आ.नलिन विलोचन शर्मा : जयंती-स्मरण
‘नकेन’ : नलिन,
केसरी, नरेश
‘नकेन’ एक प्रथमाक्षरी शब्द (acronym) है : तीन कवियों – नलिन विलोचन
शर्मा, केसरी कुमार और नरेश के नाम के प्रथमाक्षरों से निर्मित, जो हिंदी की एक
प्रयोगवादी काव्य-धारा को इंगित करता है, जिसका सूत्रपात छायावाद के विसर्जन और
प्रगतिवाद के प्रादुर्भाव के साथ प्रारम्भ हुआ | इसका अद्भुत साम्य अंग्रेजी
साहित्य की ‘इमेजिस्ट’ काव्य-मंडली से है, जिसमें भी एज्रा
पाउंड, टी.ई.ह्यूम, हिल्डा डू लिट्ल, आदि इंग्लैंड और अमेरिका के कई कवियों ने
कुछ सुस्थिर सूत्रों के अनुशासन में काव्य-रचना की पहल की, जिसमें सुस्पष्ट
‘बिम्ब’ के साथ ‘उत्कृष्ट केन्द्रण’ पर जोर दिया जाता था, और जिसमें काव्य-भाषा पर
भी कठोरतर नियंत्रण होता था | ‘नकेनवाद’ अथवा इस काव्य-धारा का घोषित शास्त्रीय
अभिधान ‘प्रपद्यवाद’ का अवतरण भी ‘इमेजिस्ट’ काव्य-धारा की ही तरह एक घोषणा-पत्र
(‘पस्पशा’) से संयुक्त एक काव्य-संकलन ‘नकेन’ के रूप में दिसंबर, १९५६ में हुआ |
इस काव्य-मंडली के प्रधान थे आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, जिनके नाम का ‘न’ ही इस
त्रिगुट काव्य-मंडली ‘नकेन’ का प्राथमिक वर्ण है | पटना के साहित्य-मंडल में यह
तीन व्यक्तियों में सीमित एक अनन्य साहित्यिक त्रिगुट था जिसने हिंदी काव्य-जगत में प्रयोगवाद का एक नया
शास्त्रीय स्वरूप ‘प्रपद्यवाद’ के नाम से खड़ा किया था | लेकिन मेरा अभीष्ट यहाँ
‘नकेन’वाद के गुंजलक में फंसना नहीं है; यहाँ मेरा उद्देश्य नलिन जी से जुड़े अपने कुछ संस्मरणों की चर्चा करना ही
है; यद्यपि नलिन जी के प्रसंग में ‘नकेन’-वाद की चर्चा किसी हद तक अपरिहार्य भी हो
जाती है |
‘प्रपद्यवाद’ के
‘नकेन’ शीर्षक पहले काव्य-संग्रह में
नलिनजी की एक सुन्दर कविता ‘सागर-संध्या’ प्रकाशित हुई थी जिसका मेरा अंग्रेजी
अनुवाद मेरे नये अंग्रेजी काव्य-संग्रह ‘टू वे मिरर’ में छपा है | मैंने अपने हाल
में प्रकाशित छोटे से हिंदी काव्य-संकलन ‘मन एक वन’ की भूमिका में इसकी थोड़ी चर्चा
भी की है | लेकिन पहले आप नलिन जी की मूल कविता ‘सागर-संध्या’ देखें :
बालू के ढूह जैसे बिल्लियाँ सोई हुई
उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं
सूरज की खेती चर रहे मेघ-मेमने
विश्रब्ध, अचकित |
मैं महाशून्य में चल रहा –
पीली बालू पर जंगम बिंदु एक –
तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के
काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से हो कर |
मेरी गति के अवशेष एकमात्र
लक्षित ये होते
सिगरेट का धुंआ वायु पर
टंकित, हिन्हें ज्वार भर देगा आ कर |
इस कविता में
बिम्ब-प्रधान ‘चित्रेतना’ का तत्त्व तो बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है (‘चित्रेतना’
शब्द ‘प्रपद्यवाद’ का केसरी कुमार द्वारा बनाया एक सूत्र है –चित्र+चेतना, अथवा
चित्र-प्रधान चेतना), लेकिन साथ ही, कविता के स्वभाव वाला संगीत भी इस कविता में उतनी
ही स्पष्टता से सुना जा सकता है | यदि नलिनजी की इस कविता को हम ‘प्रपद्यवाद’ के एक श्रेष्ठ प्रतिमान की तरह
देखें तो यह उसके ‘द्वादशसूत्री’ से परे जाती दिखाई देती है – उस ओर जहाँ कविता का
स्वाभाविक अपना परिसर है | निहितार्थ यह कि कविता स्वयं किसी निर्मित-पोषित ‘वाद’ के घरौंदे में घिरना नहीं
चाहती | जब हम उसकी ‘रूपगत’ मुक्ति की बात
करते हैं, अथवा ‘विषयगत’ स्वच्छंदता की बात करते हैं ( जैसा इस प्रसंग में नलिनजी
ने अपने एक लेख ‘मुक्त काव्य और स्वच्छंद काव्य’ में किया है ), तब हम शायद उन परिवर्त्तनों की सोच रहे
होते हैं जो कविता में समय-समय पर दृष्टिगत होते हैं, जैसे आकाश के बादल अपना रूप
या प्रवाह स्वाभाविक ढंग से बदलते रहते हैं | विषय या रूप के ये बदलाव कविता के
स्वभाव की अनिवार्य स्थितियां हैं – यद्यपि संगीत की उसकी प्रकृति सदा स्थायी-भाव
में रहती है, और गद्य से उसको अलग करती है | कविता चाहे ‘प्रपद्य’ की हो,
‘प्रगद्य’ की हो (‘प्रगद्य’ अपनी कविताओं के लिए मेरा शब्द है), या शुद्ध कविता
हो, संगीत और लयात्मकता से वह कभी विच्छिन्न नहीं होती | नलिनजी की कविता
‘सागर-संध्या’ इसका सबसे अच्छा प्रमाण है |
अंग्रेजी के
‘इमेजिस्ट’ कवि-मंडली की ही तरह ‘नकेन’-मंडली ने जिस प्रकार अपनी कविता को कठोर
प्रायोजित सूत्रों में परिसीमित कर लिया, उससे उनका समय और परिमाण तो परिधित हुआ
ही, जिस विरोध और मुक्ति की घोषणा की गई थी उसका पल्लवन भी पर्याप्त नहीं हो पाया,
भले ही आगे की कविता के विकास में, अपनी-अपनी भाषा में, इन दोनों मंडलियों ने एक
उर्वरक की भूमिका किसी सीमा तक निभाई हो | ‘नकेन’ की ही तरह ‘इमेजिस्ट’ कवियों की
संगति ने भी एक तीन-सूत्री विधान घोषित
किया था – (१)”वस्तु” का वस्तुनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ सीधा चित्रण (२) एक भी
अतिरिक्त शब्द नहीं जो अभिव्यक्ति में प्रयुक्त होता हो (३) लय के प्रयोग में
सांगीतिक पदों की श्रृंखला हो, तालमापी (‘मेट्रोनोम’) जैसी आवृत्ति नहीं | ‘नकेन’
के सूत्र इनसे मिलते-जुलते हैं, पर लय और संगीत की भूमिका का उल्लेख ‘द्वादश’ या
अष्टादश’ सूत्रों में भी स्पष्टतः कहीं नहीं है | इससे यही निष्कर्ष निकाला जा
सकता है कि ‘प्रपद्यवादी’ सूत्रों में या तो लय और संगीत को अभिगृहीत मान लिया गया
था, या उसकी अवहेलना की गई थी | उन सूत्रों में ‘दृकवाक्पदीय’ प्रणाली (‘verbi-voco-visual
method’) की चर्चा अवश्य
हुई है – जिसका सम्बन्ध पंक्तियों की
बनावट से ही है, जो कविता की चाल या प्रवाह का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, और जिसका
नियंत्रण संगीत और लय द्वारा ही संभव है | इस प्रसंग में ‘नकेन-१’ संग्रह के अंत
में प्रकाशित विस्तृत व्याख्या ‘पस्पशा’ में आधुनिक यूरोपीय-साहित्य के कुछ
पारिभाषिक शब्दों (‘mot-juste’,’verse libre’, ‘verse libere’) का उल्लेख अवश्य हुआ है, जिससे स्पष्ट होता है की
‘प्रपद्यवाद’ का शास्त्रीय ढांचा आधुनिक यूरोपीय-साहित्य से ही आयातित हुआ था |
नलिन जी की जिस
‘सागर-संध्या’ कविता और उसके अंग्रेजी अनुवाद की मैंने चर्चा की है, और जो मुझे
प्रपद्यवाद’ की सूत्रीय सीमाएं लांघती हुई एक श्रेष्ठ कविता लगती है, उससे जुड़ा
मेरा एक अपना संस्मरण भी है | यहाँ आप मेरा वह अनुवाद भी पढ़ सकते हैं, जिसमें मूल
कविता की एक छाया आपको मिलेगी |
Seadusk
Dunes of sand like
cats curled asleep,
The waves
lapping-playing on their paws.
Cloudlambs grazing
sun’s greensward
Dauntless,
unamazed.
I walking in an
infinite void –
A vagrant point on
the yellow sands –
Across the eternal
triangle
Of sky, earth, and
the shoreless sea.
As the backwash of
my voyage
Are visible only :
cigarette-smoke
Trailing on the
wind; on the sands,
A number of
footprints
To be full when
the waves will sweep them over.
नलिन जी से
सम्बद्ध मेरा संस्मरण उनकी इस कविता से विशेष रूप से जुड़ा है | बात वर्ष१९५१ के
आखिरी दिन, दिसंबर ३१ की है | नलिन जी, नरेश जी, शिवचंद्र शर्मा, शिवजी (मेरे
पिता) और मैं, और नलिन जी के परिवार के दो बच्चे तथा कुछ और लोग - पटना में नाव से
गंगा पार करके बीच नदी के रेत पर पिकनिक मनाने गए थे | पिताजी ने डायरी में लिखा
है: “ भंग-बूटी छनी,मुकुन्दी (बाटी), चूरमा, आलू-गोबी का साग, छीमी, चटनी, सलाद,
दही-चीनी | डट कर भोजन हुआ|” उसी रेत पर नलिनजी सिगरेट पीते हुए दूर तक घूमते रहे
थे, मुझे याद है | और उसी परिदृश्य में इस कविता का जन्म हुआ था | उस समय हम तीनों
बच्चे तो बस बालू पर अपनी दौड़-भाग में लगे रहे | लेकिन, अब लगता है, यह एक अद्भुत
संयोग ही था कि एक ही स्थल पर कवि, दृश्य, अनुवादक (यह बालक),और वह समय - सब एक साथ उपस्थित हो गए थे | किसी कविता
के पाठक के लिए ऐसा संयोग शायद ही कभी-कहीं घटित हुआ हो | कविता कब, कहाँ, किन
स्थितियों में चुपचाप कवि-मन में उतर आएगी, इसको मैने इस कविता का प्रसंग में
प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया है | निश्चय ही,इस कविता का अनुवाद करते हुए मैं उस
अनुभूत क्षण में –‘तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के / काल-प्रत्न त्रयी-मध्य’
में पहुँच सका, और शायद तभी मेरे मन में भी कविता के उतरने का
चमत्कार घटित हुआ, जो शायद मेरी अपनी कविताओं में भी कुछ इसी तरह उतरा है |
नलिन जी पटना
कॉलेज में मेरे शिक्षक भी रहे | बी.ए. में मैंने अपने अग्रज आनंदमूर्त्तिजी के
पदचिन्हों पर चलते हुए अंग्रेजी में ऑनर्स ले लिया था, लेकिन हिंदी को मनोविज्ञान
के साथ प्रधान विषय के रूप में रखा था | हिंदी और संस्कृत में मेरी रुचि प्रारंभ
से बनी रही, लेकिन मुख्य धारा में अब अंग्रेजी साहित्य आ चुका था | उन दिनों के
हिंदी शिक्षकों में विभाग में विश्वनाथ प्रसाद, जगन्नाथ राय शर्मा, नलिन जी, केसरी
कुमार, देवेन्द्रनाथ शर्मा, शिवनंदन प्रसाद, अर्जुन सिंह, राजाराम रस्तोगी और
दिनेश्वर प्रसाद थे | नलिन जी का क्लास गंभीरतम वातावरण में होता था – कोई खांसता
भी नहीं था | मैं सदा आगे के बेंच पर बैठता था | वे बहुत आहिस्ता आवाज़ में,
धीरे-धीरे बोलते हुए पढ़ाते थे, और हम मन्त्र-मुग्ध हो जाते थे | देवेन्द्रनाथ
शर्मा का क्लास भी बहुत अनुशासित रहता था | शिवनंदन बाबू और दिनेश्वर बाबू भी बहुत
अच्छा पढ़ाते थे | विश्वनाथ बाबू हमलोगों का क्लास नहीं लेते थे, और अन्य लोगों के
क्लास हमलोग ज़्यादातर ‘बंक’ करते थे, या उनमें शांत नहीं रह पाते थे | मुझको अब
लगता है, मेरे पिता के कारण, मेरे शिक्षकों का मेरा अंग्रेजी ऑनर्स पढ़ना शायद
अच्छा नहीं लगता होगा, क्योंकि वे हिंदी में मुझको प्रथम श्रेणी के अंक कभी नहीं
देते थे, और मेरा ध्यान भी अंग्रेजी की तरफ ज्यादा होता था, और वहां तो प्रथम
श्रेणी के अंक पाने के अपने लटके थे |
मुझको नलिनजी के
दर्शन बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन-भवन में तो प्रायः प्रतिदिन संध्या में होते ही
थे, क्योंकि बाबूजी सपरिवार सम्मेलन-भवन परिसर में ही रहते थे, और नलिनजी का रोज़
सम्मेलन आना तय रहता था, क्योंकि वे
सम्मेलन में अनुशीलन विभाग के मंत्री थे | बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का कार्यालय
भी तब सम्मेलन-भवन में ही ऊपरी तल्ले पर आ गया था, इसलिए यह मेरा स्वर्णिम सौभाग्य
था कि १९५० से १९५९ तक, जब तक बाबूजी परिषद् में संचालक पद पर रहे, मैं अहर्निश
बिहार की साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र में रहा – जहाँ सम्मेलन-भवन के रंगमंच पर
प्रायः प्रतिदिन कोई-न-कोई साहित्यिक समारोह, नाट्य-मंचन अथवा संगीत-नृत्य का
कार्यक्रम होता ही रहता था | सांस्कृतिक गतिविधियों के मंत्री बेनीपुरीजी थे, और
उन्होंने ही सम्मेलन-भवन में ‘कलाकेंद्र’ की स्थापना कराई थी, जहाँ नृत्य और संगीत
का प्रशिक्षण दिया जाता था और उसके मंचीय कार्यक्रम भी अक्सर होते थे |’कला
केंद्र’ में मैं बांसुरी सीखता था और मेरा मित्र महेश कुमार (जगदीश प्रसाद श्रमिक
का आत्मज) नृत्य सीखता था |
निश्चय ही वह
मेरे जीवन का स्वर्णिम काल था, जब बिहार भर के साहित्यकारों और कलाकारों के दर्शन
वहां प्रायः नित्य प्रति हुआ करते थे | परिषद् ने आग्रहपूर्वक बाबूजी को, १९५४
में, ‘वयोवृद्ध साहित्यकार पुरस्कार’ दिया था, जो आचार्य नरेंद्रदेव के हाथों
उन्हें प्राप्त हुआ था, और बाबूजी ने उसी समय वह पुरस्कार राशि सम्मेलन को दे दी
थी जिससे ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना की गई थी | नलिन जी ही
उसके व्यवस्थापक मंत्री बनाए गए थे | गोष्ठी का उद्घाटन पुरुषोत्तम दास टंडन ने
सम्मेलन में ही ४ जुलाई, १९५४ को किया था | अपने उदघाटन भाषण में टंडन जी ने
शिवपूजन सहाय जी के इस साहित्यिक सत्कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि
यह शिवपूजनजी के साहित्य-प्रेम का द्योतक है और उन्होंने आशा व्यक्त की कि इस
गोष्ठी के माध्यम से हिंदी से सम्बद्ध अनेक प्रश्नों पर प्रकाश पड़ सकेगा तथा हिंदी
के विकास में सहायता मिलेगी | गोष्ठी के
संयोजक आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने प्रारम्भ में गोष्ठी के नियमों, उद्देश्यों
एवं कार्य-प्रणाली पर प्रकाश डाला | उन्होंने बताया कि गोष्ठी का मुख्य उद्देश्य
सामान्य रूप से भाषा और साहित्य, और विशेष रूप से हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य से
सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करना तथा अपने प्रस्तावों, निष्कर्षों और
परिणामों को सम्मलेन के मुखपत्र ‘साहित्य’ तथा
पुस्तिकाओं आदि के द्वारा विद्वानों के समक्ष उपस्थित करना है | गोष्ठी में
निष्पक्ष भाव से साहित्यिकों का स्वागत करना अभीष्ट है, तथा उन्हें अपने विचार
व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता है | इस उद्घाटन गोष्ठी में सर्वश्री ‘दिनकर’,
बेनीपुरी, धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, डा. राम खेलावन पाण्डेय, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, नागार्जुन, आदि
अनेक प्रमुख साहित्यकार उपस्थित थे | ‘समग्र’ के खंड-५ में इस गोष्ठी १९५४ से १९८९
के बीच हुई लगभग पौने दो सौ सत्रों का विवरण प्रकाशित है, जिनमे विशिष्ट वक्ताओं
में कुछ प्रमुख नाम हैं – पुरुषोत्तम दास टंडन, किशोरी दास वाजपेयी, राहुल
सांकृत्यायन, उदयशंकर भट्ट, प्रभाकर माचवे, चतुरसेन शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र,
वियोगी हरि, जैनेन्द्र कुमार, उपेन्द्रनाथ अश्क,भगवती चरण वर्मा,धर्मवीर भारती,
अमृत राय, त्रिलोचन शास्त्री, रामकुमार वर्मा, डा. नगेन्द्र, ओदोलेन स्मेकल
(चेकोस्लोवाकिया), प्रो.मैकग्रेगर (लंदन वि.वि.), आदि |
इनमें से बहुत
सारे विद्वानों के आतिथेय नलिनजी ही होते थे | छोटी अन्तरंग गोष्ठियां अनुशीलन
विभाग के कमरे में हुआ करती थीं, जिनकी रिकार्डिंग भी एक ‘ग्रुंडिग’ टेप रिकॉर्डर
पर होती थी | मेरे पिता और नलिनजी, बेनीपुरी जी, दीक्षित जी आदि के प्रयास से
पुरानी दुर्लभ पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं,बिहार के पुराने साहित्यकारों से सम्बद्ध
पांडुलिपियाँ, उनके पत्रादि, दैनिक उपयोग की वस्तुएं, वस्त्र आदि भी अनुशीलन विभाग
में एक शीशे की लम्बी आलमारी में संगृहीत की गयी थीं | यह सब मैंने खुद देखा था |
पर बाद में नलिनजी और शिवजी के जाने के बाद सम्मेलन पुस्तकालय की सभी पुस्तकें और
अनुशीलन विभाग की वह सारी अमूल्य सामग्री
सम्मलेन के अधिकारियों ने ही गायब कर दीं | वह ‘ग्रुंडिग’ टेप रिकॉर्डर भी गायब कर
दिया गया और उसके सब टेप भी गायब हो गए | उसमें वे टेप भी थे जिसमें मेरे पिता ने
बहुत आग्रह के बाद कई बैठकों में अपने
कलकत्ता और काशी-प्रवास के साहित्यिक संस्मरण सुनाये थे | बाद में मुझको यह भी पता
चला यह सब गोलमाल कब और कैसे हुआ |
‘नकेन’ के दो
काव्य-संकलनों में नलिन जी के अलावा बस केसरी कुमार और नरेश की ही कविताएँ थीं |
पहले खंड में तीनों की कुल लगभग ६० कविताएँ थीं | संग्रह के प्रारम्भ में तीनों
द्वारा बजाप्ता हस्ताक्षरित भूमिका के रूप में एक ‘प्रपद्य-द्वादश-सूत्री’
घोषणा-पत्र था, और कविताओं के अंत में २५ पृष्ठों में ‘पस्पशा’ शीर्षक से भूमिका
का विस्तार था | दूसरा खंड नलिन जी के देहांत के बहुत बाद १९८१ में शंकरदयाल सिंह
के सम्पादन में १९८१ में पारिजात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था जिसमें फिर तीनों
कवियों की लगभग ५०कविताएँ थीं, और प्रारम्भ में इस बार (केसरी कुमार द्वारा
विस्तारित) ‘प्रपद्य-अष्टादश-सूत्री’ भूमिका-स्वरूप थी जिसके साथ ४ पेज की एक
‘फक्किका’ भी उसके परिशिष्ट के रूप में थी | अंत में फिर भूमिका की विस्तृत
व्याख्या के रूप में ‘पस्पशा’-२ और कविताओं के ‘स्वाध्याय’-स्वरुप दो-तीन आलेख थे
| लेकिन इस दूसरी पुस्तक के प्रकाशन के बाद फिर इस ‘कवि-त्रयी’ का काव्य-प्रवाह
अवरुद्ध हो गया |
नलिनजी की
‘नकेन’-मंडली में केसरी कुमार भी पटना कॉलेज में मेरे शिक्षक थे, और बाद में वे
सम्मेलन के अध्यक्ष भी हुए | लेकिन मैं उनके निकट कभी नहीं रहा, और नलिनजी और मेरे
पिता के देहांत के बाद सम्मेलन को लेकर वे
कई तरह के विवादों में भी घिरे रहे | लेकिन ‘नकेन’ के अंतिम ‘न’ – नरेश से मेरा परिचय उनके
संगीत-प्रेम की लेकर भी था | वे बहुत ऊंचे दर्जे के शास्त्रीय संगीत के
हारमोनियम-वादक थे | नरेशजी जन-संपर्क
विभाग में उप-निदेशक पद से सेवा-निवृत्त हुए थे, और सम्मेलन के पास ही उनका आवास
था | वर्षों बाद, मई, १९९७ में, मैंने उनके कदमकुआं वाले मकान पर जाकर उनका एक
लम्बा इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था | उसमें उन्होंने ‘नकेन’-वाद के प्रारम्भ की पूरी
दास्तान सुनाई थी |
नरेश जी का जन्म
१९२६ में गया में हुआ था | उनके पिता रायसाहब मथुरा प्रसाद दरभंगा में
सब-डिप्टी थे | उन्होंने बी.ए. ऑनर्स अंग्रेजी में पटना कॉलेज
से १९४१ में किया, पर एम.ए. नहीं कर सके | साहित्य और लेखन के प्रति शुरू से रुझान
रहा | पढ़ाई छोड़ कर पटना में कई पत्रिकाओं– ‘योगी’, ‘विश्वमित्र’,’नवराष्ट्र’,
‘जनता’. ‘बिहार हेराल्ड’,’स्पार्क’, आदि में सम्पादन का काम किया | कुछ दिन रैडिकल
डेमोक्रेटिक पार्टी में मेम्बर भी रहे | नलिन जी के प्रभाव में १९४२ में आये |
उनके साथ मिलते-जुलते ही आगे चलकर ‘नकेन’-वाद का प्रायोजन हुआ, और केसरीजी भी उससे
आकर जुड़ गए | इसकी गोष्ठियां नलिन जी के यहाँ ही होतीं, जिसमें शिवचंद्र शर्मा भी
प्रायः उपस्थित होते | ये सब लोग भोजपुरी-भाषी थे और नलिन जी और शर्मा जी तो दोनों
छपरा के ही मूल निवासी थे | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि शिवजी की स्मृति में
स्थापित ‘आचार्य शिवपूजन सहाय स्मारक’ न्यास ने २००८ में काशी विद्यापीठ, वाराणसी
में आयोजित एक समारोह में नरेश जी को ‘श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी पुरस्कार
से सम्मानित भी किया था |
लेकिन इससे बहुत
पहले, पटना में १२ सितम्बर, १९६१ को,
अचानक नलिन जी का हृदयाघात से निधन हो गया था | वे मेरे पिता से २३ साल
छोटे थे | मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र ४५ वर्ष थी | उनके पिता पं. रामावतार
शर्मा की मृत्यु भी अल्पायु में – ५६ वर्ष
में ही हुई थी | स्मरणीय है कि शिवजी को जब यह संवाद मिला,उन्होंने उस दिन अपनी
डायरी में लिखा –
आचार्य नलिन
विलिचन शर्मा का आकस्मिक निधन हो गया | कलेजा काँप उठा | देह थरथराने लगी | मस्तिष्क
सर्वथा शून्य हो गया | तुरंत वहां पहुंचा |...उनका शव देख करुना का बंधन टूट गया |
मैं अश्रु-प्रवाह न रोक सका | उनकी अर्थी में कन्धा लगा कर घर के चौपाल से सड़क तक
ले आया | फिर रिक्शा पर बेनीपुरीजी के साथ सम्मेलन-भवन होते बांस घात श्मशान तक
गया | चिता जल गई तो घर लौट, नहाया | रात में उपवास किया | नलिन जी की स्मृति सपने
में भी होती रही | इस युग में वे विद्या और शील-सौजन्य में अद्वितीय पुरुष थे |
... हे राम, आज बिहार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् साहित्य-सेवी चल बसा |
शिवजी नलिन जी
के पिता पं. रामावतार शर्मा से भी परिचित थे | ‘समग्र’ खंड-२ में उन्होंने दोनों
साहित्य-महारथियों पर ह्रदय-स्पर्शी संस्मरण लिखे हैं | नलिन जी वाला संस्मरण उनके
निधन के बाद ही दिसंबर, १९६१ की ‘नई धारा’ में प्रकाशित हुआ था | उसका अंतिम
अनुच्छेद विशेष मार्मिक है –
संयोग की बात,
एक दिन बिहार-हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के अनुशीलन-कक्ष में हम दोनों बैठे थे |
उन्होंने सहसा कहा कि ‘साहित्य’ के सम्पादकीय स्तम्भ में स्वर्गीय साहित्य-सेवियों
पर लिखी आपकी संस्मरणात्मक टिप्पणियाँ मुझे बहुत पसंद हैं | मैंने कहा कि आपकी
पसंद ही उनकी सार्थकता है; किन्तु मेरे निधन पर आपको भी वैसी ही टिप्पणी लिखनी
पड़ेगी | छूटते ही बोल उठे कि कहीं आपको ही मेरे लिए लिखना पड़ गया तो आपकी अभ्यस्त
लेखनी मुझसे बाजी मार ले जाएगी | इस पर उस दिन तो हम दोनों के अट्टहास से कक्ष
मुखरित हो गया, किन्तु उस बात की स्मृति का वृश्चिक-दंशन ह्रदय को बड़ा ही व्यथित
कर गया | क्या मनुष्यों के अंतःकरण में व्याप्त ब्रह्म भविष्यवाणी भी किया करता है
?
शिवजी के
सम्पादन में ‘साहित्य’ का अंतिम अंक ‘नलिन स्मृति अंक’ के रूप में छपा | सम्मेलन
की स्थिति बिगडती जा रही थी | ब्रजशंकर वर्मा अध्यक्ष थे | शिवजी ने सम्मलेन की
कार्य-समिति से पहले ही त्यागपत्र दे दिया था | उनका अपना स्वास्थ्य भी तेजी से
गिरता जा रहा था | सरकार ने नियम-विरुद्ध उनको समय से पूर्व सेवा-निवृत्त कर दिया
था, जिससे उनको पेंशन भी नहीं मिल रहा था | उनके लिए जीवन के ये शेष कुछ महीने
अत्यंत अभाव और कष्ट में बीत रहे थे | वे बस डायरी में अपनी व्यथा-कथा अंकित कर
लेते थे | सम्मेलन ‘नलिन स्मृति अंक’ के प्रकाशन के प्रति पूरी तरह उदासीन था |
“श्री ब्रज शंकर वर्मा से मैंने कहा (शिवजी ने डायरी में लिखा)- श्री दिनकरजी के
सामने ही – कि ‘नलिन-स्मृति-अंक’ के प्रकाशन के विषय में क्या होगा | उन्होंने
छूटते ही दो-टूक बात कही – ‘मैं क्या जानूं ? मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं |’मैं चुप
रह गया | एक दिन फोन पर मैंने कहा –
‘आपके और हमलोगों के देखते-देखते चालीस वर्ष से अधिक पुरानी संस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है क्यों ?’
उन्होंने बेधड़क कहा – ‘कितनी ही ऐसी संस्थाएं जन्म लेकर चौपट हो चुकी हैं तो इसके
लिए कौन हाय-हाय करे |’ मौन रह कर मैंने सोचा प्रांतीय सम्मेलन के अध्यक्ष की ऐसी
बात सुन कर साहित्यिकों के आदर्श पर सिर धुनना ही शेष रह गया | उनकी बातों से मन
खट्टा हो गया | नलिन जी को वे भूल ही नहीं गए, उनको आदरणीय भी नहीं समझते हैं |”
नवम्बर, १९६२
में ‘नलिन-स्मृति-अंक’ छपा | शिवजी ने लिखा –“’साहित्य’ का ‘नलिन-स्मृति-अंक’ बहुत
ही खराब छपा | मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया | सम्मलेन के प्रधान-मंत्री पं.
छविनाथ पाण्डेय जी के सर्वोदय प्रेस में छपा है | सम्मेलन के सदस्यों और
पदाधिकारियों ने थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई |”
इसके दो ही
महीने बाद २१ जनवरी, १९६३ को शिवजी का महाप्रयाण हुआ | और इस तरह अपने अंतिम समय
में प्रकाशकों द्वारा पूरी तरह शोषित और हिंदी की प्रांतीय-स्तर की सबसे मान्य
संस्था द्वारा उपेक्षित हिंदी के दो मूर्धन्य साहित्यकारों की यही रही जीवन-कथा !