यादनामा
: ९
बाबा
नागार्जुन
जून
३० नागार्जुन जी का जन्मदिन है । इस वर्ष यह उनका १०७ वां जयंती वर्ष है |
नागार्जुन जी के कई नाम रहे थे | सबसे पहले तो माता-पिता ने नज़र बचाने वाला नाम
‘ठक्कन’ रक्खा था | फिर चार संतानों के मरने के बाद वैद्यनाथ महादेव (देवघर) में
पूजा-पाठ के बाद जन्म होने के कारण नामकरण हुआ – वैद्यनाथ मिश्र | फिर मैथिली में
लेखकीय नाम रक्खा – ‘यात्री’, और फिर राहुलजी की तरह बौद्ध धर्म में दीक्षित होने
के बाद अंततः स्थिर नाम हुआ –नागार्जुन | और बहुत से कल्पित लेखकीय जो नाम रक्खे
वे अलग |
लेकिन
वे बाबा नागार्जुन कब बने मैं ठीक ठीक नहीं कह सकता | हालांकि जब ५० के दशक में
वे अक्सर बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन (पटना) में हमलोगों से मिलते थे तब हमारे
लिए वे बाबा नागार्जुन न होकर बस नागार्जुनजी ही होते थे। लस्त-पस्त कपडे, गले में
लिपटा गमछ ज़रूर | दाढ़ी हमेशा जैसी-तैसी बढ़ी
हुई | लेकिन अब आज तो यहां बाबा ही कह कर उनको याद करने में आसानी होगी। सम्मलेन में यों तो प्रायः हर दूसरे तीसरे दिन वे आते ही थे,
क्योंकि उन दिनों
सम्मलेन
भवन में शिवपूजन सहाय, नलिनविलोचन शर्मा, दिनकर, बेनीपुरी जैसे बड़े साहित्यकारों
से लेकर सत्यदेव अस्थाना और ‘हिमांशु’ श्रीवास्तव जैसे युवा लेखकों की लगभग रोज़
बैठकी होती थी |
मेरा एक जिगरी दोस्त था महेश - जगदीश
प्रसाद श्रमिक का बेटा । मैं तब वहां कला केंद्र में बांसुरी सीखता था और महेश कथक
नृत्य । मैं लहरा बजाता था, भगवती गुरु तबला पर नृत्य के बोल सिखाते थे, और गज़ब की
तैयारी में महेश नृत्य का तत्कार करता था – बिजली की तरह | सम्मलेन में कला केंद्र
की स्थापना बेनीपुरी जी की प्रेरणा से हुई थी जो सम्मलेन के प्रधान मंत्री थे |
हमारा परिवार उन दिनों मेरे पिता के साथ
सम्मलेन में पिछवाड़े बने एक क्वार्टर में रहता था | वे मेरे कॉलेज के दिन थे |
उस दिन सम्मेलन में कोई समारोह था । पूरे
हाल में दरी-जाजिम बिछी थी और हम दोनों वहीँ बैठे थे | अचानक वहां बाबा प्रकट हुए | बाबा
के जूते अजीब तरह से फटे हुए थे | महेश बड़ा मसखरा-मिजाजी था | बाबा के फटे जूते
देख उसने तंज कसा – अरे, आपके जूते बहुत बढ़िया लग रहे हैं ! इतना सुनते ही बाबा
जोर से हँसे और जाज़िम पर पूरा एक घुलटनियां लगा दिया । फिर हंसते हुए ही किस्सा
बताने लगे। बोले – ठीक से देखो मेरा जूता | इस बाएं वाले में कनगुरिया उंगली के
पास एक छेद हो गया था | मैंने सोचा सिलवा लूं | उसके चार आने मांग रहा था | मैनें
कहा - ऐसा ही छेद दायें में भी कर
दोगे तो?
वह
हंसने लगा,
बोला –
लाइए बाबू। और दायें में भी ठीक वैसा ही छेद बना दिया। अब आराम हो गया है दोनों
कानी उंगलियों को ! फिर दांतों को पूरा निपोरकर हंस पड़े !
वह हंसी उनकी ट्रेडमार्क हंसी थी। छोटी,
लेकिन बहुत गहरी, जिसमें मुखमुद्रा ही प्रधान होती, उसकी आवाज़ नहीं | लेकिन वह
हंसी बार-बार
फूट पड़ती थी ।
जिसने उस हंसी को देखा और सुना होगा वही उसे याद कर सकेगा । उम्र के लिहाज़ से
मुझमें और उनमें एक पूरी पीढ़ी का फर्क था, लेकिन हमारे साथ वह फर्क कभी दिखाई नहीं
पड़ा |
पचास
के दशक में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का कार्यालय सम्मलेन-भवन में ही ऊपरी तल्ले
पर था, मेरे पिता जिसके बाद में निदेशक हो गए थे | यह १९५५ के आस-पास की बात होगी
| परिषद् और सम्मलेन के एक ही भवन में स्थित होने के कारण वहां साहित्यिक
गतिविधियाँ बहुत सघन हो गयी थीं, और दूसरे प्रान्तों के साहित्यकार भी वहां
प्रायः प्रतिदिन आते ही रहते थे जिनके दर्शन और स्नेह का लाभ मुझको सद्यः मिला
करता था | लेकिन १९५५-५६ तक एक स्थापित साहित्यकार होने के बावजूद वे
हमलोगों के लिए एक स्नेही अभिवावक-मित्र जैसे ही थे | परिषद् में इन प्रारम्भिक
दिनों में अक्सर नियुक्तियां हुआ करती थीं, और इन्हीं दिनों संभवतः किसी पद के लिए
कोई विज्ञापन निकला था जिसके लिए नागार्जुन जी ने भी आवेदन किया था | पद उनकी
योग्यता की दृष्टि से उनके लिए छोटा ही था, किन्तु नियुक्तियां परिषद् के संचालक
मंडल में अंतर्वीक्षा के बाद ही होती थीं | संचालक मंडल में इन नियुक्तियों को
लेकर बहुत पैरवी और पक्षपात होता था, मेरे पिता जिसके मूक दर्शक हुआ करते थे | ऐसे
ही एक प्रसंग की चर्चा मेरे पिता ने अपनी डायरी में नागार्जुन जी के विषय में की
है | उन्होंने लिखा है :
श्री वैद्यनाथ मिश्र जी ‘यात्री’ (नागार्जुन कवि) ने आज
पत्र भेजा कि विद्यापति-स्मारक-समिति के क्षेत्रीय कार्यकर्त्ता के लिए आगामी १८
फरवरी को जो इंटरव्यू होने वाला है उसमें वे नहीं उपस्थित हो सकते; क्योंकि यह
कलाकार की शान के खिलाफ बात है | सचमुच कवि बड़े भावुक होते हैं और भावुकता के पीछे
कभी-कभी अवांछनीय काम भी कर गुजरते हैं | यात्री जी मेरे साहित्यिक मित्र हैं और
बहुत ही सुन्दर सुकवि तथा कथाकार हैं | उनको मेरे प्रति भ्रम हो गया है | यात्री
जी चाहे जो समझें, मैं अपने राम को साखी मान कर निश्चिन्त हूँ |(१०.२.५६)
नागार्जुन जी अंतर्वीक्षा में नहीं आये, जिसका कारण संभवतः
यही था कि संचालक मंडल के कुछ सदस्यों ने पहले से ही पैरवी के आधार पर किसी और
आवेदक के पक्ष में निर्णय ले लिया था, और नागार्जुन जी को यह बात किसी तरह मालूम
हो गयी थी | लेकिन शिवजी का वश चला होता तो निश्चय ही नागार्जुन जी की ही नियुक्ति
हुई होती | पर नागार्जुन जी को शिकायत यह हो गयी कि निदेशक होते हुए भी शिवजी ने
इस में कोई हस्तक्षेप नहीं किया | डायरी की इस प्रविष्टि से यह स्पष्ट हो जाता है
कि शिवजी के प्रति परिहार्य-रूप से नागार्जुन जी के मन में एक भ्रम हो गया था |
फिर भी उन दिनों की ऐसी बहुत-सी छोटी-छोटी बातें हैं जिन पर शिवजी की डायरी से
प्रकाश पड़ता है, यह अब देखा जा सकता है | लेकिन ऐसी अंदरूनी बातों का पता उस वक़्त
हम लोगों को नहीं हो सकता था, और मैंने कभी नहीं देखा कि मेरे पिता और नागार्जुन
जी के परस्पर सौहार्द में कभी कोई कमी आई हो | और मुझसे तो वे जब भी मिलते
हंसने-हंसाने की अपनी उसी चिर-परिचित मुद्रा में मिलते |
***
बीच में समय का एक लम्बा अरसा बीत गया | मैं मुंगेर कॉलेज
में पढ़ाने लगा था | उसी क्रम में १९७४-७५
का विप्लवकारी समय आया | इमरजेंसी आई | बहुत सारे मित्र जेल चले गए | पारिवारिक
कारणों से मैंने जेल जाने से परहेज़ किया
| फिर मेरी कोई सक्रिय राजनीतिक भूमिका या आकांक्षा भी नहीं थी जेपी के ‘सम्पूर्ण
क्रांति’ आन्दोलन में | अधिकांश कॉलेज बंद हो गए थे – या खाली हो गए थे | मैं
सपरिवार मुंगेर से पटना आ गया था | उन
दिनों फिर पटना में नागार्जुन जी के दर्शन
बराबर हुआ करते | अब वे बाबा ही कहलाने लगे थे | उनकी उम्र भी ६५ के आसपास हो चुकी
थी | वेश-भूषा, दाढ़ी – गमछा सब वैसा ही था | नुक्कड़ काव्य-पाठों में सबसे ज्यादा
लोग बाबा को ही सुनना चाहते थे | सबसे ज्यादा मांग उनकी दो कविताओं की होती थी –
‘अंडा’ और ‘मन्त्र कविता’ |
अंडा
पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा
मन्त्र कविता
ॐ शब्द ही ब्रह्म है.. / ॐ शब्द्, और शब्द, और शब्द, और शब्द / ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें / ॐ वक्तव्य, ॐ उदगार्, ॐ घोषणाएं / ॐभाषण.../ ॐ प्रवचन.../ ॐ हुंकार, ॐ फटकार्, ॐ शीत्कार / ॐ फुसफुस, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार / ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे / ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे / ॐ सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ/ ॐ कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं / ॐ पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग / ॐ नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग/ ॐ मूस की लेड़ी, कनेर के पात / ॐ डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात / ॐ कोयला-इस्पात-पेट्रोल / ॐ हमी हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल / ॐ इदमान्नं, इमा आपः इदमज्यं, इदं हविः / ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कविः / ॐ क्रांतिः क्रांतिः सर्वग्वंक्रांतिः / ॐ शांतिः शांतिः
शांतिः सर्वग्यं शांतिः / ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः सर्वग्वं भ्रांतिः / ॐ बचाओ बचाओ बचाओ
बचाओ / ॐ हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ / ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ / ॐ निभाओ निभाओ निभाओ
निभाओ / ॐ दलों में एक दल अपना दल, ॐ / ॐ अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण / ॐ मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टीकरण / ॐ ऎतराज़, आक्षेप, अनुशासन / ॐ गद्दी पर आजन्म वज्रासन / ॐ ट्रिब्यूनल, ॐ आश्वासन / ॐ गुटनिरपेक्ष, सत्तासापेक्ष जोड़-तोड़ / ॐ छल-छंद, ॐ मिथ्या, ॐ होड़महोड़ / ॐ बकवास, ॐ उदघाटन / ॐ मारण मोहन उच्चाटन / ॐ काली काली काली महाकाली
महकाली / ॐ मार मार मार वार न जाय खाली / ॐ अपनी खुशहाली / ॐ दुश्मनों की पामाली / ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार / ॐ अपोजीशन के मुंड बने तेरे गले का हार / ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं
आङ / ॐ हम चबायेंगे तिलक और गाँधी की टाँग / ॐ बूढे की आँख, छोकरी का काजल / ॐ तुलसीदल, बिल्वपत्र, चन्दन, रोली, अक्षत, गंगाजल / ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून, मर्कट का फोता / ॐ हमेशा हमेशा राज करेगा मेरा पोता / ॐ छूः छूः फूः फूः फट फिट फुट / ॐ शत्रुओं की छाती अर लोहा कुट / ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ बजरंगबली / ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली / ॐ डॉलर, ॐ रूबल, ॐ पाउंड / ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड / ॐ ॐ ॐ / ॐ धरती, धरती, धरती, व्योम, व्योम, व्योम, व्योम / ॐ अष्टधातुओं के ईंटो के भट्टे / ॐ महामहिम, महमहो उल्लू के पट्ठे / ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा / ॐ इसी पेट के अन्दर समा जाय सर्वहारा /हरिः ॐ तत्सत, हरिः ॐ तत्सत
मन्त्र कविता का तो
सचमुच मन्त्र जैसा ही असर होता था | आज भी इसे पढ़ने पर ‘मैकबेथ’ के डायनों के
उबलते कडाहों की याद आने लगती है या
गिन्सबर्ग की ‘हाउल’ कविता का वातावरण उपस्थित हो जाता है | हिंदी की यह एकमात्र
कविता है जिसमें केवल ध्वनियों और बिम्बों के अद्भुत सम्मिश्रण से एक विशिष्ट
प्रभाव उत्पन्न किया जाता है जिसका मारक राजनीतिक असर होता है | भारतीय राजनीति की अराजकता, व्यर्थता और
हिंस्रता का इससे अच्छा कोई प्रतिबिम्बन संभव नहीं है | इसका शिल्प और स्थापत्य दोनों ही अनन्य है,
बेमिसाल हैं |
***
मुंगेर कॉलेज की
नौकरी के कारण साठ के दशक में पटना के साहित्यिक जीवन से थोड़ी दूरी हो गयी थी |
दशक के प्रारम्भ में ही (२१ जनवरी, १९६३ को) मेरे पिता का देहांत हो गया था (जिसका
अंग्रेजी में संस्मरण भी इसी ब्लॉग पर पहले डेखा जा सकता है ) और जिस कारण यह
दूरी और बढती गयी | इस बार शायद १९८०-८२ में, जब मैं ब्रिटिश कौंसिल के एक सेमिनार
में कलकत्ता गया था तब अचानक एक शाम चौरंगी में बाबा के दर्शन हुए | उन्होंने ही
पीछे से पीठ पर धप्पा दिया | मुड कर देखा तो वही खुले दांतों वाली वही हंसी, दाढ़ी
वाला वही चेहरा – बगल में झोला लटकाए नागार्जुन बाबा ! फिर हम वहीँ फुटपाथ पर चाय की एक दूकान पर रुक गए | बाबा को मैनें बताया कि मैं
एक सेमिनार में आया हूँ और २-४ दिन बाद लौटना है | बाबा ने तब अपने झोले से एक
किताब निकाली और मुझको दी | किताब थी – ‘द होली मैन ऑफ़ जमनिया’ – बाबा के उपन्यास
‘जमनिया का बाबा’ का अंग्रेजी में अनुवाद जो किसी रामदयाल मुंडा ने किया था और वह
अनुवाद कलकत्ता में राइटर्स वर्कशॉप से हाल में ही छपी थी | कलम निकल कर बाबा ने
उस पर मेरे नाम स्नेहपूर्ण भेंट लिखा और पुस्तक मेरे हाथ में दी | फिर तुरत मुझसे
२० रु. देने को कहा | रुपये मैंने दे दिए और पुस्तक को बहुत संजोकर रखा जो आजतक
मेरे संग्रह में है | कलकत्ते में ही मैं उसको पढ़ गया | बाद में शायद हिंदी वाली
वही मूल पुस्तक ‘इमरतिया’ नाम से प्रकाशित हुई |अंग्रेजी अनुवाद बहुत अच्छा नहीं था | एक कारण पुस्तक का उत्तर प्रदेश के पूर्वी सीमान्त का क्षेत्रीय परिवेश था | लेकिन
बाबा के उपन्यासों में उसकी चर्चा भी कम हुई है | उपन्यास की पृष्ठभूमि में किसान
आन्दोलन का प्रसंग था जो बाबा के संघर्षमय जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था |
बाबा से मेरी अंतिम
मुलाकात फिर कलकत्ते में ही संभवतः १९८४ में हुई | वहां के प्रसिद्ध कालीबाड़ी
मंदिर के पास ही एक गली में, जिसका नाम शायद ईश्वरचन्द्र लेन था, बाबा अपने किसी
परिचित मित्र के यहाँ ठहरे हुए थे | फोन से संपर्क होने पर उन्होंने मुझे वहां का
पता बताया और मिलने के लिए बुलाया | कालीबाड़ी मंदिर में दर्शन करने के बाद मैं
बाबा से मिलने पहुंचा | उन दिनों मैं अपने पिता के सम्पूर्ण साहित्य को ‘ शिवपूजन
सहाय साहित्य-समग्र’ के रूप में प्रकाशित करने के लिए सम्पादित कर रहा था, और उसी
क्रम में डायरियों के सम्पादन क्रम में वह प्रसंग पढ़ने को मिला था जिसकी चर्चा
प्रारम्भ में ऊपर हुई है | मैंने उसी की चर्चा बाबा से की और तब उन्होंने विस्तार
से उस पूरे प्रसंग पर प्रकाश डाला | उन्होंने बताया कि बाद में उनको पूरी बात का
पता चला था, और वे मेरे पिता से जाकर मिले भी थे | उन्होंने फिर बहुत सारे संस्मरण
सम्मलेन के विषय में और वहां के दूषित वातावरण के विषय में सुनाया | मेरे साथ मेरा
छात्र सुधीर गुप्ता भी था जिसने उस समय के कई चित्र खींचे थे | यह चित्र भी उन्हीं में से एक है | और शायद यह
एकमात्र चित्र बाबा से मेरे स्नेहमय अन्तरंग साहचर्य का एक प्रमाण मेरे पास बचा रह
गया है |
बाबा नागार्जुन
‘हमारे समय के बड़े कवि हैं’ – परमानंद श्रीवास्तव ने लिखा है | खगेन्द्र ठाकुर ने
लिखा है – ‘नागार्जुन की काव्य- वस्तु आधुनिक हिंदी कविता में जितनी विविधतापूर्ण
है, उतनी विविधता किसी अन्य कवि की कविता में नहीं है | छायावादी कवियों में केवल
निराला ऐसे हैं, और छायावाद के बाद अकेले नागार्जुन |’ नागार्जुन की कविता पर बड़ी
मात्रा में अच्छी समीक्षा लिखी गयी है | ‘आलोचना’ ने उनपर दो विशेषांक केन्द्रित
निकाले – १९८१ में और फिर २०११ में | एक
विशेषांक उन पर लखनऊ के ‘तद्भव’ का २०११ में निकला था | इस तरह की और सामग्री भी
नागार्जुन पर उपलब्ध है | उनकी काव्य-यात्रा की पर्याप्त विवेचना हुई है, जितनी
उनके उपन्यासों अथवा गद्य लेखन की नहीं हुई है | वे जनता के कवि रहे, नुक्कड़ों पर
कविता पढ़ी | उनका सबसे आकर्षक रूप था सर्व-साधारण का | उनकी वेशभूषा में आपको
हिंदी का शायद ही कोई उतना बड़ा कवि बस में या पैदल चलता मिलता | वे सर्व-सुलभ कवि
थे; एक आदर्श जन-कवि थे - राजनीतिक, प्रतिबद्ध और बहुत आगे बढ़ कर ‘विचारधारा की
धज्जियाँ उड़ाने वाले’ ! ग्रामीण-चेतना और भारतीय मनीषा से उसी हद तक जुड़े हुए | एक
शब्द में – सर्वथा अद्वितीय !
नागार्जुन का लिखा
बहुत कुछ आप नेट पर kavitakosh.org और gadyakosh.org पर पढ़ सकते हैं |
आज के हिंदी लेखन के और भी अच्छे-अच्छे ब्लॉग हैं – samaalochan.blogspot.com,
janakipul.blogspot.com तथा अभी के लेखकों के और भी ब्लॉग हैं जिन पर आपको अच्छा साहित्य और अच्छी
साहित्य चर्चा पढ़ने को मिल रही है |
शिवपूजन सहाय के ‘साहित्य-समग्र’ के १० खंड पूरे का पूरा आप www.ajaynarayan.com पर पढ़ सकते हैं | मेरे दो ब्लोगों – vibhutimurty,blogspot.com तथा vagishwari.blogspot.com पर भी आपको शिवपूजन सहाय और उनके समकालीनों के विषय में बहुत कुछ पढने को मिल सकता है | हिंदी के जो लोग कविता-प्रेमी हैं, कवितायें लिखने लगे हैं, हिंदी साहित्य को पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए अब नेट पर बहुत कुछ सुलभ है | हिंदी के नए और पुराने लेखकों को नए सिरे से पढ़ने का समय अब आ गया है, जब साहित्य आपके लिए नेट पर प्रचुर मात्रा में निःशुल्क सुलभ है !
1 comment:
Baba Nagarjun ko pehli baar padha hai.Anda aur Matra dono hi sahaj,saral aur adbhut lage.yuh hi registaan ko sinchit karte rahen
.
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