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Saturday, February 28, 2015

यादनामा : ६

एक भूली-बिसरी विरासत

बावन साल बीत गए – २८ फ़रवरी, १९६३ को राजेन्द्र बाबू का निधन हुआ था, पटना के सदाक़त आश्रम में. यहीं  वह  कुटिया है  जिसमे वे असहयोग आन्दोलन के समय से रहने लगे थे. जब १९४६ में वे अंतरिम मंत्रिमंडल के सदस्य बन कर दिल्ली चले गए तब से जब भी पटना आते उसी   पुराने खपरैल मकान में ठहरते या वहां कम-से-कम एक बार ज़रूर जाते. वह साधारण-सा खपरैल मकान बराबर उनकी ही काया जैसा सीधा और मामूली लगने वाला  रहा, लेकिन उसकी वह सादगी सदा उनके त्याग और तपस्या की गरिमा से मण्डित रही - साबरमती और सेवाग्राम की आत्मा जैसे वहीँ आकर बस गयी हो. बाद में जब राष्ट्रपति-पद से निवृत्त होकर १४ मई, १९६२ को वे पटना आये तो उस मकान के  खस्ताहाल होने के कारण   पहले एक डाकबंगले में रहे. फिर उस मकान की थोड़ी बढ़ोतरी, मरम्मत और पुताई करा दी गयी. इस बीच एक नया मकान वहीँ पास में ही बनाया गया था जिसमे वे नवम्बर, १९६२ में चले आये . यहाँ आप उस पहले  मकान की और सदाक़त आश्रम की कुछ तस्वीरें देख रहे हैं, जिनमे नए बने मकान के उस कमरे की भी एक तस्वीर नीचे है जिसमे उन्होंने अंतिम सांस ली थी.

सदाक़त आश्रम के बारे में आज पटना में भी कम ही लोग, शायद  नाम-भर ही जानते हैं. सदाक़त आश्रम मजहरुल हक साहब के नाम के साथ जुडा है, जो पटना के एक मशहूर बैरिस्टर थे और पटना आकाशवाणी के पास सिकंदर मंजिल जिनकी बहुत बड़ी महलनुमा  हवेली हाल तक थी, मजहरुल हक गांधीजी के दोस्त थे. चंपारण जाते समय गांधीजी पटना में पहले उन्हीं के यहाँ आये थे. गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह से प्रभावित होकर ही मजहरुल हक ने अपनी भारी-भरकम प्रैक्टिस छोड़ कर फकीराना बाना धारण कर लिया था और असहयोगी दीवाने नौजवानों को लेकर चले गए थे – महल जैसी अपनी हवेली छोड़ कर – गंगा-किनारे के उस आम-बागीचे में झोपड़ियों में रहने, और उसका नाम उन्होंने ही दिया था – सदाक़त आश्रम : सचाई का आश्रम. एक तरह से हिंदुस्तान की आज़ादी का आगाज़ सदाक़त के इसी मरक़ज़ से हुआ था. यहीं अंग्रेजों के स्कूल-कॉलेजों को छोड़ कर आज़ादी के दीवाने नौजवान पढने चले आए थे, और उन सबकी रहनुमाई करते थे वहीँ संत की तरह रहते हुए – मौलाना मजहरुल हक. जयप्रकाश नारायण और उनकी तरह के हज़ारों देशभक्त सदाक़त की इसी भट्टी में तप-ढल कर तैयार हुए थे. और यहीं एक कोने में राजेन्द्र बाबू ने भी अपनी कुटिया बना ली थी जो दो दशकों से ज्यादा दिनों तक उनकी कर्मस्थली रही. और इसी कुटिया में उन्होंने जीवन के अधिकांश वर्ष बिताये .

सदाक़त के फकीर अगर मौलाना मजहरुल हक थे तो वहीँ के संत – सत्य और अहिंसा के पुजारी – राजेंद्र बाबू भी थे. मजहरुल हक साहब को तो लोगों ने सचमुच भुला दिया. राजेंद्र बाबू को बाद में सरकारी ‘भारत-रत्न’ उपाधि मिली – जिसका आगे चलकर  कितना अवमूल्यन हुआ – हालाँकि देश ने तो पहले ही उनको ‘देशरत्न’ मान लिया था. लेकिन सदाक़त के उस फकीर मौलाना मजहरुल हक को तो अब कोई नहीं याद करता . हमारा देश आज उस राह पर चल पड़ा है जहाँ वह अपनी सारी  विरासत को या तो भूलने लगा है या उसको टुकड़ों में बांटने में लगा है. क्या यही वह देश है जिसने राजेन्द्र बाबू को ‘देशरत्न’ कहा था?

राजेन्द्र बाबू के जीवन की पूरी कहानी एक तरह से आज़ादी की लड़ाई की ही कहानी है. उसमें जहाँ एक ओर त्याग, तपस्या और संघर्ष है, वहीँ दूसरी ओर राजेन्द्र बाबू की अवमानना और उपेक्षा भी है. मैंने  उनकी जीवनी लिखने के क्रम में इस बात का बड़ी तल्खी से अनुभव किया है और अपनी किताब में उस तल्खी को साझा करने की भी पूरी कोशिश की है. इधर यहाँ एक दिन लखनऊ में पत्रकार मार्क टली से भेंट हुई तो वे मेरी इस  बात से पूरी तरह सहमत हुए.

मेरे पिता से राजेन्द्र बाबू के सम्बन्ध असहयोग आन्दोलन के दिनों से ही थे. मेरे इसी ब्लॉग में २०१३ के मेरे एक पोस्ट को आप पढ़ सकते हैं जिसमें मेरे पिता और राजेन्द्र बाबू के १९३१ से १९५९ के बीच के पत्राचार की चर्चा है. मेरे पिता उनसे ९ साल छोटे थे, लेकिन महाप्रयाण दोनों का लगभग एक साथ हुआ. मेरे पिता का २१ जनवरी, १९६३ को और राजेंद्र बाबू का पांच हफ्ते बाद २८ फ़रवरी, १९६३ को. राजेन्द्र बाबू की मेरी जीवनी में इस प्रसंग का लिखा जाना अभी बाकी है. फ़रवरी में राजेन्द्र बाबू बहुत बीमार थे, फिर भी मेरे पिता के निधन पर उनका एक लम्बा संस्मरणात्मक शोक-सन्देश १५.९.६३ के सा. हिंदुस्तान में छपा –

हिंदी-सेवा अपने में एक बड़ी राष्ट्र-सेवा है. मूक हिंदी-सेवा ही व्रत था आचार्य शिवजी का. मेरे ऊपर तो सदा उनका बहुत स्नेह रहा...शिवजी-ऐसे तपःपूत साहित्यकारों के प्रेम-भाव से मुझे बराबर प्रेरणा मिलती रही है, गांधीजी द्वारा बताये गए सत्य के मार्ग पर और साहस के साथ आगे बढ़ने की...

राजेन्द्र बाबू ने ये उदगार अपनी मृत्यु से केवल १० दिन पहले १५.२.६३ को बोल कर लिखवाया था जिसमे शिवजी से अपने पुराने और आत्मीय सम्बन्ध का उन्होंने विस्तार से स्मरण किया था. राजेन्द्र बाबू की मेरी जीवनी में भी ऐसे प्रसंगों की यथास्थान चर्चा हुई है.

मेरे पिता १९५० से १९५९ तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के निदेशक थे. कदमकुआं के साहित्य-सम्मलेन में इसका दफ्तर था जहाँ हमलोग रहते भी थे. दो अवसरों पर राजेन्द्र बाबू वहां आये. पहला जब परिषद् से १९५४ मे उनको उनकी ‘आत्मकथा’ पर पुरस्कार मिला और दूसरी बार जब १९५६ में वे परिषद् वार्षिकोत्सव का उद्घाटन करने आये. उद्घाटन-भाषण करते यह  उनकी  तस्वीरें  मैंने खींची थी.  वार्षिकोत्सव के सभापति थे डा. सम्पूर्णानन्द. दोनों की मेरी खींची तस्वीर भी मेरे फेसबुक पर लगी है.

अंत में, एक छोटी-सी लेकिन अमूल्य स्मृति राजेन्द्र बाबू से मिलने की. राष्ट्रपति-पद से निवृत्त होकर वे १९६२, मई में पटना आये थे. मैं मुंगेर कॉलेज से ग्रीष्मावकाश में पटना आया था. डा. रामजी वर्मा और अपने अभिन्न मित्र मदन – डा. दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी के सुपुत्र जो अब अमेरिका में रहते हैं – इनके साथ मैं मई में ही एक शाम राजेंद्र बाबू से मिलने गया. वे उसी पुराने मकान के सामने  आम के पेड़ के नीचे एक चबूतरे पर बैठे थे – खादी की धोती और अधबाहीं गंजी पहने. रामजी बाबू हजारीबाग जेल में उनके साथ रहे थे, और वहां रामजी वर्मा को टिकठी पर बाँध कर बेंत से पीटा भी गया था. ज्यादा बातचीत तो उनसे ही होती रही, लेकिन जब मैंने पैर छूकर प्रणाम किया तो पहले तो पिता के स्वास्थ्य के विषय में  पूछा, फिर पिता के साथ की पुरानी  स्मृतियों की चर्चा करने लगे. दमा के कारण उनको धीरे-धीरे रुक-रुक कर बोलना पड़ता था. लगभग आधे घंटे हमलोग उनके साथ रहे. लेकिन ऐसे कर्मयोगी महान संत के साथ बीता आधे घंटे का वह एकांत ही मेरे जीवन की एक अमूल्य निधि बन गया.

यह एक विडम्बना ही है कि गांधी की राह पर सदा समर्पित-भाव से चलने वाले इस अनन्य गांधीवादी संत की उसके अपने प्रदेश में ही आज इतनी उपेक्षा हो रही है जिसका एक उदाहरण पटना में बांसघाट पर बने शवदाह-गृह के पास स्थित उनके अंत्येष्टि-स्थल पर निर्मित उनका स्मारक है. लगता है, अपनी इतनी बड़ी विरासत को जैसे हमने वीरान बना कर रख छोड़ा है. कहना पड़ेगा कि अंग्रेजों के जाने से भारत को सरकार ज़रूर मिल गयी लेकिन गांधीजी के सपनो वाली आजादी नहीं मिली.                   
               

     

Thursday, February 19, 2015

यादनामा : ५

बचपन में ‘निराला’

कल २१ फ़रवरी है. अंग्रेजी कैलेंडर में ‘निराला’ का बर्थडे. जन्म : १८९६ ई. मेरे पिता से वे तीन साल छोटे थे. निरालाजी से ही जुडी एक मनोरंजक स्मृति कल के लिए. हमलोग तब छपरा में रहते थे. अपनी १६.८.४२ की डायरी में बाबूजी ने लिखा है.

“आज कविवर निरालाजी अचानक आये. मेरे घर उतरे. कालेज में कविता-पाठ हुआ. मैं ही सभापति था. रात की गाडी से लखनऊ गए...श्रीनिरालाजी मुझसे मिलने आये तो ‘मतवाला’-मंडल की पुरानी मधुर स्मृतियाँ जाग उठीं. ह्रदय में एक लम्बी आह उठी. वे कैसे दिन थे. वे दिन लद गए. अब वैसे मौज-मजे के दिन फिर न आवेंगे. सुनहले दिन थे.”

छपरा में बाबूजी राजेन्द्र कालेज में हिंदी के प्रोफ़ेसर थे. मैं पांच साल का था. ककहरा और गिनती की उम्र में. अभी स्कूल घर में ही था. लेकिन माँ नहीं थी,पर  इसका एहसास भी मुझे नहीं था, क्योंकि दो साल पहले ही वह चली गयी थी - वहां जहाँ से कोई फिर वापस नहीं आता. घर में मौसी, मामी, भाई-बहन के होने से माँ के गायबाने का मुझको पता भी नहीं चलता था. छाया कि तरह बाबूजी के साथ लगा रहता था. उन्ही के साथ खाता, उन्ही के साथ सोता, मंदिर जाता, खेलता-खाता और गाता रहता था.

“मंगलमूर्ति दिन भर गाता फिरता है – प्रसन्न, मस्त...चित्र बनाने में ही उसका मन लगता है. चित्र बनाते समय गाता ही रहता है. ‘तुलसीदास’ सिनेमा का गीत – ‘ तू राम भजन कर प्राणी, तेरी दो दिन कि जिंदगानी’. प्रतिदिन मेरे साथ धर्मनाथ जी के दर्शन के लिए जाता है. मंदिर में जाने के लिए घेरे रहता है...छोड़ देता हूँ तो रोने लगता है.”

बात उन्हीं दिनों की है जब एक दिन निरालाजी अचानक हमारे यहाँ आये. कालेज की किसी साहित्यिक गोष्ठी में बाबूजी ने उन्हें आमंत्रित किया था. साहित्यिक अतिथि हमारे यहाँ बराबर आया करते थे. सुबह-सुबह मैं बाहर बरामदे में खेल रहा था. मैंने देखा सामने एक बग्घी रुकी और एक लम्बा-तगड़ा व्यक्ति उतरा जिसके माथे पर घनी-लम्बी काली-काली लटें लहरा रही थीं. बाबूजी जैसे ही बाहर निकले उस व्यक्ति ने लपक कर बाबूजी को अपनी बाहों में भर लिया. फिर मुझे देख कर गोद में उठा कर प्यार किया और बस कंधे पर बिठा लिया. मुझे लगा मैं अचानक किसी पहाड़ की छोटी पर पहुँच गया और गिरने के डर  से मैंने जोर से दोनों मुट्ठियों में कस कर उनकी लम्बी लटें पकड़ लीं. फिर तो बाबूजी और निरालाजी के  उस मिलन का मैं एक दर्शक ही नहीं, प्रतिभागी भी बन गया.

बाहरी बरामदे के पीछे बैठक वाले लम्बे कमरे की छोर पर बाबूजी का छोटा-सा पढने-लिखने का कमरा था. निरालाजी के साथ बाबूजी उसी कमरे में बैठ कर बातें करने लगे. उस कमरे में जाने की खुली परमिट बस मुझको थी. पूरे वक़्त मैं वहीँ बैठा निरालाजी को एक टक देखता रहा. रह-रह कर वह छोटा-सा कमरा ठहाकों से गूंजता रहा. मैं क्या जानता था कि अभी-अभी जिस पहाड़ की चोटी पर मैं बैठा था, वही आधुनिक हिंदी कविता के  एवरेस्ट- महाकवि निराला हैं !
           
बहुत दिन बाद उसी दिन की एक मजेदार घटना के विषय में मेरी  बड़ी बहन सरोज दीदी ने मुझे बताया. आज सोचता हूँ, उस दिन मेरी बहन सरोज से मिल कर निरालाजी को कैसा लगा होगा. लेकिन यह तो दूसरी सरोज थी, शिवजी की बेटी, मेरी सरोज दीदी. छपरा की चर्चा के प्रसंग में उसीने मुझको उस दिन की घटना के विषय में हँसते-हँसते बताया. उसकी हंसी तो रूकती ही नहीं थी, और उसकी बातें उसकी हंसी में से जलेबियों की तरह छन-छन कर निकल रही थीं.

निरालाजी सुबह-सुबह हमारे यहाँ पहुंचे थे. शौचकर्म का समय था. तैयार होकर फिर तुरत कालेज कि सभा में जाना था. हमारे आँगन के पिछले बरामदे में शौचालय था. बरामदे में ही पानी का नल लगा था. वहीँ एक पानी-भरा लोटा रक्खा था. निरालाजी ने वह लोटा उठाया और शौचालय में घुस गए. कुछ देर बाद – दीदी की हंसी तो अब रूकती ही नहीं थी, और उसी में वह बताने लगी – शौचालय के अन्दर से ही निरालाजी ने जोर से पुकारा – “शिवजी, शिवजी!” बाबूजी तो वहीँ नल के पास खड़े थे. निरालाजी अन्दर से ही बोले – “अरे, इस लोटे में क्या था. इसमें तो चने ही चने भरे हैं “.

बात यह हुई थी कि बाबूजी के नौकर भागवत ने उस लोटे में रात में ही फूलने के लिए चने डाल रक्खे थे. लोटा वहीँ नल के पास टब पर रक्खा था. जल्दी में निरालाजी ने पानी से भरा लोटा देखा, उसे लिया, और दाखिल-दफ्तर हो गए. फिर तो वही हुआ जो होना था. भागवत दौड़ा, जल्दी से दूसरे लोटे में पानी ले जाकर दिया, और तब निरालाजी फारिग होकर बाहर निकले. उसके बाद तो सारे घर में हंसी कि धारा बहने लगी – पर होठों में दबी-दबी ही. और बाबूजी के साथ निरालाजी के अट्टहास तो जोर-जोर से पूरे  घर में  गूंजने लगे. बाद में तैयार होकर दोनों व्यक्ति कालेज चले गए.
   
निरालाजी की जयंती वसंतपंचमी को मनाते हैं. लेकिन आज उनके अंग्रेजी बर्थडे पर अपने बचपन की इस मधुर-मनोरंजक याद को साझा करने का अपना सुख है. निरालाजी पर मेरे पिता का लिखा मेरे द्वारा सम्पादित एक लम्बा संस्मरण ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ खंड-२ में छपा है जिसमे हास्य के कई और मधुर प्रसंग हैं. उस पूरे संस्मरण का मेरा किया अंग्रेजी अनुवाद इसी ब्लॉग में पहले २६.१०.१२ के पोस्ट में देखा जा सकता है. 

यहाँ जो ३ तस्वीरें हैं उनमें बाबूजी और निरालाजी की वो  तस्वीरें हैं जैसे वे लोग उन दिनों लगते थे. और एक तस्वीर छपरा के रतनपुरा मोहल्ले के उस मकान  की है जहाँ हमलोग उन दिनों रहते थे. 

अचरज हुआ जब  हाल में छपरा गया था तो देखा बचपन का वह मकान भी बूढा लगने लगा था.


ओह!  लेकिन बचपन के वे दिन कितने सुख के दिन थे!



Wednesday, February 11, 2015

यादनामा: ४ परिशिष्ट


मैं मित्रों का आभारी हूँ कि सबने मेरे इस पोस्ट को यहाँ और फेसबुक  पर पढ़ा।  नेट पर ही इधर मुझे 'गंगा मैया...' फिल्म के उस बिहारी एक्टर भगवान सिन्हा की तस्वीर मिल गयी जिसने मेरे यहाँ आकर मेरे पिता के साथ उस करारनामे पर दस्तखत कराया था। मेरे एक मित्र ने जो बिहार सरकार में कभी उच्चतम पद पर रह चुके हैं, उस व्यक्ति को एक 'लोफर' कह कर हाल में याद किया था।  पूरे घपले में उसकी भूमिका ही संशयात्मक थी यद्यपि और लोग भी ज़रूर उसमे भागीदार रहे होंगे।  मेरा आशय यहाँ केवल एक अज्ञात तथ्य को भलीभांति साक्ष्य के साथ उजागर करना है जो अत्यंत गर्हित और निदनीय है ।  यह तस्वीर भी केवल उसी दृष्टि से यहाँ और ब्लॉग पर भी लग रही है। मैं मौके पर उपस्थित था और इस व्यक्ति को पहचानता था इसीलिए यह तस्वीर भी यहाँ-वहां लगाई आप देखें बालीवुड का असली चेहरा कैसा है। 


Wednesday, February 4, 2015

यादनामा : ४
‘कहानी का प्लाट’
पर आधारित भोजपुरी फिल्म

बात १९६२ फ़रवरी की है. मैं मुंगेर कॉलेज में पढाता था और छुट्टियों में पटना आया था. हमलोग मीठापुर के भगवान् रोड में रहते थे. किराये के उस तीन कमरे के मकान में बाहर के खुले बरामदे में ही मेरे पिता एक चौकी पर सोते थे. बहुत जाड़ा पड़ने पर ही वे कमरे में अन्दर सोते थे. पंखा लिए नंगे बदन - यही उनका बाना था, ज़्यादातर बस एक बनारसी गमछा लपेटे, वहीँ लेटे-लेटे बिना चश्मा के आँखें गडाए पढ़ते-लिखते थे. उसी मुद्रा में डायरी लिखते उनकी एक तस्वीर मैंने चुपके से खिंच ली थी. कभी-कभी जब मैं उनकी तस्वीरें खींचता था तो उनकी सरल मुस्कराहट फूट पड़ती थी. उनकी कुछ और तस्वीरें मैं इस ब्लॉग पर लगाना चाहता हूँ. कुछ तस्वीरें अपने गाँव उनवांस की भी, जो उनके लिखे उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का गाँव ‘रामसहर’ है. एक तस्वीर यहाँ मेरे गाँव के उत्तर पोखरे और शिवालय की लगी है जहाँ जब वे गाँव जाते-लौटते तो ज़रूर रुक कर माथा टेकते. बहरहाल बात ‘कहानी का प्लाट’ की.


कहानियाँ मेरे पिता ने कुल १५-१६ ही लिखीं. वह भी अपने जीवन के प्रारम्भिक  दशकों (१९१०-’३०) में ही; जभी उपन्यास भी लिखा. स्वयं अपने जीवन के बारे में लिखा है कि वह ‘एक निराला उपन्यास ही है’. ‘कहानी का प्लाट’ उनकी अंतिम कहानी है (१९२८). इसके नाट्य-रूपांतरण का मंचन उनके जन्म-शती वर्ष १९९३ में पटना में हुआ था. उसकी भी कुछ तस्वीरें मैंने लगायीं हैं. लेकिन उस पर कभी फिल्म भी बनेगी और फिल्म बनाने वाले करारनामें पर उनसे दस्तखत करा लेने के बाद भी फिल्म में कहीं उनका नाम तक नहीं देंगे यह मैं नहीं सोच सकता था क्योंकि दस्तखत मेरे सामने ही हुआ था और आदतन मैंने उसकी तस्वीर भी ली थी जो अखबार में भी पूरे समाचार के साथ छपी थी. लीजिये पहले मेरे पिता की उस दिन २८.२.६२ की डायरी पढ़िए :


“प्रातःकाल ही श्री व्रजशंकर वर्मा और श्री रामचंद्र भारद्वाज आये. उनके साथ बंबई-प्रवासी एक बिहारी भाई [भगवान सिन्हा] भी आये, जो भोजपुरी का चलचित्र (गंगा माई तोहे पियरी चढैबो) बनवाने में तत्पर हैं. उन्होंने मेरी कहानी (‘कहानी का प्लाट’) भी इसीलिए लेने कि इच्छा प्रकट की तथा अनुमति मांगी. मैंने सहर्ष अनुमति दे दी. उससे हिंदी चलचित्र बनेगा. उन्होंने कहा कि प्रदर्शन होने लगेगा तो द्रव्य भी मिलेगा. मैंने मन में ही कहा कि भगवान की इच्छा होगी तो कोई न कोई आय का स्रोत निकल ही आवेगा, अपने मन में तो आशा या कल्पना भी ऐसी नहीं है, प्रभु कि जो भी इच्छा हो.”

गंगा मैया तोहे पियरी चढैबोभोजपुरी की पहली फिल्म थी जिसे डा. राजेंद्र प्रसाद की सलाह पर छपरा के प्रसिद्द अभिनेता नज़ीर हुसैन ने ५ लाख की लागत से बनवाया था. इसके प्रोड्यूसर थे विश्वनाथ शाहाबादी. गीत शैलेन्द्र ने लिखे थे और संगीत था चित्रगुप्त का.

उल्लेख्य है कि फिल्म का गीत-शीर्षक भी उन्ही की एक कहानी ‘अनूठी अंगूठी’ में पहली बार आया था जो १९११ में प्रकाशित हुई थी. फिल्म १९६२ में रिलीज़ हुई जिसके विषय में मैंने अपने फेसबुक पर ‘यादनामा’-४ में लिखा भी है. पैसा तो एक भी क्या मिलता, या किसने बीच में ही लपक लिया, लेकिन फिल्म में कहीं नामोल्लेख तक नहीं हुआ. मेरे पिता तो जनवरी, १९६३ में दिवंगत भी हो गए.

इसी प्रसंग में एक और बात उल्लेखनीय है. यह भोजपुरी की सबसे पहली अत्यंत सफल फिल्म तो थी ही, पूरे भोजपुरी विश्व-समाज में इसे बहुत सम्मान मिला. निर्माता ने ५ लाख लगा कर ७५ लाख कमाया. फिल्म के गाने आज भी अतुलनीय हैं. इसके संगीत-निर्देशक चित्रगुप्त एक बहुत गरीब परिवार से थे, हथुआ के पास के किसी गाँव के, और मेरे बड़े मामा जगन्नाथ प्रसाद के यहाँ रह कर पढ़े थे. बाद में मेरे पिता ने उनको काशी में अपने यहाँ रख कर भी पढाया था.

फिल्म की कहानी ‘विधवा-विवाह’ पर केन्द्रित थी जिस सामाजिक समस्या पर लिखी ‘कहानी का प्लाट’ हिंदी कथा-साहित्य में मील का एक पत्थर है. समाज ने केवल ‘भगजोगनी’ का ही शोषण नहीं किया उसके लेखक का भी क्रूर शोषण किया, उन दिनों जब वे गंभीर आर्थिक कष्ट झेल रहे थे.


मेरे पिता ने कभी फ़िल्में नहीं देखी थीं. डायरी में १६.८.५० को लिखा- “केवल एक ही बार जयशंकर प्रसाद के साथ ‘टेम्पुल बेल’ फिल्म देखी थी जिसमे सुलोचना नाम की अभिनेत्री थी. फिर कभी नहीं देखा.” केवल एक बार फिर ५० के दशक में जब पटने में रूपकसिनेमा का उदघाटन हुआ था तब बेनीपुरीजी जबरन उनको उसमे ले गए थे.

मुझे बालीवुड से इसीलिए गहरी शिकायत है जिसने प्रेमचंद से लेकर फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, गोपाल सिंह ‘नेपाली’ और शैलेन्द्र तक का शोषण और अनादर किया. विश्व के और किसी देश में शायद ही ऐसा होता हो. विज्ञापन ठीक ही कहते हैं – 

 आश्चर्यजनक इंडिया!