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Wednesday, March 20, 2019


हिंदी-नवजागरण और शिवपूजन सहाय का पत्राचार-साहित्य

मंगलमूर्त्ति
                                     
आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम हिंदी नवजागरण के प्रमुख स्तंभों में गिना जाता है | यद्यपि आज हिंदी नवजागरण काल के ऐसे - शिवपूजन सहाय की तरह के - कुछ गिने-चुने आधुनिक हिंदी के तपःपूत हिंदी-सेवियों को लोग भूलने भी लगे हैं, और उनका लिखा पढ़ने की ज़रुरत तो  अब नहीं के बराबर समझी जा रही है | वह एक ऐसा युग था जब ऐसे कुछ ही लोग थे जिन्होंने हिंदी के निर्माण के लिए अपना पूरा जीवन ही दान किया था | जब आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य के भवन की नीवं डाली जा रही थी तब शिवपूजन सहाय की तरह के साहित्यकारों ने राज-मजदूर की तरह खटते हुए हिंदी भाषा का एक प्रकार से स्वरुप-निर्धारण और मानकीकरण किया | और यह काम सबसे ज्यादा साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से ही हुआ|

शिवपूजन सहाय के नाम के साथ ‘आचार्य’ विरुद तब जुड़ा जब वे १९५० में राजेंद्र कॉलेज, छपरा से बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के संचालक होकर पटना चले आये | छपरा कॉलेज में आने पर उनके नाम के आगे अक्सर प्रोफेसर जुड़ने लगा था| वे स्वयं ‘आचार्य’ विरुद के प्रति सदा अनिच्छा का भाव ही रखते थे | सबसे शुरू में ‘मतवाला’-काल में निरालाजी बराबर अपने पत्रों में उनको ‘हिंदी-भूषण’ ही लिखते रहे | जब स्वयं राजेंद्र बाबू की अभिस्तुति पर उनको १९६० में ‘पद्मभूषण’ की उपाधि मिली तो उसे भी उन्होंने अपने लिए एक ‘व्याधि’ कहकर ही स्वीकार किया, क्योंकि उन्हीं दिनों बिहार सरकार ने उनको नियम-विरुद्ध सेवा-निवृत्त  कर दिया था जिससे वे पेंशन से वंचित होकर अत्यंत आर्थिक कष्ट में थे, और एक विडम्बना यह भी थी कि पहले के वर्षों में केन्द्रीय सरकार का बहुत सारा हिंदी-सम्बन्धी कार्य  करने के बावजूद जब उन्होंने उन दिनों की अपनी विपन्न स्थिति में सरकार से आर्थिक सहायता की अर्जी दी थी तब उसे सरकार ने यह कह कर अस्वीकृत कर दिया था कि सरकार उनको इसके लिए योग्य पात्र नहीं मानती थी| बाद में यह आचार्यविरुद हिंदी संसार ने ही उनके नाम के साथ रूढ़ कर दिया, और हिंदी नव-जागरण के सन्दर्भ में यह आचार्यउपाधि शिवपूजन सहाय के नाम के साथ उसी तरह जुड़ गयी जैसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम के साथ वह सदा के लिए अविच्छिन्न हो गयी  |

हिंदी नवजागरण में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान है, और हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के विस्तीर्ण क्षेत्र में शिवपूजन सहाय का योगदान संभवतः उनके समवर्त्ती किसी भी लेखक-पत्रकार से अधिक है, विशेषतः सम्पादन और हिंदी गद्य के मानकीकरण के क्षेत्र में | किन्तु, विडम्बना यह है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में शिवपूजन सहाय के ऐसे महनीय योगदान का उचित मूल्यांकन होने के बदले उसकी अनदेखी ही ज्यादा हुई है | नवजागरण काल में केवल मतवाला की पत्रकारिता का योगदान कितना महत्त्वपूर्ण है, जो १९२३ से आगे कुछ ही वर्षों तक प्रकाशित हुआ, और उसके सम्पादक के रूप में शिवपूजन सहाय की भूमिका तो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रही, यद्यपि सम्पादक के रूप में उसमें महादेव प्रसाद सेठ का नाम ही बराबर छपा | ऐसा शिवपूजन सहाय के साथ मतवालाके बाद माधुरी’, ‘गंगाऔर बालकमें भी हुआ | इन सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में गहन सम्पादन का सारा काम शिवपूजन सहाय करते थे, यद्यपि संपादक  के रूप में नाम औरों का ही छपता था | लेकिन इन तथ्यों पर आज भी पर्याप्त प्रकाश नहीं डाला जा सका   है |

साल लगने के पहले ही शिवपूजन सहाय ने मतवालाछोड़ दिया और दुलारेलाल भार्गव के बुलावे पर माधुरीके सम्पादकीय विभाग में लखनऊ चले गए | और उनके हटते ही अचानकमतवालाकी स्थिति बिगड़ने लगी | नवजादिक लाल जो मतवालाके व्यवस्थापक थे उन्होंने २८..१९२४ को शिवजी को   जो शुरू से हिंदी साहित्य-जगत में इसी नाम से जाने जाते थे एक पत्र लखनऊ भेजा जिसमें लिखा – “मतवाला की अवस्था उत्तरोत्तर खराब हो रही है | जबसे चार पैसे किये गए तब से बराबर गिर रहा है | शायद बंद कर देना पड़े ! मेरी धारणा है की आपकी अनुपस्थिति और एकाएक दाम बढाने से पत्र की अवस्था बिगड़ गयी है” | लेकिन सचाई यही थी कि शिवपूजन सहाय कामतवालाछोड़कर  माधुरीके सम्पादकीय विभाग में लखनऊ जाना ही मतवालाकी अवस्था के उत्तरोत्तर खराब होने की असली वजह थी | नवजादिक लाल की लिखी मतवालाकी १७ मई, १९२४ की सम्पादकीय टिप्पणी की ये व्यंगात्मक पंक्तियाँ भी इसका प्रमाण हैं | उन्होंने लिखा – “प्रायः दो महीने से भाई शिवपूजन सहाय मतवालामें नहीं हैं, इसलिए जो लोग उनके लेखों पर लट्टूहो रहे हों, वे अब कृपा कर मतवालान पढ़ा करें  और इधर दो महीनों तक जो कुछ पढ़ चुके हों , उसे वापस कर दें” | और जब शिवजी दुबारा लखनऊ से कलकत्ता वापस आये यद्यपि मतवाला से तब भी अलग ही रहे तब मतवाला में शीर्ष पर आह्लादक एक वाक्य छपा – “आ गए! हिंदी-भूषण बाबू शिवपूजन सहाय मतवाला’-मंडल में आ  गए” |

डा. रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधनामें शिवपूजन सहाय के मतवाला’-मंडल से अलग होने और वापस आने के इस प्रसंग की संक्षिप्त चर्चा की है, पर शिवपूजन सहाय के इस मुंडेरे से उस मुंडेरे आने-जाने का पूरा सत्य अभी तक सामने नहीं आया है | ‘प्रेमचंद पत्रों मेंमैंने जो कुछ पत्र संकलित किये हैं, उनसे इस प्रसंग पर कुछ अतिरिक्त प्रकाश ज़रूर पड़ता है | उसमें महादेव प्रसाद सेठ का एक लम्बा अधूरा पत्र प्रकाशित है जिसमें सेठजी ने  उन कारणों की थोड़ी चर्चा  की है | मेरा मानना है कि उस नव-जागरण-काल में एक-दूसरे को लिखे पत्रों में क्योंकि वह ज़माना परस्पर पत्राचार का ही ज़माना था और उन पत्रों में ऐसे बहुत से विवादों और घटनाओं का इतिहास अभी भी छिपा हुआ है, जिसे सामने लाने की ज़रुरत है |
मेरा अभिप्राय यहाँ हिंदी नवजागरण-काल में हिंदी के संघर्षशील साहित्यकारों के बीच होने वाले परस्पर पत्राचार के महत्त्व की ओर ध्यान आकृष्ट करना ही है | हिंदी साहित्य में नवजागरण के इस निर्माण-काल में साहित्यकारों के बीच परस्पर पत्राचार की एक लगभग अदृश्य पटकथा ही निरंतर लिखी जाती रही जिसकी ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है | मेरी जानकारी में विदेशी भाषाओं की तुलना में, हिंदी में प्रकाशित पत्र-साहित्य, विशेषतः पिछली सदी के प्रथम दो-तीन दशकों के साहित्यकारों के पत्रों का प्रकाशित साहित्य, बहुत अल्प मात्रा में उपलब्ध है | बीसवीं सदी के इन प्रारम्भिक दशकों में,  जो हिंदी नवजागरण का प्रस्फुटन-काल था, और देश के स्वाधीनता-संग्राम के समानांतर या उससे पूर्णतः अविभाज्य रूप में ही विकसित हो रहा था, उस विशेष काल-खंड में, हिंदी के अधिकाँश लेखक पुस्तकों के लेखन-प्रकाशन में अथवा अपने पत्रकार-जीवन में कितने संघर्षशील थे इसका एक हू--हू खाका उनके परस्पर पत्राचार में देखा जा सकता है | शिवपूजन सहाय ने तो कुछ दिन स्कूल-शिक्षण के बाद लेखन-संपादन और पत्रकारिता को ही अपनी आजीविका बना लिया था | और उस समय के बहुत सारे हिंदी लेखकों की भी यही जीवन-कथा थी |

शिवपूजन सहाय साहित्य समग्रके अंतिम ३ खण्डों में शिवजी का साहित्यिक पत्राचार प्रकाशित हुआ है जिसमें खंड ८ और ९ में प्रायः २०० नवजागरण-कालीन प्रमुख साहित्यकारों के शिवजी के नाम लिखे लगभग १७०० पत्र प्रकाशित हुए हैं, और खंड १० में उनमें से कोई ५० साहित्यकारों के नाम लिखे शिवजी के ५०० पत्र भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें लगभग २० नाम ऐसे भी हैं – ‘उग्र’, निराला, जयशंकर प्रसाद, बनारसी दास चतुर्वेदी, रामविलास शर्मा आदि के  जिनके साथ हुआ शिवजी का परस्पर पत्राचार एक पत्र-सम्वाद की तरह पढ़ा जा सकता है | और इन परस्पर पत्राचारों में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य और संकेत मिलते हैं जिनका उस युग के हिंदी-साहित्य के विकास से गहरा सम्बन्ध है|
   
खंड ८ और ९ में प्रकाशित पत्रों के लेखक साहित्यकारों में पुरानी पीढ़ी के कई  साहित्यकारों के पत्र हैं, जैसे श्रीधर पाठक, शिवनंदन सहाय, राधामोहन गोकुलजी, लाला भगवानदीन, सकल नारायण शर्मा. रामनारायण मिश्र, रामनरेश त्रिपाठी, माधव शुक्ल, रूप नारायण पाण्डेय, आदि | स पीढ़ी के साहित्यकारों के पत्र तो अब शायद ही कहीं और मिल सकेंगे, लेकिन शिवपूजन सहाय के संग्रहालय में  पत्रों और पांडुलिपियों का एक बहुत बड़ा संग्रह था जिसमें से चुनकर लगभग १७०० महत्त्वपूर्ण पत्रों को समग्रके ३ खण्डों में प्रकाशित किया जा चुका है और लगभग ७,५०० पत्रों को नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा भी जा चुका है|
साहित्यिक पत्रों के संग्रह के विषय में शिवजी प्रारम्भ से ही बहुत सावधान और प्रयत्नशील   रहे | अपने स्वर्गीय पिता वागीश्वरी दयाल के नाम पर अपने गाँव बक्सर के पास उनवांस  में जो पुस्तकालय उन्होंने स्थापित किया था मुझे याद है, क्योंकि मैं भी तबतक उस कार्य में उनका सहायक बन चुका थाउसमें सुबह से शाम तक लगातार बैठ कर शिवजी लगभग ७ बड़े बोरों में से छांट कर दो बोरे चिट्ठियाँ पटना ले गए थे जिन्हें अपने अंतिम दिनों में वे लगभग प्रतिदिन व्यवस्थित किया करते थे | इन्हीं में से चुनकर १९६१ में रामविलासजी निरालाजी और कुछ और लोगों की चिट्ठियां नक़ल करके ले गए थे जिनका उन्होंने निराला की साहित्य साधनामें उपयोग किया, जिससे सिद्ध होता है कि साहित्य के इतिहास-लेखन में इन पत्रों का कितना महत्त्व हो सकता है |

यहाँ  रामविलासजी को लिखे शिवजी के २८.२.६२ के एक पत्र की ये पंक्तियाँ  एक महत्त्वपूर्ण तथ्य  उद्घाटित करती हैं | रामविलासजी वाले उस पत्र में शिवजी लिखते हैं : “ [निरालाजी की] एक बड़ी चिट्ठी साप्ताहिक ‘हिन्दुस्तान’ में भी संस्मरण के साथ ही गयी थी | संस्मरण दूसरी बार भी छप गया, पर चिट्ठी न छपी | सम्पादकजी को पत्र लिखा कि लौटाने की कृपा कीजिये | फिर जवाबी कार्ड भेजा | कोई उत्तर अबतक न मिला | मैं बहुत चिंतित  हूँ | फिर जवाबी कार्ड भेजा है |....अगर दिल्ली जाइए तो ‘हिन्दुस्तान से वह चिट्ठी ले लीजिये |” ‘समग्र’ (८) में निराला के शिवजी को लिखे  २५ पत्र छपे हैं, यद्यपि ‘निराला की साहित्य साधना’ (३) में  निराला के शिवजी को लिखे २१ ही पत्र प्रकाशित हुए हैं |  इनमें ४-५ ही लिफाफों वाले लम्बे पत्र हैं |  इनके आधार पर केवल अनुमान किया जा सकता है कि  ‘हिंदुस्तान’ वाला पत्र  रामविलासजी ने वापस पा लिया होगा, लेकिन इस विषय में कुछ निश्चित करना अब कठिन है |
  
 शिवजी ने अपनी डायरी और पत्रों में उस घटना का भी ज़िक्र किया है जब १९५० में उनके गाँव वाले घर में चोरी हुई और चोरों ने एक कलमदान के बक्से को बाहर ले जाकर तोडा और जब उसमें केवल चिट्ठियों का एक बण्डल ही उन्हें मिला तो उस बक्से को चिट्ठियों वाले बण्डल सहित एक कुँए में फेंक दिया | शिवजी ने उसी पत्र में लिखा है: “चोरी गयी हुई चिट्ठियों में अनेक प्रमुख साहित्यकारों के महत्त्वपूर्ण पत्र छांट कर रखे गए थे, जिनमें उनसे साहित्यिक समस्याओं पर लिख-पढ़ी हुई थी | उनमें निरालाजी के कई अच्छे पत्र थे | उस चोरी का प्रभाव मेरे स्वास्थ्य पर पड़ा था |” रामविलासजी पर लिखे सचेतकमें प्रकाशित अपने संस्मरण में मैंने इस प्रसंग की चर्चा विस्तार से  की है | शिवजी के निधन के बाद उनके विशाल पत्र-संग्रह की इन चिट्ठियों की एक पूरी सूची उनकी स्मृति में प्रकाशित साहित्यके स्मारक-विशेषांक (जनवरी,१९६४) में उपलब्ध है जिन्हें बाद में नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा   गया | ये चिट्ठियां वास्तव में हिंदी साहित्य की एक अनमोल धरोहर हैं जिनमें आधुनिक हिंदी साहित्य का वह स्वर्ण-युग - हिंदी नवजागरण-काल - अपने प्रच्छन्न रूप में प्रतिबिंबित है |

जिन पुरानी पीढ़ी के महनीय साहित्यकारों के नाम ऊपर उल्लिखित हैं उनके  कुछ चुने हुए उद्धरणों से यह प्रमाणित हो सकेगा |

श्रीधर पाठक अपनी एक कविता मारवाड़ी सुधारके लिए भेजते हुए १९२० के अपने एक  पत्र में लिखते हैं : “मैं समझता हूँ आप वही शिवपूजन सहाय हैं जिनके लेख कभी कभी गया की ‘लक्ष्मी’ को अलंकृत करते हैं” | शिवनंदन सहाय १९२७ के अपने  पत्र में लिखते हैं – “बाबू रामदीन सिंह ने प्रायः बिहार भर के कवियों का कुछ नोट कविता के नमूने के साथ संग्रह कराया था शिवसिंह सरोज के ढंग पर | वे विस्तृत नहीं हैं | किन्तु उनसे कवियों के नाम-ठिकाना मालूम होने से , अधिक सामग्रियां प्रस्तुत की जा सकती हैं” | द्विवेदी-युग के प्रसिद्ध  नाटककार और प्रभावशाली अभिनेता पं. माधव शुक्ल का एक लम्बा पत्र (२३.८.२८) अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जिसमें शिवजी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए शुक्लजी ने हिंदी नाटक के प्रारम्भिक दिनों की अपनी आत्मगाथा लिखी है | उन्होंने उस पत्र में लिखा है – “जहां तक मुझे स्मरण है हमलोगों ने जिस समय रामलीला नाटक मंडली की नींव डाली थी उस समय कोई नाट्य संस्था का होना नहीं सुन पड़ा था, बहुत दिनों के बाद जौनपुर में और लखनऊ में जाकर मैंने ही हिंदी नाट्य संस्थाएं खोली थी” | शिवजी ने शुक्लजी को जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने  शुक्लजी से हिंदी नाटक के विकास के शुरूआती दिनों के उनके संस्मरण लिख कर मांगे थे, जिसके आधार पर माधुरी’ (१९२८-२९) में शिवजी ने काशी की नागरी नाटक मंडलीऔर प्रयाग की हिंदी नाट्य-समिति’ – ये दो लम्बे सचित्र लेख प्रकाशित किये थे जो हिंदी नाटक पर शोध की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं  |  यहाँ इस नाट्य-प्रसंग में उल्लेखनीय है कि हिंदी नवजागरण-काल में हिंदी नाट्य-कला, लेखन और रंगमंच के योगदान की ओर भी शिवपूजन सहाय ने माधुरीमें प्रकाशित अपनी लेख-श्रृंखला  में जो प्रकाश डाला और उसके नवोन्मेषित विकास और संभावनाओं की ओर जो ध्यानाकर्षण किया वैसा संभवतः अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है |

‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ (खंड ९) में आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी के १६ पत्र प्रकाशित हैं | अपने एक पत्र (२५.८.३०) में वे शिवजी को ‘पुस्तक-भण्डार’ (लहेरियासराय, बिहार) के विषय में  लिखते हैं जहां उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वाग्विलास’ शिवजी की देख-रेख में छपी थी – “ ‘वाग्विलास के छपे हुए फर्में मैंने सब नहीं पढ़े | इधर-उधर सिर्फ दस-पांच पृष्ठ देखे हैं | वे सभी प्रायः शुद्ध छपे हैं | कहीं दो ही एक अशुद्धियाँ मुझे मिली हैं | यह सब आपकी कृपा का फल है | अब तक तो पुस्तक की एक कॉपी तक मुझे नहीं मिली |” शिवजी उन दिनों  काशी में रह कर पुस्तक-भण्डार की पुस्तकों और वहाँ से प्रकाशित होने वाले बाल-मासिक ‘बालक’ का सम्पादन करते थे | पुस्तक-भण्डार से उन दिनों शिवजी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली अन्य पुस्तकों में द्विवेदी जी के ‘वाग्विलास’ के अलावा ‘हरिऔध’जी का ‘पद्यप्रसून’ और ‘रस-कलश’, लाला भगवान ‘दीन’ का ‘नवीन वीन’,  ‘प्रसाद’जी की ‘कामना’, छाया’ और ‘कानन-कुसुम’ जैसी पुस्तकें भी थीं | ‘समग्र’ में प्रकाशित शिवजी को लिखे  इन पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों के पत्र शोध की दृष्टि से इस अर्थ में विशेष महत्त्वपूर्ण हैं | 

माधव शुक्ल के शिवजी को लिखे पत्र में हिंदी नाटक और रंगमंच के उद्भव और विकास सम्बन्धी जो बहुमूल्य सूचनाएं मिलती हैं उनके आधार पर शिवजी ने ‘माधव शुक्ल’ पर लिखे अपने संस्मरण में इस विषय की  विस्तार से चर्चा की है, जिससे  हिंदी नव-जागरण-काल में हिंदी रंगमंच की भूमिका पर विशेष प्रकाश पड़ता है | हिंदी रंगमंच की इस चर्चा से प्रकारांतर से यह भी इंगित होता है कि हिंदी नवजागरण-काल में  प्रदर्शन-कला के अन्य माध्यमों सिनेमा आदि के महत्त्वपूर्ण  योगदान की ओर भी पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता आज भी बनी हुई  है | उस उथल-पुथल के समय में जहां एक ओर सृजनात्मक लेखन कविता, कहानी, उपन्यास और समालोचना की समृद्धि हिंदी साहित्य में  प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो रही थी, वहीं पत्रकारिता द्वारा  साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकारों की दिशा में भी अत्यंत प्रभावकारी प्रयास हो रहे थे | मैं नहीं कह सकता कि सारी सृजनात्मक सम्भावनाओं को साथ लिए हुए भी साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा तबका क्यों पत्रकारिता को ही  अपने लिए देश-समाज और साहित्य-सेवा का माध्यम मानकर उसमें अपना सम्पूर्ण समर्पित योगदान दे रहा था | शिवपूजन सहाय ने अपनी सृजनात्मक संभावनाओं का पर्याप्त  प्रमाण अपनी साहित्य-यात्रा के प्रारम्भ में ही देहाती दुनियाउपन्यास और महिला-महत्त्वकहानी-संग्रह के प्रकाशन से हिंदी-संसार के सामने उपस्थित कर दिया था | किन्तु, समर्पित पत्रकारिता का वरण संभवतः उन्होंने सायास किया था जिससे नवजागरण के इस संक्रमण-काल में जब देश-काल में क्रांतिकारी परिवर्त्तन का दौर चल रहा था, सामाजिक-साहित्यिक सरोकारों का निर्वहन अधिक क्षिप्रता और गंभीरता से संभव हो सकता था |

मेरा अनुमान है कि शिवपूजन सहाय ने २०,००० से अधिक पत्र लिखे होंगे  जिनमें अधिकांश पोस्टकार्ड ही रहे होंगे | उनके लिखे हुए जो पोस्टकार्ड संग्रह में हैं उनमें एक-एक सेंटीमीटर स्थान उनकी खुशगवार लिखावट से सजा हुआ लगता है | इतनी बड़ी संख्या में उनके पत्र-लेखन के अनुमान का आधार यह है कि  पत्रों के पहली खेप के चुनाव में ही उन्होंने प्राप्त चिट्ठियों में से लगभग ६०% को तो अनुपयोगी समझ कर छांट दिया था, और जो ७,५०० चिट्ठियाँ नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं, लगभग उतनी तो शिवजी ने  दूसरों को अवश्य ही लिखी  थीं | ‘साहित्यके स्मारक-अंक में छपी सूची में कम से कम ५० नाम ऐसे हैं जिनके औसतन १०० से ऊपर पत्र उन्हें प्राप्त हुए थे, और लगभग उतने ही नाम ऐसे हैं जिनके औसतन ५० पत्र प्राप्त हुए हैं | इतनी ही संख्या जोड़ने पर लगभग ८,००० पत्रों की हो जाती है | ‘साहित्यवाली उस सूची में लगभग ५०० नाम हैं | इन संख्याओं को देखने से २०,००० की संख्या भी कम ही लगती है | दरअसल वह ज़माना ही चिट्ठियों का  था | बनारसी दास चतुर्वेदी, उग्र, भवानीदयाल सन्यासी, राजा राधिकारमण आदि के पत्र तो कई-कई पृष्ठों के होते थे | निश्चय ही शिवजी भी लम्बे-लम्बे पत्र या पत्रोत्तर लिखते ही होंगे, जिनमें से कुछ ही प्राप्त हो सके और समग्रखंड १० में प्रकाशित हैं, जो इसका प्रमाण हैं | इसीलिए यह सहज कल्पनीय है कि कितनी बड़ी मात्रा में शिवजी के पत्र लुप्त हो गए अथवा अनुपलब्ध हैं, और उनमें कितनी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सूचनाएं होंगी जो अब हमेशा के लिए गुमशुदा हैं | और यही स्थिति उस नवजागरण-काल के अधिकांश साहित्यकारों के पत्रों की रही है | यह भी एक सच है कि ऐसी बहुत सी सामग्री जिसमें पत्रों का  विशेष महत्त्व है पुराने साहित्यकारों में कुछ के वंशजों के पास आज भी संभवतः वर्त्तमान होगी जिनको ढूँढने का प्रयास साहित्यिक संस्थाएं और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग कर सकते हैं, जो काम नवजागरण पर होने वाले अनेक परिसंवादों और पत्रिकाओं में लेख-प्रकाशनों से अधिक शोधपूर्ण  आवश्यक कार्य होगा | स्वयं शिवपूजन सहाय ने इसकी ओर बार-बार हिंदी-संसार का ध्यान दिलाया था, क्योंकि उस युग के पत्राचार में अनेक ऐसी शोधोपयोगी सूचनाएं होंगी जो साहित्येतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होंगी | ‘साहित्य’ (अक्तू.’५६) की अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में शिवजी ने इसकी ओर ख़ास तौर से ध्यान दिलाया था | उन्होंने लिखा था – “पुराने और स्वर्गीय साहित्य-महारथियों के पत्रों का संग्रह प्रकाशित होना आवश्यक है, किन्तु उनका मिलना बड़ा कठिन है | तब भी सतत प्रयास से अनेक महान साहित्यकारों के पत्र प्राप्त किये जा सकते    हैं |...इस दिशा में बराबर खोज होती रही, तो साहित्य-जगत की बहुतेरी पुरानी घटनाएँ प्रकाश में आवेंगी और कितनी ही लुप्त बातों का उद्धार होगा” | सम्पादकीय टिप्पणियों की उसी शृंखला में यह भी लिखा कि जैसे आत्मकथा और संस्मरण न लिखवाने से स्वर्गीय वयोवृद्धों के साथ साहित्यिक परंपरा का इतिहास लुप्त हो गया, वैसे ही कुछ दिनों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े पत्र-साहित्य का भी लोप हो जायेगा | हमारी ही असावधानता से अब तक असंख्य अमूल्य पत्र नष्ट हो चुके” |

शिवपूजन सहाय ने अपने जीवन में सृजनात्मक-लेखन से ज्यादा यदि ऐसे ही अधिक उपयोगी साहित्यिक अभियानों की ओर ध्यान दिया जिसके प्रमाण उनके बहुतेरे लेख, सम्पादकीय टिप्पणियाँ और पुराने साहित्यकारों पर लिखे उनके अत्यंत मूल्यवान संस्मरण हैं, जिनमें हिंदी नवजागरण-काल के साहित्यिक इतिहास की महत्त्वपूर्ण अंतर्कथा उजागर होती है, तो यह सब उनके दीर्घकालीन लेखन में अनायास ही हुआ, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं हो सकता | यह सच है कि निराला, प्रसाद और प्रेमचंद से लेकर हिंदी के अति-साधारण लेखकों की कृतियों का सम्पादन और संशोधन करने में ही उनका अधिकाँश समय चला गया, लेकिन उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की ओर ध्यान देने पर ऐसा प्रतीत होता है वे सृजनात्मक लेखन के प्रति अपने प्रारम्भिक लेखन के बाद सदा उदासीन ही  रह गए और ज्यादा ध्यान उन्होंने बराबर साहित्यिक पत्रकारिता की ओर ही दिया जो हिंदी नवजागरण का मूलाधार रहा |
     
मेरा नवजागरण-काल के साहित्य लेखन से अत्यंत सीमित परिचय है, परन्तु उसके इस अलक्षित अथवा न्यून-लक्षित पक्ष से मेरा परिचय शिवपूजन सहाय के  साहित्य के गहन पठन-पाठन से ही हुआ है जिसका मेरे अपने जीवन में बहुत महत्त्व रहा है | नवजागरण काल के हिंदी साहित्यकारों के परस्पर पत्राचार का परिरक्षण और प्रकाशन  हिंदी साहित्य की परंपरा के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण कार्य था जिसकी ओर अत्यंत विनम्रतापूर्वक ध्यान आकृष्ट करना ही आज के मेरे इस वक्तव्य का मुख्य उद्देश्य  है | और इस युग के लेखकों का साहित्यिक पत्राचार उनके सृजनशील जीवन का एक प्रमुख अंग बना रहा |

साहित्यिकों के पत्र वस्तुतः उनकी डायरी की तरह ही होते हैं | उनकी सृजनात्मकता की झांकियां उनमें भी मिलती हैं, यद्यपि परिमाण का अंतर अलग-अलग पत्र-लेखकों में अवश्य होता है | डायरी जहां अंतर्मुखी होती है, वहीं पत्र बहिर्मुख होते हैं, इतना ही अंतर होता है | शिवजी की डायरी और उनके पत्रों में तो साहित्यिकता का यह रस सर्वत्र एक जैसा आस्वाद्य है | उनकी छोटी-छोटी इबारतों में भी भाषा की यह कलात्मकता उजागर हो जाती है | निराला शिवजी के गद्य के सच्चे मुग्ध-प्रसंशक थे ऐसा डा. रामविलास शर्मा ने भी लिखा है | पत्रलेखन-कला पर शिवजी ने अपनी डायरी में लिखा है – “ पत्र व्यवहार भी एक सुन्दर कला है | इस कला में मनुष्य की परख होती है | किसी की चिट्ठी पढ़कर उसका चरित्र भी पढ़ा जा सकता है | जो सच्चे होते हैं उनका ह्रदय चिट्ठियों में खुल पड़ता है | जो कच्चे होते हैं उनका छल-कपट प्रत्येक वाक्य में बोलता है | पत्र वही अच्छा है जो पढ़ते ही मन को हर ले | पत्र-लेखन कला से जिसने शत्रु को भी मुट्ठी में न किया, वह पत्र लिखने का अधिकारी नहीं है” | निश्चय ही शिवजी के पत्र इसके प्रमाण  हैं | खेद है, आज उस कला का लगभग अवसान हो चुका है | 
   
हिंदी साहित्य के इतिहास और उसकी परंपरा में आधुनिकता के अवतरण में हिंदी नवजागरण का स्थान पुरातन से अधुनातन के बीच के एक मज़बूत पुल जैसा है, जिसका एक मज़बूत पाया उस युग के साहित्यकारों के बीच का पत्राचार भी है | शिवजी ने अपने लेखन में इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की और बार-बार ध्यान आकृष्ट किया है,  और इस बात को रेखांकित करना ही आज के मेरे इस वक्तव्य का प्रमुख उद्देश्य था |
  
आज की इस संगोष्ठी  में हिंदी साहित्य के इस स्वर्ण-युग में शिवपूजन सहाय की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर यह संवाद आयोजित कर साहित्य अकादेमी ने एक विशेष श्लाघनीय कार्य किया है, और उसमें भाग लेने का मुझको भी अवसर प्रदान किया है, इसके लिए मात्र आभार-ज्ञापन से मैं अकादेमी के इस कृपाकृत्य से उऋण नहीं हो सकता | इस अवसर पर मैं उस समारोह की भी चर्चा करना चाहता हूँ जब दिसंबर, १९९२ में साहित्य अकादेमी ने पं. बनारसीदास चतुर्वेदी और शिवपूजन सहाय की जन्मशती का संयुक्त-समारोह मनाया था | बाद में १९९४ में अकादेमी ने ही भारतीय साहित्य के निर्माताश्रंखला में शिवपूजन सहाय पर मेरा लिखा  विनिबंध भी प्रकाशित किया था | और अब उसी कड़ी में अकादेमी इसी वर्ष शिवपूजन सहाय का मेरे द्वारा संपादित रचना-संचयनप्रकाशित करने जा रही है | ये सारे कृपाकृत्य जैसे उसी श्रंखला की स्वर्ण-कड़ियाँ हैं जो शिवपूजन सहाय की हिंदी-सेवा के सम्मान के व्याज से उनको हिंदी नव-जागरण काल के इतिहास से जोडती हैं |

अंत में मैं इस अवसर पर अकादेमी से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि वह हिंदी नव-जागरण-काल के प्रमुख साहित्यकारों के हिंदी-भाषा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण लेखों का एक संचयन एकाधिक खण्डों में प्रकाशित करे, जिसमें एक खंड डायरी अथवा आत्मकथात्मक लेखन, पत्रों एवं संस्मरणों का भी रहे | नव-जागरण सम्बन्धी विशेष महत्त्व की शोध-निर्देशक सामग्री, प्रामाणिक सूचियाँ और शोध विनिबंधों  का भी एक संग्रह उसी ग्रन्थ-श्रंखला का एक खंड हो सकता है |

'समग्र' में प्रकाशित कुछ पत्रों की प्रतिकृतियाँ यहाँ नीचे दी गई हैं :










शिवपूजन सहाय के १२५ वीं जयंती वर्ष के शुभारम्भ में यह आयोजन साहित्य अकादेमी की ओर से संपन्न हो रहा है, तो एक बार फिर स्मरण कर लें, यह मात्र संयोग नहीं है कि यही वर्ष महापंडित राहुल सांकृत्यायन की १२५ वीं जयंती का भी वर्षारंभ है, क्योंकि हिंदी साहित्य का यह विलक्षण संयोग ही है कि शिवपूजन सहाय और राहुलजी दोनों का जन्म वर्ष (१८९३) ही नहीं, निधन-वर्ष (१९६३) भी एक ही था | इन दोनों साहित्य महारथियों को श्रद्धा पूर्वक नमन करते हुए मैं एक बार फिर साहित्य अकादेमी के प्रति विशेष आभार व्यक्त करना चाता हूँ कि आज यह समारोह यहाँ इतनी सफलता पूर्वक आयोजित हुआ | मुझे पूरी आशा है कि शिवपूजन सहाय  और राहुलजी के इस सपादशती  वर्ष में इन दोनों ही महत्त्वपूर्ण  साहित्यकारों पर परिसंवादों की यह श्रंखला आगे भी आयोजित होगी |  अकादेमी के अध्यक्ष आ. विश्वनाथ तिवारीजी और उसके अधिकारी कुमार अनुपमजी को भी मैं विशेष धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उनके विशेष प्रयास से यह सुन्दर आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ | आगत सभी विद्वान् व्यक्तियों के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिन्होंने इस समारोह को सफल और सार्थक बनाने की कृपा की | धन्यवाद |
      
साहित्य अकादेमी के हिंदी नव-जागरण और शिवपूजन सहायसंगोष्ठी (२६ सितं. ’१७) का अध्यक्षीय भाषण  जिसका किंचित संक्षिप्त रूप साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के २०० वें (नवम्बर –दिसंबर,२०१७) अंक में प्रकाशित हुआ है |
[भूल से वहां मेरा बहुत पुराना पता / मो.नं. प्रकाशित हो गया है | वर्त्तमान सही पता है – एच-३०२, सेलेब्रिटी गार्डन्स, सुशांत गोल्फ सिटी, अंसल API, लखनऊ:226030/ मो.नं. 7752922938/7985017549]  
 

चित्र -परिचय  (ऊपर से ) : 'मतवाला' का मुखपृष्ठ / महादेव प्रसाद सेठ  / पं. माधव शुक्ल  / पत्र: श्रीधर पाठक  / राधेश्याम कथावाचक  /  आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी / प्रेमचंद / 'उग्र' / शिवपूजन  सहाय 

आलेख एवं सभी चित्र  (C) डा. मंगलमूर्त्ति, सचिव, आ. शिवपूजन  सहाय स्मारक न्यास 
बिना लिखित अनुमति के कोई भी चित्र अथवा प्रतिकृति  कहीं  प्रकाशित  करना  सर्वथा वर्जित |



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Extracts from the now published biography of Dr Rajendra Prasad: First President of India

Some extracts from my forthcoming biography of Dr Rajendra Prasad are also available on this Blog (Scroll by year and date), plus some other articles on him.
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