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Thursday, March 1, 2018


काशी हिन्दू वि.वि. में आ. शिवपूजन सहाय एवं श्रीराहुल सांकृत्यायन पर आयोजित
 त्रिदिवसीय संगोष्ठी : १९-२१ फरवरी, २०१८ में प्रदत्त अध्यक्षीय भाषण  


हिंदी नव-जागरण शिवपूजन सहाय और काशी

डा. मंगलमूर्त्ति


चित्र : (C)  मंगलमूर्ति 

पिछले  सितम्बर में साहित्य अकादेमी, दिल्ली, ने ‘हिंदी नव-जागरण और शिवपूजन सहाय’ पर एक परिसंवाद आयोजित किया था | उसमें भी मुझे आमंत्रित किया गया था | उससे कुछ पहले वहीँ राहुल सांकृत्यायन पर भी एक परिसंवाद आयोजित हुआ था | यह एक विस्मयकारी संयोग है कि हिंदी नव-जागरण के इन दो महान विभूतियों का जन्म एक ही साल १८९३ में हुआ और इनका निधन भी एक ही वर्ष १९६३ में हुआ | राहुलजी कुछ महीने बड़े थे और गए भी कुछ महीने बाद | दोनों के साहित्यिक जीवन में भी  कई प्रकार की और भी समानताएं रहीं, यद्यपि भिन्नताएं उससे कहीं अधिक ही रहीं | राहुलजी की यायावरी का दायरा जितना अंतर्राष्ट्रीय रहा, उनका लेखन भी उतना ही विपुल और विविधात्मक रहा |

जन्म और मरण की समवर्तिता के अनुरूप ही शिवपूजन सहाय और राहुल संकृत्यायन के जीवन में और भी कई प्रकार की समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं | दोनों लगभग एक ही उम्र में गाँव से महानगर में आये, हालांकि उसके बाद उनकी जीवन-रेखाएं अलग-अलग दिशाओं में मुड़ गयीं | राहुलजी ने बौद्ध-भिक्खु का बाना धारण कर लिया और निरंतर दुस्साहसिक अंतरराष्ट्रीय यायावरी का पथ अपनाया जब वे अपने जीवन-दर्शन की खोज में विश्व के दुर्गम देशों के यात्री और प्रवासी बने | उसके बरक्स, शिवपूजन सहाय प्रारंभ से ही पत्रकारिता और साहित्य-लेखन से जुड़ गए और लगभग १९१० से ही आरा से लेकर काशी और लहेरियासराय तक स्थिर गृहस्थ-जीवन में अभ्यस्त हो गए | लेखन की निरंतरता तो दोनों के जीवन में प्रारम्भ से अंत तक बनी रही और परिमाण की दृष्टि से भी शिवपूजन सहाय का लेखन बहुविधात्मक और पर्याप्त विपुल-राशि रहा | जीवन-संघर्ष तो, उस युग के अनुरूप, दोनों ही के जीवन का मूल-सूत्र रहा ही | एक और समानता दोनों के लेखन में लोकोपयोगी भाषा-प्रयोग के स्तर पर भी रही | दोनों भोजपुरी भाषा-भाषी थे और अपने लेखन की भाषा को अधिकाधिक सामान्य बोलचाल की भाषा के समीप रखने के पक्षधर थे | अपनी भाषा साधना के क्रम में शिवपूजन सहाय की लेखन-शैली प्रारम्भ में अलंकरण-बोझिल अवश्य रही, लेकिन अगले ही दशक में अपने आंचलिक उपन्यास देहाती दुनियामें शिवपूजन सहाय की भाषा ठेठ देहाती समाज के बोलने-समझने वाली बोलचाल की भाषा के स्तर पर उतर आई | राहुलजी की भाषा ने तो कभी शैलीगत-अलंकरण का पल्ला ही नहीं पकड़ा | उनकी भाषा में वही स्वाभाविकता और तेज प्रवाह का गुण सभी रचनाओं में बराबर एक-सा रहा | राहुलजी की भाषा में कहीं किसी प्रकार की कृत्रिमता या बनावट-सजावट का बोध तो कभी रहा ही नहीं | उसका स्वरूप बराबर, हर जगह, एक कच्ची सपाट सड़क जैसा ही रहा, जिसमें गति का बोध सर्वोपरि था | दोनों लेखकों के गद्य-प्रयोग का यह अंतर उनके पूरे लेखन में प्रतिबिंबित होता है, शिवजी का गद्य प्रारम्भ से अंत तक  वैविध्यपूर्ण,कलात्मक और कसा हुआ रहा, जबकि राहुल जी का गद्य सहज, अनलंकृत और प्रवाहमय | यद्यपि अपने कथा-साहित्य में दोनों ही रचनाकारों ने जन-सुबोध भाषा का ही प्रयोग किया, जो किसानों और आम लोगों के जीवन-स्तर से मेल खाती भाषा थी|


शिवपूजन सहाय की भाषा पर विचार करते हुए डा. परमानंद श्रीवास्तव ने कहा : ‘वह सच्चे अर्थों में जनता के लेखक हैं, जनता की जीवनी-शक्ति को चरितार्थ करने वाले लेखक  हैं | उन्होंने कहा था, मैं उनके लिए लिख रहा हूँ जो बहुत शिक्षित नहीं हैं, और उनके द्वारा लिखे साहित्य के विषय में जिनकी शिकायत है कि वे उनका लिखा समझ नहीं पाते, जिस कारण उन्हें नीचे आकर उनके लिए लिखना है ताकि वे उसे समझ सकें | प्रश्न है, जनता का साहित्य किसे कहते हैं; जनता तक हमारा साहित्य पहुंचे इसके लिए हम क्या हिकमतें अपनाने वाले हैं ये सब बड़े प्रश्न हैं, और अलग-अलग समय में लेखक अलग-अलग तरह से इन पर विचार करते हैं |’

निश्चय ही, इस अर्थ में राहुलजी भी, शिवपूजन सहाय और प्रेमचंद जैसे नवजागरण के कई और लेखकों की तरह जनता के एक बड़े लेखक हैं | जिस परिमाण में और सामाजिक सरोकारों की जिस विविधता को लेकर राहुलजी ने जैसी लोकोपयोगी और दिशा-निर्देशक  विशाल साहित्य-राशि की रचना की वह, संभवतः, पूरे हिंदी साहित्य में अनन्य है |

यह वर्ष जिसकी समाप्ति आगामी ९ अगस्त को  शिवपूजन सहाय की १२५ वीं जयंती-वर्ष के रूप में होगा, इसी अर्थ में, हिंदी नव-जागरण के सन्दर्भ में भी, विशेष महत्त्वपूर्ण है, जिसमें हिंदी की इन दो विभूतियों -  राहुल सांकृत्यायन और शिवपूजन सहाय की सवा सौवीं जयंतियां हिंदी जगत में एक साथ मनाई जा रहीहैं | और एक और महत्त्वपूर्ण  सन्दर्भ यहाँ स्वतः रेखांकित होता है – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में राहुल सांकृत्यायन और शिवपूजन सहाय पर आयोजित यह परिसंवाद | राहुलजी ने अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में काशी को अपनी अध्ययन-स्थली बनाया और शिवपूजन सहाय के  साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ में काशी उनकी कर्मभूमि बनी – जहाँ वे काशी वि.वि. और ना.प्र. सभा की विद्वद-मंडली के साथ जुड़े, और जहाँ आ. रामचंद्र शुक्ल, आ. श्यामसुंदर दास, लाला भगवान दीन,पं. रामनारायण मिश्र, बाबूराव वि. पराड़कर आदि, और विशेषतः प्रेमचंद और जयशंकर प्रसादजी, के संपर्क में उनके साहित्यिक संस्कार घनीभूत हुए | हिंदी नव-जागरण के इतिवृत्त में काशी की जो भूमिका है – और विशेषकर पं. मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित इस काशी हिन्दू वि.वि. की जो भूमिका है, वह तो हिंदी साहित्य के इतिहास में विरल, विशिष्ट और अतुलनीय है ही | काशी तो शिवलोक की ही नहीं हिन्दीलोक की भी धुरी रही है | आधुनिक हिंदी, जिसे हम हिंदी नव-जागरण के नाम से भी जानने लगे हैं, उसके भारतेंदु-युग की प्रवेशिका तो काशी ही है | और हिंदी नव-जागरण के उत्तरार्द्ध - द्विवेदी-युग - के प्रादुर्भाव की वास्तविक भूमि भी तो यही काशी है | यह मात्र संयोग नहीं है कि हिंदी की दो समवर्त्ती विभूतियों  - राहुल सांकृत्यायन और शिवपूजन सहाय – के जयंती-स्मरण के व्याज से हम उस पूरे व्यापक सन्दर्भ को याद कर रहे हैं जिसे हम आधुनिक हिंदी का ‘स्वर्ण-युग’ कह सकते हैं | और ऐसा हम काशीश्वर विश्वनाथ के उसी पुण्य-तीर्थ में कर रहे हैं जहां हिंदी-नव-जागरण का यह आलोक सर्व प्रथम प्रस्फुटित हुआ |

हिंदी साहित्य और हिंदी नव-जागरण काल के प्रसंग में शिवपूजन सहाय का १९२०-३० के दशकों का काशी-प्रवास-काल ही मेरे इस वक्तव्य का केन्द्रीय प्रकाश-वृत्त है | काशी से उनका लगाव तो आजीवन बना रहा | वस्तुतः अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि उनके जन्म के लिए पं. दुर्गादत्त परमहंस के परामर्श से उनके गाँव के पुरोहित ने काशी-विश्वनाथ मंदिर में एक महीने तक पूजा-पाठ किया था, और फिर परमहंसजी ने ही उनको ‘शिवपूजन’ नाम भी दिया | प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वे १९१३ में पहली बार काशी आये जहाँ दीवानी कचहरी में उन्होंने पहली नौकरी कातिब के रूप में शुरू की | अपने एक संस्मरण ‘प्रथम काशी-प्रवास’ में वे इसकी चर्चा करते हैं | अपने एक सम्बन्धी की कोशिश-सिफारिश से उनको वहां कचहरी में हिंदी नक़ल-नवीस की नौकरी मिली थी | वे तब कचहरी के निकट ही अपने सम्बन्धी के एक मित्र के साथ खजूरी मोहल्ले में कुछ दिन रहे थे | कचहरी के ही एक परिचित व्यक्ति गोवर्धन सराय में रहते थे, जहाँ उनको पहले-पहल ‘प्रसाद’जी के दर्शन हुए थे | वे लिखते हैं : “अदालत से छुट्टी मिलने पर का.ना.प्र.स. में भी जाने लगा|...मैं दोनों जगहों का चक्कर काटा करता| जान-पहचान तो किसी से थी नहीं | दूर से ही बाबू श्यामसुंदर दास को ‘सभा’ में देख लेता और कभी ‘प्रसाद’जी को भी उनके घर जाकर | किसी दिन सभा की ओर न जाकर ‘प्रसाद’जी के घर की ही परिक्रमा कर आता था| उस समय पं. रूपनारायण पाण्डेय जी भी ‘प्रसाद’जी के यहाँ रहते थे |” शिवपूजन सहाय ने, जब वे १९४६ में ‘हिमालय’ का सम्पादन कर रहे थे प्रसाद जी के संस्मरणों की एक श्रंखला रायकृष्ण दास जी से आग्रह पूर्वक लिखवाकर प्रकाशित की  थी जो चार-पांच किस्तों के बाद बंद हो गयी क्योंकि शिवपूजन सहाय ने ‘हिमालय’ के सम्पादन से त्यागपत्र दे दिया था |  बाद में इसकी एक-दो किस्तें १९५० में पटना से प्रकाशित ‘नई धारा’ में भी छपी थीं |  रायकृष्ण दास जी ने उस अपूर्ण श्रंखला में उस पहले दशक में काशी के साहित्यिक परिवेश का बड़ा विशद चित्रण किया है | प्रसादजी शिवजी से चार साल बड़े थे | (शिवपूजन सहाय को  हिंदी जगत में सब लोग शिवजी नाम से ही पुकारते थे |)  जब शिवजी ने १९१३ में पहले-पहल प्रसादजी को देखा होगा, लगभग उसी  समय का प्रसादजी का यह चित्र रायकृष्ण दास जी के शब्दों में, जो स्वयं एक मूर्धन्य कलाविद थे, उसी संस्मरण-श्रंखला में अंकित है – “कद कुछ नाटा, शरीर बहुत कसा हुआ, रंग खूब निखरा गोरा और आकृति भव्य तथा दर्शनीय | शेरवानी और पाजामा पहने हुए | सर पर लाल-हरी चुंदरी की  लट्टूदार पगड़ी थी | ‘प्रसाद’जी की गोराई के सम्बन्ध में उस्ताद रामप्रसाद कहा करते थे कि क्या यह चन्द्रमा के निचोड़ का लेप तो नहीं किया करते ? जैसा उनका रंग था वैसी ही उनकी तराश भी थी | कसरत-कुश्ती ने उनका शरीर सांचे में ढाल दिया था |”  खेद है, रायकृष्ण दासजी उस संस्मरण-श्रंखला को पूरा नहीं कर पाए | हिंदी नव जागरण काल की ऐसी विभूतियों से ही काशी विश्वनाथ की यह नगरी तब जगमग किया करती थी |   

शिवजी के इस प्रथम संक्षिप्त काशी-प्रवास के बाद लगभग १९२० का एक दशक का अंतराल आया जब गाँधीजी का असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ और शिवजी आरा में सरकारी  स्कूल की अध्यापकी से त्यागपत्र देकर आजीविका के लिए पत्रकारिता की ओर मुड़ गए | इस दशक में उन्होंने कई पत्रों का सम्पादन किया जिनमें कलकत्ते का ‘मतवाला’ और लखनऊ की ‘माधुरी’ शामिल हैं | उनका परिचय तो प्रेमचंद से १९२० के आस-पास ही हो चुका था, लेकिन लखनऊ में १९२४ के कुछ महीनों के प्रवास में यह परिचय प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गया | यही वो समय था जब शिव जी ने प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ और उनकी कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का सम्पादन किया था | लेकिन वस्तुतः २० के  इस दशक के प्रारंभ से ही पुनः उनका सम्बन्ध काशी से जुड़ गया था | ‘माधुरी’ से अलग होकर वे फिर कुछ दिन कलकत्ता में रहे – पत्रकारिता में ही | लेकिन १९२६ में वे अंततः  स्थायी  रूप से पुनः काशी  आ गए, और इस बार लगभग एक दशक तक काशी में रहे | इस एक दशक के काशी-प्रवास के उनके संस्मरणों में  काशी  के उन दिनों के साहित्यिक परिवेश का एक अत्यंत सजीव एवं मुग्धकारी चित्रण दिखाई पड़ता है |

शिवपूजन सहाय का संस्मरण-साहित्य उनके कृतित्त्व की सर्वाधिक बहुमूल्य सम्पदा है | ये सभी संस्मरण अंततः ‘मेरा जीवन’ और ‘स्मृति-शेष’ में संग्रीहीत हैं, और अब ये सभी संस्मरण ‘साहित्य-समग्र’ के दूसरे खंड में प्रकाशित हो चुके है | उनके काशी-प्रवास से जुड़े संस्मरणों में भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं – प्रेमचंद, प्रसाद, मालवीयजी, द्विवेदीजी, श्यामसुंदर दास, पराड़कर जी, विनोद शंकर व्यास, किशोरीलाल गोस्वामी, आदि पर लिखे संस्मरण जो उनके काशी-प्रवास के समकालीन समानधर्माओं के साथ बीते दिनों का जीवंत और मनोहारी चित्र प्रस्तुत करते हैं | किन्तु, कई अन्य संस्मरण ऐसे लोगों के भी हैं, जैसे – भारतेंदु हरिश्चंद्र, ‘प्रेमघन’जी, नित्यानंद ‘मीमांसक’, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, डा. भगवान दास, पं. गोविन्द शास्त्री दुगवेकर, पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे, आदि, जिन पर लिखे संस्मरणों में हिंदी नव-जागरण के प्रारम्भिक चरण के साहित्यिक परिवेश का एक रोचक चित्र उभर कर आता है | इन सभी और ऐसे ही अन्य कई संस्मरणों में हिंदी नव-जागरण के इस हिंदी-निर्माण काल में अपनी-अपनी तरह से अपना योगदान देने वाले अनेक साहित्यकारों-साहित्यसेवियों की भी झांकियां मिलती हैं, और उनके बारे में दुर्लभ सूचनाएं प्राप्त होती हैं | जैसे विनोद शंकर व्यास के संस्मरण में उनके पितामह  पं. रामशंकर व्यास की चर्चा आती है जो भारतेंदु के अन्तरंग मित्रों में थे और जिन्होंने ही पहले-पहल बाबू हरिश्चंद्र को ‘भारतेंदु’ पदवी देने का प्रस्ताव किया   था |

बनारस का सबसे मोहक चित्र प्रेमचंद और प्रसाद के संस्मरणों में मिलता है | प्रसादजी की ‘सुंघनी साहु’ वाली ज़र्दा-तम्बाकू की पुश्तैनी दूकान बनारस चौक पर कोतवाली के पीछे आज भी है | उसका एक चित्र इन दोनों साहित्य-महारथियों के संस्मरणों की इन पंक्तियों में मिलता है –

“दूकान के सामने के तख़्त पर सफेदा बिछा कर प्रसादजी नित्य संध्योपरांत रात्रि में बैठते थे | उसी पर एक कोने में पानवाला भी अपनी चंगेली लिए बैठता था | उसके बीड़े और दूकान के जाफरानी ज़र्दे का दौर लगभग दस-ग्यारह बजे रात तक चलता रहता था | हिंदी साहित्य के बड़े-बड़े महारथी वहीं आकर उनसे काव्य-शास्त्र-विनोदेन समय-यापन करते थे | हिंदी संसार के सुप्रसिद्ध कलाविद रायकृष्णदास जी, श्रीप्रेमचंद, महाकवि रत्नाकर, प्राध्यापक लाला भगवान दीन, आ. रामचंद्र शुक्ल आदि महानुभाव वहाँ प्रायः आसन ग्रहण करके साहित्य की शास्त्रीय समस्याओं पर वचार-विमर्श और भाव-विनिमय करते थे | और जब प्रसाद और प्रेमचंद एकत्र होते तब मानों ठहाकेबाज़ी की होड़-सी लग जाती ...उनके ज़ोरदार ठहाके सुन कर बगल की अटारियों से अप्सराओं की मृदु-मंद-मधुर खिलखिलाहट भी गूँज उठती !”

शिवजी भी वहां नियमित बैठकी करने वालों में थे | ऐसे अनेक मनमोहक चित्र इन संस्मरणों में मिलते हैं | ऐसा ही एक अद्भुत चित्र प्रसाद और निराला का है | निराला भी अक्सर काशी में होते थे | निराला वाले संस्मरण में शिवजी ने लिखा है – “निरालाजी कुछ दिन काशी में रहे थे |मैं भी उन दिनों वहीं था | प्रसाद जी के साथ खूब बैठक होती थी | मध्य गंगा में बजरे पर कविता-पाठ भी हुआ था | निरालाजी ने हार्मोनियम बजा कर ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन’ पद गाया था | प्रसाद जी ने परोक्ष में उनकी बड़ी प्रशंसा की थी |...कहा था कि हिंदी को इश्वर की देन हैं निराला !”

शिवपूजन सहाय अंततः १९२६ मई में काशी चले आये थे | अब वे लहेरिया सराय, बिहार की प्रकाशन  संस्था ‘पुस्तक भंडार’ की बाल-पत्रिका ‘बालक’ का सम्पादन करते थे तथा भण्डार के अन्य प्रकाशनों का सम्पादन-मुद्रण करते-देखते थे | उनका एक कमरे का आवास दण्डपाणि भैरव मंदिर के ऊपर कालभैरव में था, जो नागरी प्रचारिणी सभा के पास ही  था | प्रेमचंद भी तब तक लखनऊ से वापस काशी आ गए थे और सभा के पास ही उन्होंने अपना ‘सरस्वती प्रेस’ स्थापित कर लिया था | उसका एक चित्र प्रेमचंद वाले संस्मरण में है –

 “जब काशी में प्रेमचंद जी ने पहले-पहल सरस्वती प्रेस खोला, तब मैं भी काशी में ही रहता था |...लखनऊ के बाद वहीं उनके दर्शन होते रहे | मैं बराबर उनकी सेवा में पहुंचा करता | शाम को प्रेस में दिन भर की आमदनी का हिसाब जोड़ा जाता | सब कर्मचारियों को यथा योग्य पैसे दे चुकने के बाद वे बचे-खुचे पैसे लेकर मैदागिन से चौक चले जाते | कई बार मैं भी उनके साथ उधर गया | लखीचौतरा  पहुँच कर एक ढोली पान खरीदते | एक तमोली उनका मोदी था | उसी से रोज़ ढोली लेते | वह भी अच्छी चुनकर  देता | छाते को कंधे पर सीधा रख कर उसके अगले छोर में रूमाल में बंधी ढोली लटका लेते और पिछले छोर में मुश्की तम्बाकू की पोटली | कभी-कभी पैसे कम पड़ जाते तो अपने गाँव (लमही) का एक्का खोजते हुए कुछ दूर पैदल ही चल पड़ते, या पिसनहरिया तक ही एक्के पर जाकर, आगे फिर गाँव तक पैदल चलते थे |”                              

वास्तव में जिन लोगों ने साहित्य को अपने जीवन में साधकर हिंदी को समृद्ध किया उनलोगों की साधना और त्याग को निकट से देखना हो तो शिवपूजन सहाय के इन संस्मरणों को पढ़ना चाहिए जिनमें एक पूरा युग जिसकी आज ‘हिंदी नव-जागरण’ के नाम से इतनी चर्चा हो रही है, वह पूरा युग एक चलचित्र की तरह आँखों के सामने सजीव हो उठता है | प्रेमचंदजी वाले संस्मरण में काशी-प्रवास के दिनों की विस्तार से चर्चा है | प्रसाद और प्रेमचंद वाले इन दो संस्मरणों के अलावा मालवीयजी, द्विवेदीजी, निरालाजी, पं. किशोरीलाल गोस्वामी, पराड़करजी, पं. विनोद शंकर व्यास, आदि के संस्मरणों में भी शिवजी के काशी-प्रवास के दिनों की चर्चा में साहित्य-कर्म के उन संघर्षपूर्ण  दिनों के मार्मिक चित्र दिखाई देते हैं |काशी में वे जबतक रहे – १९२६ से लगभग १९३४ तक उनका निवास कालभैरव और पास के बुलानाला इलाके में ही रहा | उनकी कोई तयशुदा नौकरी नहीं थी – पुस्तक भंडार का काम करने के लिए उनको शायद ८०  या १०० रु. मिलते थे, और फिर काशी में सम्पादन या प्रूफ-संशोधन का जो काम ज्ञानमंडल, ‘सरस्वती-प्रेस’ या और जहां से मिल जाता उसी से उनकी जीविका चलती थी | ‘सरस्वती प्रेस’ निकट था | शिवजी की बैठकी वहां रोज़ की होती थी | लिखते हैं – “भंडार की पुस्तकों की देख-रेख के लिए मैं नित्य ही प्रेस में जाता      था |...बड़ी रद्दी हालत थी प्रेस की – अँधेरा, गन्दा, पुराना मकान, मैदागिन पार्क के पश्चिमी छोर पर, सड़क के किनारे | प्रेमचंदजी रोज़ ही प्रेस की फ़िक्र में परेशान रहते थे | मेरे हाथ में पुस्तक-भण्डार का जो काम था, उसमें से जितना उनका प्रेस सहूलियत से कर सकता था, उतना मैं दे ही देता था, और भी परिचितों से काम दिलवाता था | किन्तु प्रेस और हाथी का पेट दोनों बराबर | पोसता न था |” प्रेमचंदजी फिर लखनऊ चले गए थे और प्रेस का काम उनके मेनेजर प्रवासीलाल वर्मा संभाल रहे थे | इन्हीं दिनों जब प्रेमचंद अभी लखनऊ से ही आते-जाते थे, ‘सरस्वती प्रेस’ से उनके सम्पादन में मासिक ‘हंस’ और कुछ बाद साप्ताहिक ‘जागरण’ का प्रकाशन होने लगा था | दोनों में शिवजी नियमित लेख और कॉलम लिखा करते थे | यह तब की बात है जब पाक्षिक ‘जागरण’ – जो १९३२ में शिवजी के सम्पादन में निकलता था और – ६ महीने बाद ही अर्थाभाव में बंद हो गया था | फिर उसे प्रेमचंद ने एक राजनीतिक साप्ताहिक ‘जागरण’ के रूप में     निकालना शुरू किया था |

शिवजी जब १९२६ में कलकत्ता से काशी आये तो उनके साथ उनकी रुग्ण दूसरी पत्नी थीं |दुर्भाग्यवश उसी वर्ष उनकी इस  दूसरी पत्नी का देहांत हो गया और तब, मित्रों के बहुत दबाव से, उन्होंने अपना तीसरा विवाह मई, १९२८ में किया था | निराला वाले संस्मरण में शिवजी ने उस अवसर की भी बड़ी  श्रृंगारिक  चर्चा की  है जब निरालाजी उनकी नव-विवाहिता पत्नी को कालभैरव चौमुहानी के पास वाले मकान में  देखने आये थे | निरालाजी जब  भोजन करने लगे तब शिवजी ने कहा – “आप साग, पूरी आदि ही ज्यादा खा रहे हैं, पूआ, खीर, मलाई भी खाइए | तब वे हंस कर कहने लगे कि मैं भोजन के स्वाद का आनंद लेने में उकाताता नहीं और रसीली वस्तु का आनंद रसे-रसे लेने से ही तृप्ति होती है | मैं हंसने लगा और मेरी पत्नी झट वहां से उठ कर चौके में चली गयी, और तब उनका भी हास्य उस स्थान को मुखरित करने लगा |” शिवजी फिर इस पर लिखते हैं – “कविवर प्रसादजी का एक सुन्दर गीत है – ‘वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे...तेहि नो दिवस गताः | न अब वे दिन बहुरेंगे न वे लोग!”

उग्रजी ने भी अपने एक संस्मरण ‘श्रीमती  शिवपूजन सहाय’ में इस नव-विवाहिता पत्नी से  – जो हम चार भाई-बहनों की जननी थीं – मिलने का सुन्दर चित्र खींचा है | कालभैरव चौमुहानी वाले मकान में नव-विवाहिता पत्नी अभी-अभी गाँव से वहां  आई थीं | उग्र ने अपनी  चमत्कारी शैली में उस अवसर का मनोमुग्धकारी चित्र खींचा  है –

“चलो जरा उसको देखो!” भाई शिव ने मुझको ललकारा | “दुत! मैं झेंप सा गया | मैं ऐसा काम नहीं करता | मुझे कोई भी अपनी बीबी दिखाने की हिम्मत नहीं करता|”...”कुछ भी हो, चलो तुम! देखो एक बार उसे!” और भाई शिव हाथ पकड़ कर मुझे घसीट ले चले | उनकी पत्नी के कमरे में पहुँच कर मैंने देखा – नयी चुनरी में संकोच से सिमटी कोई नवयुवती बैठी है | “इनसे परदा न करो!” उन्होंने घूंघट वाली  से कहा; और उसने सुनते ही, सात इंच के घूँघट को लम्बा कर सत्रह इंच कर लिया !!” ...”वाह! यह भी कोई बात है!” कह कर भाई शिवपूजन अपनी बीबी पर रुष्ट हुए | बरबस बेचारी का चाँद-सा मुखड़ा उन्होंने घूँघट-घन-पट से बाहर कर दिया ! बच्चों की तरह उस खूबसूरत खिलौने को दोनों हथेलियों में भरकर उन्होंने मेरे सामने पेश    किया |... मेरी चतुरंगिनी दुष्टता में कहाँ साधुता की झलक देखी थी भाई शिव ने जो ऐसी रिस्क उन्होंने ली; मैं समझ न सका |”

ऐसा संस्मरण तो उग्रजी ही लिख सकते थे अपने एक अभिन्न साहित्यिक समानधर्मा की नव-विवाहिता से पहली भेंट पर | बहुत मार्मिक है यह पूरा संस्मरण जो कानपुर से प्रकाशित होने वाले ‘देशदूत’ में छपा      था | वो ज़माना ही ऐसा था | और ऐसा ही था, घोर अभाव और रोज़ की रोटी कमाने वाले संघर्ष के दिनों में हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले इन साहित्यकारों का  सौहार्द और संवेदना से ओतप्रोत वह जीवन – जिसे हम हिंदी-आलोचना की भाषा में ‘हिंदी नव-जागरण’ नाम से पुकारते हैं ! शिवजी ने ठीक लिखा था – “न अब वे दिन बहुरेंगे, न वे लोग!”         

शिवजी के अपने  इन संस्मरणों में हिंदी-नव-जागरण काल की वह पूरी  संवेदनात्मक अंतर्कथा पढ़ने को मिलती है, जिससे सामान्यतः आज के शोधकर्ता कम परिचित होंगे | मैंने ‘प्रेमचंद पत्रों में’ – एक पत्र-संकलन भी संपादित किया है जिसमें प्रेमचंद के और उनसे सम्बद्ध अन्य समकालीन साहित्यकारों के लगभग सवा दो सौ पत्र संकलित हैं | इसमें शिवजी को लिखे प्रेमचंद और उनके मैनेजर प्रवासीलाल वर्मा के कई ऐसे  पत्र प्रकाशित हैं जिनसे प्रेमचंद के व्यवसाय-प्रबंधन-प्रसंग पर नया प्रकाश पड़ता है | पिछले सितम्बर में साहित्य अकादमी, दिल्ली में शिवपूजन सहाय पर हिंदी-नव-जागरण के सन्दर्भ में ही जो परिसंवाद हुआ था उसमें मैंने शिवपूजन सहाय के तद्विषयक ‘पत्राचार साहित्य’ पर विस्तार से अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया था जो संभवतः अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित होगा  |

साहित्य के इतिहास की सर्वाधिक प्रमाणिक दस्तावेजी सामग्री उस युग के साहित्यकारों के यथोपलब्ध  पत्राचार, संस्मरणों, डायरियों,आदि में मिलती है | हिंदी नव-जागरण के इतिहास का जितना महत्त्वपूर्ण पक्ष उस युग में लिखा गया साहित्य अथवा उस युग की पत्रकारिता है, प्रायः उतना ही महत्त्व उस युग के साहित्यकारों और साहित्यजीवियों के व्यक्तिगत जीवन, उनके जीवनादर्शों-जीवनमूल्यों का भी है, जो ऐसे ही संस्मरणों, व्यक्तिगत पत्राचार आदि में बिखरा उपेक्षित पड़ा है | शिवपूजन सहाय का हिंदी-नव-जागरण के इतिहास के सन्दर्भ में इसी कारण विशेष महत्त्व है, जैसा सामान्यतः उनके अन्य समकालीन साहित्यकारों का नहीं है | शिवपूजन सहाय ने अपने समय – बीसवीं सदी पूर्वार्द्ध, जो हिंदी नव-जागरण का, और उसके समानांतर भारतीय स्वाधीनता संग्राम का भी समय रहा है, उससे सम्बद्ध जितनी विपुल महत्त्वपूर्ण सामग्री अपने लेखन और अपने साहित्यिक संग्रह में विरासत के रूप में छोड़ी है उसका मूल्य पूरी तरह आंका जाना अभी बाकी है | हिंदी नव-जागरण सम्बन्धी शोध में इस प्रकार की सामग्री जो साहित्यकारों के वंशजों के पास,  दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं-पुस्तकों आदि में विकीर्ण और अलक्षित पड़ी है उसकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है | साहित्य अकादमी वाले अपने वक्तव्य में मैंने एक सुझाव दिया था जिसे मैं यहाँ फिर दुहराना चाहूँगा | मैंने कहा था –

“मैं इस अवसर पर अकादेमी से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि वह हिंदी नव-जागरण-काल के प्रमुख साहित्यकारों के हिंदी-भाषा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण लेखों का एक संचयन एकाधिक खण्डों में प्रकाशित करे, जिसमें एक खंड डायरी अथवा आत्मकथात्मक लेखन, पत्रों एवं संस्मरणों का भी रहे | नव-जागरण सम्बन्धी विशेष महत्त्व की शोध-निर्देशक सामग्री, प्रामाणिक सूचियाँ और शोध विनिबंधों  का भी एक संग्रह उसी ग्रन्थ-श्रंखला का एक खंड हो सकता है |
शिवजी के काशी-प्रवास का एक महत्त्वपूर्ण परिच्छेद १९३२-३३ का है, जिसके बाद ही उनको काशी छोड़कर सपरिवार पुस्तक-भण्डार, लहेरिया सराय (दरभंगा) पूरे समय सम्पादन की नौकरी पर चले जाना पड़ा | इसी अवधि में उन्होंने फरवरी  से जुलाई, १९३२ तक पाक्षिक ‘जागरण’ का सम्पादन किया और दिसंबर, १९३२ से अप्रैल, १९३३ तक प्रयाग में इंडियन प्रेस की अतिथिशाला में रह कर ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’ का सम्पादन किया | ‘जागरण’ प्रसाद-मंडली’ का पत्र था जिसका प्रकाशन ‘पुस्तक-मंदिर’ नामक संस्था से पं. विनोद शंकर व्यास द्वारा होता था | हिंदी में साहित्यिक पाक्षिक पत्रों का चलन नहीं था, और यद्यपि इसका प्रकाशन छायावाद के मुखपत्र के रूप में हुआ था, जिसमें प्रसादजी, पंतजी,निरालाजी,  व्यासजी, नंददुलारे वाजपेयी, आदि की रचनाएँ छपती थीं, लेकिन व्यावसायिक असफलता के कारण व्यासजी को इसे बंद करना पड़ा, और तब इसे प्रेमचंदजी साप्ताहिक ‘जागरण’ के  रूप में टेबलायड साइज़ में  निकालने लगे | मैंने पहले इसका  उल्लेख किया  है | ‘प्रसाद और उनके समकालीन’ नामक अपनी संस्मरण पुस्तक में पं. विनोद्विनोद शंकर व्यास ने इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है | लेकिन वहीं उन्होंने शिवजी के विषय में लिखा है – “प्रसादजी का बहुत निकट स्नेह उन्हें प्राप्त था | काशी में रहने पर हमलोगों के किसी भी जमघट में शिवपूजन न हों ऐसा कभी नहीं होता था |...हमलोगों की मंडली में शिवजी का सम्मान विशेष रूप से था | पुस्तकों  के प्रकाशन और सम्पादन का कार्य वे ही करते थे | इसलिए मेरी और प्रसाद की लिखी अधिकांश रचनाओं से वे परिचित थे | उनका निर्णय ही अंतिम समझा जाता था | प्रसादजी जब कुछ नयी रचना प्रस्तुत करते तो शिवपूजन को सुनाये बिना उन्हें संतोष नहीं होता था |”




शिवजी के सम्पादन की बहुत चर्चा होती है | मैंने लखनऊ में उनके द्वारा प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ के संपादन की अभी चर्चा की है | प्रेमचंदजी ने रंगभूमि को पहले उर्दू में ‘चौगाने-हस्ती’ के नाम से लिखा था, फिर स्वयं नागरी लिपि में उसकी हिंदी पांडुलिपि तैयार की जिसका मई से सितम्बर, १९२४ के बीच शिवपूजन सहाय ने लखनऊ में रहते हुए सम्पादन किया था, और जो फरवरी, १९२५ में लखनऊ में पहले हिंदी में प्रकाशित   हुई | फिर एक साल बाद १९२६ में उसका उर्दू संस्करण ‘चौगाने-हस्ती’ नाम से प्रकाशित हुआ | प्रेमचंद वाले अपने संस्मरण में शिवजी ने ‘रंगभूमि’ की प्रेमचंदजी की लिखी हिंदी पांडुलिपि के अपने सम्पादन की विस्तार से चर्चा की है | लेकिन प्रेमचंद के इस उपन्यास की भाषा का – जो पहले उर्दू में प्रेमचंदजी द्वारा लिखी गयी और फिर उन्हीं के द्वारा हिंदी में अनुवादित हुई थी, और शिवपूजन सहाय ने उस हिंदी पांडुलिपि का भाषा-संशोधन-सम्पादन किया था – इस बार-बार  परिवर्त्तित होती हुई उपन्यास की भाषा पर अभी तक कोई पाठ-शोध हुआ है या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम | लेकिन यदि ऐसा शोध हो, तब पता चल सकता है की ‘रंगभूमि’ के भाषा-संशोधन में शिवपूजन सहाय की भागीदारी कितनी और कैसी थी | इसका एक और पक्ष यह भी  है कि उन्हीं दिनों अक्टूबर, १९२४ में ‘माधुरी’ में प्रेमचंदजी की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ प्रकाशित हुई थी, जिसका भी सम्पादन निश्चय ही शिवजी ने किया था | अतः, ‘रंगभूमि’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ – जो दोनों लगभग एक ही समय, एक ही प्रकाशन-विभाग से प्रकाशित हुई थीं – दोनों की भाषा का तुलनात्मक पाठ-शोध हो तो, यह देखा जा सकता है कि दोनों का सम्पादन किसी एक ही व्यक्ति ने किया है और किस हद तक किया है |
 
 यद्यपि ‘समग्र’ के खंड ५ में मैंने शिवजी द्वारा डा.राजेंद्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ के सम्पादन-संशोधन के मूल और संशोधित पाठों के कुछ पृष्ठ नमूने के तौर पर प्रकाशित किये हैं, जिनमें शिवजी के संवेदनशील सम्पादन का एक अंदाज़ मिलता है | ‘समग्र’ के उसी खंड-५ में मैंने ‘जागरण’ में प्रकाशित प्रसाद और निराला की पांडुलिपियों के कुछ संशोधित पृष्ठों की प्रतिकृतियाँ भी प्रकाशित की हैं जिनमें देखा जा सकता है कि शिवजी का संशोधन कैसा होता था | ‘जागरण’ के प्रथमांक में ही प्रसादजी की प्रसिद्ध कविता छपी थी – ‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे’ | उसके तीसरे छंद में प्रसादजी ने लिखा था – “ जिस गंभीर मधुर छाया में, विश्व चित्रपट चल माया में, विभुता विभु-सी दुःख-सुख वाली, दिखलाती हो सत्य बनी रे |” इस छंद की दूसरी पंक्ति – “विभुता विभु-सी दुःख-सुख वाली, दिखलाती हो सत्य बनी रे” - में शिवजी का संशोधन है  - “विभुता पड़े दिखाई विभु-सी, दुःख सुखवाली सत्य बनी रे”| थोडा सा ही विपर्यय है, किन्तु अर्थ-प्रकाश की दृष्टि से अधिक स्पष्टता आ गयी है | उसी तरह ‘जागरण’ के सातवें अंक में निरालाजी का एक निबंध छपा है –‘चरित्र’| उसमें शिवजी ने एक पूरा पृष्ठ ही काट दिया है और कई पंक्तियों में संशोधन किये हैं | उसमें से बस एक ही उदाहरण | निराला की पंक्ति है  – “इस चरित्र के भीतर से भी उच्चतम भाव और भाषा निकलते हैं”, जिसका संशोधन बस इतना है – “उच्चतम भाषा और भाव निकलते हैं” | सौभाग्य से शिवजी ने ‘जागरण’ के १२ अंकों की संशोधित सभी पांडुलिपियाँ अपने संग्रह में रख ली थीं, जिनमें उनका सम्पादन-कौशल स्पष्ट देखा जा सकता है | और इनमें प्रसाद, निराला, पन्त और प्रेमचंद से लेकर नन्द दुलारे वाजपेयी, गुलाब राय, राहुल संकृत्यायन आदि सबके लेख-रचनाएँ शिवजी द्वारा  संशोधित  हैं |

१९३३ में प्रकाशित ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’ के शिवजी द्वारा सम्पादन की चर्चा स्वयं शिवजी के द्विवेदीजी पर लिखे संस्मरण में हुई है | इसी प्रसंग में व्यास जी के संस्मरण में यह चित्र मिलता है – “ शिवपूजन जी की तरह का परिश्रमी व्यक्ति मैंने दूसरा नहीं देखा | वह जिस पाण्डुलिपि को ठीक करते, उसके एक-एक अक्षर पर ध्यान रखते थे | पट चटाई पर लेटे वह घंटों काम किया करते थे और कभी थकते या घबडाते नहीं थे | यह उनकी विशेषता थी | उनके जीवन का अधिकांश परिश्रम दूसरों की रचनाओं के संशोधन में ही  लगा |...स्वभाव के भी वे संकोची ऐसे थे कि जिसने अपने काम में उन्हें लगाया उसने पूर्ण रूप से उनकी शक्ति का रस निचोड़ने का ही प्रयत्न किया |” ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’ का सम्पादन – लेख-संयोजन और भाषा-संशोधन से लेकर प्रूफ-संशोधन तक सब शिवजी का अकेला परिश्रम था | लेकिन संपादकों में उनका नाम नहीं प्रकाशित है | वास्तविकता तो ये है कि हिंदी का सर्वश्रेष्ठ अभिनन्दन ग्रन्थ माने जाने वाले इस ग्रन्थ की पूरी योजना भी शिवजी की ही थी, और ये सारे तथ्य प्रकाश में हैं, यदि आप उनका द्विवेदीजी वाला संस्मरण पढ़ें | ध्यान देने की बात है कि शिवजी का हिंदी जगत ने ऐसा उपयोग करना ही उचित समझा, और इसकी व्यथा उनकी डायरियों में उन्हीं की कुछ पंक्तियाँ व्यक्त करती हैं –

“मैं तो एक परिश्रमी मज़दूर हूँ | केवल खटना जानता हूँ |...विषम परिस्थिति हमेशा कठोर नियति बनकर मेरे पीछे लगी रहती है  | मैं बेकारी का मारा हिंदी का एक लेखक हूँ |... अब तक सिर्फ अपनी सिधाई या बुद्धूपन के कारण ही मैं अपनी उन्नति के खुले दरवाजों  में ताले जड़ता आया हूँ, और न जाने अभी आगे कितने ताले इंतज़ार कर रहे हैं |... दिन भर आँखें फोड़ता रहा | जीवन भर भाषा की गंदगी साफ करने में ही लगा रहूँगा |... मैं कीर्तिशाली बनना नहीं चाहता| प्रतिष्ठा पाने के लिए नहीं लिखता| भविष्य के इतिहासकारों के मार्ग का झाडूदार होना चाहता हूँ |” और सबसे व्यथित पंक्ति प्रसाद जी को लिखे एक पत्र में है - “विश्वनाथ जी की ऐसी ही  इच्छा है कि मैं जीवन भर पिसौनी करता रहूँ और चोकर मजूरी में    पाऊँ  |”
  
 मेरा यह वक्तव्य शायद बहुत लम्बा हो जाता, और इसी लिए मैंने इसे लिखित रूप में आपके सामने रखा ताकि मैं अधिक-से अधिक ज़रूरी बातें यहाँ सीमित समय में  आपके सामने रख सकूँ | शिवजी के सृजनात्मक साहित्य की विवेचना करना न मेरा आज का विषय था, और वह हिंदी के विद्वानों का ही क्षेत्र है, मैं सदा जिसके बाहर ही रहा हूँ | यद्यपि शिवजी के साहित्यिक कृतित्त्व का आयाम बहुत विस्तृत है  – उपन्यास, कहानी, संस्मरण, गंभीर और ललित निबंध, साहित्यिक पत्रकारिता, अनुवाद, हास्य- व्यंग्य, - उनके साहित्य में सबकी छटा अलग-अलग और अनोखी है, और उसकी गंभीर विवेचना अभी वैसी नहीं हुई है जैसी होनी चाहिए | डा. परमानन्द श्रीवास्तव की ये पंक्तियाँ शिवपूजन सहाय के साहित्यिक अवदान के सम्यक मूल्यांकन की और इंगित करती हैं –

“आ.शिवपूजन सहाय का स्मरण हम जिस रूप में कर रहे हैं ,... वे सचमुच हिंदी नवजागरण के एक बहुत अर्थमयी संवेदना वाले समर्थ लेखक थे जिनकी जीवनीशक्ति उनके लेखन में बार-बार अनुप्राणित होती है | वह सच्चे अर्थों में जनता के लेखक हैं, जनता की जीवनी-शक्ति को चरितार्थ करने वाले लेखक हैं |...व्यापक अर्थों में साहित्य से शिवपूजन सहाय का सरोकार था | उनकी जीवन निष्ठा थी साहित्य के प्रति | वे साहित्य को एक मूल्य की तरह जी रहे थे अपने जीवन में | आ. शिवपूजन सहाय एक ऐसे लेखक थे जिन्हें आप हिंदी नव-जागरण के स्तंभों में गिन सकते हैं | कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो अपने समय में तो महत्त्वपूर्ण होते ही हैं, समय जैसे-जैसे आगे जाता है, वैसे उनके महत्त्व के नए रूपों की खोज शुरू होती है | उनका नए सिरे से आविष्कार किया जाता है, नए सिरे से उनको पढ़ा जाता है |”






शिवपूजन सहाय ने अपने जीवन के प्रारम्भ में १९१७ में ही अपनी डायरी में लिखा था - “हिंदी की सेवा में समूची ज़िंदगी लगा देने का मंसूबा बाँध लो |”  और उनके जीवन में उनका यह संकल्प पूरी तरह चरितार्थ हुआ | वास्तव में,उन्होंने अपना साहित्य ही अपने जीवन में जिया| और इसी अर्थ में, उनका साहित्य और उनका  जीवन अविच्छिन्न हैं, अविभाज्य हैं | मैंने उनके समय के साहित्यकारों को भी निकट से देखा, बिहार के भी और बाहर के भी – लेकिन उनलोगों के जीवन और साहित्य-लेखन में मुझे वह ऐक्य-भाव अथवा अटूट समन्वय नहीं दिखा जो  मैंने अपने पिता के जीवन में देखा | वहां उनके जीवन और साहित्य-लेखन में मुझे कोई विभाजक रेखा कभी दिखाई नहीं पड़ी | वे अपने जीवन में अपना साहित्य ही जीते थे, ऐसा लगता था | ऐसा कितने साहित्यकारों के जीवन में हुआ है, यह तो  मैं नहीं कह सकता, पर अपने पिता के जीवन में तो  मैनें यही देखा | और शायद इसीलिए इस तरह के साहित्य-लेखन के मूल्यांकन के लिए अलग कसौटियों की ज़रुरत होगी | उनका साहित्य भी वैसा साहित्य नहीं है जैसा उनके समकालीनों ने लिखा और उससे यश अर्जित किया | वे अपने ही समय के – उत्तरार्द्ध नव-जागरण काल के – अन्य लेखकों से अलग तरह के साहित्यकार  थे | उनका साहित्य  शायद परम्परागत  समालोचना का साहित्य ही नहीं है | उसके पैमाने अलग हैं | फिर भी वह जीवन और समाज के सरोकारों से उतना ही समप्रिक्त है जितना उनके समय का और रचनात्मक साहित्य | उसमें भी उनके समय का अक्स उतना ही साफ़ और रौशन है जितना उनके समकालीनों के लेखन में है | उनका नजरिया ज़रूर अलग है – जो कल्पना के संसार से अधिक जीवन के यथार्थ की ज़मीन पर दृष्टि-केन्द्रित है | और कुछ इसी अर्थ में शिवपूजन सहाय  का साहित्य शाश्वत महत्व का साहित्य है, ऐसा मुझको लगता है | जो साहित्य लेखक के जीवन-मूल्यों  के विस्तरण, उनकी व्याप्ति के रूप में प्रतिबिंबित नहीं दिखाई दे, वह सामान्यतः उस सीमा तक  स्थाई भी नहीं हो सकता |  उनकी पूर्व पीढ़ी के साहित्यकारों में ये बात अवश्य परिलक्षित होती है, जैसा उनके संस्मरणों से भी लगता है, और उस पीढ़ी के उन  जीवन-मूल्यों को उन्होंने अपने जीवन और साहित्य में आत्मसात किया था  और जो उनके  जीवन और साहित्य में सहज रूप में देखने को  भी  मिलते हैं | शायद इसीलिए डा.रामविलास शर्मा ने कहा था – ‘वे पुरानी पीढ़ी के बुज़ुर्ग साहित्यकार थे | उनका रंग-ढंग समझना आसान नहीं था |’  उनका मतलब ज़रूर यही था कि उस तरह अपने लेखन में अपने जीवन-मूल्यों को जीने वाले लोग अब विस्मयकारी ही नही, एक विशेष  अर्थ में अजनबी और अबूझ लगने लगे हैं  | लेकिन आज हम यदि इस बात पर ध्यान देकर उनके साहित्य को पढ़े तो हमें कुछ ऐसे मूल्यों की प्राप्ति हो सकती है, जो अब दुर्लभ हो चुके है, लेकिन जिनकी आज जीवन में भी और साहित्य में भी बहुत ज़रुरत है |  उन पीढ़ियों के ये लेखक स्वयं अपने जीवन और लेखन में आज हमारे लिए कुछ  ऐसे सन्देश प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें हमें समझना है, और अपनाना है  | नव-जागरण की प्रासंगिकता आज इसी लिए बढ़ गयी है |


 © Dr BSM Murty                             bsmmurty@gmail.com      Mob. +91-7752922938

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