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Friday, November 13, 2015

द्विवेदी-स्मरण-प्रसंग : ३
‘नव-परिणीता का पत्र’

डॉ. मंगलमूर्ति

आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी का एक लेख है ‘आत्मकथा’ जिसमें संक्षेप में उन्होंने  अपनी जीवन-गाथा लिखी है| इस लेख को शिवपूजन सहाय ने ‘गद्य-कलश’ नामक अपने एक संकलन में संग्रीहीत किया है जो १९६२ में प्रकाशित हुआ था| लेख के प्रारम्भ में द्विवेदीजी ने ‘आचार्यत्व’ की अपनी लोकार्पित उपाधि को किंचित संकोच के साथ किन्तु विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया है| थोडा व्यंग-विनोद का स्वर भी है – देहात तक में माता-पिता और गुरुजन अपने लूले-लंगड़े, काने-अंधे,जन्मरोगी  और महाकुरूप लड़कों का नाम श्यामसुंदर, मनमोहन, चारुचंद्र और नयनसुख रखते हैं| लेकिन हिंदी संसार की कृपा और प्रेम के प्रसाद के रूप में वे इस पदवी को शिरोधार्य कर लेते हैं| वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जीवन के बाल्यकाल में अपने ज्ञान और प्रतिभा से स्वाभिभूत होकर उनमें थोडा अहंकार भी उपजा था –

जब मुझमें ज्ञान की कुछ यों हीं जरा-सी झलक थी तब मैं मदांध हाथी-सा हो रहा था – तब मुझमें अहंकार की मात्रा इतनी अधिक थी कि मैं अपने को सर्वग्य समझता था , परन्तु किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से जब मुझे कुछ विज्ञ विद्वानों की संगति नसीब हुई और जब मैनें प्राकृत पंडितों की कुछ पुस्तकों का मनन किया, तब मेरी आँखें खुल गयीं, तब मेरा सारा अहंकार चूर्ण हो गया| उस समय  मुझे ज्ञात हुआ कि मैं तो महामूर्ख हूं |

फिर वे कहते हैं कि इसी मिथ्या अहंकार के कारण मैनें आजतक आमंत्रित होने पर भी, साहित्य-सम्मलेन के सभापति-पद को स्वीकार नहीं किया”| अपने  इस आत्मकथ्य के विषय में भी कहते हैं कि यह कार्य भी संकोचपूर्वक कृपालु हितैषियों के बार-बार आग्रह पर ही किया है| और इसके बाद वे संक्षेप में अपना जीवन-वृत्त सुनाते हैं|

द्विवेदीजी के जीवन के रेखाचित्र से उनको जाननेवाले सुपरिचित हैं.| रेलवे की २०० रु. की अच्छी पगार वाली, आरामदेह नौकरी को स्वाभिमान में त्याग कर १९०३ में द्विवेदीजी ने ‘सरस्वती’ साहित्य-पत्रिका का सम्पादन-पद २५ रु. की तनखाह पर स्वीकार कर लिया था और १९२२ तक निष्ठापूर्वक अपने सम्पादन-कर्म में प्रवृत्त रहे | उनके मौलिक सृजन-लेखन और सम्पादन-कर्म का विस्तृत अनुशीलन शिवपूजन सहाय ने अपने कई लेखों-सम्पादकीय टिप्पणियों में किया है जिन्हें ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ के विभिन्न प्रकाशित खण्डों में देखा जा सकता है| वहीं सहायजी को लिखे द्विवेदीजी के १६ पत्र भी पढ़े जा सकते हैं जिससे उन दोनों साहित्य-महारथियों के बीच की अंतरंगता का पता चलता है|

‘सरस्वती’ का सम्पादन प्रारम्भ करने के समय, १९०३ में, द्विवेदीजी की उम्र लगभग ४० साल की हो रही थी और उनका बहुत सारा सृजन-लेखन तब तक हो चुका था. उनका विस्तृत ज्ञानार्जन भी पर्याप्त परिपक्व हो चुका था | हिंदी और अंग्रेजी के अलावा  संस्कृत, फारसी, मराठी, गुजराती, बंगला आदि भाषाओँ पर भी उनका अधिकार हो गया था| वे लगभग अपने जीवन के मध्य-काल से गुज़र रहे थे| फिर आगे ‘सरस्वती’ के सम्पादन-क्रम में तो सम्पूर्ण हिंदी-जगत सहज ही उनके प्रभा-मंडल के अंतर्गत आ गया और हिंदी-नवजागरण का वह समय राष्ट्रीय-जागरण के समानांतर द्विवेदीजी के साहित्यिक-नेतृत्व में ऐसे उत्कर्ष को छूने लगा कि उस पूरे युग को जैसे हम राजनीति में गाँधी के नाम के साथ जोड़ते हैं वैसे ही उसे हम हिंदी साहित्य में ‘द्विवेदी-युग’ के नाम से जानने लगे हैं |
 
‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ के लेखों-संस्मरणों में द्विवेदीजी की कृतियों की एक पूर्ण तथा प्रामाणिक सूची छपी है जिनमें अधिकाँश कृतियाँ तो सुज्ञात हैं| साहित्य से इतर विषय पर उनकी मौलिक और बड़ी पुस्तक ‘सम्पत्तिशास्त्र’ है, और वह न तो अनुवाद है और न स्पष्टतः  किसी अन्य भाषा की किसी पुस्तक पर आधारित है| मौलिक लेखन और भी द्विवेदीजी ने पर्याप्त किया और अनुवाद कार्य भी प्रचुर मात्र में किया | लेकिन उस ज़माने में हिंदी का लेखक केवल पुस्तक-लेखन से जीविकोपार्जन नहीं कर सकता था और शायद आज भी नहीं कर सकता| प्रेमचंद इतने सफल लेखक थे फिर भी उनको बनारस में ‘सरस्वती’-प्रेस चलाना ही पड़ा था और फिर भी आर्थिक कठिनाईयां उनके जीवन में बनी ही रहीं| केवल साहित्य-सृजन से जीविकोपार्जन दुर्भाग्यवश आज भी संभव नहीं दीखता|

द्विवेदीजी के मित्रों ने उनसे कहा कि कुछ ऐसी चीज़ें लिखो – कामकला , रति-रहस्य, अनंग-रंग - जिनसे तुम्हे आर्थिक लाभ हो, द्रव्य-प्राप्ति हो| द्विवेदीजी ‘आत्मकथा’ में ही लिखते हैं -

बहुत दिनों तक चित्त चलायमान रहा| अंत में जीत मेरे मित्रों ही की रही|...कवि  तो मैं था ही, मैनें चार-चार चरण वाले लम्बे-लम्बे छंदों में एक पद्यात्मक पुस्तक लिख डाली – ऐसी पुस्तक जिसके प्रत्येक पद्य से रस की नदी नहीं तो बरसाती नाला ज़रूर बह रहा था|...मैं तीस-चालीस साल पहले की बात कह रहा हूँ| नाम भी मैंने ऐसा चुना...अपने बूढ़े मुहं के भीतर धसी हुई ज़बान से...उस नाम का उल्लेख करते मुझे बड़ी लज्जा मालूम होगी| पर पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए...शुद्ध ह्रदय से उसका निर्देश करना ही होगा...उसका नाम था या है – सोहागरात| मेरे मित्रों ने इस पुस्तक को बहुत पसंद किया, उसे बहुत सरस पाया...मेरी पीठ खूब ठोंकी|...

लेकिन उस किताब को प्रकाशित कराने और उससे अपार धनराशि अर्जित करने का उनका  स्वप्न बेरहमी से छिन्न-भिन्न हो गया|

मेरे हवाई महल एक पल में ढह पड़े| मेरी पत्नी कुछ पढ़ी-लिखी थी|...उसने यह पुस्तक देख ली| देखा ही नहीं,उलट-पलट कर उसने पढ़ा भी| फिर क्या था उसके शरीर में कराला काली का आवेश हो आया|...उसने उन दोनों पुस्तकों की कापियों को आजन्म कारावास या काले पानी की सजा दे दी| वे उसके संदूक में बंद हो गयीं| उसके मरने पर ही उनका छुटकारा...हुआ| छूटने पर मैंने उन्हें एकांत-सेवन की आज्ञा दे दी है| क्योंकि सती की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति मुझमें नहीं|.
..
द्विवेदीजी ने अंततः ‘सती की आज्ञा’ का उल्लंघन नहीं किया| और आज भी उस ४९ छंदों वाली लम्बी कविता को प्रकाशित करना देवी की उसी आज्ञा का उल्लंघन करना होगा| लेकिन उसके स्वरुप की एक संक्षिप्त झलक आज उस कविता की रचना के लगभग ११२ वर्ष बाद हिंदी संसार के सम्मुख देखी जा सकती है| और उस कविता से इन पंक्तियों के लेखक का साक्षात्कार कैसे हुआ इसकी रोचक कथा पहली बार कही जा सकती है| मेरे पिता - जिन्हें भी ‘आचार्य’ की लोक-उपाधि सहज ही प्राप्त हुई थी और जिसके प्रति उनके मन में भी एक अनिच्छा बराबर रही – आचार्य शिवपूजन सहाय भी हिंदी के एक महत्वपूर्ण लेखक हुए जिन्होंने द्विवेदीजी के मार्ग पर चलते हुए हिंदी पत्रकारिता और सम्पादन-कला को बहुत समृद्धि प्रदान की| उनको लिखे द्विवेदीजी के और - जो बाद में ‘सरस्वती’ के संपादक हुए - श्री देवीदत्त शुक्ल के, पत्र स्वयं इसके प्रमाण हैं, क्योंकि शिवजी प्रारंभ से ही ‘सरस्वती’ में नियमित लिखते रहे जिसकी चर्चा उन दर्जनों पत्रों में है|

 द्विवेदीजी का पहला पत्र शिवजी के नाम से जुही (कानपुर) से लिखा १२.१२.१९१० का है| शिवपूजन सहाय तब आरा (बिहार) में स्कूली छात्र थे और साहित्य-लेखन में प्रवेश ही कर रहे थे| द्विवेदीजी से शिवजी का साहित्यिक संपर्क उन्हीं दिनों से बन गया जो अंत तक निभा| यह एक अलग प्रसंग है जिसकी चर्चा अन्यत्र होगी कि कैसे सबसे पहले शिवपूजन सहाय ने बनारस में ‘जागरण’ पत्रिका का संपादन करते हुए १९३२ में नागरी प्रचारिणी सभा को द्विवेदीजी के सम्मान में उनके सत्तरवें वर्ष-प्रवेश के अवसर पर उनको एक ‘अभिनन्दन ग्रन्थ’ भेंट करने का प्रस्ताव किया और फिर ३-४ महीने बनारस- इलाहाबाद आना-जाना करते हुए उस सुन्दर ग्रन्थ का संपादन किया| और फिर  उसके कुछ ही दिन बाद शिवजी पुस्तक भंडार की संपादन-सेवा में बनारस से दरभंगा चले गए जहाँ से भी उनकी सम्पादकीय देख-रेख में द्विवेदी जी की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं | वहीं रहते हुए शिवजी का संपर्क मिथिला के पं. जनार्दन झा ‘जनसीदन’ से हुआ जो द्विवेदीजी के पुराने अन्तरंग मित्र थे|

जनसीदनजी पूर्णियां (बिहार) के राजा कमलानंद सिंह के साहित्य-सचिव के रूप में कार्य-रत थे और उनके प्रयास से ही जब ‘सरस्वती’ की सदस्य-संख्या गिरने लगी थी और वह घाटे के कारण बंद होने की स्थिति में आ गयी थी तो राजा साहब ने अपने राज्य के अनेक स्कूलों आदि को उसका ग्राहक बना कर उसकी आर्थिक सहायता की थी| जनसीदनजी के ही प्रयास से द्विवेदीजी राजा साहब के घनिष्ठ संपर्क में आये थे, और राजा साहब ने द्विवेदीजी को अनेक प्रकार से आर्थिक सहायता देने का सफल प्रयास किया था| जनसीदनजी के द्विवेदीजी को लिखे पत्रों में इन बातों की चर्चा है| और वहीँ द्विवेदीजी की इस कविता ‘सोहागरात’ की भी चर्चा है| द्विवेदीजी ने मार्च, १९०३ के आस-पास वह कविता ‘राजा साहब को गुप्त रीति से भेजी थी’ लेकिन उससे आह्लादित होने के बजाय राजा साहब कुछ अप्रसन्न हो गए और द्विवेदीजी को एक कड़ी चिट्ठी भेज दी| जनसीदनजी ने लिखा है कि ‘वह कविता अभी तक अविकल रूप में मेरे पास सुरक्षित है’| मित्र-भाव से शिवजी ने उस कविता की एक नक़ल अपनी एक नोटबुक में रख ली थी जो उनके संग्रह में थी| वहीँ टिप्पणी में शिवजी ने लिखा –

ऊपर लिखी हुई कविता, जिसमें उनचास पद्य हैं, सरस्वती-संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना है| इसे उन्होंने श्रीनगर (पूर्णिया) के राजा कमलानंद सिंह ‘साहित्यसरोज’ के पास भेजा था | दरबार के कवि और सभापंडित श्रीजनार्दन झा ‘जनसीदन’ ने कविता की नक़ल रख ली थी| उसी से मैनें नक़ल की है| जनसीदनजी  के सुपुत्र प्रो. हरिमोहन झा द्वारा वह पुरानी कापी मिली, जिसमें यह कविता कापी की गयी थी| -  शिवपूजन सहाय, पुस्तक-भण्डार (२८.६.४०)|

इस कविता की कहानी में एक और मोड़ तब आता है जब अगस्त, १९७३ में एक दिन – उन दिनों मैं मुंगेर (बिहार) में एक कॉलेज में अंग्रेजी का प्राध्यापक था – मैं अपने एक मित्र, जो मुंगेर में तब एस.डी.ओ. थे, उनके दफ्तर में बैठा था| अचानक मुस्कुराते हुए उन्होंने दराज से निकाल कर चुपचाप एक छोटी सी नोटबुक मुझे दी जिसमें एक अंग्रेजी कविता टाइप की हुई थी| शीर्षक था – Lord Byron’s “A Bride’s Confession”| घर आकर मैंने द्विवेदीजी वाली कविता की नक़ल से उस टाइप की हुई अंग्रेजी कविता को मिलाया तो स्पष्ट हो गया कि यही मूल कविता थी जिससे द्विवेदीजी ने यह अनुवाद किया था| फिर मैंने कॉलेज लाइब्रेरी से बायरन के Collected Poems  में उस अंग्रेजी कविता को ध्यान से खोजा, पर उसमे यह कविता नहीं थी| तब जनसीदनजी के सुपुत्र और मेरे शिक्षक प्रो.हरिमोहन झा जीवित थे| मैंने उनको पत्र लिखा और उन्होंने संपुष्टि की कि यह बायरन की कविता का ही अनुवाद है| इधर गूगल पर खोजने पर भी इसकी पुष्टि हो गयी| वहां The Cambridge Bibliography of English Literature Vol 3 में पे.२०६ पर बायरन की कविताओं में The Bride’s Confession’,  Paris, 1916 (Privately Printed) का स्पष्ट उल्लेख है| इस कविता की ४८ पृष्ठों की केवल ५०० प्रतियां ही छपी थीं जो अब अत्यंत दुर्लभ हैं| (यही कविता 'The Bridal Night' शीर्षक से भी  १९१६ में पेरिस से प्रकाशित हुई थी|)

अंग्रेजी मूल कविता ‘The Bride’s Confession’ में १२ अनुच्छेद हैं और कुल ३२६ पंक्तियाँ हैं| प्रत्येक अनुच्छेद में अलग-अलग संख्या में अंग्रेजी छंद के कुछ २-२ पंक्तियोंके सम-तुकांत  ‘कप्लेट’ या पद हैं| नमूने के तौर पर पहले अनुच्छेद के पहले कुछ ‘कप्लेट’ और तीसरे अनुच्छेद के कुछ ‘कप्लेट’ इस प्रकार हैं, और उनके नीचे उनका द्विवेदीजी का किया अनुवाद है|

Dear Bella,
When you parted you begged me to write
And to inform you of all that occurred the first night
When Frank and your Emma were joined hand to hand
And free to enjoy all that love can command…. (Part 1)

And now we are on the tip-toe of great expectation
To arrive at the peak of my tale’s consummation.
Well, attend, and I will draw the curtain aside
And reveal all the sports of a bridegroom and bride
Detailing the whole of the process of bewitching
By which the girls are cured of troublesome itching…(Part 3)

द्विवेदीजी ने इन पंक्तियों का अनुवाद ‘रोला’ छंद में इस प्रकार किया है –
बिदा हुई उस दिन मैं तुमसे जब हे कलावती प्यारी,
तुमने कहा, भेजना लिख कर बात प्रथम निशि की सारी|
वही आज यह सखी तिहारी लिखने को ललचाती है;
बार-बार आनंद-सिन्धु में गोते खूब लगाती है|...

मेरी रुचिर कथा सुनने को तुम भी अकुलाती होगी;
देरी देख-देखकर, मुझको दोषी ठहराती होगी |
इस कारण लज्जा का पर्दा अब मैं शीघ्र हटाती हूँ,
पति-पत्नी के प्रथम समागम की सब बात सुनाती हूँ|...    

द्विवेदीजी ने ३२६ पंक्तियों का अनुवाद ४-४ पंक्तियों के ४९ छंदों में, अर्थात १९६ पंक्तियों में किया है, जिससे कविता की लम्बाई लगभग आधी हो गयी है और उसका घनत्व बढ़ गया है| यह शायद उस देवी ‘सती की आज्ञा’ के अनुरूप ही है कि पूरी की पूरी दोनों ही (हिंदी और अंग्रेजी) कवितायेँ आज भी अनुपलब्ध ही हैं| और उसी देवी ‘सती’ की इच्छा के अनुकूल उन दोनों ही कविताओं का सार्वजनिक प्रकाशन आज भी प्रतिबंधित है| लेकिन द्विवेदीजी के उस ऐतिहासिक महत्त्व के काव्यानुवाद की पार्श्व-कथा से परिचय मात्र भी आज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है| और यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि सामाजिक नैतिकता और मानव जीवनादर्शों के कठोर प्रतिपोषक द्विवेदीजी ने – जिनकी अंग्रेजी रोमांटिक कवि बायरन से किसी अर्थ में तुलना नहीं की जा सकती – अपने जीवन के प्रारंभिक काल में मित्रों की सलाह पर काव्याभ्यास के रूप में एक ऐसी कविता का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने का साहस दिखाया जिसके मूल अंग्रेजी-रूप की प्रामाणिकता पर आज भी सहज विश्वास करना कठिन लगता है | यह भी स्मरणीय है कि उसी लेख ‘आत्मकथा’ में द्विवेदीजी ने लिखा है –

झाँसी आने पर जब मैनें पंडितों की कृपा से, प्राकृत कवियों के काव्यों का अनुशीलन किया, तब मुझे (काव्य-रचना की) अपनी भूल मालूम हो गयी और छंदोबद्ध प्रलापों के जाल से मैंने सदा के लिए छुट्टी ले ली| पर गद्य में कुछ-न-कुछ लिखना जारी रक्खा | संस्कृत और अंग्रेजी पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी मैंने किये|

स्पष्ट है कि इस रचना के पीछे मित्रों का प्रोत्साहन एवं काव्याभ्यास की दृष्टि से अनुवाद-कर्म, दोनों ही प्रेरक कारण रहे| राजा कमलानंद को इसकी गुप्त प्रति भेजने के पीछे एक विलास-प्रेमी राजा को प्रसन्न करने की मंशा ही रही होगी| साहित्य-प्रेमी राजा द्वारा इस रचना पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया एवं पत्नी द्वारा ऐसे रचना-कर्म की निंदा द्विवेदीजी के लिए गहरे पश्चाताप का कारण बनी होंगी | साहित्य में मर्यादा एवं श्लीलता की लक्ष्मण-रेखा का असमंजसपूर्ण अतिक्रमण ही इस रचना के प्रतिबंधन और एक समर्पित साहित्य-सेवी के आजीवन संकोच का कारण बनी, और इस तरह एक महत्वपूर्ण रचना गुमनामी के बक्से में बंद पडी रह गयी|

प्रत्येक रचनाकार अपने प्रारंभिक रचना-कर्म में बहुविध अभ्यास के क्रम में बहुत सारा ऐसा उत्पाद तैयार करता है जो एक प्रकार से उसका आनुषांगिक उत्पाद होता है, और जो कभी प्रकाश में नहीं आ पाता है, अथवा बहुलांशतः तो रचनाकार द्वारा ही नष्ट कर दिया जाता है| लेकिन किसी रचनाकार के रचना-संसार का  उसकी समग्रता में अनुशीलन करने के लिए इस तरह की आनुषांगिक सामग्री का भी बहुत महत्व होता है, इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता |

©  डा. मंगलमूर्ति
                             
Mob. O7752922938
   

http://samalochan.blogspot.in/2015/11/blog-post_5.html  पर पढ़ें - सबद भेद: ‘द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ’: एक पूरक टिप्पणी|

परिशिष्ट

श्रृंगार-रस की कविता
अनुवादक : शिवपूजन सहाय

[श्रृंगार-रस की यह कविता यहाँ पहली बार इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो रही है| शिवजी की डायरियों और नोटबुकों में इस तरह की छिट-फुट रचनाएं मिलती हैं जो समय-समय पर लिखी गयीं और स्पष्ट कारणों से अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुई हैं| काव्याभ्यास अथवा मनोविनोद के लिए किसी व्याज से लिखित ऐसी रचनाओं का भी लेखक के सृजन-मनोविज्ञान को समझने के लिए अथवा उन विशिष्ट परिस्थितियों को जानने के लिए जिनमें ऐसी रचनाएं सृजित हुईं, अपना निश्चित महत्व है| कविता के नीचे शिवजी की पाद-टिप्पणी भी अंकित है| यहाँ कविता की छाया-प्रति प्रकाशित की जा रही है| (इंगित राजदरबारी कवि थे श्री गौरीनाथ झा जो ‘गंगा’ के सह-सम्पादक थे)
    
‘गंगा’-कार्यालय (सुल्तानगंज, भागलपुर) में रहते समय (१९३१ में) एक उच्च राजदरबारी की मैथिली कविता का हिंदी रूपांतर उन्हीं की आज्ञा से प्रस्तुत किया था| उनकी मूल कविता के सारे भाव इसमें आ गए हैं| उनको प्रसन्नता हुई| मुझे ग्लानि हुई| नौकरी में रहकर स्वाभिमान या स्वतंत्रता कहाँ?


































[इस रचना का पूर्ण स्वत्त्वाधिकार ‘आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक न्यास’ में सुरक्षित है और इसका किसी भी रूप में अन्यत्र प्रकाशन पूर्णतः वर्जित है|] 
  

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