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Sunday, April 17, 2022

 

लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध : प्रसंग-4                               

राष्ट्रकवि दिनकर के ‘कुरुक्षेत्र’ की ये पंक्तियाँ एक विशेष प्रसंग को आलोकित करती हैं :

            “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो

            उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो |”

बहुत गहराई में ये पंक्तियाँ शिवपूजन सहाय और उनके प्रकाशकों के सन्दर्भ में भी बहुत अर्थपूर्ण प्रतीत होती हैं | शिवजी ने अपने कंठ में गरल धारण किया, जो वे ही कर सकते थे | उनके विनीत और सरल होने को जो लोग उनकी सांकल्पिक दुर्बलता समझते थे, उन लोगों की दृष्टि बहुत संकीर्ण थी | इस बात के प्रमाण शिवजी की  डायरी के पृष्ठों में भरे पड़े हैं | यह और बात है कि अपनी समग्रता में उपलब्ध हो जाने के बाद आज भी हिंदी संसार उस महत्त्वपूर्ण साहित्य से  प्रायः अनवगत ही है | हिंदी के प्रकाशकों पर उनकी नीचे उद्धृत पंक्तियाँ हिंदी के लिए एक भविष्यवाणी जैसी हैं | पहले इन पंक्तियों को पढ़ें, फिर हम इस विमर्श की कड़ियाँ जोड़ेंगे |

हिंदी के प्रकाशक

साहित्यिकों के पैसे हड़प कर प्रकाशक धनी हो गए हैं | देश में जब क्रांति मचेगी तब गरीबों को चूसने वाले पूँजीपतियों के साथ बेईमान प्रकाशक भी  लूटे जायेंगे | लेखक और कवि उस लूटपाट का लोमहर्षक  वर्णन करेंगे (१२.११.५५)|  लेखक को प्रकाशक के सामने याचना करते देख विधाता की निर्ममता पर क्षोभ होता है  (१४.११.५५)| हिंदी संसार के प्रकाशक यदि लेखकों के स्वार्थ की भी चिंता रखते तो साहित्य निर्माण में बड़ी सहायता मिलती |...जब तक नैतिक बल की ओर प्रकाशक और लेखक ध्यान नहीं देंगे तब तक हिंदी की अभीष्ट उन्नति नहीं होगी |...देशवासियों का नैतिक बल भी तभी बढेगा जब साहित्यकारों में सच्चा नैतिक बल आ जायेगा  | साहित्य निर्माता ही राष्ट्र निर्माता है | जिस देश में त्यागी और तपस्वी साहित्यसेवी होते थे, उस देश में कीर्तिलोलुप और अहंकारी लोगों के हाथ में साहित्य पड़ गया है | युग की गतिविधि देख बड़ी चिंता होती है कि आगे का युग कैसा होगा  (३०.९.५८) | आजकल के प्रकाशक यदि उदार होते तो साहित्य का बहुत उपकार होता और साहित्यसेवकों को प्रोत्साहन और अवलंबन मिलता | हमारे हिंदी के प्रकाशक कब अंग्रेजी के प्रकाशकों के आदर्श पर ध्यान देंगे (२०-२१.५.४९) | बार-बार लिखने पर भी प्रकाशक  कभी रॉयल्टी का हिसाब नहीं समझाते – चुकाना तो दूर रहा | प्रकाशक अहंकारवश समझते हैं कि निर्धन असहाय लेखक हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं (९.१२.५३) | हिंदी के प्रकाशक हम लेखकों का खून चूस कर मोटे हो गए है | उनके बच्चे दूध-घी चाबते हैं और हमलोगों के बच्चे सूखी रोटी पर नमक भी नहीं पाते (९.१२.५३) | पटना के  हिंदी पुस्तक प्रकाशकों में एक भी ईमानदार होता तो हिंदी साहित्यसेवियों की दशा दयनीय न होती | ईमान  खो देने पर जो उन्नति नज़र आती है वह चार दिन की चाँदनी है | कभी-न-कभी पाप का घड़ा भर कर फूटता ही है (२.५.५६)|

ये प्रामाणिक पंक्तियाँ हैं, शिवजी की कलम से लिखीं |  जो लोग उनको ‘विनीत सरल’ कह कर उनको अव्यावहारिक करार देते थे, ये हिंदी के वही साहित्यकार थे जिनकी अपनी साहित्यिक नैतिकता सदा प्रश्नांकित रही | वास्तव में साहित्यिक नैतिकता आचरण और सृजन के बीच के संतुलन पर आश्रित होती है | आचरण और सृजन में यदि एकमेकता बनी रहेगी, यदि वे एक दूसरे को संपुष्ट करते रहेंगे,  यदि उनमें परस्पर विलोम-सम्बन्ध नहीं होगा, तब वे कभी साहित्यिक नैतिकता को क्षत-च्युत नहीं करेंगे | परन्तु आचरण और सृजन की यह एकमेकता, यह सम्पृक्ति बहुत कम साहित्यकारों में देखी जाती है | शिवजी में यह एकमेकता अनन्य थी, वैसी जैसी उन्हीं के समय के अन्य किसी साहित्यकार में नहीं दिखाई देती | जिन  लोगों ने उनके साहित्य को पढ़ा है, उनके संस्मरणों, उनकी साहित्यिक पत्रकारिता और उनकी डायरी अथवा पत्रों को ध्यान से पढ़ा है, वे जानते हैं की अपने समय में हिंदी साहित्य-लेखन में वे अकेले साहित्यकार हैं जिनके लेखन में साहित्य के आदर्श मूल्यों का जैसा प्रतिपालन दिखाई देता है, उन मूल्यों का वैसा ही प्रतिबिम्बन उनके भौतिक जीवन में भी देखा जा सकता है | वास्तव में, उनका पूरा जीवन ही आदर्श साहित्यिक मूल्यों का प्रमाणीकरण प्रतीत होता है, जिसमें किसी प्रकार के कलुष का एक भी दाग कहीं नहीं दिखाई देता | साहित्य को उसकी सम्पूर्णता और श्रेष्ठता में अपने जीवन में पूरी तरह सार्थक करने वाले – अपने सभी समकालीनों के बीच भी – वे अकेले साहित्यकार हैं | इसका एक प्रमाण बेल्जियन संत फादर कामिल बुल्के की श्रद्धांजलि में पढ़ा जा सकता है –

परलोक में पहुँचने पर  मुझे अपनी जन्मभूमि के कम लोगों से मिलने की उत्सुकता रहेगी; पर अपनी नई मातृभूमि भारत के बहुत से अच्छे-अच्छे लोगों का मुझे परिचय प्राप्त हो सका है, और उनमें एक शिवपूजन जी हैं | परलोक में पहुंचकर मुझे उनसे मिलकर अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव होगा और मैं उनके सामने नतमस्तक होकर उनको धन्यवाद भी दूंगा कि उनसे मैंने जान लिया था कि विनय का वास्तविक स्वरुप क्या है |   

मैं स्वयं फादर बुल्के से रांची में उनके टिन छत वाले एक कमरे के आवास में मिला था और उनकी आँखों में अपने दिवंगत पिता के प्रति गहन श्रद्धा की वह झांकी देखी थी | वैसे भी शैशव में ही मातृहीन हो जाने के कारण, और सबसे छोटी संतान होने के कारण, मैं अपने पिता के जीवन के अंतिम २५ वर्षों में छाया की तरह उनके साथ रहा, और मेरा यह दुर्लभ एवं ईर्ष्य सौभाग्य रहा कि मैंने उस देवतुल्य साहित्य-पुरुष  की पावन जीवन लीला का अंतिम संघर्षित परिच्छेद अपनी इन भौतिक आँखों से देखा | मेरे सामने घटित हुआ १९४० से १९६३ का यह कालखंड तो पिता के जीवन में किंचित स्थिरता का समय रहा, जब कि ठीक उससे पहले के डेढ़ दशक (१९२६-१९३९) उनके जीवन के कठिनतम संघर्ष के वर्ष रहे जिनका संकेत पिछले विवरणों में उद्धृत पत्रों में आया है | लेकिन मेरे समय के स्थिरता के वर्षों में भी मेरे पिता के जीवन में शोषण की वह गाथा अविरत  चलती रही जिसका संकेत भी उन्हीं पत्रों से मिल जाता है, जहाँ १९५०-६२ के बीच दो प्रेसों  द्वारा  उनका गर्हित शोषण किया गया था (देखें पिछला प्रसंग-३) |

पूर्वोल्लिखित डायरी अंशों में एक अन्य  प्रकार के शोषण की भी चर्चा है, जो उनके जीवन में समय का शोषण था, जब लोग जैसे-तैसे लिखे अपने मोटे-मोटे ग्रंथों को उन पर सम्पादन-संशोधन के लिए लाद देते थे, जिसकी चर्चा भी बार-बार उनकी डायरियों में भरी पड़ी है – लोग एक, घंटा, एक दिन भी उनका अपना नहीं होने देते थे ताकि वे कुछ अपना लिख-पढ़ सकें; दूर-दराज़ के शहरों के सम्मेलनों में, अस्वष्ठाता की स्थिति में भी, जबरदस्ती खींच कर ले जाया करते थे  | और यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने ही होता रहा | जब मेरे पिता को  – जिनको राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपनी विशेष अनुशंसा पर ‘पद्मभूषण’ प्रदान किया. और जिन्होंने राज्यसभा की सदस्यता का बिहार कांग्रेस का प्रस्ताव भी अस्वीकृत कर दिया था  -  बिहार की ही सरकार ने समय से पूर्व अवैधानिक ढंग से सेवानिवृत्त कर दिया, जिससे उनको पेंशन नहीं मिल सका, और १९५९ से १९६३ के ४ वर्ष किस मुफलिसी में बीते, जब मेरे पिता को दवा, दूध और फल तक नहीं मिलते थे, जिसके कारण समय से पूर्व उनका शरीरांत हुआ | इन सब के पीछे प्रकाशकों का, साहित्यिक मित्रों का और सबसे बढ़कर बिहार सरकार का निर्मम व्यवहार था जिससे हिंदी के एक संत का असमय जीवनांत हुआ, और जिस कारण हिंदी को बहुत कुछ और नहीं मिल सका, जो उसे मिलता | उनके जीवन के अंतिम दो वर्षों (१९६१-’६२) में यह कहानी और भी दारुण हो गयी जब ‘हिंदी साहित्य और बिहार’ के खण्डों का सम्पादन करने के लिए बिहार सरकार ने उनके लिए केवल रिक्शा-भाड़ा की मंज़ूरी दी, और उसी क्रम में जनवरी में वे परिषद् से १० से ५ तक खट कर रिक्शे से लौटते हुए वे वर्षा में भींग गए, बीमार होकर अस्पताल गए, और वहीँ ५  दिन बाद  उनका निधन हो गया |

अंत में दो शब्द इस बात पर कि इतने महान हिंदी-सेवी और रचनाकार को रामविलास शर्मा और उसी स्तर के  कुछ अन्य साहित्यकारों ने केवल प्रूफ-रीडर और भाषा-संशोधक की तरह मूल्यांकित किया, उनके साहित्यिक सृजन-कार्य को कभी ठीक से समालोचित नहीं किया | क्या यह हिंदी के लिए शोभा की बात है ? प्रूफ-रीडिंग और भाषा-सम्पादन क्या होता है, अगर ऐसे साहित्यकार समझते तो वे हिंदी गद्य की महिमा समझते और यह समझते कि निराला ने क्यों रामविलासजी को कहा था कि वे उनकी जीवनी शिवजी को समर्पित करें – “शिवपूजन जी को समर्पण बहुत अच्छा है, बड़े सज्जन और चारु साहित्यिक हैं |”  मेरी समझ से निराला और शिवजी के अनन्य स्नेह-सम्बन्ध को समझने के लिए, और निराला शिवजी को और सभी साहित्यकारों से कितना अलग मानते थे यह जानने के लिए, ऐसे लोगों को शिवजी का निरालाजी पर लिखा संस्मरण ‘देवोपम पुरुष निराला’ (सा. हिंदुस्तान,५.११.६१)  पढना चाहिए था | निराला शिवजी के गद्य-लेखन की महिमा को समझते थे| यह और बात है कि बहुत से ऐसे लोग जो निराला को समझने वाले माने जाते रहे, वे शिवजी को एक भाषा-संशोधक और प्रूफ-रीडर से बहुत ऊपर हिंदी का एक श्रेष्ठ साहित्य-सर्जक कभी नहीं समझ सके |

शिवजी उस युग के लेखक थे जब हिंदी अभी साहित्य की भाषा के रूप में निर्मित ही हो रही थी | आप उस  युग के लेखकों के संस्मरणों और चिट्ठियों में पढ़िए कि वे शिवजी की साहित्य-साधना को किस समादर-दृष्टि से देखते थे | शिवजी के ‘साहित्य समग्र’ में प्रकाशित श्रीधर शर्मा,महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, बनारसी दास चतुर्वेदी, माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर प्रभाकर माचवे और अज्ञेय के पत्रों को पढ़ने पर यह जाना जा सकता है | मैंने अपनी संस्मरणों की नई प्रकाशित पुस्तक ‘दर्पण में वे दिन’ में ऐसे बहुत से अल्पज्ञात प्रसंगों की चर्चा की है जिनसे पता चलता है कि हिंदी नवजागरण के उत्तर-कालखंड में हिंदी के साहित्य-निर्माताओं का जीवन कितना असुरक्षित और संघर्षपूर्ण था, और वे सब शिवजी को कितना सम्मान देते थे |

सम्पादन और प्रूफ-रीडिंग उस लेटर-प्रेस युग में कितने अनिवार्य, संश्लिष्ट और कठिन कार्य थे जिन्हें निराला, प्रसाद और प्रेमचंद की कोटि के लेखक भी स्वयं नहीं कर सकते थे, और इसके लिए भाषा की उच्च-स्तरीय समझ और सामर्थ्य उस समय के बहुत कम ही लोगों में थी | यह दुष्कर कार्य शिवजी ने इसलिए अपने ऊपर नहीं ले लिया था कि यह उनके लिए कोई सुखदायी कर्म था, जैसा भ्रम कुछ लोगों को था, जैसे जगदीश चन्द्र माथुए का यह लिखना कि “शिवपूजन जी को एक त्रुटिपूर्ण पृष्ठ का सांगोपांग प्रूफ संशोधन करने में वही आनंद मिलता था, जो किसी सेठ को अपने शेयरों के सूद का मिलान करने पर मिलता है, अथवा किसी पेटू पांडे को सुस्वादु भजन पाने पर “! लेकिन पिछले प्रसंगों में  विनोदशंकर व्यास ने अपने संस्मरण में  शिवजी के इस प्रकार के हृदयहीन श्रम-शोषण का वास्तविक चित्र अंकित किया है | यह सच है कि प्रूफ-संशोधन भले ही एक मशीनी हुनर हो, लेकिन उसमें आँखों का तेल तो निकल ही जाता था, और अच्छे प्रूफ-रीडर उस ज़माने में भी बहुत नहीं  होते थे, लेकिन गहन भाषा-साधना से अर्जित भाषा का जैसा ज्ञान शिवजी को था, वह उनके समय में किसी और के पास नहीं था | इसका एक छोटा-सा उदाहरण ‘जागरण’ में प्रकाशित, शिवजी द्वारा संशोधित ‘प्रसाद’ जी की कविता की दो पंक्तियाँ हैं: – “विभुता विभु-सी दुख-सुख  वाली, दिखलाती हो सत्य बनी रे” (मूल), और शिवजी द्वारा  संशोधित : “विभुता पड़े दिखाई विभु-सी, दुख-सुख वाली सत्य बनी रे”| यहाँ यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि गद्य के प्रसाद गुण की प्राप्ति  से कविता कैसे स्वाभाविक रूप से निखर जाती है | इस प्रसंग पर अलग से विस्तार से विचार हो सकता है |  इसे  पेट-पूजा और सूद-मिलान का वासना-शमन  जैसा कार्य समझना अपनी नासमझी को ही दर्शाना है |

 ‘जागरण’ में प्रकाशित, शिवजी द्वारा संशोधित लगभग सभी पांडुलिपियाँ शिवजी के संग्रह में उपलब्ध हैं | ‘ द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’, राजेंद्र अभिनन्दन ग्रन्थ’, ‘प्रवासी-प्रपंच’ (ब्रह्मदत्त भवानी दयाल का उपन्यास) – इन सबकी मूल पांडुलिपियाँ संग्रहालयों में आज भी सुरक्षित हैं, और उनको देखकर समझा जा सकता है कि शिवजी के संशोधनों में इनमें भाषा की कैसी बारीक कारीगरी दिखाई देती है | ‘रंगभूमि’ संशोधन भी शिवजी ने किया था, पर वह प्रेस-कॉपी दुलारेलाल के गोदाम में गुम हो गयी | फिर भी भाषा-वैज्ञानिक शोध से यह देखा जा सकता है कि प्रेमचंद की कथा-भाषा का स्वरूप उसके पहले और बाद के उनके  उपन्यासों में कितना अप्रभावित या प्रभावित रहा है | डा. कमल किशोर गोयनका ने ‘शतरंज के खिलाडी’ (‘माधुरी’, अक्टूबर, १९२४) का पाठ-शोध लोथार लुत्से के साथ प्रकाशित किया है, पर उसमें भी कई प्रकार की असंगतियाँ रह गयी हैं | क्योंकि जिस कहानी का संशोधन-सम्पादन  निश्चय ही शिवजी ने अगस्त-सितम्बर, १९२४ में, लखनऊ में रहते हुए ‘रंगभूमि’ के साथ ही किया था, उसको दुलारेलाल द्वारा किया मान लिया गया है, जबकि दुलारेलाल में  प्रेमचंद की भाषा का सम्पादन करने में क्षमता भला कहाँ  होती, यह तो शिवजी को लिखे (‘समग्र’-८ में प्रकाशित) उनके पत्रों की भाषा को पढ़ कर ही जाना जा सकता है | इसीलिए हिंदी के समीक्षात्मक इतिहास-लेखन की यह सबसे बड़ी कमी है कि वह शिवजी के साहित्यिक अवदान का केवल उचित मूल्यांकन नहीं करती, इतना ही नहीं है, वह निश्चित रूप से उसका अवमूल्यन और उसकी असंगत उपेक्षा करती है, और उनके श्रम और हिंदी-हित में किये गए आदर्श समर्पण और त्याग की अवमानना करती हुई आगे बढ़ जाती है | वह इस पर रुक कर सोचने की जहमत ही  नहीं उठाती कि क्यों प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ के शिवजी द्वारा संशोधन-सम्पादन को उनकी ‘महीनों की दिमाग-रेज़ी’ कह कर अपना आभार जताया था |

अभी इस लेखक-प्रकाशक-शोषण प्रसंग का समापन शिवजी के एक वैसे ही मार्मिक वाक्य से किया जा रहा है, जो  प्रकाशकीय शोषण से किसी हद तक मुक्त होकर कॉलेज की प्राध्यापकी में आने पर अनुभूत राहत से फिर और उच्चतर साहित्य-सेवा के नाम पर वहां से भी खींच कर सरकारी शिक्षा विभाग की सेवा में बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् के मंत्री पद पर आने के बाद, उनकी डायरी में,  शिवजी की करुण-कथा का एक शीर्ष-वाक्य बन गया -                 

 राजेन्द्र कॉलेज छोड़कर मैंने बहुत भारी भूल की | परिषद् में साहित्यसेवा करने आया; पर यहाँ तो बस कुटिलों का कुचक्र ही आगे आया (४.७.५६) | “

चित्र: १. जब राजेन्द्र कॉलेज में थे  २. छात्र  की रचना का संशोधन   ३. उस समय के प्रूफ-पाठ का नमूना  ४. सिंघासन बत्तीसी (मूल पुस्तक) जिसका हिंदी अनुवाद 'तोता-मैना' की तरह करना चाहते थे, पर वह पूरी योजना अधूरी रह गयी |  


आलेख एवं चित्र (C) मंगलमूर्त्ति

इसी क्रम में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और शिवपूजन सहाय’ पर भी एक २-३ किस्तों की श्रृंखला



मैं लिखना चाहता हूँ जिसे आगे के सप्ताहों में आप मेरे इसी ब्लॉग पर पढ़ सकेंगे, जिसमें १९५० से १९६३ तक की कहानी के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंग होंगे | बाद में संभव होगा तो इस श्रंखला-सामग्री को एक पुस्तक का रूप भी दिया जा सकेगा |

 

           

Saturday, April 9, 2022

 








लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध : प्रसंग-3

शिवपूजन सहाय का प्रारम्भिक जीवन

शिवपूजन सहाय के पितामह देवीदयाल गहन आस्थावान, धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे | परिवार संयुक्त था और थोड़ी खेतीबारी थी, लेकिन देवीदयाल दिन-रात धर्म-ग्रंथों के पठन-पाठन में ही लगे रहते, खेती-बारी की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते, इसलिए उनके भाइयों ने उनको थोड़ी ऊसर-बंजर ज़मीन और महुए-नीम के कुछ पेड़ देकर अलग कर दिया | ‘मेरा बचपन’ में शिवपूजन सहाय ने यह पूरी कहानी लिखी है | पिता वागीश्वरी दयाल गाँव में ही थोड़ी हिंदी-उर्दू और हिसाब-किताब  सीख कर आरा के एक जमींदार की पटवारीगिरी  करने लगे और  तब  जा कर घर की आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी | निर्धनता के कारण बालक शिव ने  भी  जिला-मुख्यालय आरा के निकट रिश्तेदारों के यहाँ रह कर कुछ उर्दू-फारसी-अंग्रेजी सीखी और १९०३ में पिता के साथ आरा में स्कूल में दाखिल हुए, पर १९०६ में ही पिता की अचानक मृत्यु हो जाने  के कारण  वे अपने चाचा लोगों पर आश्रित हो गए, और किसी तरह आरा में ट्यूशन पढ़ा कर मैट्रिक की परीक्षा पास कर सके | बाद में आरा में ही उनको स्कूल-मास्टरी मिली जिससे भी गाँधी के १९२० के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने  त्यागपत्र दे दिया | तत्कालीन स्वदेशी आन्दोलन के कारण उसके बाद उनको पत्रकारिता का ही रास्ता अपनाना पड़ा, क्योंकि  आरा के साहित्यिक मंडल से जुड जाने के कारण साहित्य-लेखन के प्रति उनका  रुझान बढ़ गया था, और पत्रकारिता ही उनके  लिए तब  एक सहज विकल्प रह गया था | उन दिनों साहित्य-लेखन से जुड़े हुए अधिकांश लेखकों के साथ जीवन-यापन के लिए ऐसी ही विवशता थी – चाहे प्रेमचंद हों, या  निराला, या इस तरह के बहुत सारे समानधर्मा लेखक |

आरा-कलकत्ता-लखनऊ-काशी का जीवन : पृष्ठभूमि  

‘मारवाड़ी सुधार’-सम्पादक बन कर कलकत्ता जाने और फिर ‘मतवाला’ और ‘माधुरी’ से जुड़ने की कहानी पहले कही जा चुकी है | लेकिन विशेष ध्यान देने की बात यह है कि महादेव प्रसाद सेठ हों, दुलारेलाल भार्गव  हों, या रामलोचन शरण हों – किसी के साथ शिवजी स्वेच्छा से नहीं जुड़े, सबने अपने व्यावसायिक स्वार्थ के लिए उनको आग्रहपूर्वक अपने साथ रखा और उनका भरपूर शोषण किया जिसमें काशी और लहेरिया सराय (पुस्तक भंडार) में बीते १९२६ से १९३९ के १३-१४  वर्ष  शिवजी के जीवन में सर्वाधिक संघर्ष और शोषण के वर्ष रहे | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि १९२४ में शिवजी जब दंगे के कारण लखनऊ से भागे तो वहां होटल में उनकी सारी साहित्यिक सामग्री वहीँ छूट गयी जो बाद में दुलारेलाल के हाथ लगी, जिसमें ‘देहाती दुनिया’ की मूल पांडुलिपि के साथ उनकी तब तक की अत्यंत महत्त्वपूर्ण डायरियां, तथा और बहुत सारी मूल्यवान साहित्यिक सामग्री थी जो रख ली गयी और  फिर उन्हें वापस नहीं मिली | और फिर जब वे पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय) से छपरा आये तो उनका पांडुलिपियों और १९२५ से १९३९ (१४ वर्ष) की डायरियों से भरा एक ट्रंक ‘भण्डार’ में ही  रख लिया गया, जिसमें इस अवधि की डायरियां भी थीं, जो सब गुम हो गयीं | यह सब शिवजी ने अपनी बाद की डायरियों में ही लिखा है | निश्चित रूप से १९२० से १९३९ के उन २० वर्षों की डायरियां मूल्यवान साहित्यिक सामग्री से परिपूर्ण होंगी, और कहीं गुम पड़ी होंगी या नष्ट हो गयी होंगी | उन वर्षों के कठोर संघर्ष और शोषण की बहुत सारी कहानी भी उन्हीं के साथ गुम हो गयी होगी |

छपरा आने के बाद – और राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में भी वे स्वेच्छा से नहीं, वरन बहुत दबाव के बाद लाये गए थे | ‘भण्डार’ तो उनको छोड़ना ही नहीं चाहता था (यह सब कई पत्रों में है ), लेकिन स्वयं शिवजी भी ‘भण्डार’ के शोषण से घबरा गए थे, और प्राध्यापन-कार्य उनके मनोनुकूल भी था| लेकिन प्रकाशकीय शोषण का यह प्रेत छपरा में भी उनके साथ छाया की तरह मंडराता रहा, जैसा उनकी डायरियां बताती है (जो उसके बाद उनके पास १९४० से १९६३ तक सभी सुरक्षित रहीं ) जिनमें प्रतिदिन का रोजनामचा अंकित है |

अब आप पहले १९४९ से १९६२ तक की उनकी (‘समग्र’- खंड ६-७ में प्रकाशित) डायरियों के प्रासंगिक अंश पढ़ें जिनमें उनकी शोषण की यह व्यथा-कथा अंकित है | पिछले पोस्ट में प्रकाशित पत्रों का इन डायरी-अंशों से सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है – विशेष कर उस तीसरे पत्र से जो अशोक प्रेस के व्यवस्थापक के नाम से है | (व्यक्तियों का नाम यहाँ सार्वजनिक करना निरर्थक लगा, लेकिन प्रकाशित  ‘समग्र’ के डायरी-खण्डों-६ और ७ में उन्हें भी देखा जा सकता है |)  

१.

 छपरा :१९३९-१९४९

पुस्तक भंडार

 (२३.२.४९) बिहार प्रकाशक संघ में कल एक  पत्र भेजा था कि पुस्तक भंडार से झगडा तय करा दें  |  गत २२.२.४९ को पांडे  नर्मदेश्वर सहाय वकील  को पत्र भेजा कि भण्डार को नोटिस दे दें | (१८.१०.५१) मुझ पर हृदयहीन प्रकाशकों ने अत्याचार किया पर मैंने किसी के साथ धोखा नहीं किया | मेरे नोटिस देनेंपर भी पुस्तक भंडार ने  मेरी पुस्तकों को छापना बंद नहीं किया | पुस्तक भंडार को धन का गर्व है | मैं गरीब साहित्यिक हूँ, अदालत में जाकर  उससे लड़ नहीं सकता | (३.११.६०) एक महान प्रकाशक मेरी कन्या के विवाह के लिए मेरे वेतन से रुपये काटकर प्रति मास मेरे नाम पर जमा करते थे (ऐसा ही कहते रहे  - सच-झूठ भगवान जानें ); किन्तु मैं जब उनकी सेवा से कार्य मुक्त हो गया तब मेरी कन्या का विवाह हुआ | सम्बन्ध-विच्छेद के बाद भारतीय स्वामी अपने सेवक के बाकी पैसे नहीं देते, यही परंपरा है | (१७.४.५२ ) भगवान रामचंद्र का परम अनुरक्त भक्त होने का दावा करने वाला भी इतना बड़ा पाखंडी हो सकता है | जिसने मुझसे ५०० पुस्तकों का सम्पादन करा कर अपना ही नाम सम्पादक की जगह रखा और कभी कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं लिखा  या कहा तथा जिसने मेरी मौलिक पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित करके भी मुझे कभी एक कौड़ी तक नहीं दी, ( हे  प्रभु!) उसके अंतःकरण में बैठ कर आप मेरी ही क्षीण काया निरख रहे हैं ? ....बहुतों ने मेरे साथ बदी की, पर मैं नेकी की राह पर ही रहा |

निकौडिया  

(२५.१०.४९) आज तीन पैसे ही पास रह गए हैं |शाम को एक पैसे का पान खा गया | बाकी बचे दो पैसे | गत एक पखवारे से पैसे के अभाव में कष्ट हो रहा है | (३०.११.५१)  महीने का अंत होते-होते बिलकुल निकौडिया हो जाता हूँ |

२.

 पटना: १९५०- १९६३  

समय का शोषण

(३१.१.५१) रचनात्मक शक्ति कुंठित हो रही है | मन के भाव मन में ही विलीन हो जाते हैं | लेखक को नौकरी नहीं करनी चाहिए. मगर रोज़ी-रोटी का सवाल बड़ा बीहड़ है | (२१-२४ .८.५१) साहित्य सेवा के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता| मन में भाव और विचार उठाते हैं , पर लिपिबद्ध नहीं हो पाते, विलीन हो जाते हैं | बहुत कुछ लिखने की लालसा है | उपन्यास, कहानी, निबंध, सब मन में तरंग उठाकर  लुप्त हो जाते हैं | लेख भी लिखे हुए अधूरे पड़े हैं , कब पूरे होंगे राम जाने | अभिमन्यु’ अधूरा पड़ा है | ‘भीम’ भी लिखना ही है | समय मिलता तो ये दोनों पुस्तकें पूरी हो जातीं | ‘तोता मैना’ भी अधूरा लिखा पड़ा है | वह एक अच्छा कथा-ग्रन्थ होगा |’सिंहासन बत्तीसी’ और ‘बैताल पचीसी’ को भी सुन्दर हिंदी में लिखना है | बहुत दिनों से दोनों रख छोड़ा है |

अशोक प्रेस  और  अजंता प्रेस

(२०.१०.४९) ’साहित्य मणिमाला’ पाठ्य पुस्तक ८ वीं श्रेणी के लिए है | अशोक प्रेस मेरे नाम से ही निकालेगा | ‘सारिका’ भी मेरे ही सम्पादकत्त्व में निकली है | (१९.५.५१)  ----- पुस्तकों को मंज़ूर कराने  में घूस देने की बात करने लगे | (१.९.५३) मेरी सब पुस्तकें पाठ्य-क्रम में ३-४ साल से हैं ---- ने लाखों रुपये पैदा किये | मैं भिखारी!! (५.४.५२) ----ने मेरी रॉयल्टी छीन ली | मेरी ७-७ पुस्तकें लाखों प्रतियां बेच कर सेन्ट्रल बैंक में लाखों रुपये जमा कर चुके और मेरी दोनों कन्याओं के विवाह में फंसे हुए खेतों को ऋण मुक्त करने की मेरी कल्पना एवं भावना को बड़ी ह्रदय हीनता से कुचल-मसल डाला (८.८.५१)------अपना दुखड़ा रोने लगे | उनके अभाव मेरे अभावों से कहीं बढे-चढ़े हैं | उनकी कठिनाइयों का वर्णन सुनकर मेरी कठिनाइयां सहम जाती हैं | मैं किसके आगे दुखड़ा रोऊँ ?

(३.१२.६०) मेरी पुस्तक ‘सारिका’ बिहार-भर में  प्रवेशिका परीक्षा की पाठ्य-सूची में स्वीकृत है और प्रतिवर्ष १५ से २० हज़ार प्रतियाँ छपती तथा बिकती हैं...अशोक प्रेस ने केवल मेरी पुस्तकों की बिक्री से लगभग दस वर्षों में दस लाख रुपये बैंक में जमा किये हैं | (४.९.५२)----का मैनेजर  बड़ा कुटिल और दुष्ट है | उसी के झूठ बोलने से मेरी रॉयल्टी मारी गयी | छपरा में २०% रॉयल्टी की बात हो चुकी थी | उसी की दुष्टता से मेरी रोयल्टी के हज़ारों रुपये डूब गए | ---प्रेस की ४-५ रीडरों के सम्पादन और प्रूफ-संशोधन में घोर परिश्रम कर के भी  मैं खूब ठगा गया | मेरे नाम से लाभ उठाकर हज़ारों –लाखों रुपये बैंक में जमा कर दिए | (२१.७.५५) ५-६ वर्षों से मेरे नाम पर ‘साहित्य-चन्द्रिका’ के ४ भाग स्वीकृत पाठ्य-पुस्तक के रूप में बिक रहे हैं  जिनसे उन्होंने लाखों रुपये बैंक में जमा कर रखे हैं | पर मुझे जबरदस्ती कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते | (१०.१०.५६) मुझे तो खूब मूडा, उलटे छुरे से हजामत बना दी |

(२९.७.५५) दोनों (प्रेस के मालिक) जानते हैं कि मैं शील छोड़कर अदालत में नहीं जाऊंगा; क्योंकि मुक़दमा लड़ने के लिए  मेरे पास पैसे और समय का अभाव है |   ---- में मेरी पुस्तक ‘सारिका’ इस साल १५,००० छपी है  और आधी संख्या पर ही मुझे रॉयल्टी मिली है | ‘व्याकरण दर्पण’ की रॉयल्टी में भी बेईमानी हुई है |...धनी होना चाहो तो बेईमान बनो | (४.११.५५) ---- दोनों ने मेरे साथ जो बेईमानी की है वह भगवान की आँखों से ओझल नहीं हो सकती| मनुष्य समझता है कि शीलवान व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाकर  हम सुखी रहेंगे, पर रामजी उसको सर्वनाश के मार्ग पर सरपट दौडाते हैं | भगवान के न्यायालय में सच्चा न्याय होता है |

(१४.६.६१)----आजतक मेरी बालोपयोगी पुस्तकें छापकर बेचते जाते हैं और अनेक बार निवेदन करने पर भी मेरा हिसाब नहीं करते पाता| ‘दो घडी’ की १०,००० प्रतियाँ छापकर भारत सरकार को प्रचारार्थ दिया और उसका रूपया भी पा गए , पर लब्धांश का हिसाब नहीं कर रहे हैं | कई  सज्जन मुझे अदालत जाने को भड़काते हैं, पर मुकदमेबाजी की परेशानी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता | दुनिया की आँखों का पानी गिर जाये भले ही, मेरी आँखों का पानी नहीं गिरना चाहिए | भूखों मरने पर भी दु:शील  होना मुझे सह्य न होगा | (३०.९.६१) ----प्रेस से आज तक एक पैसा नहीं आया | वे न पत्रोत्तर देते हैं और न हिसाब करते हैं | मैं एक-एक पैसे के लिए कष्ट झेल रहा हूँ | (२२.१०.६१) आज तक हिसाब नहीं किया | टालते-टालते एक साल बिता दिया |

इन उद्धरणों में शोषण की वह कहानी उजागर होती है जो १९५० में राजेन्द्र कॉलेज, छपरा, से शिवजी के बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के सचिव के रूप में पटना चले आने के बाद घटित हुई | लेकिन वह इस श्रृंखला की चौथी और अंतिम कड़ी होगी जो अगले सप्ताह आप यहीं पढ़ सकेंगे |

 चित्र १. परिषद् अपने कार्यालय में (१९५५)

२. छपरा का किराए का मकान जिसमें मेरा बचपन बीता (१९३९- १९४९)  

 आलेख और चित्र (C) मंगलमूर्त्ति

 

Sunday, April 3, 2022

प्रसंग : लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध -2

मंगलमूर्त्ति


यह कहानी सुदूर अतीत के कुहासे में कहीं शुरू होती है – आज से लगभग २०० साल पहले १८२५ के आस-पास जब कलकत्ता से नागरी लिपि में प्रकाशित पहला समाचार-पत्र ‘उदन्त-मार्तंड’ निकला था जिसके सम्पादक थे पं. युगल किशोर शुक्ल | अँगरेज़ अपना पांव फैला चुके थे और कलकत्ता ही वस्तुतः देश की राजधानी था | प्रेस और मुद्रण का सारा व्यापार वहीँ केन्द्रित था | लखनऊ का नवल किशोर प्रेस भी, जो फिर भारतीय उप-महादेश का सबसे बड़ा प्रेस विदित हुआ, १८५८ में स्थापित हुआ था | यह बिखरते हुए मुग़ल हुकूमत का अंतिम  चरण था, लेकिन अंग्रेजी के काबिज होने से पहले यह ज़माना उर्दू-फारसी के बोलबाले का था | हिंदी का पौधा तो अभी रोपा ही जा रहा था | और हिंदी के पहले गद्य लेखक मुंशी इंशा अल्ला खां ने यह काम उन्हीं दिनों  लखनऊ में ही शुरू किया था | उस वक़्त के सभी लेखक उर्दू-फारसी से ही अपनी तालीम शुरू करते थे | प्रेमचंद  तो १९२४ के पहले नागरी लिपि में बमुश्किल लिख पाते थे | शुरू में उनकी कहानियां और उपन्यास सब उर्दू में ही लिखे गए थे, और उस वक़्त उर्दू के प्रकाशक उनको ज़्यादातर एकमुश्त पैसे दे दिया करते थे | कॉपीराइट कानून बन चुका था, लेकिन किताबें छपने-बिकने का ज़माना अभिम आगे आने वाला था | प्रेमचंद और निराला की जीवनियों में हिंदी के प्रकाशकों के साथ उनके ज़्यादातर एकमुश्त लेन-देन, या उनके साथ हुई बेईमानियों और शोषण की थोड़ी-अधूरी जानकारी मिलती है, लेकिन किसी ने अभी तक इस पक्ष पर अलग से  कोई प्रमाणिक पुस्तक शायद नहीं लिखी है, जो शायद अब कोई लिख डाले |

प्रेमचंद (१८८०), शिवपूजन सहाय (१८९३) और निराला (१८९६) – थोडा आगे-पीछे – एक ही समय के लेखक थे, और तीनों पत्रकारिता से भी जुड़े रहे –शिवजी तो जीवन में अंत तक – और तीनों शुद्ध मसिजीवी ही  रहे – बस कलम के बल पर रोज़ी कमाने वाले ! कलम ही उनकी कुदाल रही, और लेखन ही उनका करघा | तीनों अपनी फसल या बुनावट को प्रकाशकों की दूकानों पर ही बेचते रहे |

लेकिन यहाँ अभी केवल शिवपूजन सहाय की शोषण-कथा थोड़े विस्तार से लिखी जानी है, और उसका भी केवल वह अंश जिसका सम्बन्ध उनके प्रकाशकों से रहा | यद्यपि पैसों के मामले में प्रकाशकों ने जिस प्रकार उनका शोषण किया, उनके साहित्यिक समानधर्माओं ने भी भाषा-संशोधन-सम्पादन के नाम पर उनका लगभग उतना ही शोषण किया : प्रकाशकों ने धन का और समानधर्माओं ने श्रम और समय का, जिसके कारण विलक्षण प्रतिभा-संपन्न होने के बाद भी शिवजी का रचनात्मक अवदान यथाक्षम एवं यथा-प्रचुर नहीं हो पाया | लेकिन, यहाँ हम उनके प्रकाशक-संबंधों पर ही मुख्यतः विचार करेंगे | यद्यपि उनके सम्पादकीय शोषण का प्रश्न भी उनके प्रकाशकों से भी सीधे जुड़ा रहा |

शिवपूजन सहाय पारिवारिक एवं आर्थिक कारणों से केवल मैट्रिक पास कर पाए थे और १९१७  से आरा में स्कूल-शिक्षक की सरकारी नौकरी करने लगे थे जिससे गांधी के असहयोग आन्दोलन में १९२० में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था | उसके बाद उनका लेखक-पत्रकार जीवन विधिवत ‘मारवाड़ी-सुधार’ के सम्पादक के रूप में शुरू हुआ, जिसके व्याज से वे १९२१ में कलकत्ता जा पहुंचे और फिर वहां महादेव प्रसाद सेठ के बालकृष्ण प्रेस में उनके साथ ही रहने लगे | उनके प्रकाशकीय शोषण की कहानी का प्रारम्भ भी यहीं से होता है | वहीँ से ‘मतवाला’ साप्ताहिक निकला जिसका तीन चौथाई काम दिन-रात  शिवजी ही करते रहे | अगस्त, १९२३ से फ़रवरी. १९२४ के ७ महीनों के हड्डी-तोड़ परिश्रम का पारिश्रमिक – जब वे होली में अपने घर जाने लगे -  उनको मात्र २०० रु. सेठजी की और से मिल सका जिससे ही असंतुष्ट होकर उन्होंने ‘मतवाला’ छोड़ दिया और ८० रु. प्रति माह की पगार पर दुलारेलाल के विशेष आग्रह पर ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में लखनऊ चले आये | इसी समय ‘माधुरी-सम्पादक के रूप में प्रेमचंद १०० रु. की पगार पर लखनऊ आये थे | लेकिन दुलारेलाल भी उतने ही कठोर-मुट्ठी व्यवसायी निकले, और शिवजी कुछ ही महीनों के बाद ‘माधुरी’ छोड़ कर फिर कुछ दिन बाद कलकत्ता ही लौट गए | यद्यपि इस बार ‘मतवाला’ में नहीं, बल्कि कई छोटी-मोती अल्पजीवी पत्रिकाओं – ‘मौजी’, ‘उपन्यास-तरंग’ के संपादक के रूप में | लेकिन इस बार दुबारा का कलकत्ता भी उनको रास नहीं आया | आते ही, मार्च १९२५ में, एकमात्र पुत्री ‘वासंती’ का वहीँ देहांत हुआ, वहीँ दूसरी पत्नी क्षयग्रस्त हो गयीं, और फिर मई, १९२६, में अंततः वे अपनी रुग्णा पत्नी को लेकर काशी आ गए | लेकिन नवम्बर, १९२६ में इस दूसरी पत्नी का भी देहांत हो गया | और यहीं से उनके लम्बे संघर्षमय जीवन और कठोरतम  शोषण की कहानी शुरू हो गयी, जिसके प्रसंग की चर्चा पिछले पोस्ट के पहले पत्र में मिलती है – जो उन्होंने ‘पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय, दरभंगा) के व्यवस्थापक को लिखी है |

अब इसकी पृष्ठभूमि भी थोड़ी जान लें |’मतवाला’ से और ‘माधुरी’ से भी  शिवजी के अलग होने का मामला प्रदोनों का  साहित्य से लगाव पैसों के लिए अधिक था | इन्हीं परिस्थितियों से जूझते हुए शिवजी दुबारा कलकत्ता गए थे, और ‘मतवाला’ से अलग-ही-अलग  रहे थे, क्योंकि ‘मतवाला’ की चोट उनके दिल पर गहरी लगी थी. जिसे वे अपने जीवन में अंत-अंत तक सहलाते रहे | इधर पुस्तक-भण्डार के मालिक हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में शिवजी के सम्पादन-कौशल की ख्याति से परिचित हो चुके थे, और उनकी दीठ भी शिवजी पर जम चुकी थी | बेनीपुरी माध्यम बने, और शिवजी पुस्तक भंडार के पुस्तकों के सम्पादन-मुद्रण के सिलसिले में – जो तब काशी में ही छपती थीं – काशी बुला लिए गए | काशी उन दिनों शिवजी के लिए धार्मिक ही नहीं, सबसे प्रमुख साहित्यिक तीर्थ भी था – जहाँ प्रेमचंद थे, प्रसाद थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र की वह नगरी, आधुनिक हिंदी साहित्य की जन्म-स्थली; शिवजी का मन सबसे अधिक वहीँ बाबा विश्वनाथ की नगरी में ही रमता | और यहीं वह लम्बा, घनीभूत शोषण- चक्र शुरू हुआ जिसका अंत उस उद्धृत पहले पत्र से पढ़ा जा सका है | काशी में शिवजी के उन दिनों के शोषण का एक वास्तविक चित्र विनोदशंकर व्यास ने खींचा है –

शिवपूजन जी की तरह का परिश्रमी व्यक्ति मैंने दूसरा नहीं देखा | वह जिस पाण्डुलिपि को ठीक करते, उसके एक-एक अक्षर पर ध्यान रखते थे | पट्ट चटाई पर लेटे वह घंटों काम किया करते थे और कभी थकते या घबडाते नहीं थे | उनके जीवन का अधिकाँश परिश्रम दूसरों की रचनाओं के संशोधन में ही लगा | उनमें प्रतिभा थी, किन्तु उस प्रतिभा का सदुपयोग नहीं हुआ | शिवपूजन जी की स्थिति देखकर मैं कभी-कभी मन में सोचता कि क्या विधाता ने इनके जीवन में कभी शांति की व्यवस्था नहीं की है ? वैसे स्वभाव के भी वे कुछ संकोची ऐसे थे कि जिसने अपने काम में उन्हें लगाया उसने पूर्ण रूप से उनकी शक्ति का रस निचोड़ने का ही प्रयत्न किया | ऊबकर-घबडाकर भी वे मुक्त न हो पाते थे | कोई अन्य साधन भी सामने दिखाई न पड़ता था | कभी लहेरिया सराय में हैं, कभी काशी में फुटकर काम कर रहे हैं, कभी प्रयाग में किसी ग्रन्थ की छपाई में व्यस्त हैं | एक स्थान पर स्थिर होकर रहने का अवसर ही उन्हें नहीं मिलता था |

काशी का शिवजी का ऐसा साहित्यिक मजदूरी जीवन १९२६ से १९३३ तक चलता रहा, और जब अंततः १९३३ के बाद  वे पुस्तक-भंडार में ‘बालक’ और ‘भण्डार’ के प्रकाशनों का सम्पादन करने सपरिवार वहां चले गए, तब तो संपादन के नाम पर उनका घर्षण-शोषण अपने चरम पर पहुँच गया | ( यहाँ के कुछ चित्र उसी समय के हैं )| ‘भण्डार’ के स्वामी श्री रामलोचन शरण उस समय भी शिवजी के रीढ़-तोड़ परिश्रम के लिए जो पगार देते थे उसमें से आधा काटकर रख लेते थे*, यह कह कर कि दो बेटियों की शादी जब होगी उसके लिए यह एक तरह का ‘प्रोविडेंट फण्ड’ जमा हो रहा है, यद्यपि जब बाद में १९४७-४८ में ‘हिमालय’ को लेकर ‘भंडार’ से शिवजी का मतभेद हुआ, और वे ‘हिमालय’ से और ‘भण्डार’ से भी अंतिम रूप से अलग हो गए तब ‘भण्डार’ के स्वामी ने बेटियों की शादी के समय एक पैसा नहीं दिया | शिवजी ने ये सारी बातें अपनी डायरियों में साफ़ लिखी हैं | ‘देहाती दुनिया’ और ‘विभूति’ आदि पुस्तकों की रॉयल्टी का तो एक पैसा नहीं ही दिया, ‘साहित्य सरिता’ नाम से एक गद्य-संकलन शिवजी से संपादित कराकर उन्हीं के नाम पर पटना यूनिवर्सिटी के पाठ्य-क्रम में लगवाया, और सालों-साल तक उससे अकूत धन कमाया, लेकिन शिवजी को उन्हीं के मुहावरे में –‘निबुआ नोन चटा दिया’! ‘भंडार’-व्यवस्थापक के नाम का पहला पत्र इसी की व्यथा-कथा कहता है !

लहेरिया सराय में ही मेरा जन्म हुआ था जिसके कुछ ही दिन बाद मेरे पिता राजेंद्र कॉलेज, छपरा के हिंदी विभाग में प्राध्यापक-पद पर चले आये थे | दुर्भाग्यवश छपरा आने के साल-भर बाद ही मेरी माता (बच्चन देवी, तीसरी पत्नी) का देहांत हो गया | लेकिन ‘भण्डार’ का सम्पादन-प्रेत छपरा में भी उनके पीछे लगा ही रहा | ‘हिमालय’-सम्पादन-प्रकरण छपरा-प्रवास के बीच का ही प्रसंग है, जिसके साथ शिवजी का ‘भंडार’ से अंतिम रूप से सम्बन्ध-विच्छेद हुआ | ‘मतवाला’-काल से ‘भण्डार’-प्रकरण तक की इस संक्षिप्त कहानी में शिवजी के सम्पादकीय शोषण की दो दशक लम्बी कहानी छिपी हुई है , जो पहली बार यहाँ प्रकाशित पहले दो पत्रों से किसी हद तक आलोकित होती है |       

*टिप्पणी : रामलोचन शरण ने अपने १८.६.२८ के पत्र में लिखा था  - “यदि आप कहें तो जो योजना हो तो उसमें से आधा यहाँ आपकी दुल्हिन के नाम पासबुक में जमा करने का प्रबंध करें | शेष आपको खर्च के लिए भेजा करें|” शिवजी ने अपनी डायरियों में कई जगह लिखा है की उनकी पगार से काटकर जमा की जाने वाली यह राशि उनकी म्पुत्रियों के विवाह के समय उन्हें फिर नहीं मिली| “सम्पादन-कार्य छोड़ देने के कारण अब मास्टर साहब कन्याओं के विवाह में सहायता नहीं देंगे |” (देखें डायरी -१६.१.४८) | देखें : ‘समग्र’, खंड ९,पृ.३६७ – सं. |

शिवपूजन सहाय के ‘साहित्य-समग्र’ के दो खण्डों (६ और ७) में उनकी पूरी डायरी, विशेषतः १९४१ से १९६३ तक नियमित प्रकाशित है, और उसमें अनेक प्रविष्टियों में उन्होंने अपने प्रकाशकीय शोषण की चर्चा की है | प्रेमचंद और निराला की जीवनियों में भी प्रकाशकों द्वारा शोषण के ज़िक्र बार-बार आये हैं, लेकिन वहां खींच-तान भी काफी रही है, जो शिवजी के मूक-शोषण में अनुपस्थित मिलती है  |

आज अखबारों में और सामाजिक मीडिया के  इन्टरनेट मंचों पर इस गंभीर विषय की कुछ चर्चा शुरू हुई  है | विदेशों में – यूरोप और अमेरिका में – और भारत में भी अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों में  यह समस्या वैसी नहीं है,  और अब पर्याप्त व्यवस्थित हो चुकी है | लेकिन हिंदी में यह बीमारी बहुत  पुरानी भी है, और जटिल भी | इसके चार ‘स्टेक होल्डर्स’ हैं – पहला तो लेखक ही, जिसके बिना यह सारा व्यापार संभव ही नहीं; दूसरा, प्रकाशक, जो इस दूषित व्यवस्था का मुख्य लाभार्थी और दोषी है; तीसरा, पाठक - जो इस पूरे व्यवसाय का वास्तविक  आधार होता है; और चौथी, वे असंख्य संस्थाएं जो पुस्तकालय की खरीद से जुड़ी होती हैं, और जो इस व्यवसाय में व्याप्त सारे भ्रष्टाचार में प्रकाशकों के साथ चट्टी-बट्टी होती हैं | विशेष चिंता की बात है कि इस भ्रष्टाचार में सरकारी विभाग भी, जहाँ से केन्द्रीय या राज्य स्तर पर खरीदें की जाती हैं, वे भी आकंठ डूबे दीखते हैं | अब इस भ्रष्टाचार-लिप्त दूषित व्यवस्था का हिंदी भाषा और साहित्य के स्तर और विकास पर कैसा गहरा हानिकारक प्रभाव पड़ता रहा है, इस पर सरकार और समूचे लेखक-वर्ग को ध्यान देना चाहिए |

सबसे पहले सरकारी संस्थाओं – प्रकाशन विभाग, साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं के लेखकीय अनुबंधों में लेखकों के प्रति जो अनुचित दोषपूर्ण वैधानिक प्रावधान हैं उनमें पर्याप्त संशोधन किया जाना ज़रूरी है | मेरा निजी अनुभव  इस तरह की सरकारी संस्थाओं के साथ भी अप्रिय ही रहा है | पारिश्रमिक की दरों में दशकों से बढोत्तरी नहीं की गयी है | चयन-समितियों में मनमानी और पक्षपात चलता ही रहा हैः | रॉयल्टी-विवरण कभी समय से नहीं भेजे जाते | पत्रों  के उत्तर बार-बार  रिमाइंडर  देते रहने पर भी  महीनों तक नहीं मिलते | फोन तक नहीं उठाये जाते | ऐसा लगता है, सरकारी नौकर अपने को किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं मानते, सिवा अपनी माहवार मोटी तनखाह के | वस्तुतः, यदि केवल इस विशाल सरकारी व्यवस्था में चुस्ती आ जाय तो स्थिति बहुत कुछ सुधर जा सकती है | सरकार  यदि इस गंभीर समस्या पर ध्यान दे और इसका हल निकालने पर कटिबद्ध हो जाय, और राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशन के केन्द्रीय संस्थानों की स्थापना कर दे तो हिंदी के बड़े प्रकाशकों की धांधली बहुत कुछ खुद रुक जा सकती है | इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार को रोकने का सबसे कारगर तरीका यही है कि ऐसी हर सरकारी संस्था के प्रमुख का चुनाव उसकी ईमानदारी और कार्य-निष्ठा के आधार पर किया जाय | विश्वविद्यालयों में भी पुस्तक-खरीद केन्द्रीय-स्तर पर इन्हीं मानकों के आधार पर, ईमानदार, निष्ठावान प्रमुख की देख-रेख में  हो | बड़े प्रकाशकों की प्रकाशन एवं वितरण व्यवस्था की भी  प्रति वर्ष सरकारी या विशेष अर्द्ध-सरकारी एजेंसी द्वारा जांच हो और प्रकाशक भी अपना  साफ़-सुथरा वार्षिक प्रकाशन-मुद्रण विवरण सरकार को दें और सार्वजनिक भी करें | अनियमितताओं में चलने वाले प्रकाशकों के सभी प्रकार के निबंधन न्यस्त किये जाएँ |

ऐसी स्थिति में, लेखक यदि अपने रचना-कर्म का समुचित आर्थिक प्रतिदान प्राप्त करने लगेगा, तब उसके सृजन का स्तर स्वतः ऊंचा उठेगा, क्योंकि उसके जीवन में सुख-शांति की व्यवस्था सुनिश्चित हो सकेगी | विश्व के – विशेषतः यूरोप और अमेरिका के – देशों में साहित्य-सृजन की, और पाठकों के पुस्तक-प्रेम और पुस्तक-खरीद की भी स्थिति हिंदी पुस्तक-व्यवसाय की तुलना में कई गुना बेहतर है, यह तो सर्व विदित है | वहां हज़ारों लेखक ऐसे हैं जो केवल अपने लेखन के बल पर ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जी रहे हैं, और दशकों से वहां ऐसा माहौल   है |

हिंदी के पुस्तक-प्रकाशन व्यवसाय के दूषणों की वास्तविक जांच-पड़ताल करने वाली कोई पुस्तक प्रकाशित हुई है, इसकी जानकारी अभी तक तो मुझे नहीं है, पर अब शीघ्र ही इस पर एक प्रमाणिक शोध की पुस्तक लिखी जानी चाहिए जिससे इस घातक रोग की गंभीरता और उसके प्रसार, और उसके उपचार का भी पता चल  सके |

शिवपूजन सहाय  के प्रसंग में जो तीसरा पत्र है, उसका सम्बन्ध उस काल-खंड से है, जब वे छपरा से १९५० में बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् के सचिव होकर पटना चले आये थे | लेकिन उनके प्रकाशकीय-शोषण की वह करुण- कथा वहां भी उनके साथ लगी रही | अगली श्रंखला में उसी की चर्चा होगी |                                              

 चित्र-१ : शिवजी 'पुस्तक-भण्डार' (लहेरिया सराय, दरभंगा में, ल.१९३७ )

चित्र-२ : 'पुस्तक भंडार' का चित्र | आगे : रामलोचन शरण, भवानी दयाल सन्यासी और शिवपूजन सहाय |



                                                                                                                                    [क्रमशः]   

 आलेख एवं चित्र (C) मंगलमूर्ति