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Monday, February 17, 2025

 आ.नलिन विलोचन शर्मा : जयंती-स्मरण 



‘नकेन’ : नलिन, केसरी, नरेश                                             

 ‘नकेन’ एक प्रथमाक्षरी शब्द (acronym) है : तीन कवियों – नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश के नाम के प्रथमाक्षरों से निर्मित, जो हिंदी की एक प्रयोगवादी काव्य-धारा को इंगित करता है, जिसका सूत्रपात छायावाद के विसर्जन और प्रगतिवाद के प्रादुर्भाव के साथ प्रारम्भ हुआ | इसका अद्भुत साम्य अंग्रेजी साहित्य की ‘इमेजिस्ट’ काव्य-मंडली से है, जिसमें भी एज्रा पाउंड, टी.ई.ह्यूम, हिल्डा डू लिट्ल, आदि इंग्लैंड और अमेरिका के  कई कवियों ने  कुछ सुस्थिर सूत्रों के अनुशासन में काव्य-रचना की पहल की, जिसमें सुस्पष्ट ‘बिम्ब’ के साथ ‘उत्कृष्ट केन्द्रण’ पर जोर दिया जाता था, और जिसमें काव्य-भाषा पर भी कठोरतर नियंत्रण होता था | ‘नकेनवाद’ अथवा इस काव्य-धारा का घोषित शास्त्रीय अभिधान ‘प्रपद्यवाद’ का अवतरण भी ‘इमेजिस्ट’ काव्य-धारा की ही तरह एक घोषणा-पत्र (‘पस्पशा’) से संयुक्त एक काव्य-संकलन ‘नकेन’ के रूप में दिसंबर, १९५६ में हुआ | इस काव्य-मंडली के प्रधान थे आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, जिनके नाम का ‘न’ ही इस त्रिगुट काव्य-मंडली ‘नकेन’ का प्राथमिक वर्ण है | पटना के साहित्य-मंडल में यह तीन व्यक्तियों में सीमित एक अनन्य साहित्यिक त्रिगुट था  जिसने हिंदी काव्य-जगत में प्रयोगवाद का एक नया शास्त्रीय स्वरूप ‘प्रपद्यवाद’ के नाम से खड़ा किया था | लेकिन मेरा अभीष्ट यहाँ ‘नकेन’वाद के गुंजलक में फंसना नहीं है; यहाँ मेरा उद्देश्य नलिन जी  से जुड़े अपने कुछ संस्मरणों की चर्चा करना ही है; यद्यपि नलिन जी के प्रसंग में ‘नकेन’-वाद की चर्चा किसी हद तक अपरिहार्य भी हो जाती है |

‘प्रपद्यवाद’ के ‘नकेन’ शीर्षक  पहले काव्य-संग्रह में नलिनजी की एक सुन्दर कविता ‘सागर-संध्या’ प्रकाशित हुई थी जिसका मेरा अंग्रेजी अनुवाद मेरे नये अंग्रेजी काव्य-संग्रह ‘टू वे मिरर’ में छपा है | मैंने अपने हाल में प्रकाशित छोटे से हिंदी काव्य-संकलन ‘मन एक वन’ की भूमिका में इसकी थोड़ी चर्चा भी की है | लेकिन पहले आप नलिन जी की मूल कविता ‘सागर-संध्या’ देखें :

बालू के ढूह जैसे बिल्लियाँ सोई हुई

उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं

सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने

विश्रब्ध, अचकित |

 

मैं महाशून्य में चल रहा –

पीली बालू पर जंगम बिंदु एक –

तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के

काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से हो कर |

 

मेरी गति के अवशेष एकमात्र

लक्षित ये होते

सिगरेट का धुंआ वायु पर

टंकित, हिन्हें ज्वार भर देगा आ कर |

 

इस कविता में बिम्ब-प्रधान ‘चित्रेतना’ का तत्त्व तो बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है (‘चित्रेतना’ शब्द ‘प्रपद्यवाद’ का केसरी कुमार द्वारा बनाया एक सूत्र है –चित्र+चेतना, अथवा चित्र-प्रधान चेतना), लेकिन साथ ही, कविता के स्वभाव वाला संगीत भी इस कविता में उतनी ही स्पष्टता से सुना जा सकता है | यदि नलिनजी की इस कविता को  हम ‘प्रपद्यवाद’ के एक श्रेष्ठ प्रतिमान की तरह देखें तो यह उसके ‘द्वादशसूत्री’ से परे जाती दिखाई देती है – उस ओर जहाँ कविता का स्वाभाविक अपना परिसर है | निहितार्थ यह कि कविता स्वयं किसी  निर्मित-पोषित ‘वाद’ के घरौंदे में घिरना नहीं चाहती | जब हम  उसकी ‘रूपगत’ मुक्ति की बात करते हैं, अथवा ‘विषयगत’ स्वच्छंदता की बात करते हैं ( जैसा इस प्रसंग में नलिनजी ने अपने एक लेख ‘मुक्त काव्य और स्वच्छंद काव्य’ में किया है ), तब हम शायद उन परिवर्त्तनों की सोच रहे होते हैं जो कविता में समय-समय पर दृष्टिगत होते हैं, जैसे आकाश के बादल अपना रूप या प्रवाह स्वाभाविक ढंग से बदलते रहते हैं | विषय या रूप के ये बदलाव कविता के स्वभाव की अनिवार्य स्थितियां हैं – यद्यपि संगीत की उसकी प्रकृति सदा स्थायी-भाव में रहती है, और गद्य से उसको अलग करती है | कविता चाहे ‘प्रपद्य’ की हो, ‘प्रगद्य’ की हो (‘प्रगद्य’ अपनी कविताओं के लिए मेरा शब्द है), या शुद्ध कविता हो, संगीत और लयात्मकता से वह कभी विच्छिन्न नहीं होती | नलिनजी की कविता ‘सागर-संध्या’ इसका सबसे अच्छा प्रमाण है |  

अंग्रेजी के ‘इमेजिस्ट’ कवि-मंडली की ही तरह ‘नकेन’-मंडली ने जिस प्रकार अपनी कविता को कठोर प्रायोजित सूत्रों में परिसीमित कर लिया, उससे उनका समय और परिमाण तो परिधित हुआ ही, जिस विरोध और मुक्ति की घोषणा की गई थी उसका पल्लवन भी पर्याप्त नहीं हो पाया, भले ही आगे की कविता के विकास में, अपनी-अपनी भाषा में, इन दोनों मंडलियों ने एक उर्वरक की भूमिका किसी सीमा तक  निभाई हो |नकेन’ की ही तरह ‘इमेजिस्ट’ कवियों की संगति  ने भी एक तीन-सूत्री विधान घोषित किया था – (१)”वस्तु” का वस्तुनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ सीधा चित्रण (२) एक भी अतिरिक्त शब्द नहीं जो अभिव्यक्ति में प्रयुक्त होता हो (३) लय के प्रयोग में सांगीतिक पदों की श्रृंखला हो, तालमापी (‘मेट्रोनोम’) जैसी आवृत्ति नहीं | ‘नकेन’ के सूत्र इनसे मिलते-जुलते हैं, पर लय और संगीत की भूमिका का उल्लेख ‘द्वादश’ या अष्टादश’ सूत्रों में भी स्पष्टतः कहीं नहीं है | इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ‘प्रपद्यवादी’ सूत्रों में या तो लय और संगीत को अभिगृहीत मान लिया गया था, या उसकी अवहेलना की गई थी | उन सूत्रों में ‘दृकवाक्पदीय’ प्रणाली (‘verbi-voco-visual method’) की चर्चा अवश्य हुई है – जिसका सम्बन्ध  पंक्तियों की बनावट से ही है, जो कविता की चाल या प्रवाह का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, और जिसका नियंत्रण संगीत और लय द्वारा ही संभव है | इस प्रसंग में ‘नकेन-१’ संग्रह के अंत में प्रकाशित विस्तृत व्याख्या ‘पस्पशा’ में आधुनिक यूरोपीय-साहित्य के कुछ पारिभाषिक शब्दों (‘mot-juste’,’verse libre’, ‘verse libere’) का उल्लेख अवश्य हुआ है, जिससे स्पष्ट होता है की ‘प्रपद्यवाद’ का शास्त्रीय ढांचा आधुनिक यूरोपीय-साहित्य से ही आयातित हुआ था |

नलिन जी की जिस ‘सागर-संध्या’ कविता और उसके अंग्रेजी अनुवाद की मैंने चर्चा की है, और जो मुझे प्रपद्यवाद’ की सूत्रीय सीमाएं लांघती हुई एक श्रेष्ठ कविता लगती है, उससे जुड़ा मेरा एक अपना संस्मरण भी है | यहाँ आप मेरा वह अनुवाद भी पढ़ सकते हैं, जिसमें मूल कविता की एक छाया आपको मिलेगी |

Seadusk

 

Dunes of sand like cats curled asleep,

The waves lapping-playing on their paws.

Cloudlambs grazing sun’s greensward

Dauntless, unamazed.

 

I walking in an infinite void –

A vagrant point on the yellow sands –

Across the eternal triangle

Of sky, earth, and the shoreless sea.

 

As the backwash of my voyage

Are visible only : cigarette-smoke

Trailing on the wind; on the sands,

A number of footprints

To be full when the waves will sweep them over.                              

 

नलिन जी से सम्बद्ध मेरा संस्मरण उनकी इस कविता से विशेष रूप से जुड़ा है | बात वर्ष१९५१ के आखिरी दिन, दिसंबर ३१ की है | नलिन जी, नरेश जी, शिवचंद्र शर्मा, शिवजी (मेरे पिता) और मैं, और नलिन जी के परिवार के दो बच्चे तथा कुछ और लोग - पटना में नाव से गंगा पार करके बीच नदी के रेत पर पिकनिक मनाने गए थे | पिताजी ने डायरी में लिखा है: “ भंग-बूटी छनी,मुकुन्दी (बाटी), चूरमा, आलू-गोबी का साग, छीमी, चटनी, सलाद, दही-चीनी | डट कर भोजन हुआ|” उसी रेत पर नलिनजी सिगरेट पीते हुए दूर तक घूमते रहे थे, मुझे याद है | और उसी परिदृश्य में इस कविता का जन्म हुआ था | उस समय हम तीनों बच्चे तो बस बालू पर अपनी दौड़-भाग में लगे रहे | लेकिन, अब लगता है, यह एक अद्भुत संयोग ही था कि एक ही स्थल पर कवि, दृश्य, अनुवादक (यह बालक),और वह  समय - सब एक साथ उपस्थित हो गए थे | किसी कविता के पाठक के लिए ऐसा संयोग शायद ही कभी-कहीं घटित हुआ हो | कविता कब, कहाँ, किन स्थितियों में चुपचाप कवि-मन में उतर आएगी, इसको मैने इस कविता का प्रसंग में प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया है | निश्चय ही,इस कविता का अनुवाद करते हुए मैं उस अनुभूत क्षण में –‘तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के / काल-प्रत्न त्रयी-मध्य’ में  पहुँच सका, और  शायद तभी मेरे मन में भी कविता के उतरने का चमत्कार घटित हुआ, जो शायद मेरी अपनी कविताओं में भी कुछ इसी तरह उतरा है |

नलिन जी पटना कॉलेज में मेरे शिक्षक भी रहे | बी.ए. में मैंने अपने अग्रज आनंदमूर्त्तिजी के पदचिन्हों पर चलते हुए अंग्रेजी में ऑनर्स ले लिया था, लेकिन हिंदी को मनोविज्ञान के साथ प्रधान विषय के रूप में रखा था | हिंदी और संस्कृत में मेरी रुचि प्रारंभ से बनी रही, लेकिन मुख्य धारा में अब अंग्रेजी साहित्य आ चुका था | उन दिनों के हिंदी शिक्षकों में विभाग में विश्वनाथ प्रसाद, जगन्नाथ राय शर्मा, नलिन जी, केसरी कुमार, देवेन्द्रनाथ शर्मा, शिवनंदन प्रसाद, अर्जुन सिंह, राजाराम रस्तोगी और दिनेश्वर प्रसाद थे | नलिन जी का क्लास गंभीरतम वातावरण में होता था – कोई खांसता भी नहीं था | मैं सदा आगे के बेंच पर बैठता था | वे बहुत आहिस्ता आवाज़ में, धीरे-धीरे बोलते हुए पढ़ाते थे, और हम मन्त्र-मुग्ध हो जाते थे | देवेन्द्रनाथ शर्मा का क्लास भी बहुत अनुशासित रहता था | शिवनंदन बाबू और दिनेश्वर बाबू भी बहुत अच्छा पढ़ाते थे | विश्वनाथ बाबू हमलोगों का क्लास नहीं लेते थे, और अन्य लोगों के क्लास हमलोग ज़्यादातर ‘बंक’ करते थे, या उनमें शांत नहीं रह पाते थे | मुझको अब लगता है, मेरे पिता के कारण, मेरे शिक्षकों का मेरा अंग्रेजी ऑनर्स पढ़ना शायद अच्छा नहीं लगता होगा, क्योंकि वे हिंदी में मुझको प्रथम श्रेणी के अंक कभी नहीं देते थे, और मेरा ध्यान भी अंग्रेजी की तरफ ज्यादा होता था, और वहां तो प्रथम श्रेणी के अंक पाने के अपने लटके थे |

मुझको नलिनजी के दर्शन बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन-भवन में तो प्रायः प्रतिदिन संध्या में होते ही थे, क्योंकि बाबूजी सपरिवार सम्मेलन-भवन परिसर में ही रहते थे, और नलिनजी का रोज़ सम्मेलन आना तय रहता  था, क्योंकि वे सम्मेलन में अनुशीलन विभाग के मंत्री थे | बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का कार्यालय भी तब सम्मेलन-भवन में ही ऊपरी तल्ले पर आ गया था, इसलिए यह मेरा स्वर्णिम सौभाग्य था कि १९५० से १९५९ तक, जब तक बाबूजी परिषद् में संचालक पद पर रहे, मैं अहर्निश बिहार की साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र में रहा – जहाँ सम्मेलन-भवन के रंगमंच पर प्रायः प्रतिदिन कोई-न-कोई साहित्यिक समारोह, नाट्य-मंचन अथवा संगीत-नृत्य का कार्यक्रम होता ही रहता था | सांस्कृतिक गतिविधियों के मंत्री बेनीपुरीजी थे, और उन्होंने ही सम्मेलन-भवन में ‘कलाकेंद्र’ की स्थापना कराई थी, जहाँ नृत्य और संगीत का प्रशिक्षण दिया जाता था और उसके मंचीय कार्यक्रम भी अक्सर होते थे |’कला केंद्र’ में मैं बांसुरी सीखता था और मेरा मित्र महेश कुमार (जगदीश प्रसाद श्रमिक का आत्मज) नृत्य सीखता था |

निश्चय ही वह मेरे जीवन का स्वर्णिम काल था, जब बिहार भर के साहित्यकारों और कलाकारों के दर्शन वहां प्रायः नित्य प्रति हुआ करते थे | परिषद् ने आग्रहपूर्वक बाबूजी को, १९५४ में, ‘वयोवृद्ध साहित्यकार पुरस्कार’ दिया था, जो आचार्य नरेंद्रदेव के हाथों उन्हें प्राप्त हुआ था, और बाबूजी ने उसी समय वह पुरस्कार राशि सम्मेलन को दे दी थी जिससे ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना की गई थी | नलिन जी ही उसके व्यवस्थापक मंत्री बनाए गए थे | गोष्ठी का उद्घाटन पुरुषोत्तम दास टंडन ने सम्मेलन में ही ४ जुलाई, १९५४ को किया था | अपने उदघाटन भाषण में टंडन जी ने शिवपूजन सहाय जी के इस साहित्यिक सत्कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि यह शिवपूजनजी के साहित्य-प्रेम का द्योतक है और उन्होंने आशा व्यक्त की कि इस गोष्ठी के माध्यम से हिंदी से सम्बद्ध अनेक प्रश्नों पर प्रकाश पड़ सकेगा तथा हिंदी के विकास में सहायता मिलेगी |  गोष्ठी के संयोजक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने प्रारम्भ में गोष्ठी के नियमों, उद्देश्यों एवं कार्य-प्रणाली पर प्रकाश डाला | उन्होंने बताया कि गोष्ठी का मुख्य उद्देश्य सामान्य रूप से भाषा और साहित्य, और विशेष रूप से हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य से सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करना तथा अपने प्रस्तावों, निष्कर्षों और परिणामों को सम्मलेन के मुखपत्र ‘साहित्य’ तथा  पुस्तिकाओं आदि के द्वारा विद्वानों के समक्ष उपस्थित करना है | गोष्ठी में निष्पक्ष भाव से साहित्यिकों का स्वागत करना अभीष्ट है, तथा उन्हें अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता है | इस उद्घाटन गोष्ठी में सर्वश्री ‘दिनकर’, बेनीपुरी, धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, डा. राम खेलावन पाण्डेय,  आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, नागार्जुन, आदि अनेक प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे | ‘समग्र’ के खंड-५ में इस गोष्ठी १९५४ से १९८९ के बीच हुई लगभग पौने दो सौ सत्रों का विवरण प्रकाशित है, जिनमे विशिष्ट वक्ताओं में कुछ प्रमुख नाम हैं – पुरुषोत्तम दास टंडन, किशोरी दास वाजपेयी, राहुल सांकृत्यायन, उदयशंकर भट्ट, प्रभाकर माचवे, चतुरसेन शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, वियोगी हरि, जैनेन्द्र कुमार, उपेन्द्रनाथ अश्क,भगवती चरण वर्मा,धर्मवीर भारती, अमृत राय, त्रिलोचन शास्त्री, रामकुमार वर्मा, डा. नगेन्द्र, ओदोलेन स्मेकल (चेकोस्लोवाकिया), प्रो.मैकग्रेगर (लंदन वि.वि.), आदि |

इनमें से बहुत सारे विद्वानों के आतिथेय नलिनजी ही होते थे | छोटी अन्तरंग गोष्ठियां अनुशीलन विभाग के कमरे में हुआ करती थीं, जिनकी रिकार्डिंग भी एक ‘ग्रुंडिग’ टेप रिकॉर्डर पर होती थी | मेरे पिता और नलिनजी, बेनीपुरी जी, दीक्षित जी आदि के प्रयास से पुरानी दुर्लभ पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं,बिहार के पुराने साहित्यकारों से सम्बद्ध पांडुलिपियाँ, उनके पत्रादि, दैनिक उपयोग की वस्तुएं, वस्त्र आदि भी अनुशीलन विभाग में एक शीशे की लम्बी आलमारी में संगृहीत की गयी थीं | यह सब मैंने खुद देखा था | पर बाद में नलिनजी और शिवजी के जाने के बाद सम्मेलन पुस्तकालय की सभी पुस्तकें और अनुशीलन विभाग  की वह सारी अमूल्य सामग्री सम्मलेन के अधिकारियों ने ही गायब कर दीं | वह ‘ग्रुंडिग’ टेप रिकॉर्डर भी गायब कर दिया गया और उसके सब टेप भी गायब हो गए | उसमें वे टेप भी थे जिसमें मेरे पिता ने बहुत आग्रह के बाद  कई बैठकों में अपने कलकत्ता और काशी-प्रवास के साहित्यिक संस्मरण सुनाये थे | बाद में मुझको यह भी पता चला यह सब गोलमाल कब और कैसे हुआ |

‘नकेन’ के दो काव्य-संकलनों में नलिन जी के अलावा बस केसरी कुमार और नरेश की ही कविताएँ थीं | पहले खंड में तीनों की कुल लगभग ६० कविताएँ थीं | संग्रह के प्रारम्भ में तीनों द्वारा बजाप्ता हस्ताक्षरित भूमिका के रूप में एक ‘प्रपद्य-द्वादश-सूत्री’ घोषणा-पत्र था, और कविताओं के अंत में २५ पृष्ठों में ‘पस्पशा’ शीर्षक से भूमिका का विस्तार था | दूसरा खंड नलिन जी के देहांत के बहुत बाद १९८१ में शंकरदयाल सिंह के सम्पादन में १९८१ में पारिजात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था जिसमें फिर तीनों कवियों की लगभग ५०कविताएँ थीं, और प्रारम्भ में इस बार (केसरी कुमार द्वारा विस्तारित) ‘प्रपद्य-अष्टादश-सूत्री’ भूमिका-स्वरूप थी जिसके साथ ४ पेज की एक ‘फक्किका’ भी उसके परिशिष्ट के रूप में थी | अंत में फिर भूमिका की विस्तृत व्याख्या के रूप में ‘पस्पशा’-२ और कविताओं के ‘स्वाध्याय’-स्वरुप दो-तीन आलेख थे | लेकिन इस दूसरी पुस्तक के प्रकाशन के बाद फिर इस ‘कवि-त्रयी’ का काव्य-प्रवाह अवरुद्ध हो गया |

नलिनजी की ‘नकेन’-मंडली में केसरी कुमार भी पटना कॉलेज में मेरे शिक्षक थे, और बाद में वे सम्मेलन के अध्यक्ष भी हुए | लेकिन मैं उनके निकट कभी नहीं रहा, और नलिनजी और मेरे पिता के  देहांत के बाद सम्मेलन को लेकर वे कई तरह के विवादों में भी घिरे रहे | लेकिन ‘नकेन’ के  अंतिम ‘न’ – नरेश से मेरा परिचय उनके संगीत-प्रेम की लेकर भी था | वे बहुत ऊंचे दर्जे के शास्त्रीय संगीत के हारमोनियम-वादक थे | नरेशजी  जन-संपर्क विभाग में उप-निदेशक पद से सेवा-निवृत्त हुए थे, और सम्मेलन के पास ही उनका आवास था | वर्षों बाद, मई, १९९७ में, मैंने उनके कदमकुआं वाले मकान पर जाकर उनका एक लम्बा इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था | उसमें उन्होंने ‘नकेन’-वाद के प्रारम्भ की पूरी दास्तान सुनाई थी |

नरेश जी का जन्म १९२६ में गया में हुआ था | उनके पिता रायसाहब मथुरा प्रसाद दरभंगा में सब-डिप्टी    थे |  उन्होंने बी.ए. ऑनर्स अंग्रेजी में पटना कॉलेज से १९४१ में किया, पर एम.ए. नहीं कर सके | साहित्य और लेखन के प्रति शुरू से रुझान रहा | पढ़ाई छोड़ कर पटना में कई पत्रिकाओं– ‘योगी’, ‘विश्वमित्र’,’नवराष्ट्र’, ‘जनता’. ‘बिहार हेराल्ड’,’स्पार्क’, आदि में सम्पादन का काम किया | कुछ दिन रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी में मेम्बर भी रहे | नलिन जी के प्रभाव में १९४२ में आये | उनके साथ मिलते-जुलते ही आगे चलकर ‘नकेन’-वाद का प्रायोजन हुआ, और केसरीजी भी उससे आकर जुड़ गए | इसकी गोष्ठियां नलिन जी के यहाँ ही होतीं, जिसमें शिवचंद्र शर्मा भी प्रायः उपस्थित होते | ये सब लोग भोजपुरी-भाषी थे और नलिन जी और शर्मा जी तो दोनों छपरा के ही मूल निवासी थे | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शिवजी की स्मृति में स्थापित ‘आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक’ न्यास ने २००८ में काशी विद्यापीठ, वाराणसी में आयोजित एक समारोह में नरेश जी को ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी पुरस्कार से सम्मानित भी किया था |

लेकिन इससे बहुत पहले, पटना में १२ सितम्बर, १९६१ को,  अचानक नलिन जी का हृदयाघात से निधन हो गया था | वे मेरे पिता से २३ साल छोटे थे | मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र ४५ वर्ष थी | उनके पिता पं. रामावतार शर्मा  की मृत्यु भी अल्पायु में – ५६ वर्ष में ही हुई थी | स्मरणीय है कि शिवजी को जब यह संवाद मिला,उन्होंने उस दिन अपनी डायरी में लिखा –

आचार्य नलिन विलिचन शर्मा का आकस्मिक निधन हो गया | कलेजा काँप उठा | देह थरथराने लगी | मस्तिष्क सर्वथा शून्य हो गया | तुरंत वहां पहुंचा |...उनका शव देख करुना का बंधन टूट गया | मैं अश्रु-प्रवाह न रोक सका | उनकी अर्थी में कन्धा लगा कर घर के चौपाल से सड़क तक ले आया | फिर रिक्शा पर बेनीपुरीजी के साथ सम्मेलन-भवन होते बांस घात श्मशान तक गया | चिता जल गई तो घर लौट, नहाया | रात में उपवास किया | नलिन जी की स्मृति सपने में भी होती रही | इस युग में वे विद्या और शील-सौजन्य में अद्वितीय पुरुष थे | ... हे राम, आज बिहार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् साहित्य-सेवी चल बसा |

शिवजी नलिन जी के पिता पं. रामावतार शर्मा से भी परिचित थे | ‘समग्र’ खंड-२ में उन्होंने दोनों साहित्य-महारथियों पर ह्रदय-स्पर्शी संस्मरण लिखे हैं | नलिन जी वाला संस्मरण उनके निधन के बाद ही दिसंबर, १९६१ की ‘नई धारा’ में प्रकाशित हुआ था | उसका अंतिम अनुच्छेद विशेष मार्मिक है –

संयोग की बात, एक दिन बिहार-हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के अनुशीलन-कक्ष में हम दोनों बैठे थे | उन्होंने सहसा कहा कि ‘साहित्य’ के सम्पादकीय स्तम्भ में स्वर्गीय साहित्य-सेवियों पर लिखी आपकी संस्मरणात्मक टिप्पणियाँ मुझे बहुत पसंद हैं | मैंने कहा कि आपकी पसंद ही उनकी सार्थकता है; किन्तु मेरे निधन पर आपको भी वैसी ही टिप्पणी लिखनी पड़ेगी | छूटते ही बोल उठे कि कहीं आपको ही मेरे लिए लिखना पड़ गया तो आपकी अभ्यस्त लेखनी मुझसे बाजी मार ले जाएगी | इस पर उस दिन तो हम दोनों के अट्टहास से कक्ष मुखरित हो गया, किन्तु उस बात की स्मृति का वृश्चिक-दंशन ह्रदय को बड़ा ही व्यथित कर गया | क्या मनुष्यों के अंतःकरण में व्याप्त ब्रह्म भविष्यवाणी भी किया करता है ?

शिवजी के सम्पादन में ‘साहित्य’ का अंतिम अंक ‘नलिन स्मृति अंक’ के रूप में छपा | सम्मेलन की स्थिति बिगडती जा रही थी | ब्रजशंकर वर्मा अध्यक्ष थे | शिवजी ने सम्मलेन की कार्य-समिति से पहले ही त्यागपत्र दे दिया था | उनका अपना स्वास्थ्य भी तेजी से गिरता जा रहा था | सरकार ने नियम-विरुद्ध उनको समय से पूर्व सेवा-निवृत्त कर दिया था, जिससे उनको पेंशन भी नहीं मिल रहा था | उनके लिए जीवन के ये शेष कुछ महीने अत्यंत अभाव और कष्ट में बीत रहे थे | वे बस डायरी में अपनी व्यथा-कथा अंकित कर लेते थे | सम्मेलन ‘नलिन स्मृति अंक’ के प्रकाशन के प्रति पूरी तरह उदासीन था | “श्री ब्रज शंकर वर्मा से मैंने कहा (शिवजी ने डायरी में लिखा)- श्री दिनकरजी के सामने ही – कि ‘नलिन-स्मृति-अंक’ के प्रकाशन के विषय में क्या होगा | उन्होंने छूटते ही दो-टूक बात कही – ‘मैं क्या जानूं ? मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं |’मैं चुप रह   गया | एक दिन फोन पर मैंने कहा – ‘आपके और हमलोगों के देखते-देखते चालीस वर्ष से अधिक पुरानी  संस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है क्यों ?’ उन्होंने बेधड़क कहा – ‘कितनी ही ऐसी संस्थाएं जन्म लेकर चौपट हो चुकी हैं तो इसके लिए कौन हाय-हाय करे |’ मौन रह कर मैंने सोचा प्रांतीय सम्मेलन के अध्यक्ष की ऐसी बात सुन कर साहित्यिकों के आदर्श पर सिर धुनना ही शेष रह गया | उनकी बातों से मन खट्टा हो गया | नलिन जी को वे भूल ही नहीं गए, उनको आदरणीय भी नहीं समझते हैं |”

नवम्बर, १९६२ में ‘नलिन-स्मृति-अंक’ छपा | शिवजी ने लिखा –“’साहित्य’ का ‘नलिन-स्मृति-अंक’ बहुत ही खराब छपा | मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया | सम्मलेन के प्रधान-मंत्री पं. छविनाथ पाण्डेय जी के सर्वोदय प्रेस में छपा है | सम्मेलन के सदस्यों और पदाधिकारियों ने थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई |”

इसके दो ही महीने बाद २१ जनवरी, १९६३ को शिवजी का महाप्रयाण हुआ | और इस तरह अपने अंतिम समय में प्रकाशकों द्वारा पूरी तरह शोषित और हिंदी की प्रांतीय-स्तर की सबसे मान्य संस्था द्वारा उपेक्षित हिंदी के दो मूर्धन्य साहित्यकारों की यही रही जीवन-कथा !

 (C) डा. मंगलमूर्त्ति

मेरी  अंग्रेजी कवितायेँ और लेख आप मेरे  ब्लॉग  murtymuse.blogspot.com  पर पढ़ सकते हैं | 

 

 

Thursday, October 10, 2024

 

जयंती स्मरण 

शिवपूजन सहाय, निराला और रामविलास शर्मा

मंगलमूर्ति 




डॉ
रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखी तीन खंडों में प्रकाशित अपनी पुस्तकनिराला की साहित्यसाधना’ ‘शिवपूजन सहाय की पुण्यस्मृति को सादर समर्पित करते हुए निराला के ये शब्द उद्धत किए थेµ‘‘शिवपूजन जी को समर्पण बहुत अच्छा है, बड़े सज्जन और चारू साहित्यिक हैं ’’ इस खंड के अंत में टिप्पणियों की तालिका मंे औरकृतज्ञताज्ञापनवाले अंतिम अध्याय में शिवपूजन सहाय के पत्रसंग्रह केमतवालामंडल वाले अनेक पत्रों से मिली संदर्भ सहायता एवं स्वयं शिवजी के साथ हुई तत्संबंधी महत्वपूर्ण बातचीत की विस्तार से चर्चा है निराला से शिवजी का संपर्कमतवालाकाल में ही विशेष रूप से सधा और आत्मसंस्मरणों की अपनी पुस्तकमेरा जीवनमें शिवजी ने निराला जी औरमतवालामंडल से संबद्ध अपने संस्मरणों को विस्तार से अंकित किया है निराला की साहित्यसाधनाके तीसरे खंड में निराला और शिवपूजन सहाय का परस्पर सारा पत्राचार प्रकाशित है

निराला पर पुस्तक लिखने की योजना रामविलास जी के मन में १९४० के दशक से ही काम करने लगी थी, यद्यपि पुस्तक अंतत% १९६९ में प्रकाशित हुई जब ४० के दशक में शिवजी राजेंद्र कॉलेज, छपरा में प्राध्यापक थे तभी से शर्माजी उनसे इस संबंध में पत्राचार करने लगे थे लेकिन आखिरकार लगभग दो दशक बाद ही शर्मा जी स्वयं पटना आकर शिवजी से जून, १९६२ में मिले और कई दिन पटना में रुक कर उन्होंने शिवजी के मूल्यवान पत्रसंग्रह से निराला औरमतवालामंडलसंबंधी उन बहुत सारे पत्रों को खंगालकर उनसे सूचनाएं इकट्ठी कीं

जून, १९६२ के प्रारंभ में दिनों के शर्माजी के इसी घटनाप्रवास में मुझे उनके प्रथम दर्शन हुए गर्मी की छुट्टियों में, मैं पटना में ही था और शर्माजी के सत्कार के साथसाथ चिट्ठियों को छांटने और काम की चिट्ठियों को शर्माजी को उपलब्ध कराने में मेरी भूमिका सहायक की थी मौसम लू के दिनों का था और शर्माजी सवेरे ही जाते थे और आते ही काम में जुट जाते थे मुझे हैरत होती थी कि सुबह बजे से शाम को लगभग बजे तक, जब अंधेरा होने लगता था तब तक शर्माजी एक ही आसन में बैठे चिट्ठियो के बंडलों में बिल्कुल डूबे रहते बीच में भोजन के लिए रुकते थे, पर उसके बाद जरासा विश्राम भी नहीं करते थे फिर काम शुरू कर देते थे यह सिलसिला इसी तरह या दिन चला शर्माजी से यही मेरी पहली मुलाकात थी और मैं उनकी कार्यशैली देखकर बहुत प्रभावित हुआ वैसे उससे कुछ पहले मैंने अपने पिता को भी इसी तरह सुबह से शाम तक लगातार काम करते देखा था जब उन्होंने अपने गांव के पुस्तकालय में गर्दगुबार और पसीने से लथपथ खाली बदन कई बोरों में चिट्ठियों को छांटने और सहेजने का काम कईकई दिनों तक किया था, जिसमें मैंने भी उनका साथ दिया था छांटी हुई चिट्ठियां या बोरों में पटना लाई गई थी, और फिर उन्होंने उन चिट्ठियों को वहां सिलसिलेवार छांटने का काम किया था, और फिर उन्हें अमेरिकी सूचना सेवा बुलेटिन वाले मोटे खाकी लिफाफों में छांटबांट कर रखते गए थे

इसके कुछ ही महीनों बाद २१ जनवरी १९६३ को शिवजी का निधन हो गया था, और उसके बाद कई वर्षों तक शर्मा जी के साथ मेरा भी पत्राचार चलता रहा, खासकर उन दिनों जब मैं प्रेमचंदसंबंधी पत्रों का एक संकलन संपादित कर रहा था इन्हीं दिनों १९७६ में उनसे मेरी दूसरी मुलाकात इसी प्रसंग में आगरा में उनके ३०, नई राजामंडी वाले मकान में हुई थी, जब मुझे पत्रों के संपादन के विषय में उनसे बहुत सारे मूल्यवान सुझाव मिले थे और उन्होंनेनिराला की साहित्यसाधनाके तीसरे खंड की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति मुझे भेंट में दी थी

आचार्य शिवपूजन सहाय की जन्मशती (१९९३) के प्रसंग में मुझको प्रेषित अपने पत्र में उन्होंने लिखा था

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने का श्रेय शिवपूजन सहाय औरमतवालामंडलके उनके सहयोगियों को है मानक हिंदी को संवारने में उनकी भूमिका अन्यतम है निराला के जीवनसंघर्ष में समयसमय पर उन्होंने उनकी जो नैतिक सहायता की, वह सचमुच अमूल्य है निराला के समर्थक सहज ही उनके स्नेहभाजन होते थे निराला की निरंतर बढ़ती हुई ख्याति से उन्हें जो अपूर्व आनंद प्राप्त हुआ था, उसकी झलक मैंने उनकी आंखों में देखी थी निराला कीसाहित्यसाधनालिखते समय अपना पत्रसंग्रह मुझे दिखाकर उन्होंने मेरा मार्ग सुगम बनाया था वह संपादक थे, आचार्य थे, कलाकार थे उनके गद्य लेखन में यह कलाकार रूप जहांतहां बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है हम उन्हें याद करें, उनसे हिंदी लिखना सीखें, यह मेरी कामना है ’’

मेरी तीसरी और अंतिम भेंट उनसे उनके दिल्ली स्थित विकासपुरी वाले आवास पर तब हुई जब दूरदर्शन की टेलीविजन टीम के साथ उनका एक साक्षात्कार रिकार्ड करने के लिए मैं उनसे मिला यह संभवत% १९९७ उत्तरार्द्ध की बात है दिल्ली दूरदर्शन द्वारा दो फिल्में शिवपूजन सहाय के जीवन और कृतित्व पर बन रही थीं जिनकी पटकथा मैंने ही लिखी थी इसके लिए उस टीम के साथ कलकत्ता, पटना, वाराणसी, लखनऊ और दिल्ली जाकर कई साहित्यकारों के साक्षात्कार रिकार्ड किए गए थे जिनमें प्रोकल्याणमल लोढ़ा, डॉबलदेव उपाध्याय, डॉनामवर सिंह आदि विद्वानों के साक्षात्कार शामिल किए गए थे इन सभी साक्षात्कारों में डॉरामविलास शर्मा का साक्षात्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण इस अर्थ में था कि उसमें समय के एक बहुत लंबे अरसे के संस्मरण थे जिनमें निराला, शिवपूजन सहाय और रामविलास शर्मा एक अटूट सूत्र में बंधे दिखाई पड़ते हैं

यहां उस विडियो साक्षात्कार का पाठ पहली बार प्रस्तुत किया गया है इस प्रस्तुति से, आशा है, उस पूरे महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रकरण पर प्रकाश पड़ेगा जो निस्संदेह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का एक स्वर्णिम युग था, जिसमेें कठोर जीवनसंघर्ष, समर्पित पत्रकारिता के रूप में भाषा और साहित्य की साधना और देश तथा समाजसेवा के नैतिक आदर्श एक ही हीरे के विभिन्न ज्योतित पहलू थे उस साक्षात्कार में रामविलास जी ने कहा था %

‘‘मैं पढ़ता था इंटरमीडिएट क्लास में जब पहलेपहल मैंने निराला जी की कविता पढ़ी और उस कविता को पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि इस तरह की कविता कोई दूसरा नहीं लिखता इंटर में हिंदी मेरा विषय था हाईस्कूल में भी मैंने हिंदी पढ़ी थी संस्कृत भी पढ़ी थी, तो थोड़ा तो हिंदी कविता से परिचित था मैथिलीशरण गुप्त की बहुत धूम थी पंडित जी (निराला जी) के विषय में लोग कम जानते थे, लेकिन मुझे लगा कि इस कवि की रचनाओं में जैसी ताकत है, और जितनी मिठास है उस तरह की मुझे और कविता में नहीं दिखाई देती थी

‘‘झांसी से मैं लखनऊ गया, और सन् १९३४ में मैंने एमपास किया वहां श्रीराम रोड पर एक पुस्तकभंडार था, वहां निराला जी कभीकभी आया करते थे वहां से विवेकानंद की पुस्तकों के कुछ मेरे किए हुए अनुवाद छपे थे जब मैं एममें पढ़ता था तब मैंने राजयोग का अनुवाद किया था, कर्मयोग का अनुवाद किया था वेदांत नाम से कुछ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया था जो सब विवेकानंद के अंग्रेजी लेखों के अनुवाद थे निराला जी विवेकानंद के भक्तों में से थे वहां उन्होंने वे अनुवाद देखे और मेरी हिंदी पढ़ी तो उन्होंने प्रकाशक से पूछा ये रामविलास शर्मा कौन हैं, तो उन्होंने कहा कि एक दिन वे आएंगे तो आपको मिला देंगे

‘‘उस समय तक मुझे यह नहीं मालूम था कि वे मेरे गांव के पास के ही रहने वाले हैं पर कुछ दिन बाद तो ऐसा साथ हुआ कि कोई दिन ऐसा नहीं होता था कि हम दोनों लखनऊ में हों और आपस में मिलें तो फिर निराला भी खड़ी बोली छोड़कर अवधी बोलने लगे और तब हम लोग गांव की बोली में ही आपस मंे बातें किया करते थे

‘‘फिर मुझेमतवालामंडल के बारे में मालूम हुआ, निराला जी ने कैसे संघर्ष किया था, ये सब मुझे मालूम हुआ, और उसी सिलसिले में मुझे शिवपूजन सहाय जी का नाम सुनने को मिला धीरेधीरे निराला जी पर मैंने लेख लिखना शुरू किया और सन् ४३ में जन प्रकाशन गृह, बंबई ने मुझसे कहा कि तुम निराला जी पर एक पुस्तक लिखो मैंने कहा, ठीक है, मैं पुस्तक लिखूंगा पुस्तक लिखने के सिलसिले में मैंने शिवजी को पत्र लिखे–––––

आदरणीय शिवपूजन सहाय जी % निराला जी से आपके बारे में बहुत कुछ सुना है और इस प्रकार परोक्ष रूप से आपसे परिचित हूं मैं उनके संपर्क में सन ३४ में आया था तब से वह परिचय गाढ़ा ही होता गया है, और अब आत्मीयता से परिणत हो गया है उनके एक साधारण प्रशंसक के रूप में आप मेरा परिचय ग्रहण करें

मैं उन पर एक पुस्तक लिखने का विचार कर रहा हूं उसमें उनकी कृतियों की आलोचना के अतिरिक्त उनके विरुद्ध प्रचार, उनके जीवनसंघर्ष आदि पर भी लिखना चाहता हूं इस कार्य में आपसे सहायता का प्रार्थी हूं आप यदि विस्तार से उन पर लिखना चाहें तो उस अंश के साथ आपका नाम देकर मैं उसे अपनी पुस्तक मंे सम्मिलित कर लूंगा अन्य प्रकार से जो भी बातें आप बताएंगे, उनके लिए आभार स्वीकार करूंगा मैंने नवजादिकलाल जी परविश्वमित्रमें आपका लेख देखा था और वह मुझे बहुत पसंद आया था निराला जी के कलकत्ते वाले साहित्यिक एवं असाहित्यिक जीवन के बारे में जो बता सकेंगे, उसके लिए कृतज्ञ हूंगा ’ (१७०२४३)

उन्होंने मेरे पत्रों के उत्तर दिए वे पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं

(शिवजी को लिखा रामविलास जी का अगला पत्र इस प्रकार था%)

‘‘निराला जी के प्रति आपके क्या भाव हैं, मैं अच्छी तरह से जानता हूं निराला जी के पास आपके बहुत से पत्र थे जो अब मेरे पास हैं मैंने उन्हंे पढ़ा है और हृदय से आपको सराहा है आपको बताने की जरूरत नहीं है, फिर भी कहता हूं कि निराला जी के हृदय में भी आपके लिए वैसा ही स्थान है जिस साहित्यिक के विरूद्ध उन्होंने कभी एक शब्द नहीं कहा और जिसकी उन्होंने सदा प्रशंसा की है वहएकमेवा द्वितीयम्’’ आप ही हैं मुझे आपके दर्शनों का बड़ा कुतूहल है ––––’’

‘‘शिवजी के लिखे हुए संस्मरण अनेक पत्रों में छपे थे लेकिन मुझे उनसे संतोष नहीं था, और मैं उनसे कहता था कि आप पूरा वृतांत सचसच लिखिए उन्होंने किसी एक पत्र मंे मुझे ये लिखा है कि अगर पूरी बात सचसच लिखूंगा तो लोग मुझ जीवित नहीं छोडेंगे उससे मुझे अनुमान हुआ कि उनका कितना विरोध हुआ था और उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा था बाद में जब मैं उनसे मिला तो मैंने उनसे फिर कहा कि आप खुद लिखें तो आप लिखकर मुझे दे दें तो मैं उसे कहीं प्रकाशित करवाऊंगा लेकिन सत्य तो सामने आना चाहिए लेकिन उन्होंने कहा कि तुम समझते नहीं हो, ये बातें बहुत गहराई में हैं, बहुत पेचीदा हैं लेकिन मुझे तो निराला पर एक आलोचना पुस्तक लिखनी थी, मैंने सोचा था कि उनके जीवन के बारे में भी कुछ बातें लिख दी जाएं तो अच्छा होगा

‘‘मैंने जब उनसे कहा कि सारी बातें सचसच लिख डालिए, तो इसका मतलब यह नहीं था कि अनेक संस्मरण जो उन्होंने लिखे थे उसमें वे झूठ लिख रहे थे लेकिन कुछ बातों को वे प्रकट नहीं करना चाहते थे यह बात सही है कि जो पत्र उन्होंने लिखे उसमें भी उन्होंने स्वीकार किया कि मैं पूरी बात नहीं कर रहा हूं

‘‘मैं शिवपूजन सहाय जी से कब, कहां मिला और उनकी तस्वीर मेरे दिमाग में कहां से आई, ये मैं आपको बताता हूं शायद सबसे पहले मैंने बनारस में उनको देखा था निराला जी की जयंती मनाई जा रही थी ये सन्४६की बात है और शिवजी वहां आए हुए थे नंददुलारे वाजपेयी थे, मैं भी था और निराला जी दूसरों के साथ जो व्यवहार करते थे उस समय उनकी मुखमुद्रा कैसी थी, यह मुझे बहुत अच्छी तरह याद है शिवजी से जब वह बातें करते थे तो उनका रूप जैसे बदल जाता था मैंने ऐसा केवल दो बार उनके साथ देखा एक बार राधामोहन गोकुलजी लखनऊ आए थे उन्हें निरालाजी मास्टर साहब कहा करते थे वे कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में हैं कम्युनिज्म क्या हैये पुस्तक उन्होंने १९२७ में प्रकाशित की थी कलकत्ते में वे निरालाजी से राजनीतिक विषयों पर बातचीत किया करते थे भगत सिंह आदि से राधामोहन गोकुलजी का परिचय थाय––––– वर्मा से उन्होंने कहा था, बम वगैरह बनाते हो, ये तो ठीक है लेकिन मजदूरों में भी जाकर काम किया करो क्रांतिकारियों को मजदूरों की तरफ झुकाने में राधामोहन गोकुलजी का बहुत बड़ा हाथ था तो मैंने राधामोहन गोकुल जी के साथ निराला जी को देखा तो गोकुल जी तो निराला जी के कंधे तक थे, निराला जी तो उनसे बहुत बड़े थे लेकिन उनके सामने वे ऐसे बातें करते थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पिता या चाचा के सामने बात करता हो

‘‘ऐसा ही मैंने शिवपूजन सहाय जी के साथ देखा, कि जैसे कोई बड़ा भाई का अदब करता है बात का जवाब नहीं देता बहुतसी बातें सुन लेता है, दूसरे को बोलने का मौका देता है, वह बात मैंने निराला जी में देखी आम तौर से तो किसी से बात करते थे तो दूसरा कम बोलता था, वे खुद ही बोलते थे, और जो बात हो, वह ठीक नहीं लगे, तो उसका खंडन करना जरूरी था, ये प्रवृत्ति उनके अंदर थी नवजादिक लाल श्रीवास्तव के साथ मैंने उन्हें एक बार देखा था, लखनऊ में नवजादिकलाल आए थे और निराला जी के यहां ठहरे थे, और निराला उन्हें लेकर मेरे घर आए थे, और उनके साथ हम तीनों घूमने गए थे उस समय भी मैंने देखा था कि निरालाजी का भाव बदला हुआ है जैसे अपने से बड़े से बातें करते हैं, उस तरह का भाव था लेकिन नवजादिक लाल के साथ तो वे बहुत हंसीमजाक कर रहे थे यह मुझे याद है शायद इसलिए कि नवजादिक लाल स्वयं ही बहुत मजाक पसंद आदमी थे, और बिना हंसेहंसाए वे शायद रह ही नहीं सकते थे पर शिवजी अधिक गंभीर थे और उनके साथ निराला जी का जो व्यवहार था वह एक तरफ तो राधामोहन गोकुल जी के व्यवहार से मिलताजुलता था और एक जगह वह इन सबसे अलग था बहुत सी बातें कहीं नहीं जातीं, मुखमुद्रा से समझी जाती हैं, और मुझे ऐसा लगता था कि निराला जी का जैसा आत्मीय संबंध शिवजी से है उतना शायद और किसी दूसरे आदमी से नहीं है बिना कुछ कहे ही दो आदमी एक साथ बैठेउठें, एक साथ आगे बढ़ेंचलें, और मन में एकदूसरे को समझते रहें, इस तरह का आपस में संपर्क मैंने शिवजी में और निराला में देखा

‘‘मैं एक बार बांकीपुर (पटना) गया था वहां खडगविलास प्रेस में बहुतसी पुरानी सामग्री पड़ी हुई थी और मैं उसमें पुरानी पत्रिकाएं ढूं़ढ़ढूंढ़ कर कुछ चीजंे निकाल रहा था, और उसमें मेरे साथ एक साथी कन्हैया था मैं बोलता जाता था और वे नकल करते जाते थे वहां से मैं पटना आया और शिवपूजन सहायजी को मैनंे साहित्यसम्मेलन के भवन में देखा वहां एक गोष्ठी रखी गई, और लोगों ने मुझे उस समय बोलने के लिए कहा तब मुझे यह देखकर दुख हुआ कि शिवजी इतने प्रतिभशाली हैं, और इस तरह का काम कर रहे हैं हिंदी में संपादन का मतलब बहुत कुछ प्रूफरीडिंग होता है और वे प्रूफ रीडिंग बहुत अच्छा करते थे इसमें कोई शक नहीं लेकिन प्रूफ रीडिंग तो दूसरों को करना चाहिए था वह उनका मुूख्य काम नहीं था और मैंने उनसे कहा कि आप ऐसा काम क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि ये काम करें तो फिर खाएं कैसे

‘‘हिंदी लेखक का जीवन कितना असुरक्षित था सन्४७के पहले, आज हम लोग इसकी कल्पना नहीं कर सकते तो निराला और शिवपूजन सहाय ने साहित्यसेवा करते हुए (रो पड़ते हैं) जीवन बिताया यह एक बहुत बड़ी बात है

‘‘एक बार वे बीमार पड़ गए थे अस्पताल में पड़े हुए थे मैं अस्पताल में उन्हें देखने गया था देखकर बहुत दुख हुआ बिल्कुल अस्थिपंजर रह गया था थोड़ी देर बात की, हाथ में हाथ दिया फिर मैं चला आया इस पर मैंने एक लेख लिखा थाµ‘‘मृत्यु की प्रयोगशाला एक बार मैं पटना गया था ये बीमारी के पहले की बात है या बाद की यह मैं भूल गया हूं निराला की साहित्य साधनाके लिए मैं सामग्री एकत्र कर रहा था, और शिवपूजन सहाय जी से मैंने बहुत बार कहा था कि आप निराला के पत्र मुझे भेज दीजिए उन्होंने कहा, ‘मैं भेज दूंगा, नकल करवा रहा हूं पर कोई कारण रहा, वे भेज नहीं पाए, तो मैंने सोचा कि इनके घर पर जाकर ठहरना चाहिए और देखना चाहिए कि इनके यहां क्या सामग्री है तो शिवजी ने कहा कि मेरे पास बहुत सारी चिट्ठियां हैं, और तमाम थैलों में पड़ी हैं, ओर तुम कहां तक ढूंढ़ोंगे तब मैंने कहा मैं ये सब कर लूंगा, आप एक बार मुझे उन तक पहुंचा दीजिए तब उन्होंने यही किया फिर तो मैंने ऐसी बहुत सी चिट्ठियां उनमें ढूंढ़ ली जिनके बारे में शिवजी स्वयं भूल गए थे जैसेउग्रने उनको जो पत्र लिखे थेमतवालाकाल में, वे बड़े ही महत्वपूर्ण पत्र हैं उनमें मुझे पहली बार मालूम पड़ा कि शिवजी एक साल के बादमतवालाछोड़कर क्यों चले आए थे वो सब बातें मैंने लिखी तो उससे महादेवप्रसाद सेठ के परिवार के लोग मुझसे नाराज भी हो गए उन्होंने कहा कि उनको मालूम नहीं, लेकिन मैंने तो लिखित सामग्री देखी थी मैंने तो महादेव प्रसाद सेठ को कभी देखा ही नहीं था, और निराला जी से हमेशा उनकी प्रशंसा सुनी थी इसलिए मेरे मन में उनके प्रति कोई द्वेष भाव था ऐसी बात नहीं थी लेकिन ईश्वरीप्रसाद शर्मा के जो पत्र मैंने देखे वहां, याउग्रजी के पत्र देखे, उससेमतवालामंडल की आंतरिक स्थिति का मुझे पता चला ये बहुत अच्छा होगा कि शिवजी के पत्रों के साथ जो उनके संग्रह में दूसरों के लिखे हुए पत्र हैं, वे भी प्रकाशित कर दिए जाएं, क्योंकि तब उनसे एक पूरे युग का इतिहास लोगों के सामने जाएगा ¹

‘‘उन दिनों जो दिनों मैं वहां रहा था, बहुत अच्छा समय बीता वो दिन में शायद साहित्यसम्मेलन चले जाते थे और शाम को आते थे, जितनी देर बैठते थे, उतनी देर गपशप होती थी और गपशप घूमफिरकर निराला और कलकत्ते के बारे में जाती थी––––’’

इस प्रसंग की चर्चा शिवजी ने अपनी डायरी में की %

आगरा के डॉक्टर रामविलास शर्मा कलकत्ते से लौटकर आए निराला जी के जो आठ पत्र मैंने उन्हें भेजे थे, वापस कर दिए ये आठों पत्रत्रिपथगा’ (लखनऊ) केनिरालाअंक’ (खंड) में छप चुके हैं रात में डॉक्टर शर्मा को सादर सप्रेम भोजन कराया निराला जी की बड़ी देर तक चर्चा होती रही –––––मेरे पास साहित्यिक चिट्ठियों का जो संग्रह है उसे डॉक्टर रामविलास शर्मा ने आज () प्रात% से ही देखना शुरू किया बेसन का हलवा उन्हें नाश्ता कराया मैं परिषद चला गया आनंदमंगलजी को शर्माजी का आतिथ्य करने का भार सौंप गया –––––शाम को % बजे लौटा तो शर्मा जी ने मेरे परिवार के स्वागतसत्कार पर संतोष व्यक्त किया यह भी कहा कि पत्रों में काफी मसाला मिला –––––आज () प्रात% शर्माजी–––––मैं परिषद जाने को घर से ज्यों ही निकला त्यों वे धमके उनके लिए चिट्ठियों का पुलिंदा निकालकर बिजली का मेजपंखा उनके सामने चलाकर मैं तुरंत उसी रिक्शे में चला गया परिषद में १९ वीं शती उत्तरार्द्ध की संचिकाओं का निरीक्षणपरीक्षण करता रहा –––––आज (१०) डॉक्टर शर्मा दोपहर के बाद कहीं से भोजन करके आए शाम तक शेष चिट्ठियों को देखकर अपना काम पूरा कर लिया मुझसे कई प्रश्न भी पूछे स्मृति शक्ति बहुत क्षीण हो गई है, तभी यथाशक्ति उत्तर दिया उन्होंने नोटकर लिया ––––– (शिवपूजन सहाय की डायरी % १० जून, १९६२)

 

‘‘इस तरह बहुतसी पुरानी बातें मुझे मालूम हुर्इं तब मैंने शिवजी को देखा था उसके बादनिराला की साहित्यसाधनामैंने लिखी और निराला जी से पूछा था कि शिवजी केा पुस्तक समर्पित की जाए तो कैसा रहेगा ये पक्की बात है कि मैं इतनी बड़ी पुस्तक लिखने के बारे में नहीं सोच रहा था शायद पहली पुस्तक मैं लिख रहा था तभी मैंने पूछा और उन्होंने कहा थाµशिवजी बहुत अच्छे गद्य लेखक हैं, और मैं उनको पुस्तक समर्पित करूं तो यह बहुत अच्छा रहेगा तो मैंनेनिराला की साहित्यसाधनाउनको समर्पित की पर उस समय तो निराला भी नहीं थे और शिवजी भी नहीं थे लेकिन निराला जी गद्यलेखकों में यदि किसी की प्रशंसा करते थे तो शिवजी की प्रशंसा करते थे निराला जी का स्वभाव ऐसा था कि दूसरों की प्रशंसा जरा कम ही करते थे कविता में पंतजी को अगर कोई दूसरा गाली दे तो उससे लड़ने को तैयार हो जाते थे, और यदि खुद उनसे पूछें कि आपमें और पंतजी में कौन बड़ा कवि है तो कहेंगे कि पंतजी भी कोई कवि हैं ? जो पंतजी को कवि कहता है, वह मूर्ख है यानि इस तरह की बातें कहते थे

‘‘जयशंकर प्रसादजी की कविताओं के बारे में उन्होंने कभी गंभीरता से मुझसे बात नहीं की बल्कि एक बार मैंने उनसे कहा, ‘कामायनीके बारे में उन्होंने मुझसे पूछा, ‘कामायनीतुम्हें कैसे लगी प्रसंग ये था कि प्रसाद जी लखनऊ आए थे और निराला जी के साथ कान्यकुब्ज कॉलेज गए थे, और वहां उन्होंनेकामायनीके कुछ अंश सुनाए थे उसके बाद निराला ने मुझसे पूछा, प्रसाद जी की कविता तुम्हें कैसे लगी, तो मैंने कहा कि और तो सब ठीक है, ओज गुण की कमी है तो उन्होंने अर्द्धसहमति व्यक्त करते हुए कहा कि हां ये तो है, मानो कहना नहीं चाहते हो, पर मेरी बात काट भी नहीं सकते थे

‘‘प्रसाद जी का वे बहुत आदर करते थे, लेकिन कविता में अपने बाद वे किसी को नहीं मानते थे गद्य में भी बड़ा परिश्रम करते थे, गद्य लिखने में मैं एक मिसाल देता हूं उन्हें पोस्टकार्ड लिखना है एक वाक्य लिखा, लगा कि वाक्य ठीक नहीं बना, बस पोस्टकार्ड हटा दिया दूसरा पोस्टकार्ड लिखना शुरू किया मैंने प्रयत्न किया था कि इनके अधलिखे पोस्टकार्ड मैं इकट्ठे कर लूं, लेकिन वे बहुत होशियार थे वे इस तरह की सामग्री नष्ट कर देते थे मेरे हाथ नहीं लगने देते थे

‘‘गद्य की तरफ जो आदमी इतना ध्यान देता हो वो अगर शिवजी के गद्य की तारीफ करे तो वह तारीफ मेरे लिए बहुत मूल्यवान थी शिवजी बहुत बड़े गद्य लेखक हैं, ये मंैने जाना निराला जी से शिवजी ने संपादन का काम किया था, जो अच्छा काम है रंगभूमिका उन्होंने संपादन किया था और दूसरों की पुस्तकों या पत्रिकाओं का संपादन किया था उन्होंने लेकिन वे बुनियादी तौर से मेरी दृष्टि से कलाकार थे, पर जीवन की परिस्थितियां ऐसी थीं कि उन्हें अपने कलात्मक रूप को दबाना पड़ा कहीं एक लेख में उन्होंने रूपनारायण पांडेय का रेखाचित्रण किया है, वह कमाल का रेखाचित्र है –––––¹

गोरा छरहरा बदन, सिर पर किश्तीनुमा टोपी या साफा, कभी मलमली धोती या चूड़ीदार पाजामा, पालिशदार जूता, कोट की जेब में घड़ी, हाथ में चिकनी छड़ी, दोदो सुवासित रूमाल, मुुंह में पान की गिलौरी, आंखों में सूरमा, खासे छैलछबीला बनकर आईने के सामने मुस्कराते हुए खड़े होते थे–––––बातचीत करते समय वे प्राय% आंखें मूंदमंूदकर मुस्करातेमुस्कराते बतियाते थे –––––

‘‘जिसने रूपनारायण पांडेय को देखा होगा वो समझेगा कि कितने यथार्थवादी ढंग से, और कितने कलात्मक ढंग से शिवजी ने उनका चित्रण किया है रूपनारायण पांडेयमाधुरीके संपादक थे अफीम खाते थे पान का बीड़ा दबाए रहते थे मेज के पास कुर्सी पर बैठे हुए, प्रूफ वगैरह का काम किया करते थे अफीम के नशे में आंखे आधी बंद रहती थीं, और कभीकभी बात करते हुए बीच में मुस्करा देते थे इस धजा का बहुत ही बढ़िया चित्रण शिवजी ने किया है, और जहां तक मुझे याद है, उन्होंने निरालाजी का एक संस्मरण लिखा है, वो संस्मरणविश्वमित्रमें छपा था और उसमें निराला जी जो भंवे मटकाते थे उसमें बिहारी की नायिका से उनकी तुलना की गई हैµ‘सों कहें, भौं हंसे, नैन कहे नहिं जाय’µऔर निराला तो उस समय और भी जवान थे मैंने तो सन्३६में देखा था, और यह उससे १०१२ साल पहले की बात होगी, लेकिन निराला के भाव प्रगट करने का जो तरीका था उसका बहुतसी सटीक वर्णन उस लेख में हुआ है ये कलात्मक वृत्ति उनके अंदर थी, और मैं बराबर उनसे कहता था कि आप इस रूझान को पोषित करें इसके अनुसार आगे आप काम करें, और तब उनका उत्तर यही होता था कि ये सब लिखें तो खाएंगे क्या, और इसे छापेगा कौन

‘‘तो हिंदी में प्रकाशन की ये दयनीय स्थिति रही है कि कलाकारों की, साहित्यकारों की जो कलात्मक क्षमता रही है उसका पूरा उपयोग नहीं हुआ, और शिवजी के अंदर ये क्षमता थी मैंने क्रियापदों के बारे में जो बात कही वह केवल भाषाविज्ञान का विषय नहीं कोई भाषाविज्ञानी इस बात को पकड़ ही नहीं सकता, जब तक वह संवेदनशील हो जब तक उसके हृदय में कलात्मक क्षमता हो, तब तक वह नहीं देख सकता कि हिंदी का विकास जिस दिशा में हो रहा है उसमें क्रियापदों की संपदा क्षीण होती जा रही है ये बात उन्होंने पहचानी और ये भी उनके कलाकार होने का एक बहुत बड़ा प्रमाण है वे स्वयं पुष्ट गद्य लिखते थे, रेखाचित्रण करते थे, संस्मरण लिखे हैं उन्होंने ये जो कलात्मक अंश है, ये सब ऊपर हैं उसके नीचे विवेचनात्मक गद्य है––––– ’’

साक्षात्कार वाला वह टेप अचानक यहीं समाप्त हो जाता है, लेकिन टेप के इस लंबे अपूर्ण उद्धरण में भी वे सारी जरूरी बातें गई हैं, जो उनकी स्मृति में अंकित थीं और मैं स्वयं इस पूरे प्रकरण का साक्षी भी था

मेरी जानकारी में हिंदी और अंगरेजी की वैसी अगाध विद्वत्ता और फिर भाषाविज्ञान और समाज और राजनीति की उतनी व्यापक पकड़ हिंदी समालोचना के क्षेत्र में शायद ही कहीं और देखी जा सकती है निराला की साहित्यसाधनाके तीन खंड हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं

रामविलास जी का यह विडियो इंटरव्यू दूरदर्शन द्वारा शिवजी पर बनी फिल्म के लिए था, जिसका एक संपादित अंश ही फिल्म में देखा जा सकता है पूरा विडियो शिवजी के संग्रहालय में है, और यहां उसी का पूरा पाठ दिया गया है पर विडियो में भी यह अचानक यहीं समाप्त हो जाता है इंटरव्यू में संस्मरण सुनाते समय वे बिलकुल तन्मय हो गए थे, और शिवजी और निरालाजी के जीवन संघर्ष के प्रसंगों का स्मरण करते हुए तो वे एक बार लगभग रो पड़े थे होंठ कापने लगे, और वे थोड़ी देर चुप हो गए थे

यहां संस्मरणसाक्षात्कार प्रसंग में एक बात की ओर ध्यानाकर्षण आवश्यक है इस संस्मरण में शिवजी के विषय में एक जगह, जब वे उनसे सम्मेलनभवन, पटना में मिलने गए थे, वे कहते हैं µ “हिंदी में सम्पादन का मतलब बहुत कुछ प्रूफरीडिंग होता है, और वे प्रूफरीडिंग बहुत अच्छा करते थे, इसमें कोई शक नहीं –––मैंने उनसे कहा कि ऐसा काम क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि ये काम करें तो फिर खाएं कैसे इसका पूरा प्रसंग यह है कि रामविलासजी शिवजी से मिलने जब गए थे, शिवजी परिषद् में निदेशक पद पर कार्यरत थे उस समय संभव है वे किसी आवश्यक प्रेससामग्री का प्रूफ देख रहे हों, क्योंकि भाषाशुद्धि पर उनकी कड़ी निगाह बराबर रहती थी लेकिन शिवजी की उस समय यह स्थिति बिलकुल नहीं थी कि प्रूफ देखें तो खाएं क्या ? फिर यह भी है कि प्रूफ संशोधन शिवजी के सम्पादनकर्म का अंतिम आवश्यक अंग होता था जो लोग प्रूफशोधन को एक निकृष्ट कर्म समझते हैं, उनको शायद नहीं पता कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने नोबेलपुरस्कृत उपन्यासओल्ड मैन एंड सीके प्रूफ दो सौ बार स्वयं देखे थे, जिसमें हर बार पाठ में कईकई परिवर्त्तन शामिल थे

सम्पादन और प्रूफरीडिंग के विषय में सामान्यत% लोगों में बहुत भ्रांतियां रहती हैं, जो उनका सम्बन्ध सृजनकार्य से कितनी गहराई से जुड़ा होता है, इसकी अच्छी परख नहीं रखते शिवपूजन सहाय के टकसाली गद्य की निरालाजी द्वारा उतनी प्रशंसा की जो चर्चा शर्माजी ने इस साक्षात्कार में की है, उसके पीछे सम्पादन और प्रूफिंग की यही बारीक कारीगरी है, जिसके कारण ही प्रसाद और प्रेमचंद से लेकर सांवलियाबिहारी लाल वर्मा तक हिंदी का हर छोटाबड़ा लेखक शिवजी के सम्पादनकौशल से लाभान्वित होना चाहता था, और जो कार्य वे हिंदीसेवा की भावना से ही करते थे सम्पादन और प्रूफरीडिंग के लिए भाषा और सृजनात्मकता दोनों की बहुत ऊंची पकड़ होनी चाहिए, और इसे शिवपूजन सहाय के सम्पादन और प्रूफिंग को बहुत ध्यान से देखकर ही जाना जा सकता है, जिसके प्रमाणसमग्रके खण्डों में यथास्थान दिए गए हैं हमारे यहां हिंदी में लेखक द्वारा संशोधित प्रूफशीटों को कूड़े में फेंक दिया जाता है, पर विदेशों में, सभी बड़े लेखकों की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के लेखकसंशोधित प्रूफशीटों को संग्रहालयों में संरक्षित किया जाता है शिवजी ने अपने द्वारा संशोधित बहुत से प्रूफ अपने संग्रहालय में रखें हैं जिनको देखने से पता लगता है, यह कितनी बारीक कारीगरी की कला है

(C) डा.मंगलमूर्ति 

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