बेनीपुरीनामा:१
सरसों के खेतों के बीच इठलाता हुआ एक गाँव था –
बेनीपुर, गरीब किसानों का एक छोटा-सा गाँव. था, इसलिए कि जल्दी ही बागमती की
धारा में वह डूब जायेगा. पिछले दिन वहां
उस लेखक का ११६ वा जन्मदिन मनाया गया जिसने
अपने नाम में उस गाँव को अमर कर दिया - रामब्रिक्ष बेनीपुरी. उस दिन वहां उसकी आधी
सदी पुरानीं तीन किताबों – कैदी की पत्नी, पैरों में पंख बाँध कर और चिता के फूल –
इनके नए संस्करणों का लोकार्पण किया गया . फेसबुक पर उसकी तस्वीर भी आई. बिहार के
लिए वह एक साहित्यिक उत्सव का दिन रहा . बल्कि
यों कहें कि हिंदी के इतने बड़े लेखक का जन्मदिन तो पूरे देश के लिए उत्सव का दिन
रहा . विलक्षण बहुविधा प्रतिभा के धनी थे बेनीपुरी. नाटक उनकी प्रिय विधा थी. जीवन
भी उनके लिए एक रंगमंच था. बेनीपुर में जो
घर बनवाया उसका पोर्टिको रंगमंच के प्रारूप में बनवाया – सामने प्रोसेनियम के साथ.
‘अम्बपाली’ - उनका सबसे प्रिय नाटक था. उसके कई सफल प्रदर्शन हुए पटना में और फिर
१९५५ में राष्ट्रीय नाट्य समारोह, दिल्ली में, सप्रू हाउस की रंगशाला में जिसमे
राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद भी उपस्थित थे. मैं उस नाट्यमंडली का प्रतिभागी था -
वृन्दवाद्य का वंशी-वादक और छायाकार भी . यहाँ के चित्र में बनीपुरीजी के साथ उसकी
नायिका अम्बपाली (शोभा सिमोर) और उप-नायिका मधूलिका (अमला वर्मा) हमारी वापसी
यात्रा में ताजमहल के प्रांगण में दीख रही हैं. नायक अरुणध्वज थे वीरेन्द्र
नारायण, मेरे बड़े बहनोई. उस पूरी रंग-यात्रा के ४०-५० चित्र मेरे संग्रह में हैं.
उस प्रसंग का पूरा संस्मरण मेरे जीवन-वसंत का एक अलग अध्याय है. बस इतना जोड़ना
चाहता हूँ कि वह वसंती बयार मेरे जीवन में बेनीपुर से ही प्रवाहित हुई जिसमे सरसों
खेतों की उसी लहलहाती हरियाली की मदमाती सुगंध भरी रही.
मेरे जीवन के प्रारंभिक २५ साल बेनीपुरीजी के
अत्यंत निकट सामीप्य में बीते हैं. इधर फिर बेनीपुरीजी की याद इस तरह ताज़ा हो गयी
कि उनकी कई किताबों को उनके तृतीय सुपुत्र महेंद्र बेनीपुरी ने पुनर्प्रकाशित किया
– लगभग आधी सदी बाद. कुछ दिन पहले मैंने उनकी पुनर्प्रकाशित पुस्तक ‘ कुछ मैं
कुछ् वे’ की समीक्षा के व्याज से उसी शीर्षक के अंतर्गत एक संस्मरणात्मक लेख
‘दोआबा’ पत्रिका में लिखा था. उसमे भी बेनीपुर की चर्चा थी. उस लेख में ‘हिमालय’
की भी चर्चा थी. बेनीपुरीजी से मेरे पिता आ. शिवपूजन सहाय का पहला संपर्क गांधीजी
के असहयोग आन्दोलन के समय ही हुआ था जिसके बाद बेनीपुरीजी राजनीतिक पत्रकारिता की
ओर मुड़ गए थे और मेरे पिता साहित्यिक पत्रकारिता की ओर. लेकिन बार-बार जेल
जाते-आते भी बेनीपुरीजी शिखरस्थ साहित्यिक लेखन से कभी अलग नहीं रहे. बल्कि उनकी
सर्वोत्कृष्ट कृति ‘माटी की मूरतें’ उनकी और कई कृतियों के साथ हजारीबाग जेल में
ही लिखी गई. ‘कैदी की पत्नी’, ‘पतितों के देश में’ ( दोनों उपन्यास) और ‘जंजीरें
और दीवारें’ (जेल-संस्मरण) सभी उनके बार-बार के जेल-जीवन से ही सम्बद्ध हैं. जेल
से जब अंतिम बार १९४६ में छूटकर आए तो अपने साथ जैसे साहित्यिक कृतियों का एक
पिटारा ही लेकर आए. तभी ‘हिमालय’ निकला और उनका नाम हिंदी के प्रथम-पंक्ति लेखकों
में ऊपर आ गया. इसी समय मेरे पिता ‘हिमालय’ के संपादक होकर पटना आए और बेनीपुरीजी
के साथ मछुआटोली में रहने लगे. मैं भी साथ था और तभी से वे मेरे लिए चाचाजी हो गए
और मेरे जीवन के अगले २० साल जैसे उनके स्नेह-पाश में बन्ध गए. इन बीस वर्षों की
स्मृतियों में एक पूरी संस्मरण-पुस्तक की सामग्री भरी पड़ी है.
बेनीपुरीजी का द्वितीय पुत्र जित्तिन (जितेन्द्र
कुमार बेनीपुरी) उसी १९४६ से मेरा दोस्त रहा जिसके साथ न जाने कितनी बार मैं
बेनीपुर गया. हमदोनों कुछ दिन पटना के सेंट जोसफ स्कूल में भी साथ पढ़े और बराबर
दिली दोस्त रहे, एक दूसरे की कमीज़ और टाई साझा करने वाले.
जित्तिन बाद में देहरादून के मिलिटरी कालेज में
पढ़ कर एयर फ़ोर्स का अफसर बना और मैं अंग्रेजी में एम.ए. करके प्रोफ़ेसरी करने लगा.
लेकिन उससे पहले १९५६ में चाचाजी के साथ मैं जित्तिन के पासिंग आउट में पूना के
पास खडगवासला गया. चाचाजी पूना में अच्युत पटवर्धन के भाई पामा पटवर्धन के यहाँ
ठहरे. लौटने में हम बम्बई में मुकुंद गोस्वामी
के कालबादेवी वाले मठ में रुके. कैमरा मेरा हरदम का साथी था. स्मृतियों का मेरा अल्बम
फोटो-चित्रों से भरा है. इधर ‘बेनीपुरी चित्रों में’ जो पुस्तक निकली उसमे मेरे
लगभग ४० चित्र प्रकाशित हैं. साथ ही एक भूमिका भी छपी है.
यहाँ प्रकाशित मेरा खींचा हुआ यह चित्र १९५६ का
है जब हमलोग- मैं, मेरा बचपन का दोस्त जित्तिन, बेनीपुरीजी का दूसरा बेटा, उसका
आर्मी का सहपाठी शुक्ल, सबसे बाएं, जो चीन-युद्ध में शहीद हुआ, बेनीपुरीजी जो मेरे
लिए शुरू से चाचाजी रहे, दीदी, उनकी पत्नी, पृथ्वीराजजी, उनके अन्यतम मित्र-सपत्नीक,
और प्रिथ्वी थिएटर्स के अद्भुत कलाकार सज्जन जो कई फिल्मो में भी आते रहे. चित्र
में सबसे बाएं बेनीपुरीजी और हमलोगों के बम्बई में आतिथेय मुकुंद गोस्वामी जी हैं जिनके मठ में हमलोग ठहरे थे.
पृथ्वीराजजी तब बम्बई के माटुंगा इलाके में रहते
थे. चाचाजी के साथ हमसब लोग उनसे मिलने गए. मुकुंदजी के यहाँ गाढे दूध में उम्दा
भांग छनती थी. बढ़िया भोग तो लगता ही था. सबने भांग पी हुई थी. मुकुंदजी ही अपनी
बड़ी-सी शेवरले कार चला रहे थे. उनका नशा भी उनकी कार से होड़ ले रहा था. पृथ्वीराजजी
का पता मुकुंदजी को मालूम था. फिर भी मुकुंदजी की कार आधे घंटे तक बार-बार वहीँ
आस-पास चक्कर काटती रही और बहुत मुश्किल से हम पृथ्वीराजजी के पहली मंजिल के फ्लैट
में पहुँच पाए.फिर तो दोनों मित्रों का प्रगाढ़ स्नेहालिंगन हुआ और उस महान
नाट्य-सम्राट ने हम सबको गले लगा कर असीसा. पृथ्वीराजजी की श्रीमती ने बड़े प्रेम
से भोजन कराया और भांग का चमत्कार तो ऐसा रहा कि ठहाकों की झालर टंग गई दोनों
महारथियों के बीच. दो घंटे कैसे, कहाँ और कब बीत गए किसी ने नहीं जाना
चित्र में बाएं बैठा हुआ है ओमप्रकाश शुक्ल. यूपी
के शाहजहांपुर का, जित्तिन का जिगरी दोस्त’ और मेरा भी अभिन्न. आर्मी में कर्नल के
पद पर था जब चीन-युद्ध में नेफा में शहीद हुआ. उसकी स्मृति में मैंने एक अंग्रेजी
में कविता लिखी है – Static Cacti जो इसी ब्लॉग में आगे जल्दी ही पढ़ी जा सकती है.
बेनीपुरीजी के लगभग २५० पत्र मेरे पिता के नाम
हैं जिनमे से चुनकर ५३ ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ (खंड ९) में छपे हैं. ‘पैरों में पंख बाँध
कर’ में उनके यात्रा संस्मरण हैं. उनकी दूसरी यात्रा-संस्मरण पुस्तक है ‘उड़ते चलो,
उड़ते चलो’..यूरोप की दो यात्राएं कीं १९५१ और १९५२ में. दोनों बार पेरिस गए. दूसरी यात्रा में पेरिस से
शिवजी को १८.५.५२ को पत्र में लिखा – “अभी-अभी
उस प्रसिद्द थिएटर से आया हूँ जिसकी स्थापना मोलिये के सम्मान में लुइ चौदहवें ने
की थी. कौमेदिये फ्रान्सिसे इसका नाम है. इसका सारा खर्च सरकार उठाती है. इस थिएटर
का वातावरण ही देख कर मुग्ध हो जाना पड़ता है. चारों ओर कला के नमूने -. कहीं मोलिये,
कहीं वाल्तेअर, कहीं हूगो, कहीं रेसीन.’कोमेडी’ और ‘ट्रेजेडी’ की दो प्रस्तर
प्रतिमाएं. मोलिये का वह सोफा जिस पर बैठ कर उसने अंतिम बार अभिनय किया था फिर
स्टेज पर ही बेहोश हो गया और फिर होश में नहीं आया.....”
एक अपढ़ किसान परिवार में जन्मे इस महान लेखक –
हिंदी के इस साहित्य-रत्न – बेनीपुरी को पाकर हिंदी धन्य हुई, बेनीपुर की धरती
धन्य हुई, धन्य हुआ बिहार और सारा देश जिसने इस सिरमौर लेखक को सर-आँखों पर लिया.
बेनीपुरीजी की 'माटी की मूरतें' की एक कहानी 'बुधिया' का मेरा किया हुआ अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग में नीचे पढ़ा जा सकता है.
बेनीपुरीजी की 'माटी की मूरतें' की एक कहानी 'बुधिया' का मेरा किया हुआ अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग में नीचे पढ़ा जा सकता है.
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