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Tuesday, June 16, 2015

कीट्स के दो ‘ओड’

मंगलमूर्ति  

अंग्रेजी के रोमांटिक कवि जॉन कीट्स के दो गीत (ओड) – ‘टू ऑटम’ और ‘टू ए नाइटिंगेल’ बहुत प्रसिद्द हैं.यहाँ प्रस्तुत हैं उनके अनुवाद, उनके विषय में थोड़ी चर्चा और कुछ चित्र. सामान्यतः पाठ्यक्रमों में पढाये जाने के कारण कविता के प्रति एक अरुचि का भाव रूढ़ हो जाता है.वहीँ अच्छे शिक्षक कुछ छात्रों के ह्रित-पटल पर  उनकी अमित छाप छोड़ देते हैं. ऐसी श्रेष्ठ रचनाओं का अपना एक जीवन, अपनी एक कहानी भी होती है जो उनकी रोचकता को बढ़ा देती है.

कीट्स का जीवन कुल पच्चीस वर्षों का रहा – संघर्ष, अभाव, अवमानना और अवसाद से भरा एक तपेदिक-ग्रस्त जीवन.१९ वीं सदी के प्रारंभ में लंदन के निकट हैम्पस्टेड के  एक ग्रामीण इलाके में एक मकान में वह रहता था जहां बगल में रहने वाली एक लड़की – फैनी ब्राउन से उसे प्यार हुआ. वहीँ १८१९ की ग्रीष्म-ऋतु में कीट्स ने कई ‘ओड’ लिखे जिनमें ‘टू ऑटम’१९ सितम्बर, १८१९ को लिखा गया जब कीट्स पास की ‘इचेन’ नदी और उसके पास के खेतों में टहल कर वापस आया था. वहाँ खेतों में कटनी हो चुकी थी’ और शाम में वह अपने मानस में वहां से बहुत-सारे चित्रों को संजो कर लौटा जिन्हें उसने इस कविता में सजाया है. 

कीट्स ने 'नाइटिंगेल’ ओड की रचना की थी सुबह अपने ही गार्डन में एक झडबेरी के पेड़ के नीचे बैठे-बैठे. ये वही दिन थे जब आलोचक उसकी प्रकाशित रचनाओं की निंदा में लगे थे, वह फैनी के प्रेम में आकंठ डूबा हुआ था, और भयंकर अभाव की स्थिति में उसका तपेदिक रोग उसको तेजी से ग्रसता जा रहा था. शीत-ऋतु में तपेदिक के प्रकोप से बचने के लिए वह अपने चित्रकार मित्र जोसेफ सेवर्न के साथ सितम्बर. १८२० में इटली गया लेकिन तब तक रोग असाध्य हो चुका था और २३ फ़रवरी, १८२१ की मध्य-रात्रि से कुछ पहले सेवर्न की बाहों में ही उसकी सांस टूट गई. वहीँ रोम में ही उसे दफनाया गया और उसीकी लिखी पंक्ति उसके कब्र के पत्थर पर अंकित हुई – ‘ यहीं सोया है वह जिसका नाम पानी पर लिखा है’.

कीट्स के इन दोनों गीतों पर उसकी प्रत्याशित मृत्यु की छाया फैली है. कीट्स की कुछ कविताओं का अनुवाद श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने किया था जब १९४२ के स्वाधीनता-आन्दोलन में वे जयप्रकाश के साथ हजारीबाग जेल में सजायाफ्ता थे. बेनीपुरीजी ने वहीँ ‘माटी की मूरतें’ और ‘अम्बपाली’ की रचना के साथ बहुत सारा अनुवाद-कार्य भी किया था जिनमें कीट्स के कई ओड्स भी थे. ‘बुलबुल गीत’ उन्हीं में से एक है. जब वे जेल से छूटे तब शिवपूजन सहाय के साथ उनके सम्पादन में पटने से ‘हिमालय’ निकला जिसमें उनकी नव-रचित कृतियों के साथ कविताओं के कुछ अनुवाद भी प्रकाशित हुए. कीट्स का यह अनुवादित ‘बुलबुल गीत’ भी पहली बार वहीँ प्रकाशित हुआ था. यहाँ भी यह पहली बार साभार प्रस्तुत है.                 

बुलबुल गीत

मेरे दिल में दर्द पैदा हो रहा है,
और एक ऊंघ-भरी बेहोशी बेरहमी से
दबोच रही है मेरी चेतना को,
मानो मैंने ज़हर की बूटी छान ली हो,
या बोदे अफीम की प्याली छक ली हो
तलछट तक एक क्षण पहले,
और भूल-भुलैया के भंवर में डूब चुका होऊं.
तेरी खुशकिस्मती पर डाह के चलते ऐसा नहीं हो रहा,
बल्कि तेरी ख़ुशी पर हद से ज्यादा खुश होने के सबब –
कि तू ओ पेड़ों की हलके परों वाली देवी!
किसी संगीतमयी भूमि में, जहां चीड की हरियाली है
और सायों की कोई गिनती नहीं –
ग्रीष्म का गीत गा रही है खुले कंठ से
इत्मीनान के साथ !

आह, एक घूँट अंगूरी! जो की गई होती ठंढी
ज़मीन के नीचे, तहखाने में, एक लम्बे अरसे तक,
जिनमें स्वाद होता फूलों का,
देहात की हरियाली का, नृत्य का, गीत का,
धूप खाई खुशियालियों का!
आह, एक प्याली!
दक्षिण की मस्ती से लबालब भरी,
और भरी हुई सच्ची शर्मीली कविता-सुधा से,
जिससे उछल कर गिरने को
बिल्लौरी दाने-से बुलबुले कसमस कर रहे हों,
और जिसके मुंह पर गुलाबी सुर्खी दमक रही हो;
मैं उसे पीता, और इस संसार को
अनदेखे ही छोड़ देता, और तेरे साथ
विलीन हो जाता इस धुंधले जंगल में:
विलीन हो जाता सुदूर में, घुल-मिल जाता,
और बिलकुल ही भूल जाता उन चीज़ों को
जिन्हें तूनें इस झुरमुट में कभी देखा नहीं –
थकावट, बुखार, झुंझलाहट – वहां जहाँ आदमी
बैठ कर सुनता है एक दूसरे  की कराह;
जहां लकवा झकझोर कर गिरा देता है
बचे-खुचे उदास आखिरी पके बालों को,
जहाँ जवानी पीली पड़ जाती,
कंकाल बन जाती, अरे चल बसती है;
जहां सोचने के मानी हैं शोक में गर्क होना,
और निराशा में आँखों को बोझिल कर लेना,
जहां खूबसूरती अपनी आँखों का जादू बचा नहीं पाती,
और न रख पाता है नया प्रेम
अगले कल के बाद कोई आकांक्षा.

दूर, सुदूर – क्योंकि मैं उड़ कर आ रहा हूँ  तेरे पास,
शऱाब के देवता के चीते-जुते रथ पर चढ़ कर नहीं,
बल्कि कविता देवी के अलक्षित पंखों पर चढ़कर –
यद्यपि धुंधला दिमाग उलझन में डालता और गति रोकता है:

अरी, अब तो मैं तेरे साथ हूँ !
रात कितनी कोमल है,
और चाँद-रानी बैठी है अपने सिंहासन पर,
चारों ओर से उन्हें घेरे हुई हैं उनकी तारा-परियां;
लेकिन यहाँ तो रोशनी नहीं है, सिवा उसके
जो हवा के झोंके के साथ स्वर्ग से आती है,
हरी-हरी पत्तियों से छन कर,
और काई-भरी राहों से भूलती-भटकती.

मैं देख नहीं सकता कि कौन से फूल हैं मेरे पैरों के नीचे,
या कौन-सी मुलायम सुगंधें कुंजों के ऊपर छाई हैं.
लेकिन इस खुशबू-बसी अंधियाली में भी
अंदाजा लगा सकता हूँ एक-एक सुगंध का,
जिससे ऋतुराज वसंत भूषित करता है –
घास को, झाडी को, जंगली फल के पेड़ों को;
यह जूही, यह जंगली चमेली,
यह तुरत झड पड़ने वाली मौलश्री पत्तों में छिपी,
और वसंत की बड़ी बेटी यह मुश्की गुलाब –
शबनम की शराब से लबालब –
गुनगुना रहे हैं भौंरे जिन पर ग्रीष्म की संध्या में,
इस धुंधलके में मैं सुन रहा हूँ उनकी गुनगुन;
और कितनी ही बार मैंने की है
आधी मुहब्बत आराम-भरी मौत से,
उसे पुकारा है कोमल नामों से कितनी ही संगीतमयी पंक्तियों में,
की वह मिला दे हवा में मेरी शांत सांस को;
लेकिन इस समय मरना पहले से कहीं अधिक आनंदमय है,
समाप्त हो जाना आधी रात की गोद में बिना पीड़ा के
जबकि तू रूह उढेल रही है दूर पर
इस स्वर्गीय आनंद में मगन होकर!

अरी, उस समय भी तू गाती होगी और मेरे कान बेकार होंगे-
तेरे उच्च मृत्यु-संगीत के लिए वे मिटटी बन चुके होंगे.
किन्तु, तू मौत के लिए नहीं पैदा हुई थी ओ अमर चिड़िया!
कोई भी भुक्खड़ खानदान तुझ पर दांत नहीं गडाता;
जो आवाज़ मैं सुन रहा हूँ उस उतरती रात में
वह सुनी गई थी पुराने युग में सम्राटों और भिखारियों द्वारा:
शायद इसी गीत ने पाई थी राह
रूपकथा की उस परित्यक्ता के उदास ह्रदय में
जब अपनी जन्मभूमि के लिए बेचैन वह खड़ी थी
विदेश के खेतों में आँखों में आंसू लिए;
शायद यह वही गीत है जिसने प्रायः ही खोला था
जादू की खिडकियों को मन्त्र पढ़ कर,
भयंकर समुद्र की फेनिल तरंगों पर,
परियों के परित्यक्त देश में!

परित्यक्त!
यह एक शब्द जैसे मौत का घंटा!
जिसने मुझे पीछे धकेल दिया, तुझसे दूर, अपने एकाकीपन में!
विदा! कल्पना उतना धोखा नहीं दे सकती
जितना की उसे मशहूर किया गया है –
ओ भूलभुलैया की देवी! विदा! विदा!
तेरी करुण काकली धीमी पड़ रही है –
वह गई नज़दीक के मैदान के उस पार,
उस मौन झरने के पास
वहां पहाड़ की बगल में,
और अब डूबी जा रही है उस अगली तलहटी में!

क्या यह कल्पना थी?
या जागता सपना?
अरे, वह संगीत भाग चुका:
मैं जगा हूँ या सोया?               
* * *         

और बेनीपुरीजी के इसी अनुवाद से प्रेरणा पाकर मैंने १९७४ में कीट्स के इस अंतिम ओड ‘टू ऑटम’ का अनुवाद किया. यहाँ चित्रों में कीट्स का उसके मित्र का बनाया स्केच, ‘टू ऑटम’ की पाण्डुलिपि का चित्र, विंचेस्टर गाँव का वह इलाका जहां का वर्णन कविता में है, हैम्पस्टेड का वह मकान जिसमे वह रहता था, और उसकी कब्र का वह पत्थर – सब देखे जा सकते हैं.   

पतझड़ गीत

कुहराए कुहराए ओ मौसम !
घुलते-मदमाते फलों के मौसम !
अंकशायी सखा तुम उगते-उभरते सूरज के,
चोरी-चुपके घुले-मिले उससे
छतों की फूस पर लतराये अंगूर-बेल को
रस-भरे फलों से गदराते-असीसते,
काई-लगे सेव-पेड़ों को भार से नवाते,
अंतर तक हर फल को रस से पूरते,
कदुए को फुलाते, हेज़ल-फलियों को
भीतर तक मधु-रस से पागते,
ग्रीष्म के फूलों को अब भी
ढेर के ढेर चटकाते, इतने
कि मधुमक्खियाँ – जिनके
मधु-सने खोंतों से
ग्रीष्म का मधु ढरकने लगा है –
शायद इस मीठे भ्रम में फंस गई हैं
कि गर्मी के सुखद दिन कभी नहीं बीतने वाले !

किसने नहीं देखा तुम्हें फसलों के ढेरों से घिरे,
जिसने भी ताका-झाँका है, पाया है तुम्हें
खुले खलिहानों में अलसाए बैठे
जब ओसवाती हवा के झोंके
तुम्हारे लहराते लटों से हल्के-हल्के खेल जाते हैं.
या अधकटी क्यारियों पर बेसुध सोये
अहिपुष्पों के गंध से मदहोश
जबकि तुम्हारे हंसिये से अनकटी छूट जाती हैं
अझुराए फूलों वाली कई-कई क्यारियाँ.
और कभी तुम्हे देखा है
कटनी वाला बोझा सिर पर उठाये
संभल कर पार करते किसी नाले को.
या कभी सेव कसने वाली मशीन के पास
चुपचाप, एकटक ताकते-देखते
सेव-रस की आखिरी-आखिरी गिरती बूंदें.

कहाँ गए वे गीत वसंत के ? कहाँ गए वे ?
भूल जाओ उन्हें तुम, सोचो अपने संगीत की –
जब बादलों की पंक्तियाँ साँस तोड़ते दिन
के रंगों में अपने को भिंगो रही हैं,
और कटे-कटे खेतों की खूंटियां तक
एक गुलाबी आभा से रंग-रंग गई हैं;
तब नदी किनारे नरकट-झुरमुट में
कीड़े-मकोड़ों का एक उदास-सा संगीत
हवा झोंकों पर उतराता-डूबता  रह जाता है;
और उधर पहाड़ी झरनों की ओर
भरे-पूरे मेमनों का स्वर उभरता होता है,
झाड़ियों से फतिंगों के गीत उठते हैं,
और बगीचे के बीच कहीं –
ऊंची चीख लगाती है एक ललमुनियाँ
जबकि आकाश में जुटते अबाबीलों की
टिरटिराहट भरी होती है.





* * *
आलेख © डा. मंगलमूर्ति

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