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Monday, March 9, 2015


कहानी का अंत

मंगलमूर्ति

यह एक अजीब कहानी हैं जिसे मैं पिछले कुछ दिंनों से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ. कई बार आधी-अधूरी लिख कर छोड़ चुका, लेकिन जैसे यही मेरा पीछा नहीं छोड़ रही हो. कहना कठिन है कौन किसके पीछे पड़ा है. सोते-जागते मैं इसी के बारे में सोचता रहता हूँ. कभी लगता है, किसी भूल-भुलैया में फँस गया हूँ – कहाँ से अन्दर आया और कैसे बाहर निकल सकूंगा, कुछ समझ नहीं पाता. एक अजीब दास्ताँ है – जिसके बारे में पता नहीं – कहाँ शुरू हुई और कहाँ ख़तम होगी. लेकिन मेरी कोशिश जारी है. हालाँकि बार-बार कोशिश के बाद भी कहानी की कोई साफ शक्ल  मेरे ज़ेहन में नहीं बन पाती. बस एक धुआं-धुआं, एक कुहासा-सा दिमाग में भरा रहता है. कलम चलती है और कहीं पहुँच कर खुद-ब-खुद रुक जाती है. लेकिन यह सिलसिला है कि रुकता नहीं. आज एक बार फिर इसे शुरू किया है. पता नहीं इस बार क्या होगा. नहीं जानता कब और कैसे मेरी यह कहानी पूरी होगी. हालाँकि मेरा यह जूनून बताता है कि एक-न-एक दिन यह पूरी होकर ही रहेगी, और उस दिन इससे मुझको ज़रूर निजात मिल सकेगी.

मुझे अबतक यह भी ठीक-ठीक नहीं मालूम यह कहानी होगी कैसी. किसकी कहानी होगी. किसकी बातें होंगी इसमें. सच कहूं तो इस कहानी को लिख डालने कि बात एक दिन मन में तब आई  जब उस दिन अचानक खुद कहानी से ही मेरी मुलाक़ात हो गयी. बिलकुल एक अप्रत्याशित भेंट. मैंने देखा वह एक नाज़ुक, लजीली, शर्मीली और उदास-सी कहानी थी. मुझे कुछ-कुछ याद आया, शायद वह मेरे पड़ोस में ही कहीं रहती है. लेकिन दिखाई बहुत कम ही देती है. उस दिन न जाने कैसे मेरे सामने आ गयी थी. मैंने उससे पूछा – तुम कहाँ रहती हो. मुझे यह तो मालूम था कि तुम कहीं पड़ोस में ही रहती हो, लेकिन बहुत दिन से तो तुम्हे देखा भी नहीं था. कैसी हो तुम – ठीक तो हो. सुन कर वह हल्के-से मुस्कुराई, पर कुछ बोली नहीं. मैंने फिर कहा, मैं एक कहानी लिखना चाहता हूँ. तुम्हारी जैसी ही एक कहानी. तुम्हारी जैसी, लेकिन वैसी तो मैं भला कब लिख सकूंगा. वह थोडा हंसी, पर कुछ बोली नहीं. मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी. औरों से भी ऐसा सुना था. लेकिन उस दिन तो लगा जैसे वह मुझको कब से जानती है. मैंने हिम्मत कर के उससे आगे बात बढ़ाई. वह भी खडी-खड़ी मेरी बातें ध्यान से सुनती रही. फिर धीरे-से बोली – मैंने भी तुम्हारे बारे में सुना था, लेकिन कहानियां भी लिखते हो, यह नहीं जानती थी. जल्दी से मैंने कहा – नहीं, नहीं, लिखता नहीं हूँ, लिखना चाहता हूँ. यही शायद मेरी पहली कहानी होगी जिसे मैं लिखना चाहता हूँ. आज तुमसे योंहीं मुलाकात हो गयी है, तो लगता है शुरुआत अच्छी है. शायद अब मैं अपनी कहानी ज़रूर लिख सकूंगा.

वह फिर थोड़ा हंसी, पर कुछ बोली नहीं. मुझे मालूम था वह बहुत कम बोलती थी.
मैं कुछ सोचने लगा. तभी वह बोली – मैं भी आजकल एक कहानी लिखने की सोच रही हूँ. हो सकता है वह तुम्हारी ही कहानी हो. लेकिन अभी शुरू नहीं कर पाई हूँ. आज तुमसे अचानक मुलाक़ात हो गयी है तो लगता है, अब शायद शुरू कर पाऊंगी. मुझे बड़ा अचरज हुआ, और थोड़ी घबराहट भी हुई, मैं सोचने लगा, क्या इसे मेरे बारे में सब कुछ मालूम है? अगर ऐसा हुआ तब तो मेरे बारे में यह क्या कुछ लिख देगी, क्या पता. मुझे सोच में पड़ा देख कर वह थोडा हंसी और बोली – लेकिन अभी सोचा नहीं है उसमे तुम्हारी शकल तुमसे कितनी मिल पायेगी. यह सुन कर मुझको थोड़ी तसल्ली हुई. शायद उसकी कहानी में मेरी शक्ल कुछ और ही उभरे. शायद उसमे मेरी कहानी कुछ अच्छी ही हो. और उसे देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता कि वह किसी के बारे में कुछ बुरा लिख सकती है. और यह भी तो हो सकता है कि मेरे बारे में कुछ बुरा लिखना उसको अच्छा न लगे. मैं अपनी सारी बुराइओं को जल्दी-जल्दी मन में छुपाने लगा. वह उसी तरह मुस्कुराती रही. मैं अपनी उलझन को मन की  और गहराई में दबा लेना चाहता था. मैंने देखा, वह दूसरी तरफ देखने लगी थी.

मैंने फिर हिम्मत कर के उससे पूछा – मेरे बारे में, मेरी कहानी क्या तुम्हें पूरी मालूम है? वह फिर हंसने लगी; बोली – सब कुछ कहाँ किसी को मालूम होता है. तुम को, मेरी बात छोड़ो, अपने ही बारे में सब कुछ मालूम है, दावे के साथ तुम ऐसा कह सकते हो? मैं एकाएक बिलकुल सकपका गया. उसकी बात में मुझे एक गहरी सचाई दिखाई दी. सचमुच मैं आजतक अपने को ही तो ठीक-ठीक नहीं जानता. कब क्या किया, या करना है, या फिर कब क्या कर बैठूंगा – खुद कहाँ समझ पाता हूँ. अपने को समझना तो शायद दूसरे को समझने से भी ज्यादा मुश्किल है. मुझे उसकी बात में बहुत वज़न लगा. वह उसी तरह मुस्कुराती रही. मैं भी अपनी उलझन में डूबता-उतराता रहा. मुझे लगा उसकी गहरी नीली ऑंखें मेरे मन के अन्दर के उलझन को उलट-पुलट कर देख रही हैं.

मैंने उसका ध्यान बंटाने के लिए कहा – मुझे तो अपने जीवन में ऐसा कुछ भी मतलब का नहीं दीखता जिसका तुम्हारी कहानी में कोई उपयोग हो. मैं तो एक बिलकुल मामूली आदमी हूँ – गलतियों और कमजोरियों का एक बड़ा-सा पुलिंदा. मेरे जीवन में कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसका ज़िक्र कहीं हो सके. एक सपाट, बेमानी जीवन समझो. लेकिन हो सकता है तुमको उस कचरे में भी कोई काम की चीज़ मिल जाये. तुम तो खुद कहानी हो, किसी की  भी कहानी को एक अच्छी इबारत दे सकती हो. यह तो मेरी खुशकिस्मती कहो कि आज तुमसे योहीं मुलाक़ात हो गयी. अब इस मुलाक़ात के बाद शायद मेरी कहानी भी एक अच्छी कहानी बन सकेगी. यह सब कुछ मैं एक सांस में कह गया. और मैनें देखा, वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी. मुझे उसकी आँखें अब कुछ ज्यादा ही गहरी और नीली लगने लगी थीं – एक झील जैसी गहरी और पारदर्शी.
      
अचानक वह बोली – किसी के बारे में सब कुछ कोई नहीं जानता, केवल एक नाकाम कोशिश-भर होती है. इसीलिए जितना अनजाना, अनकहा रह जाता है, असली कहानी उसी में छिपी रह जाती है. आदमी ही की तरह हर कहानी भी अधूरी रह कर ही खत्म हो जाती है. उसके ख़त्म होने को ही हमें उसका पूरा होना मान लेना पड़ता  है. शायद इसीलिए कोई कहानी कभी पूरी नहीं होती. मुझे देख कर भी यह न समझना कि मैं खुद पूरी हो चुकी हूँ. सच तो ये है कि मैं अब तक अधूरी ही हूँ, लेकिन मुझको इसकी कोई गिला नहीं है. मैं अपनी इस सच्चाई से वाकिफ हूँ, और बेफिक्र भी.

न जाने क्यों मुझे लगा कहीं वह मेरी उलझन की ही बात तो अपनी तरह से नहीं कर रही है. मैं खुद भी तो कुछ इसी तरह की  उलझन में बराबर मुब्तला रहा करता हूँ. वह अपनी रवानी में बोल रही थी. लेकिन मेरे मन में भी कई सवाल घुमड़ने लगे थे. मैंने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा – अच्छा यह बताओ, तुमने तो बहुत कहानियां लिखी होंगी. मुझे भी कुछ बताओ कि कहानी कैसे लिखी जाती है. माना कि हर कहानी अधूरी ही रह जाती है, लेकिन वह कहीं से शुरू और कहीं पर ख़तम तो होती ही है, और सिर-पैर के बीच में उसका कोई धड़ भी तो होता ही है.

इस बार वह कुछ गंभीर-सी लगी. बड़ी संजीदगी से बोली – बात तुम्हारी सही है, और गलत भी. कहानी कोई जिस्म नहीं होती; वह तो एक रूह होती है. उसको सिर-पैर और धड़ की शकल में देखने की  कोशिश सही नहीं. और किसी की  रूह को तुम किसी जिस्मानी शकल में तो देख भी नहीं सकते. वह तो आज़ाद होती है. किसी बंधे-बंधाए चौखटे में उसे देखने की कोशिश बेकार है. उसको देखना है तो आँखों को बंद रखना पड़ता है. खुली आँखों से उसे नहीं देखा जा सकता. इसीलिए उससे तुम भीड़-भाड़ या हलतलबी में नहीं मिल सकते. हमेशा उससे अकेले में ही मिलना हो सकता है. जब तुम बिलकुल खाली हो, कुछ आधे-जगे आधे-सोये जैसे हाल में.

उसकी बात सुन कर मुझको थोड़ा अचरज हुआ,क्योंकि अभी उससे मेरी यह मुलाक़ात भी कुछ ऐसे ही माहौल में हो रही थी. वहां सचमुच कोई और  नहीं था – बस हमीं दोनों थे. और खुद मैं भी जैसे एक तन्द्रा में था. मुझे लगा उसकी बातें कितनी सच थीं. मैनें कहाँ सोचा था कि मेरी मुलाक़ात आज उससे होने वाली है. मैं तो उस कहानी के बारे में सोच रहा था जो मैं लिखना चाहता था. सोचता ही जा रहा था कि अचानक उसको अपने सामने देखा. वह खुद भी किसी सोच में डूबी चली आ रही थी. यह एक अजीब इत्तिफाक ही था, आज उससे मेरा मिलना. आज वह खुद मुझे मिल गयी जिससे मैं न जाने कब से मिलना चाहता था, क्योंकि पिछले कितने दिनों से मैं एक कहानी लिखने की सोच ही रहा था.

मुझको सोच में डूबा देखकर वह मुस्कुरा कर बोली – क्या सोचने लगे?  मुझसे मिलकर तुम्हें अच्छा नहीं लगा? मैं तो यों ही इधर टहलने चली आई थी. तुम्हें देखा कुछ सोचते आ रहे हो, तो रुक गयी. मैं तो अमूमन बहुत कम ही कहीं निकलती हूँ. एक तरह समझो तो आज खुद को ही ढूंढती निकल आई इधर, या शायद तुमको ही ढूंढने निकली थी. और इसीलिए शायद तुमसे मुलाक़ात भी हो गयी.

मुझे उसकी बातें अब कुछ अजीब लग रही थीं. वह खुद को ढूंढती इधर क्यों आई, और फिर मुझे क्यों ढूंढ रही थी? मुझे तो इस मोहल्ले में कोई नहीं जानता.  और उसको कैसे मालूम था कि मैं इस सुनसान इलाके में अकेला भटक रहा हूँ? मुझको उसकी बातें एक भूलभुलैया जैसी लग रही थीं. लेकिन उनमे एक अजीब कशिश थी जो मुझको अपनी और बेतरह खींच रही थी. खास कर उसकी झील जैसी गहरी नीली आँखें जिनसे, अक्सर जब वह बोलती थी, तो एक अजीब तरह की  रौशनी फूट पड़ती थी.

तभी मुझे लगा अब बहुत देर हो चुकी है, और मुझे वापस लौटना चाहिए. लेकिन मेरे मन के सवाल अभी तक वैसे ही अन्दर घुमड़ रहे थे. और मैं जो कहानी लिखना चाहता था , अब उसकी जगह मैं ज्यादा इस सोच में पड़ गया था कि वह मेरी कहानी कैसी लिखेगी. वह भी तो उसके मुताबिक एक अधूरी ही कहानी होगी. उलझन ये भी थी कि मेरी कहानी वह ख़त्म कहाँ करेगी. मैंने बात को बदलते हुए कहा – एक बात पूछ सकता हूँ? क्या अगली बार जब तुमसे भेंट होगी तो कुछ बता सकोगी, मेरी कहानी जो तुम लिख रही हो, कैसी बन रही है? मैं यह भी चाहता हूँ कि फिर तुमसे जब मिलूँ तो मैं जो कहानी लिखने की  कोशिश कर रहा हूँ, मेरी वह कहानी कैसी उतर रही है, तुमसे उसका कुछ ज़िक्र करूँ आखिर इसमें तो कोई हर्ज़ नहीं कि हम जो कहानियाँ लिख रहे होंगे, एक-दूसरे से उस पर राय-मशविरा करें.कम-से-कम मैं जो कहानी लिक्खूंगा उसके बारे में तुमसे तो मैं ज़रूर कुछ सीख सकूंगा, और शायद तुम भी मेरे बारे में किस तरह सोचती हो कुछ पता चलेगा.

इस बार वह जोर से हंस पड़ी. बोली – हाँ, हमलोग फिर  मिलें यह तो अच्छा  होगा लेकिन पता नहीं उस वक़्त तक हमारी कहानियाँ कहाँ तक पहुंची होंगी, और हम उनके बारे में क्या बातें कर सकेंगे. कहानियों के बारे में एक बात तो मैं जानती हूँ कि वे कहीं भी, कभी भी, किसी ओर मुड जा सकती हैं. हमें उनके साथ अलग-अलग ही चलना पड़ेगा. हम उनके रूबरू कोई बातचीत शायद ही कर सकेंगे. वे बहुत तुनुकमिजाज़ होती हैं. वे हमारी तरह एक-दूसरे से बात करना पसंद नहीं करतीं. वे अपना रास्ता चुपचाप ही तय करती हैं. हम बस उनके पीछे-पीछे चल सकते हैं. बातचीत या छेड़छाड़ उन्हें कतई पसंद नहीं. वे जिस्म नहीं, रूह होती हैं न. अचानक ही वे आँखों से ओझल हो जाती हैं, फिर तुम उनको आँखें बंद करके भी नहीं देख सकते.

और मैंने देखा, सचमुच इतना कहते-कहते वह अचानक मेरी आँखों से ओझल हो गयी. उसकी बात बिलकुल सच निकली. अपनी आँखें बंद कर लेने पर भी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दी.

                                                       - 'आउटलुक' (हिंदी), मार्च, २०१४ में प्रकाशित  

Tuesday, March 3, 2015

यादनामा : ७
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’

मेरे पिता १९५० में छपरा से पटना आ गए थे. छपरा में वे १० साल रहे थे राजेन्द्र कॉलेज में हिंदी प्रोफेसर के पद पर. बचपन की मेरी यादें छपरा से ही जुडी हैं. सरकार ने १९५० में ही बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् नाम की संस्था की स्थापना की थी और मेरे पिता को उसके संचालक पद पर विशेष रूप से आमंत्रित किया था. तब हमलोग पटना आ गए थे और कदमकुआँ के हिंदी साहित्य समेलन भवन में ही पीछे की ओर रहने लगे थे. परिषद् का दफ्तर भी सम्मलेन में ही आ गया था. पचास के दशक में एक ही परिसर में सम्मेलन और परिषद् – दोनों, बिहार में हिंदी साहित्य का अन्यतम केंद्र बन गए थे. लेकिन यहाँ उस दशक की साहित्यिक-सांस्कृतिक  गतिविधियों की पूरी कहानी लिखना, ‘उग्र’ के मुहावरे में, कभी और गाने कि रागिनी है.

अभी यह बात लगभग ६० साल पहले की है – १९५४-५५ की. तारीख अगस्त २८, स्थान – साइंस कॉलेज के सामने, राजकमल प्रकाशन की नयी दूकान. समारोह – फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के युगांतरकारी उपन्यास ‘मैला आँचल’ का लोकार्पण, आचार्य शिवपूजन सहाय की अध्यक्षता में. उन्ही के शब्दों में सुनिए:

“आज संध्यासमय श्री फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का नया उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ. उसके लिए प्रीतिभोज हुआ. मैं भी गया. भाई बेनीपुरी भी रहे. नेपाल के कांग्रेसी नेता श्रीविशेश्वरप्रसाद कोइराला से भेंट और बातचीत हुई...उपन्यास की भेंट सबको मिली.”

‘मैला आँचल’ ने हिंदी उपन्यास में ‘आंचलिकता’ की अवधारणा को एक नयी  भाषा-शैली में प्रस्तुत किया. लगभग तीस साल पहले शिवपूजन सहाय ने ऐसी ही एक कथा-विधा का सूत्रपात अपना उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ लिख कर किया था. आज उसी कथा-परम्परा में एक अभिनव कथाकृति हिंदी कथा-संसार को समर्पित की जा रही थी जिसमे नेपाल और पूर्णिया के बीच का कथांचल एक अनूठी शैली में चित्रित हुआ था. ‘मैला आँचल’ ने ‘रेणु’ को हिंदी साहित्य के कथा-क्षितिज पर एक नए सूर्योदय की तरह प्रक्षेपित किया. ‘रेणु’ की कहानी पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (१९६६) में ‘रेणु’ के कथा-शिल्प की कोई झलक नहीं दिखी. केवल तीन का तेरह हुआ. राजकपूर ने लेखक ‘रेणु’ और निर्माता गीतकार शैलेन्द्र – दोनों को बुरी  तरह मर्माहत किया. लेकिन जब १९५४ में ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ पूरे हिंदी जगत में अप्रत्याशित हलचल मच गयी.

अगले ही साल ‘रेणु’ को ‘मैला आँचल’ पर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘नवोदित प्रतिभा’ पुरस्कार मिला. उसी वर्ष (१९५५ में) जगदीशचंद्र माथुर को भी उनके प्रसिद्ध नाटक ‘कोणार्क’ के लिए पुरस्कृत किया गया. मेरे खींचे ये दोनों चित्र उसी अवसर की याद दिलाते हैं. बाद में ‘रेणु’ लम्बे बाल रखने लगे. अपनी बीमारी में कई और साहित्यकारों-कलाकारों की तरह अपनी परिचारिका से प्रेमबद्ध हुए और विवाह किया. कुछ दिन बाद डाकबंगला से एग्जिबिशन रोड के बीच की सड़क पर उन दिनों स्थित ‘इंडिया कॉफ़ी हाउस’ में रोज़ शाम को हमलोगों को ‘रेणु’ देर तक वहां बैठे मिलते, और उनके साथ उनके कई अभिन्न मित्र. हमलोग जब भी वहां जाते उनकी धीमी आवाज़ में चल रही बातचीत सुनते. अपने लम्बे बालों के कारण वे बहुत कुछ पन्तजी जैसे लगते. मैं उन दिनों पटना कॉलेज में पढ़ रहा था.                 




‘रेणु’ हिंदी उपन्यास के कथा-आकाश में एक ज्योतित नक्षत्र हैं. उनको घटा देने पर हिंदी उपन्यास अधूरा ही रहेगा. कथा-साहित्य में ‘आंचलिकता’ की अवधारणा का अभिनव प्रक्षेपण ‘रेणु’ ने किया. लेकिन इस विशिष्ट अवधारणा का वास्तविक सूत्रपात शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ से ही हुआ था जो १९२३-२६ के बीच लिखा गया था. यह संभवतः हिंदी का पहला उल्लेखनीय उपन्यास था जिसका पूरा कथानक ग्रामीण परिवेश में ही घटित होता है.
            “रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी”
आज भी उस उपन्यास की कितनी ही लोकोक्तियाँ लोगों की  ज़ुबान पर सुनाई  देती हैं. प्रेमचंद शिवपूजन सहाय से तेरह साल बड़े थे, और १९२५ तक उनके कई उपन्यास प्रकाशित और ख्यात हो चुके थे. ‘रंगभूमि’ १९२५ में प्रकाशित हुई जिसका सम्पादन शिवपूजन सहाय ने ही किया था. लेकिन ‘गोदान’ (१९३६) प्रेमचंद का पहला उपन्यास था जो पूरी तरह ग्रामीण परिवेश पर आधारित था. उससे पहले के उनके सभी उपन्यास गाँव के उतने ही करीब थे जितना बनारस लमही के. और ‘गोदान’ में भी गाँव की मौजूदगी वैसी नहीं थी जैसी ‘देहाती दुनिया’ में थी.

‘रेणु’ के बाद हिंदी कथा-साहित्य में आंचलिकता की एक बाढ़-सी आ गयी. ‘रेणु’ ने उसमे ग्रामीण बोलचाल की भाषा का विलक्षण प्रयोग किया था. शिवपूजन सहाय ने बाद में आंचलिक भाषा के अंड-बंड प्रयोग की इसी प्रवृत्ति पर एक टिप्पणी लिखी जिसमे उन्होंने नए लेखकों को आगाह किया कि वे आंचलिक भाषा के प्रयोग में कलात्मक संयम बरतें. उनकी कुछ पंक्तियाँ थीं : “आजकल हिंदी संसार में आंचलिक उपन्यासों की जो हवा चली है, वह बहुत अल्हड़ जान पड़ती है....भाषा बड़ी नाज़ुक चीज़ है...कथा-साहित्य की परख भाषा की कसौटी पर पहले होनी चाहिए.”

‘रेणु’ ने हिंदी कथा-साहित्य को आंचलिकता की एक टकसाली भाषा ढाल कर दी. और उससे पहले शिवपूजन सहाय ने आंचलिकता की अवधारणा को ही एक टकसाली रूप अपने उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ में दिया था.

आंचलिकता को यदि हम एक नदी की तरह देखें तो उसकी गंगोत्री प्रेमचंद में फूटती दीखती है जो शिवपूजन सहाय में हरिद्वार-काशी पार करती हुई, सोन-गंडक से मिलती हुई, पटना पहुँच जाती है ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ में.              

कल ‘रेणु’ की ९४ वीं जयंती है. इस महान दिवस पर इस साहित्यिक त्रिवेणी को हमारा सादर नमन!