिक जीवन (वैयक्तिक नहीं) के हास्यजनक-एवं-कटु वैषम्य की तीव्र व्यंग्यात्मक चेतना की मिथ्या प्रसव-पीडा है, जिसके अपूर्णत्व में ही पूर्णत्व का (विषयानुरूप) सौन्दर्य है।मैंव्यंग्यात्मक चेतना का भोक्ता एवं स्वप्निल वेदना का स्रष्टा चेतना-केन्द्र चरित्र है, जो पूरी रचना के महत्त्वपूर्ण उपादान के रूप में, प्रक्रिया में ही परिणति, अपूर्णत्व में ही पूर्णत्व, यथार्थ में ही सौन्दर्य की कल्पनागत अनुभूति के वैशिष्ट्य का कलाकार-पात्र है। पूरी रचना तथाकथित सम्पूर्णोपलब्ध अभिव्यक्ति की पूर्वपीठिका की प्रक्रिया के ही रूप में, जीवनगत यथार्थ के काव्य-सौन्दर्य के अनुरूप, स्वयं एक सम्पूर्णोपलब्ध सम्पादित रमणीय अभिव्यक्ति है; कलाकार-चरित्र की व्यंग्यात्मक चेतना की स्वप्निल वेदना का सौन्दर्य है। अन्य पात्र, जो इस वातावरण के आलम्बन हैं, उपयुक्त:, नामहीन हैं: ‘मंुशीजी के बड़े भाई पुलिस दारोगा’, ‘मुंशीजी’, ‘भगजोगनी’ (जोएक कल्पित नामहै), औरदूसरा पति...... उसका सौतेला बेटा अन्य पात्रों की नामहीनता के इस वातावरण मेंमैं’-व्यक्तित्व की रंगशून्यता शु़द्ध प्रक्रिया-मात्र की प्रभविष्णुता के निमित्त उपयुक्त है: ‘मैं’, कलाकार के भोक्ता-स्रष्टा व्यक्तित्व की स्वप्निल वेदना के अर्थ-दर्शन का सूक्ष्म प्रतीक है।

कहानी का प्लॉटकहानी का प्रत्यक्ष भूमिका-अंश (‘‘मैंकहानी-लेखक नहीं हूँ........ आशा है, इस प्लॉट पर वे अपनी भड़कीली इमारत खड़ी कर लेंगे’’) पूरी रचना का अंग है, कुछ प्लॉट की परिचयात्मक प्रस्तावना नहीं।मैं कहानी-लेखक नहीं हूँ’: इस प्रथम वाक्य से ही वह कहानी शुरू हो जाती है, जिसका शीर्षक हैकहानी का प्लॉट प्रारम्भिक अंश, जो प्रस्तावना का भ्रम उत्पन्न करता है, सचेष्ट कलाकार-चरित्र की स्वप्निल वेदना की स्वाभाविक उपयुक्त अभिव्यक्ति है।मैं’-कलाकार-चरित्रकहानी लिखने योग्य प्रतिभाके अभाव, ‘कला-मर्मज्ञअथवाकलाविद् भी’ ‘नहींहोने की भ्रमोत्पादक, किन्तु सोद्देश्य नाटकीयता आरम्भ में ही अर्जित कर लेता है:

कुशल काहनी-लेखकों के लिए एकप्लॉटपा गया हूँ। आशा है, इसप्लॉटपर वे अपनी भड़कीली इमारत खड़ी कर लेंगे;.... उनका नाम विचित्रा ही था-इसलिए उसे साहित्यिकों के सामने बताने से हिचकता हूँ। खैर, उनके एक पुत्री थी।....... उनका नाम जाने दीजिए, सुनकर क्या कीजिएगा? मैं बताऊँगा भी नहीं। हाँ, चूँकि उनके सम्बन्ध की बातें बताने में कुछ सहूलियत होगी, इसलिए उसका एक कल्पित नाम रख लेना जरूरी है। मान लीजिए, उसका नाम हैभगजोगनी दिहात की घटना है, इसलिए देहाती नाम अच्छा होगा। खैर, पढि़ए-

रेखांकित वाक्यों, वाक्यांशों तथा शब्दों की प्रकृति वैयक्तिक निबन्धकार की अभिनीत आत्मीयता के सफल प्रयास से प्रेरित है: ‘मैं’-चरित्र का यह अभिनय सचेष्ट, सोद्देश्य प्रस्तुत एवं सन्दर्भत: अनिवार्य उपादान है, जो सम्पूर्णापलब्ध अभिव्यक्ति के ही रूप में प्रक्रिया की प्रभविष्णुता के निमित्त होने से महत्त्वपूर्ण है।

कहानी के द्वितीय भाग के आरम्भिक अंश में भीमैं’-चरित्र पुन: कलाकार से भिन्न कल्पनाशून्य साधारण भोक्ता की अभिनीत सरलता सोद्देश्य ग्रहण करता है:

‘‘अभाग्यवश... मैंने उसे देखा था। ......एक ओर उसकी अनोखी सुघराई और दूसरी ओर उसकी दर्दनाक गरीबी देखकर-सच कहता हूँ-कलेजा काँप गया। यदि कोई भावुक कहानी-लेखक या सहृदय कवि उसे देख लेता, तो उसकी लेखनी से अनायास करुणा की धारा फूट निकलती। किन्तु, मेरी लेखनी में इतना जो नहीं है कि उसकी गरीबी के भयावने चित्र को मेरे हृदय-पट से उतारकरसरोजके इस कोमलदलपर रख सके। और, सच्ची घटना होने के कारण, केवल प्रभावशाली बनाने के लिए, मुझसे भड़कीली भाषा में लिखते भी नहीं बनता। भाषा में गरीबी को ठीक-ठीक चित्रित करने की शक्ति नहीं होती, भले ही वह राजमहलों की ऐश्वर्य-लीली और विलास-वैभव के वर्णन करने में समर्थ हो।’’

कहानी का प्लॉटमूलत: दो भागों में विभक्त है। पहले भाग के आरम्भिक अंश तथा दूसरे भाग के भी आरम्भिक अंश मेंमैं’-चरित्र की अभिनीत, भ्रमोत्पादक, किन्तु सोद्देश्य सरलता स्वप्निल वेदना की कलात्मक स्वाभाविकता है, जिसका अन्त:स्वरनहीं

प्रथम भाग : ‘मैं कहानी-लेखक नहीं हूँ, ‘कहानी लिखने योग्य प्रतिभा भी मुझमें नहीं है’, ‘मैं सधारणकलाविद् भी नहीं हूँ

द्वितीय भाग : ‘मेरी लेखनी में इतना जोर नहीं है’, ‘मुझसे भड़कीली भाषा में लिखते भी नहीं बनता’, ‘भाषा में ठीक-ठीक गरीबी को चित्रित करने की शक्ति नहीं होती है।

उस कलाकारोचित विकलता की सरल अभिव्यक्ति है, जो अनुभुति की सफल अभिव्यक्ति हो रहती है: पाठक को विश्वास करा देती है कि कहानीकार कुछ कहानी नहीं लिख रहा, और इसी भाव की सफल प्रेषणीयता कलाकारमैं’-चरित्र (जिसके जीवन की घटना है-कलाकारोचित स्वप्निल वेदना) की सन्दभर्गत सफलता है। कलाकार-चरित्रमैंप्रक्रिया-मात्र का भ्रम उत्पन्न करने के निमित्त आघात पर आघात देता है: ‘ और सच्ची घटना होने के कारण, केवल प्रभावशाली बनाने के लिए, मुझसे भड़कीली भाषा में लिखते भी नहीं बनताऔर इस भाव की सफल प्रेषणीयता कुशलतापूर्वक सिद्ध हो जाती है कि जो कुछ वहलिखरहा है (क्योंकि लिखा भी है-‘खैर, पढि़ए-’), वहसच्ची घटनाही है, उसपर आधृत कलात्मक रचना नहीं, या प्रक्रिया-मात्र है, सम्पूर्णोपलब्ध सिद्धि नहीं। जीवन के यथार्थ के अन्त:खण्डनगत अक्षुण्ण काव्य-सौन्दर्य काठीक-ठीकचित्रण इस सवप्निल वेदना के ही क्षणों में प्रेषणीय हो पाता है: उस काव्य-सौन्दर्य का जीवन्त प्रकृति-वैशिष्ट्य इसी अपूर्ण विकलता अथवा तीव्र स्वप्निल वेदना की सरल अभि व्यक्ति के माध्यम से अपनी पूर्ण अभिव्यंजना अर्जित कर लेता है, यह माध्यम विषयानुरूप होने से अपने अपूर्णत्व में भी पूर्णत्व के सौन्दर्य से उदृभासित हो उठता है: और कलाकार को यह अपूर्णता ही अभीष्ट है।

            कहते हैं, प्रकृत सुन्दरता के लिए कृत्रिम ाृंगार की जरूरत नहीं होती’ : कलाकार-चरित्रमैंका यह कथन एक विभिन्न प्रसंग में होते हुए भी उसके कहानीकार जीवन के उस घनीभूत सत्य-मर्म की ओर अप्रत्यक्ष रूप से इंगित है, जो भोक्ता एवं स्रष्टा की समसामयिक जटिल अनुभूति की तीव्रता में स्वप्निल वेदना-मात्र है: यह अप्रत्यक्ष, भिन्न प्रासंगिक कथन भी कलाकार-चरित्रमैंकी कुशल, अभिनीत विनम्रता का वह प्रवंचनात्मक भ्रमोत्पादक वक्तव्य है, जो प्रेषणीयता के साधनों की संभावनाओं का प्रशंसनीय अन्वेषण भी है।मैं’-चरित्र की संवेगात्मक घटना-स्थितिप्रकृत सुन्दरता के लिए कृत्रिम ाृंगारकी आवश्यकता-हीनता से ही उद्भूत हुई है, वहभला हड्डियों के खंडहर में सौन्दर्य-देवता कैसे टिके रहते?’ के अन्त:पीडक प्रश्न के स्वगत में ही निहित है। किन्तु, कलाकार-चरित्रमैंसत्य-मर्म की स्पष्ट गद्यात्मक उक्ति इस भिन्न प्रसंग में पाठक के सम्मुख इतनी कुशलतापूर्वक प्रस्तुत करता है कि पाठक इसे भिन्न प्रसंगानुकूल ही समझता है और कलाकार-चरित्र की अभिनीत सरलता उसकी पूरी प्रस्तुत लिखित रचना से एक प्रक्रिया-मात्र का भ्रम उत्पन्न कराती है। दोनों कथन (‘मुझसे भड़कीली भाषा में लिखते भी नहीं बनताकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति के बावजूद प्रयुक्त हुईभड़कीली भाषाके विरोधा मास के सन्दर्भ में) पहले तो एक पारस्परिक विरोधाभास प्रस्तुत करते हैं (एक कथन सरल गद्यात्मक वक्तव्य, दूसरा एक चित्र-बिम्ब);  फिर अन्यत्र कीभड़कीली भाषासे, भिन्न प्रासंगिक होने से, भिन्न पड़ जाते हैं। फिर भी, उन दोनों में से किसी में वह मौलिक विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित है: ‘प्रकृत सुन्दरता’/ ‘कृत्रिम ांगारऔरहड्डियों के खंडहर’ / ‘सौन्दर्य-देवता’-यों ये भिन्न प्रासंगिक होकर भी घनीभूत सत्य-मर्म के भाव (स्वप्निल वेदना) की विभिन्न सूक्ष्म अभिव्यक्ति (क्योंकि प्रत्यक्षत: सम्बद्ध नहीं) के रूप में, कुशल चरित्रगत अभिनय के दृष्टान्त हैं। रचना (‘कहानी का प्लॉट’) वह प्रक्रिया हो जाती है, जो कलाकार के जीवन (‘कहानी-लेखक’-जीवन) की स्वप्निल वेदना की अभिव्यक्ति के रूप में, अपने अपूर्णात्व में ही कल्पनागत सम्पूर्णोपलब्धि की शिव-स्मिति का सौन्दर्य अर्जित कर लेती है: ‘कहानी का प्लॉटके लेखक नेप्लॉटपर अपनीभड़कीली इमारतखड़ी नहीं, और कुशल कहानी-लेखकोंने ही इसप्लॉटपर अपनीभड़कीली इमारतखड़ी की; क्योंकि यह रचना कहानी के लिए मसाला नहीं देती, बल्कि अपने में पूर्ण वह रचना है, जोमैं’-चरित्र के कहानी-लेखक-जीवन की स्वप्निल वेदना की ईमानदार, सच्ची अभिव्यक्ति के रूप में, सफल है: सफल इसलिए कि तन्त्र इस रचना के अर्थ-दर्शन का उद्घाटन, उसकी समृद्धि, उसकी प्रेषणीयता स्वयं करता है, हालाँकि रचना की सफलता के लिए इस विशिष्ट प्रेषणीयता की रसात्मक अनुभूति का पाठकगत सामथ्‍​र्य भी अपेक्षित है (क्योंकि, कहानी कहानी-लेखक-जीवन के अन्तर्यथार्थ की यथातथ्य अभिव्यक्ति है।) रचना के शिल्प-तन्त्र से अर्थ-दर्शन की उपयुक्त कलात्मक अभिव्यक्ति होती है, अर्थ-दर्शन की प्रकृति (जीवन के यथार्थगत अन्त:खण्डन के काव्य-सौन्दर्य को यथातथ अभिव्यक्त करने के असामथ्‍​र्य की विकलता, जो अपनी तीव्रानुभूति में एक महत्त्वपूर्ण जीवन्त अनुभूति है, सम्भावना-पूर्ण मिथ्या प्रसव-पीडा है, सवप्निल वेदना है) की सफल प्रेषणीयताकहानी का प्लॉटके विशिष्ट-विचित्र शिल्प-तन्त्र में ही सम्पादित हो सकती है। आरम्भ से अन्त तक कहानी-लेखकमैं’-चरित्र की अभिनीत विनम्रता, पाठक (जिसके लिए उसने कहानी लिखी है-‘कुशल कहानी-लेखकों के लिएवाक्यांश उसकी अभिनीत तटस्थता, ऐकान्तिकता अथवा भिन्नता की स्वाभाविक उक्ति है) के लिए अभिनीत आत्मीयता, इस रचना को विषयानुरूप प्रक्रिया-मात्र रहने देने में कुशलता-पूर्वक सहायता करती है। यहाँ पाठक भी रचनाकार की कृति (‘कहानी का प्लॉट’) का पाठक नहीं, वरन् वह कल्पित पाठक है, जो कहानीकार के जीवन की स्वप्निल वेदना की रसात्मक स्वीकृति के लिए स्वयं प्रस्तुत होता है: यहाँ पाठक आमन्त्रित नहीं, कल्पित है; बहिर्निष्ठ नहीं, अन्तर्निष्ठ है; व्यक्ति नहीं, सहानुभूति है: ‘कहानी-लेखक’ ‘मैं’-चरित्र की जीवन-घटना की यह कलात्मक (किन्तु प्रवंचनात्मक) अभिव्यक्ति नीजी स्वप्निल वेदना की स्वान्त:सुखाय सौन्दर्यानुभूति का शब्दगत प्रतिबिम्ब है, कहानी-लेखक-जीवन की दैनन्दिनी का एक जीवन्त पृष्ठ है।

            कहानी यही है कि कहानी-लेखक चरित्रमैंयथार्थ के सौन्दर्य को रूपायित करना चाहता था, नहीं कर सका, और उसकी स्वप्निल वेदना की जीवन्त अनुभूति में भी (ही) एक काव्य-सौन्दर्य पाता रह गया। प्रक्रिया परिणति को प्राप्त हो सकी, और परिणति की प्राप्ति की वह वेदना -भर रह गई, जो सम्भावनापूर्ण स्वप्निल होती है।

            कुछ कह सके, कुछ कह भी गये-यह स्थिति यहाँ नहीं, कहा कि कहा नहीं जाता और कह भी गये-यह भी स्थिति यहाँ नहीं, कहा कि कहने नहीं आता और कहे बिना रहा भी नहीं जाता, तबतक सब कह गये-यही स्थिति यहाँ है।

            कहा कि कहने नहीं आता-इसकी सफल प्रेषणीयता के निमित्त कथन-वैविध्य की सम्भावनाओं का कल्पनागत अन्वेषण इतनी कुशलतापूर्वक सम्पादित होता है किकहानी का प्लॉटका बहिर्निष्ठ, आमन्त्रित पाठकमैं’-चरित्र की अभिनीत सरलता की प्रवंचना को ही सत्य मान लेता है और उसका यानमैं’- चरित्र के सन्दर्भगत आत्मनाटकीयन की तीव्रानुभूति की ओर नहीं जा पाता, वह पाठक समझ लेता है, विश्वास कर लेता है कि उसकेकहानी-लेखकको सचमुच कहने नहीं आता; क्योंकि कहने आता, तो कह ही क्यों दिया होता। और, यह विश्वास उत्पन्न करने की सफलता पूरी रचना की उस सफलता का अंश है, जो शिल्प-तन्त्र की उपयुक्तता के माध्यम से सम्पादित होती है।

            चादर का कोई रफूगर नहीं है।’ ‘जिसके पीछे हाथ धोकर वाम विधाता पड़ जाता है, उसे तसल्ली देना ठट्ठा नहीं है।शुद्ध परिहास : ‘वह दारोगा के दारोगा ही रह गये-सिर्फ घोड़ी की मुहब्बत से।अश्रुहास : ‘और तारीफ यह कि मुंशीजी की बदकिस्मती भी दारोगाजी की घोड़ी से कुछ कम स्थावर नहीं थी।’ ‘भला हड्डियों के खंडहर में सौन्दर्य-देवता कैसे टिके रहते?’ ‘बुढ़ापे की लकड़ी जाती रही, देह लच गई। साल होते-होते अचानक टन बोल गये। गाँववालों ने गले में घड़ा बाँधकर नदी में डुबा दिया।अतिशयोक्ति: ‘आजतक वैसी सुघर लड़की किसी ने कभी कहीं देखी थी।

            पूरी कहानी इसी आरोह-अवरोह पर उठती-गिरती, अन्त में उस कथन पर समाप्त होती है, जो, पिछली सारी परिणति-प्रक्रिया की परिणति के रूप में, ‘मैं’-लिखित इस रचना में व्याप्त सहानुभूतिपूर्ण कटुव्यंग्यात्मक चेतना (जिसकी तीव्रानुभूति स्वप्निल वेदना का आधार है) की सरल, किन्तु जटिल; स्वाभाविक, किन्तु अप्रत्याशित; क्षुब्ध, किन्तु व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति है। अन्तिम पंक्ति पिछली पूरी प्रक्रिया में चित्रित प्रहसनीय यथार्थगत व्यतिक्रम का संक्षिप्त उदाहरणा है,

            ‘‘जो जीभ एक दिन बटेरो का शोरबा सुड़कती थी, वह अब सराह-सराहकर मटर का सत्तू सरपोटने लगी। चपातियाँ चाभनेवाले दाँत अब चन्द चने चबाकर दिन गुजारने लगे।’’ (-आनुप्रासिक ध्वन्यात्मकता की मनोविज्ञान-सम्मत स्वाभाविकता है) ‘‘सुन्दरता मेंअँधेरे घर का दीपककी शादी ‘41-42 सालके महाशय के साथ।’’

            ‘‘बेचारे की छाती पर से बोझ तो उतरा, मगर घर में कोई पानी देनेवाला भी रह गया।’’

जो वाक्य-विन्यास में अन्यत्र भी वाग्वैदग्ध्य के माध्यम से प्रतिबिम्बित है।

            हर साल नई नथुनी उतारनेवाले मुंशीजी को गाँव-जवार के लोग भी अपनी नजरों से उतारने लगे’, ‘भला हड्डियों के खंडहर में सौन्दर्य-देवता कैसे टिके रहते?’ ‘ऐसे-ऐसे लोगों ने भी आनाकानी की, जो समाज-सुधार-सम्बन्धी विषयों पर बड़े शान-गुमान से लेखनी चलाते हैं।यह अन्तिम पंक्ति स्वप्निल वेदना ( जो व्यतिक्रम अथवा वैषम्य की कटुव्यंग्यात्मक चेतना पर आधृत होकर एक नैतिक भावना से प्रेरित है) की अभिव्यक्ति की व्याप्ति में, फिर भी एक गौण स्वर है; क्योंकिकहानी का प्लॉटकी कहानीदूसरा पति है-उसका सौतेला बेटाद्वारा प्रस्तुत एक प्लॉट में नहीं, कहानी-लेखकमैं’-चरित्र के कलाकार-जीवन में घटित एक महत्त्वपूर्ण घटना (स्वप्निल वेदना) के अर्थ-दर्शन के उद्घाटन में है।

            कहानी का प्लॉट’ ‘मैं’-चरित्र के आत्मनाटकीयन की सफल अभिव्यक्ति है। यह कलाकार-जीवन की स्वप्निल वेदना के अर्थ-दर्शन की श्लाध्य मूल्य-स्थापना है।

 

 

 

 

 

 

 

 

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