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Thursday, November 27, 2014

स्मृति-समर्पण
 नवम्बर २७, २०१४ : आज कविवर बच्चन की १०७ वीं जयंती है. उनसे जुडी अपने बचपन की एक छोटी सी स्मृति के साथ दशकों बाद का उनसे मिलने और उनके चरणस्पर्श का एक प्रसंग आज याद आ रहा है. बात शायद १९४५-४६ की है. मैं ७-८ साल का था. छपरा में पढता था जहाँ मेरे पिता राजेंद्र कालेज में प्रोफ़ेसर थे. हम वहां रतनपुरा मोहल्ले में रहते थे जहाँ एक सार्वजनिक पुस्तकालय था. उसके वार्षिकोत्सव के कवि-सम्मलेन में बच्चनजी आए थे, मेरे पिता के अनुरोध पर. उन दिनों उनकी ‘मधुशाला’ की धूम थी. मुझे याद है उन्होंने भूरा सूती सूट पहन रक्खा था. लोग उनके सुरीले कवितापाठ से मंत्रमुग्ध हो गए थे

दूसरा चित्र दशकों बाद का. ४० साल बाद. मैंने अपने पिता के संस्मरणों का संग्रह ‘मेरा जीवन’ सम्पादित-प्रकाशित किया था. उसकी एक प्रति मैंने उनको भेंट भेजी थी उनकी सम्मति के लिए. इस प्रसंग में उनके दो पत्र मेरे नाम आये जब मैं मुंगेर कालेज में पढ़ाता था. अपने २२.४.८५ के पहले पत्र  में बच्चनजी ने मुझे लिखा था: प्रातःस्मरणीय शिवपूजन सहाय की ‘मेरा जीवन’ की प्रति मिली.बहत-बहुत धन्यवाद. अब बिना इस कृति को आद्योपांत पढ़े  नहीं लगता कि कोई और भी काम कर सकूंगा.आपके आने की प्रतीक्षा रहेगी. अपने दूसरे पत्र में उन्होंने पुस्तक  पर अपनी सम्मति भेजी थी. जिसकी प्रतिकृति यहाँ चित्र में है. बच्चनजी की लिखावट में फूल की टहनियों की लचक थी और वैसी ही सुगंध भी. प्रयास से - चित्र पर क्लिक करके उसे बड़ा करने पर - शायद आसानी से उसे पढ़ा जा सकता है. उसमें उन्होंने लिखा: श्रद्धेय श्री शिवपूजन सहाय की लेखनशैली में मेरे लिए इतना आकर्षण रहा है कि जब-जब उनका कुछ भी लिखा मेरे सामने आया है, तब-तब उसको बिना पूरा पढ़े  मैं और कुछ भी नहीं कर सका हूँ. ‘मेरा जीवन’ के साथ भी यही हुआ. वास्तव में आचार्य शिवजी ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. उनके सुयोग्य पुत्र डा. मंगलमूर्ति ने उनके संस्मरणों को इस प्रकार संपादित कर दिया है कि उसने आत्मकथा का-सा रूप ले लिया है...बधाई मैं डा. मंगलमूर्ति को देना चाहता हूँ कि सहायजी को इस रूप में उन्होंने हमारे लिए उपलब्ध कर दिया. वे अपने वांग्मय में साक्षात् उपस्थित हैं. सम्मति की दशेक अन्य पंक्तियों में ये पंक्तियाँ विशेष द्रष्टव्य हैं: समस्त संस्मरणों के साथ एक युग ही सचित्र हो उठता है....सहायजी को पढ़ना उनकी आँखों से एक ऐसे युग का साक्षात्कार करना है जो, खेद के साथ कहना पड़ता है, अपनी सदाशयता, आदर्शवादिता, साथ ही रोचकता लिए सदा के लिए चला गया है.    
       
              बच्चनजी से जुड़ा एक और प्रसंग मेरे स्मृतिकोष में सुरक्षित  है जिसका सम्बन्ध डा. राजेन्द्र प्रसाद से है. राजेंद्र बाबू के जन्मशती वर्ष १९८४ में ३ और ४ दिसंबर को दिल्ली आकाशवाणी ने राजेंद्र बाबु की ‘आत्मकथा’ पर बच्चनजी की दो-दिवसीय एक व्याख्यानमाला प्रसारित की थी जिसे बाद में केन्द्रीय प्रकाशन विभाग ने प्रकाशित भी किया. बच्चनजी ने इस लम्बे व्याख्यान में विश्व-आत्मचरित-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में राजेंद्र बाबु की ‘आत्मकथा’ की विवेचना की थी, किन्तु उसे नीरस और शुष्क इतिहास-लेखन बताया था. मैंने पाया कि उस व्याख्यान के कई बिन्दुओं पर मैं असहमत होने को विवश था. मेरे पिता ने बहुत यत्नपूर्वक राजेंद्र बाबू की उस आत्मकथा का लम्बे समय तक संपादन किया था. यद्यपि उस संपादन का सम्बन्ध केवल भाषा-संस्कार से था लेकिन अनेक लोगों ने उस आत्मकथा को हिंदी आत्मचरित के एक श्रेष्ठ ग्रन्थ की तरह देखा था.
               निश्चय ही बच्चनजी ने उस कृति की विवेचना अपनी आत्मकथा ‘क्या भूलूँ,क्या याद करूं’ को एक मानक मान कर किया था. परिप्रेक्ष्य-दोष इसी में निहित था. एक ओर सघन रूमानियत थी तो दूसरी ओर पावन संतत्व था. फिर शिवपूजन सहाय के संपादन के बाद भाषा की सादगी में भी जो विशेषता थी उसकी पूरी तरह अनदेखी हुई थी. राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व और चरित्र की उस हल्की विवेचना से निश्चित अवज्ञा हुई लगती थी. मैंने उस व्याख्यान के प्रतिवाद में एक तुर्की-ब-तुर्की लेख लिखा जो उन्ही दिनों  भागलपुर विश्वविद्यालय के गाँधी दर्शन विभाग के एक सेमिनार में पढ़ा गया. भला यही हुआ कि इसकी कोई खबर बच्चनजी को शायद बाद में भी नहीं मिली. मैंने बच्चनजी की आत्मकथा भी पूरी पढ़ी थी और वह सचमुच एक श्रेष्ठ आत्मकथा है. बाद में १९९८ में रूपर्ट स्नेल ने अंग्रेजी में उसका सुन्दर अनुवाद भी किया – In the Afternoon of Time. बच्चनजी का गद्य उनकी कविता से भी बढ़-चढ़ कर है. वे अपने समय के हिंदी के एक बड़े कवि ही नहीं, एक मनहर गद्यकार भी हैं. लेकिन मुझे लगता है संभवतः लम्बे समय तक पंडित नेहरु से उनकी घनिष्ठता ने उनमे राजेन्द्र बाबू के प्रति  यह दृष्टिदोष लाया था. लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि राजेन्द्र बाबू का अपना  व्यक्तित्व इन संकीर्ण भावनाओं से सर्वथा मुक्त था. वे सही अर्थों में देश के अकेले ‘देशरत्न’ थे.

              ‘मधुशाला’ बच्चनजी की सबसे ख्यात एवं लोकप्रिय रचना है. शायद सबसे पहली भी. इस चित्र में उसके ८ वें संस्करण का कवर दीखता है जो इलाहाबाद से ही १९४९ में छपा था. इस कवर के चित्रकार इकबाल थे   जो इलाहबाद के ही प्रसिद्द चित्रकार थे.  गूगल में बच्चनजी पर सारी सूचनाएँ मिलती हैं. उनकी अधिकांश लोकप्रिय कवितायेँ भी. बच्चनजी ने शेक्सपियर के कई नाटकों का अनुवाद किया है. उनका किया गीता का सरल अनुवाद भी है. लेकिन आज के सामान्य पाठक के लिए तो सर्वाधिक पठनीय उनकी आत्मकथा ही है. चाहे हिंदी में पढ़ें या अंग्रेजी में. अमिताभ बच्चन ने उनकी ‘मधुशाला’ की गाकर जो रिकार्डिंग बनाई है वह तो पिता के प्रति उनकी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि है

‘मधुशाला’ के दो छंद


बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने
बने रहें वे पीनेवाले, बनी रहे यह मधुशाला
              *
प्रति रसाल तरु साक़ी सा है, प्रति मंजरिका मधुप्याला
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली;
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला.