दर्पण में वे दिन : १
लहेरिया सराय
मंगलमूर्त्ति
जब
सांझ ढलने लगती है तब सुबह की याद आती है - एक सुबह जो बीत गई और दूसरी जो फिर आएगी। याद आने लगती है खिड़की से झांकती सुबह की रंगारंग रोशनी, शोखी से पेड़ के पत्तों को हटाकर झांकता-मुस्कुराता सूरज, सबको हांकता-जगाता। संभावनाओं से ओतप्रोत एक नई सुबह, हवा में एक अल्हड़ ताज़गी लिए। फिर एक नये दिन की शुरूआत - जब सूरज परवान चढ़ेगा, धूप तपेगी, बादल भी घिरेंगे, फिर दिन धीरे-धीरे ढल जाएगा, सांझ धिरने लगेगी और रात कब आ जाएगी पता भी नहीं चलेगा। रात भी कभी पूनम की होगी, कभी अमावस की। लेकिन रात ज़रूर एक गहरी नींद लेकर आएगी जिसमें एक भरोसा भी छिपा होगा फिर एक नई सुबह की अवानगी का।
बचपन
भी एक सुबह जैसा ही होता है - जब एक दिन की तरह ही एक नया जीवन शुरू होता है। बचपन में भी वह सब कुछ होता है जो एक सुबह अपनी डलिया में लेकर इठलाती आती है। वह रंगारंग रोशनी, वह शोखी-भरी मुस्कुराहट, वह पत्तों की ओट से झांकना-हांकना, वह अल्हड़पन, वह ताज़गी - फूलों से भरी एक डलिया। हां, बिलकुल सुबह जैसा ही होता है बचपन - वैसा ही कोमल, मृदुल और सुरभित; वैसा ही चकित-पुलकित।
और
वैसा ही एक बचपन अंकुरित-पुष्पित,पल्लवित हुआ एक साहित्यिक कुटिया में। साकिन लहेरिया सराय, हाल मुकाम बंगाली टोला, वल्द शिवपूजन सहाय, पेशा - लेखक, संपादक, साहित्यकार। दफ्तरी मुकाम - पुस्तक-भंडार, मालिक - रामलोचन शरण, हिंदी पुस्तकों के गुरु-प्रकाशक । माहौल –
शुद्ध साहित्यिक, जहां हिंदी-जगत के सभी ख्यात-अख्यात लेखकों, नवसिखुओं की आवाजाही बराबर लगी रहती। प्रेस में ट्रेडिल और फ़्लैट मशीनें हमेशा घहराती रहतीं। दफ़तरीखाने में भी छपे फ़र्मों की कटाई-सिलाई चलती रहती, मशीनों के तेल और सियाही की गंध, कागज़ के खुलते रीमों की बास के साथ मिलकर सारे परिसर पर अपना दबदबा बनाए रहती। और वहीं एक कमरे में चटाई पर पेट के बल लेटे पिता, शिवजी - वहां सबलोग उनको इसी नाम से पुकारते - लेखों और प्रूफ़शीटों पर आंख गड़ाए अपनी लाल कलम घिसते होते।
दूसरा
दृश्य : पास ही के बंगाली टोला का एक छोटा-सा, छोटे-छोटे दो तीन कमरों का खपरैल मकान। कमरों से लगा लंबा पतला बरामदा जिससे चार-पांच सीढ़ियां उतरने पर एक मिट्टी-फ़र्श वाला बरामदे के बराबर आंगन और उसके एक सिरे पर ओड़हुल फूलों का एक लंबा पेड़। शिवजी ने लिखा है, वहीं यह बिरवा रोपा गया जिसके बचपन की यह कहानी है। उस ओड़हुल फूल के पेड़, उस मिट्टी के आंगन और उस उंचे पतले बरामदे की एक धुंधली - कागज़ पर आधी धुल गई लिखावट जैसी - याद बची रह गई है स्मृति में।
पिता
का संबंध तो पुस्तक-भंडार के साथ १९२३-२४ में ही बन गया था, जब वे कलकत्ता में ‘मतवाला’, ‘आदर्श’, ‘समन्वय’ आदि पत्रों संपादन कर रहे थे, और पूरे हिंदी-जगत में उनके संपादन-कौशल की ख्याति फैल चुकी थी। रामलोचन शरण की पैनी निगाह उन पर बनी थी, और अंततः बनारस में बेनीपुरी के बार-बार के आग्रह पर उन्हें रामलोचन शरण की चाकरी स्वीकार करनी पड़ी, और पुस्तक-भंडार की पुस्तकों को शुद्ध-सुंदर छपवाने के लिए उन्हें बनारस जाना पड़ा, क्योंकि तब तक पुस्तक-भंडार का प्रेस उतना सामर्थ्यवान नहीं हो पाया था। बनारस में रहते ही नवम्बर, १९२६ में शिवजी की दूसरी पत्नी का देहांत हुआ, और वहीं रहते हुए मई, १९२८ में उनका तीसरा विवाह हुआ छपरा के पास विलासपुर (रेलवे स्टेशन, मसरख) में ।
बनारस में ही कालभैरव और बुलानाला मुहल्लों में रहते हुए उनकी तीन संताने हुईं, और अंततः १९३५ में अपना छोटा-सा परिवार लेकर वे लहेरिया सराय चले आए, जहां अब उन्हें पुस्तक-भंडार के सभी प्रकाशनों का संपूर्ण संपादन करने के अलावा वहीं से प्रकाशित मासिक पत्र ‘बालक’ का संपादन भी करना पड़ रहा था, हालांकि संपादक के रूप में उस पर भण्डार के स्वामी
रामलोचन शरण का नाम छपता था।
यहीं
लहेरिया सराय में ही चौथी संतान - इस ‘बालक’ मंगलमूर्त्ति का भी जन्म हुआ, बंगाली टोला के उसी मकान में। बचपन के बस पहले दो साल ही वहां बीते। दो साल की स्मृतियाँ भला क्या होंगी । एक गहरे कुहासे में कुछ पेड़ों की छाया- भर। मां बीमार रहती थी, और वहां डॉक्टर धार के इलाज में उसका स्वास्थ्य डांवाडोल चलता था। अपनी इस चौथी और आखिरी संतान को वह हमेशा छाती से चिपकाए लेती रहती या घर के काम में लगी रहती,
इसका बस एक धुंधला-सा अहसास रह गया मेरे मन में । एक बड़ा भाई आठ साल का था, और उसके बाद दो बहनें - बड़ी छः साल की और छोटी चार साल की। केवल बड़े का नाम वहीं के किसी स्कूल में लिखवाया गया था। बहनें तो अभी ककहरा और गिनती में ही तबाह रहतीं। बाद में कुछ दिन वे भी एक स्कूल में दाखिल हुई थीं |
साल-डेढ़ साल का चौथा बच्चा - मैं तो अभी दुधमुंहां ही था। तभी पिता ने लहेरिया सराय की पुस्तक-भंडार की नौकरी छोड़ दी थी, और राजेंद्र कॉलेज, छपरा में हिंदी के प्रोफेसर बनकर वहां चले गए थे। लहेरिया सराय में बचपन के पहले डेढ़-दो साल की स्मृतियाँ बस कुछ एकाध धुंधली तस्वीरों जैसी कहीं बची रहीं। दिवसरानी की याद उसकी उस तस्वीर में रह गई है जिसमे वह मुझे नंग-धड़ंग, केवल एक कमीज पहने, कमर पर लादे बरामदे में खड़ी है। उसके दोनों बगल छोटी-छोटी मेरी दोनो दीदियां खड़ी हैं, खुले लंबे बाल, फ्रॉक पहने। न जाने कैसे वह एक तस्वीर बची रह गई थी उन दिनों की, जिसे भी किसी ने चुरा लिया |
इसी समय
लहेरिया सराय छूट गया, जब हमलोग माँ-बाबूजी के साथ छपरा
चले आए। कब और कैसे आए यह तो बिलकुल याद नहीं है, लेकिन दो-ढाई साल के बचपन के लहेरिया सराय वाले उन दिनों के कुछ स्मृति-चित्र जरूर मानस में कहीं चिपके रह गए –
ख़ास तौर से बंगाली टोला वाले मकान का वह आंगन और उसके एक कोने में ओड़हुल फूल का वह पेड़।
छपरा
आने के बाद, और जब मैं अभी मां की गोद में ही था, मां बराबर अस्वस्थ ही रही। उन दिनों कभी वह हमारे गांव पर खेती-बारी की देख-रेख के सिलसिले में कुछ दिन रहती और कभी अपने बड़े भाई - हमारे बड़े मामा के यहां हथुआ में रहती, जहां वे हथुआ राज के स्कूल में मास्टर थे। उन दिनों के भी कुछ मिले-जुले चित्र स्मृति-भित्ति पर धुंधले रंगों में अंकित हैं। तभी, जब बीमार रहते हुए भी मां को बाबूजी ने अपने भाइयों की जिद पर
गांव की गृहस्थी संभालने गाँव पर भेज दिया था, इलाज के अभाव में वहाँ उसका नवम्बर, १९४० में देहांत हो गया। तब मैं शायद तीन-चार साल का ही था।
लहेरिया
सराय मेरी जन्मभूमि है। बाद में भी छपरा से एक बार, बचपन में ही, कुछ दिनों के लिए अपने बड़े भाई के साथ उनकी गर्मी की छुट्टियों में वहां जाकर मैं कुछ दिन रहा था। रामलोचन शरणजी के दूसरे पुत्र मैथिलीशरण या लाल बाबू मेरे बड़े भाई के अभिन्न मित्र थे। तब मैं शायद छः-सात साल का हो चुका था, लेकिन अभी स्कूल में नाम नहीं लिखा गया था। उस समय के पुस्तक-भंडार के विस्तृत प्रेस-परिसर की याद बहुत साफ है। लाल बाबू की मां हमलोगों के मातृहीन होने के कारण हमें बहुत प्यार देती थीं, और अपने चौके में अपने सभी बच्चों के साथ बिठाकर बड़े स्नेह से खिलाती थीं। दिवंगता मां से उनका सखी-संबंध भी रहा था, इस कारण उनका वात्सल्य और गहरा और मीठा था।
पुस्तक-भण्डार
का परिसर अब बहुत फैल गया था | मुख्य सड़क पर एक बड़ा-सा गेट था – प्रवेश द्वार |
उसके दायें बिक्री-केंद्र था और कार्यालय का भवन था | सामने छोटा-सा खुला मैदान
था, जहाँ हमलोग खेलते थे | गेट से सीधे आगे जाने पर प्रेस का भवन था जहां छपाई
की मशीनें बराबर चलती रहती थीं, और वहीं
दफ्तरीखाना आदि थे | वहीँ दाईं ओर पारिवारिक हवेली थी | लाल बाबू और मेरे भैया
हमउम्र थे और मैं उन दोनों से काफी छोटा उन लोगों का टहलुआ था | शरणजी को सबलोग
मास्टर साहब कहते थे, और वे हम दोनों भाई को पिता का प्यार देते थे, लेकिन मैं
उनसे डरता भी था | स्कूल की छुट्टियाँ समाप्त होने पर हमलोग फिर छपरा वापस चले आये
थे |
शरण जी से
बाबूजी का सम्बन्ध सौजन्यतापूर्ण चलता रहा
जो फिर १९४६ में पटना से मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘हिमालय’ के प्रकाशन के समय एक प्रकार से विच्छिन्न हो गया |
और बाद में जब बाबूजी अंततः १९५० में राजेन्द्र कॉलेज से त्यागपत्र देकर पटना
बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् में चले आये तब भी यह सम्बन्ध पूर्ववत सौहार्द का नहीं
रहा | इसका पूरा ब्यौरा ‘समग्र’ में प्रकाशित डायरी एवं पत्रों में देखा जा सकता
है | बाबूजी की किताबें पुस्तक-भंडार उनके लिख कर मना करने के बाद भी छापता रहा,
और उनके टेक्स्ट बुक होने के कारण उनसे लाखों रुपये की आमद लेता रहा पर रॉयल्टी के
नाम पर एक पैसा कभी नहीं दिया | कुछ इसी तरह का चक्कर तब भी रहा जब बाबूजी १९३३ से
१९३९ तक भण्डार में ‘बालक’ और पुस्तकों का सम्पादन करते रहे | इस अवधि में शिवपूजन सहाय की सम्पादकीय ख्याति के कारण हिंदी
के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण लेखकों की किताबें भंडार से छपती रहीं, जिससे शरणजी को
साहित्यिक और आर्थिक – दोनों तरह का अकूत लाभ मिलता रहा | उन दिनों भण्डार से शिवजी
के संपादन में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘वाग्विलास’, ‘हरिऔध’ की
‘पद्य-प्रसून’ और ‘रस-कलश’, लाला भगवान दीन की ‘नवीन बीन’, विनोदशंकर व्यास की
‘नव-पल्लव’, और ‘प्रसाद’ की ‘कानन-कुसुम’, ‘आंसू’, ‘कंकाल’, ‘स्कंदगुप्त’ जैसी अनेक
महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का पहला संस्करण वहीं से प्रकाशित हुआ | यही समय हिंदी
साहित्य-जगत में पुस्तक-भंडार के उत्कर्ष का समय था | लेकिन १९३९ में शिवजी के
छपरा चले आने के बाद पुस्तक-भण्डार की यह साहित्यिक गरिमा धीरे-धीरे छीजने लगी |
(C) डा. मंगलमूर्ति
इस पहली कड़ी के साथ एक श्रृंखला प्रारम्भ हो रही है - स्मृतियों की - अपने जीवन की स्मृतियाँ, जैसी वे अतीत के दर्पण में दिखाई देती हैं | जीवन के अंतिम चरण में अतीत की स्मृतियाँ सुखद स्वप्नों की तरह आँखों में बहती आती हैं - अपने-आप | वे अपने लिए होती हैं, उनके लिखने में स्वयं एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति होती है | सच्ची आत्मकथा भी वही होती है जिसका पाठक केवल लेखक ही हो, ठीक पति के उस प्रेम-पत्र की तरह जिसकी पाठक केवल उसकी प्रियतमा पत्नी ही होती है | दर्पण की यह झांकी केवल उसी के लिए होती है जो दर्पण में झांक रहा हो | रचना का अद्भुत चमत्कार यही है जैसे किसी प्रेम-पत्र को कोई और पढ़ ले | श्रेष्ठ रचना वही है जो लेखक तन्मयतापूर्वक केवल स्वान्तः सुखाय लिखता है | कुछ ऐसा ही स्वगोपन लेखन इस श्रृंखला में मिलेगा जो कई एक-दूसरे में गुंथी कड़ियों में स्वगत यहाँ प्रस्तुत होगा | ऐसी कड़ियाँ स्वतः कभी-कभी यहाँ प्रस्तुत मिलेंगी, जिनमें एक सामान्य जीवन के सामान्य चित्र भी अपना आब लिए स्मृतियों के इस दर्पण में झलकेंगे |
चित्र (C) डा. मंगलमूर्ति - यह चित्र भी उन्हीं दिनों का है जिनकी झांकी यहाँ देखी जा रही है, जब १९३३- ३९ में शिवपूजन सहाय पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय) में वहां साहित्य-संपादक के रूप में कार्यरत रहे |
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