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Saturday, January 11, 2020


देहाती दुनिया : एक अमर कृति
दूधनाथ सिंह
देहाती दुनियाआचार्य शिवपूजन सहाय का एक बेजोड़ उपन्यास है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1926 . में हुआ था। यह वह समय है जब प्रेमचन्द कारंगभूमिजैसा उपन्यास प्रकाशित हुआ था। प्रेमचन्द भारतीय ग्रामीण जीवन के अमर कथाकार हैं । लेकिन आचार्य शिवपूजन सहाय के इस उपन्यास के बारे में आज हिन्दी समाज लगभग बिल्कुल ही नहीं जानता। उसकी एक वजह है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में जहाँ लगातार भारतीय जीवन के राजनीतिकरण से उपन्यास को एक राजनीतिक रंग दिया वहाँ अपने इस छोटे से उपन्यास में शिवपूजन बाबू ने भारतीय गाँव-देहात को उसकी वास्तविक स्थितियों से कहीं  भी इधर-उधर नहीं होने दिया। इसीलिए प्रेमचन्द के उपन्यास जहाँ गाँव की परिस्थितियों के बारे में एक काल्पनिक राजनीतिक समाधान या वैचारिक तनाव पेश करते हैं, वहाँदेहाती दुनियाकल्पना-रहित धुर वास्तविकता का साक्षात्कार कराता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए हमेशा यह लगता है कि हमारे गाँवों का वास्तविक चित्र, वास्तविक और निष्ठुर सच्चाई तो यही है और यहीं है। इस तरह यथार्थ का जो वास्तविक चित्रणदेहाती दुनियामें हुआ है वह फिर दुबारा हिन्दी उपन्यास-लेखन में लौटकर नहीं आया।रेणुके उपन्यास भी एक राजनीतिक रंग में रंगे हुए हैं। लेकिनदेहाती दुनियामें चित्रित जीवन किसी भी बाहरी प्रदूषण (चाहे वह विचारों का हो, राजनीति का, या सामाजिक सुधार का) से मुक्त है। हमारा उस वक्त का ग्रामीण-जीवन जैसा था, वैसे का वैसा, वह इस उपन्यास में चित्रित है।
उपन्यास की भूमिका में शिवपूजन सहाय जी ने एक जगह लिखा है, ‘‘जो सज्जन इस पुस्तक में किसी प्रकार का आदर्श चरित्र-चित्रण अथवा गम्भीर विचार ढूँढ़ेंगे वे सर्वथा हताश होंगे।’’ उसी भूमिका में वे यह भी लिखते हैं, ‘‘इस पुस्तक को लिखते समय मैंने साहित्य-हितैषी सहृदय समालोचको के आतंक को जबर्दस्ती ताक पर रख दिया था।’’ यानी यह अमर कृति आदर्श-चरित्र-चित्रण, गम्भीर विचार और ‘‘साहित्य-हितैषी सहृदय समालोचकों के आतंक’’ से ऊपर उठकर लिखी गयी है। प्रकारान्तर से यह आज के कथा-लेखकों के लिए एक शिक्षा भी है। इसी नकार और रचनात्मक मानसिक मुक्ति में सेदेहाती दुनियाजैसी अमर कृति की रचना सम्भव हो सकी है।
आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म ग्राम उनवाँस (तब जिला शाहाबाद, बिहार) में हुआ था। हिन्दी भाषा, साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के लिए उनका पूरा जीवन समर्पित था। वेमतवालाऔरमाधुरीजैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक-मंडल में थे। वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषदके संस्थापक थे। साहित्य-सेवा उनके जीवन का उद्देश्य ही नहीं, उनके जीवन का धर्म था। उस वक्त के तमाम दूसरे लेखकों की तरह शिवपूजन जी ने भी साहित्य-रचना अर्थोपार्जन के लिए नहीं की। यश, धन और किसी भी प्रकार की अन्य लिप्साओं से मुक्त वह संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले एक सन्यासी किस्म के व्यक्ति थे। अगर उनकी सार्हित्य-सेवाओं को छोड़ भी दें तो भी सिर्फदेहाती दुनियाउनके अमरत्व के लिए काफी है। हिन्दी में इस अन्तर्वस्तु और इस तरह के मुक्त शिल्प को अपनाकर उसके बाद कोई दूसरी रचना नहीं लिखी गयी। जैसे शिव प्रसाद मिश्र रुद्र कीबहती गंगाका कोई दूसरामॉडलहिन्दी में नहीं है, उसी तरहदेहाती दुनियाभी अपने ढंग की अकेली औपन्यासिक कृति है।
     सन् १९२६  में लिखे जाने के बावजूददेहाती दुनियाअद्भुत रूप से आधुनिक शिल्प में लिखा गया उपन्यास है। प्रेमचन्द्र ने उस वक्त तक और उसके बाद भी इस शिल्प का प्रयोग अपने उपन्यास-लेखन में नहीं किया।देहाती दुनियाका वाचक (नैरेटर) एक छोटा बच्चा है जो अपने बचपन की स्मृतियों के माध्यम से सारी कथा बयान करता है। यही नहीं, वह स्वयं एक प्रमुख पात्र भी है और अपने माध्यम से वह गाँव देहात के बचपन, उसके संस्कारों, खेल-कूद, रीति-रिवाज, माता-पिता से बच्चों के संबंध और उसके भीतर से प्रकट होती समृद्ध ग्रामीण संस्कृति का आश्चर्यचकित कर देने वाला चित्र प्रस्तुत करता है। इस तरहदेहाती दुनियास्मरण-शिल्प में लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है। वह भी अनजाने ही, क्योंकि उपन्यास लेखक सचेत ढंग से इस शिल्प का तो प्रयोग करता है और इस तरह के समृद्ध शिल्प की हिन्दी कथा-लेखन में उसके पूर्व कोई परम्परा ही है। यह छोटा बच्चा ही अपने भोले-भाले स्मरण के बीच से माता-पिता का वात्सल्य, बचपन के संगी-साथियों का उन्मुक्त जीवन, देहाती वातावरण और संस्कृति के अछूते और अविस्मरणीय कोनों को एक अभूतपूर्व ताजगी से व्यक्त करता चलता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह केवल एक बच्चे के बचपन की स्मृतियों की कहानी है। पूरा उपन्यास ग्यारह उपशीर्षकों या खण्डों में बाँटकर लिखा गया है। प्रत्येक उपशीर्षक कहानी में चरित्रों के एक नये समूह और उनके द्वारा संस्कृति और जीवन की नयी रंगारंग विशेषताओं को प्रस्तुत करता है। नयी समस्याएँ, उनके नये आवर्तन, तनाव, उनसे उत्पन्न होने वाली नयी परिस्थितियाँ, ग्रामीण जीवन की कठिनाइयाँ, शोषण, दमन, जमींदारों का विकृत जीवन, पुरोहिती रूढि़यों के भ्रष्ट, विकृत और आतंककारी आचार-व्यवहार, औरतों का शोषण, रखैलों का सारहीन, भुखमरी और मारपीट से भरा हुआ दुखद प्रसंग, साधु-संन्यासियों का ढोंग, जमींदारों का उन्माद और गरीब ठाकुरों का बेटी बेचन का प्रसंग - यानी कि एक भारतीय ग्रामीण समाज के दुख-दर्द, आतंक और दमन का बेचारगी से भरा चित्रण इन अलग- अलग उपखण्डों में उठाया गया है। फिर ये सारे पात्र और सारी घटनाएँ उपन्यास में एक दूसरे से टकराती हैं और कथा का विकास होता चलता है। जो हमारा वाचक यानैरेटरहै वह अनायास ही इन सारे प्रसंगों को अन्तर्गुम्फित करता चलता है। उसके पिता जमींदार के यहाँ दीवान हैं और उसी हवेली से धारा-उपधारा की तरह फूटकर कथा की विभिन्न छोटी-छोटी धाराएँ बह निकलती हैं और फिर उसी में आकर एक विशाल नदी में परिवर्तित हो जाती हैं। तो कथा का शिल्प केवल आत्मकथा का ही नहीं है। अलग-अलग उपखण्डों में वर्णन, वृतान्तों, रससिद्व संवादों और देहाती जनता की जबान में ढली हुई शुद्व-अशुद्व कविताओं के प्रयोग से पूरी कथा को सँवारा-सजाया गया है। सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि अलग-अलग उपखण्डों में बाँटकर कहानी लिखने के इस शिल्प पर पं. रतननाथ सरशार केफसान--आजादया देवकीनंदन खत्री केचन्द्रकान्ताका प्रभाव झलकता है। लेकिन बाबू शिवपूजन सहाय के उपन्यास की अन्तर्वस्तु बिल्कुल दूसरी है और वह कई मायनों में यथार्थ के गहन अनुभव और प्रतिबद्धता से उपजी है।
     अगर पहले और तीसरे उपखण्डों (‘माता का अंचलऔरननिहाल का दानापानी’) को छोड़ दें तोदेहाती दुनियाकी सारी कथा रामसहर गाँव के जमींदार बाबू रामटहल सिंह की हबेली के भीतर-बाहर घटित होती है। यानी उपन्यास की मुख्य कथा-वस्तु या उसका केन्द्र-बिन्दु जमींदार और उसकी हवेली है। उसी से बँधा हुआ शेष सारे समाज का जीवन है। यह जीवन उसकी केन्द्र से संचालित होता है, घटता-बढ़ता है और उसे तोड़-फोड़ कर, तहस-नहस कर अपनी दूसरी एक दिशाहीन दिशा पकड़ लेता है। जमींदार और उसकी हवेली से कोई जन-संघर्ष नहीं है, लेकिन उसकी टूट-फूट के आभास हैं। पहला उपखण्ड तो हमारे वाचक-शिशु के बचपन की सुखद स्मृतियों का संग्रह है और तीसरा भी। लेकिन तीसरे के अन्त में हमें पता चलता है कि हमारा वाचक-शिशु अपने पिता के साथ अपने ननिहाल रामसहर जा रहा है जहाँ उसके पिता, जमींदार बाबू रामटहल सिंह के नये दीवान नियुक्त हुए हैं। इस तरह बचपन की यह सुखद स्मृति-गंगोत्री जमींदार की हवेली में जाकर खत्म हो जाती है। आगे की कहानी तो पूरी तरह बाबू रामटहल सिंह और उनकी प्रजा-पुरोहित से जुड़ जाती है। बाबू रामटहल सिंह के पिता बाबू सुखजीत सिंह ने एक बीघा खेत के लिए एक ब्राह्मण की हत्या की थी। तभी से यह परिवारब्रह्मदोषीहै। भयानक ब्रह्मपिशाच का पहरा है हवेली पर, जिसके डर से बाबू रामटहल सिंह की शादी नहीं होती। युवावस्था के दिनों में बुधिया नामक एक नौकरानी को वह रखैल के रूप में रख लेते हैं और उससे उनको तीन लड़कियाँ (सुगिया, बतसिया और फुलगेनियाँ) भी पैदा होती हैं। बुधिया के लिए गोशाला के निकट रहने के लिए एक नया घर भी बनाया जाता है। पुरोहित पशुपति पांडे जमींदार की बुढि़या माँ से पैसे ऐंठकर ब्रह्मपिशाच को बैठाने के लिए देवघर की यात्रा करते हैं, और बेटियाँ बेचकर जीवनयापन करने वाला ठाकुर मनबहाल सिंह ठगी के लालच में अधेड़ रामटहल सिंह से अपनी अन्तिम छोटी बेटीमहादेईको बेच देता है।
          महादेई के घर में आते ही बुधिया से सौतिया डाह पैदा होता है। फिर तो दोनों स्त्रियों का दंगल उपन्यास में देखने लायक है। जमींदार साहब कुछ नहीं बोलते। तब महादेई अपने पिता उसी बेटी-बेचवा ठाकुर मनबहाल सिंह को बुलाती है | मनबहाल को तो जैसे सोने की खान मिल जाती है। बुधिया और उसकी तीन-तीन जवान बेटियाँ, सभी बेचने के लायक। सो, मनबहाल सिंह कल-बल-छल से बुधिया और उसके परिवार को फुसलाकर ले जाते हैं और बड़ी बेटी सुगिया को एक अधेड़ डकैत गृहस्थ, जालिम गुदरी राय को बेचकर खरा पैसा बना लेते हैं। बुधिया अपनी दो बेटियों के साथ भागकर सोहावन बनिये के हाथ बिक जाती है। गुदरी राय पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है और उसकी औरत सुगिया को दारोगा अपने पास रख लेता है।
इधर देवधर की तीर्थयात्रा से अन्धे साधु को लूटपाटकर पसुपति पाँड़े पुन: रामसहर लौटते हैं और ब्रह्मपिशाच को ठाकुरद्वारे में बैठाने के लिए बाबू रामटहल सिंह की माँ से और रुपये ऐंठते हैं। बाबू रामटहल सिंह बीमार हैं। ब्रह्मपिशाच अतिसार रोग के रूप में उन्हें पटक-पटक कर मारता है। लेकिन महादेई उन्हें कभी माफ नहीं करती। पसुपति पाँड़े की तीर्थयात्रा के दौरान उनका जवान लड़का गोबरधन घर में पूजा-पाठ करने आता है। वह भौजी यानी महादेई से मजाक भी करता है और उसके कमरे में बेखटके जाकर उसे-‘भभूतभी देता है। और अन्तत: महादेई को लेकर चम्पत हो जाता है, और निरबंस जमींदार बाबू रामटहल सिंह मौत की राह तकते हैं।
देहाती दुनियाकी जिस कथावस्तु का बयान हमने पिछले खण्ड में किया है वह तो कथा का ढाँचा मात्र है। वास्तव में कथा का रस तो उसको पढ़ने में है। सच पूछिये तोदेहाती दुनियाहिन्दी का पहला आंचलिक उपन्यास है। आंचलिक उपन्यास के बारे में हम रेणु केमैला आँचलसे जानने लगे हैं, लेकिन इसकी शुरुआत शिवपूजन सहाय केदेहाती दुनियासे होती है। एक आंचलिक उपन्यास में कोई भौगोलिक क्षेत्र-विशेष या अंचल ही नायक होता है। उपन्यास में आये हुए सभी चरित्र उसी अंचल रूपी महानायक के चरित्र को उभारते और उकेरते हैं। यानी ऐसे उपन्यासों में आये हुए पात्र स्वत: स्वतंत्र चरित्र नहीं होते, वे एक महाचरित्र के अंग-उपांग होते हैं। और यह महाचरित्र वह अंचल-विशेष होता है। यह काम ये सारे चरित्र अपनी क्षेत्रीय वेष-भूषा, रंग-रूप, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-व्यवहार की क्षेत्रीय मौलिकता के आधार पर करते हैं। एक आंचलिक उपन्यास में यह विशिष्ट स्थानीय रंग ही सबसे महत्वपूर्ण होता है।
इन सभी शर्तो कोदेहाती दुनियापूरा करता है। उसमें अलग अलग चरित्रों का विशिष्ट विकास नहीं होता, बल्कि वे सभी अपने कार्यकलापों, हरकतों और अपने आचार व्यवहार से उसी महान अंचल नायक की छवि अभारते हैं। चाहे हमारा वाचक शिशु हो या उसके माता पिता, चाहे बाबू रामटहल सिंह या उसकी माता, या महादेई, बुधिया या गुदरी राय - चाहे दारोगा हो या पसुपति पाँड़े या गोबरधन - सभी अलग अलग अपनी चरित्र-रेखाओं में स्पष्ट नहीं हैं, बल्कि उपन्यासकार का उद्देश्य इन सभी के माध्यम से बिहार के एक गाँवरामसहररूपी नायक के चरित्र को उभारना है। उस वातावरण की सृष्टि करना है जो हमारी ग्रामीण संस्कृति का आधारभूत तत्व है। इस वातावरण में, जैसा कि रेणु आंचलिक उपन्यासों के बारे में कहते हैं, ‘‘धूल भी है, फूल भी है, कीचड़ भी है और गुलाल भी।’’ बाबू शिवपूजन सहाय इस उपन्यास की रचना के बारे में लिखते हैं, ‘‘मैं ऐसी ठेठ देहात का रहने वाला हूँ जहाँ इस युग की नयी सभ्यता का बहुत ही धुँधला प्रकाश पहुँचा है। वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं - अज्ञानता का घोर अन्धकार और दरिद्रता का ताण्डव नृत्य! वहीं पर मैंने जो कुछ देखा सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों चित्रित कर दिया है। इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की खास उपज या मेरी मौलिक कल्पना नहीं है।’’
एक आंचलिक उपन्या वह होता है जिसकी ठेठ सांस्कृतिक इकाई बाहरी प्रभावों से विकृत और प्रदूषित हुई हो। यानी जो अपनी ठेठ मौलिकता में अपनी सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखे हो। जब शिवपूजन बाबू नई सभ्यता के प्रकाश से अछूता होने की बात करते हैं तो वे अनजाने ही इस मौलिक सांस्कृतिक इकाई की अक्षुण्णता की ओर इशारा करते हैं। अज्ञानता के घोर अन्धकार और दरिद्रता के भीषण ताण्डव के बावजूद हमारी वह पहचान सुरक्षित है। वे कारण, वे अन्धविश्वास, वह ठहराव और सड़ाँध जिससे हमारे ग्रामीण जीवन का विकास रुका हुआ है- वे सभी अत्यन्त सार्थक और सरल ढंग से उपन्यास में चित्रित हुए हैं। वास्तव मेंदेहाती दुनियामें चित्रित जीवन गांधीजी द्वारा सत्याग्रह अहिंसा आन्दोलन के चलाये जाने के पूर्व सन् १९०० के आसपास का जीवन है। उपनिवेशवादी सरकार, देशी सामन्तों और पंडे-पुरोहितों द्वारा वह मर्दित दलित जीवन है जिसके लिए भारतेन्दु ने बहुत पहले कहा था-

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