श्रद्धांजलि
पं.कृष्णबिहारी
मिश्र
[१९३६-२०२३]
हिंदी के उद्भव और विकास में कलकत्ता (अब कोलकाता) का योगदान अनन्य और बहुमूल्य रहा है | हिंदी पत्रकारिता के विकास में भी कलकत्ता की इस केन्द्रीयता का महत्त्व विशेष रूप से रेखांकित किया जाता रहा है | लेकिन स्मरणीय यह है कि इस क्षेत्र में एक सुदीर्घ कालावधि में सर्वाधिक अग्रगामी और पथ-प्रदर्शक भूमिका जिस एक समर्पित साहित्यसेवी – पं. कृष्णबिहारी मिश्र - की रही है, जिनका कल (७.३.’२३ को) लम्बी बीमारी के बाद कोलकाता में ही निधन हुआ, मुख्यधारा हिंदी साहित्य जगत में उसकी अनदेखी ही अधिक हुई |
हिंदी के वट-वृक्ष
की जड़ें उन्नीसवीं सदी उत्तरार्द्ध में कलकत्ता में ही सुदृढ हुईं, और उसकी शाखें
भी हिंदी पत्रकारिता के विकास के रूप में वहीँ पल्लवित् हुईं, लेकिन उस क्षेत्र
में सर्वाधिक लोकोपयोगी शोध करने वाले हिंदी के इस समर्पित हिंदीसेवी के ऐतिहासिक
महत्त्व के कार्य की चर्चा अत्यल्प ही हुई | पं. मिश्र द्वारा संपादित एवं ‘भारतीय
विद्या मंदिर’, कोलकाता से प्रकाशित ‘हिंदी-साहित्य:बंगीय-भूमिका’ (द्वि.सं., २०१४, पृ. ५५०) नामक
ग्रन्थ इसका एक सशक्त प्रमाण है | इस ग्रन्थ में आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी और डा.
सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय से लेकर आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय तक के लगभग
६० अत्यंत महत्त्वपूर्ण निबंध संकलित हैं,
जो एक कालावधि-विशेष में बंगीय-भूमि पर हुए सांस्थानिक हिंदी-कार्य पर सम्यक
प्रकाश डालते हैं | इस पुस्तक में हिंदी पत्रकारिता की शिला-स्थापना करने वाले
सम्पादकाचार्यों – पं. गोविन्दनारायण मिश्र,पं. सकल नारायण शर्मा, श्रीबालमुकुंद गुप्त, आ. ललिता प्रसाद सुकुल, पं.
रुद्रदत्त शर्मा, पं. माधव प्रसाद मिश्र, पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे, प्रभृति – के महार्घ योगदान की विशद चर्चा है |
पं.कृष्णबिहारी
मिश्र का मुख्य शोधकार्य-क्षेत्र पत्रकारिता रहा | बंगीय क्षेत्र के अतिरिक्त उनका
एक अन्य शोध-ग्रन्थ राजस्थान की हिंदी पत्रकारिता पर भी है | वास्तव में वे हिंदी
पत्रकारिता के इतिहास के अध्येता के रूप में ही विशेष प्रतिष्ठित रहे और हिंदी
पत्रकारिता पर उनके पांच मानक शोध-ग्रन्थ प्रकाशित हैं | लेकिन अपने ललित निबंधों
के लिए भी मिश्रजी को उतनी ही ख्याति प्राप्त हुई है | उपर्युक्त शोध-ग्रंथों के
अलावा भी उनकी अन्य विधाओं में कई पुस्तकें – ‘आँगन की तलाश’, ‘मकान उठ रहे हैं’, ‘अलोकपंथा’, आदि प्रकाशित हैं |
लेकिन उनकी सर्वाधिक मूल्यवान कृति है ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ – परमहंस रामकृष्ण की औपन्यासिक
जीवनी जिसकी भेंट-प्रति मुझको स्वयं उनसे प्राप्त हुई |
मिश्रजी से मेरा परिचय पत्राचार से ही हुआ था | अपने शोध के प्रसंग में मेरे पिता से सम्बद्ध सूचनाओं के लिए वे अक्सर मुझसे पत्र-संपर्क में रहते थे | यहाँ प्रदर्शित पत्र मेरे पिता की जन्म-शती के अवसर पर प्रकाशित एक स्मारिका से सम्बद्ध है| उनकी लिखावट बहुत महीन और रची हुई, सुन्दर होती थी | यद्यपि पत्राचार के माध्यम से उनसे मेरी बहुत सुदीर्घ अंतरंगता हो गयी थी, लेकिन उनके साक्षात् दर्शन का अवसर मुझे कई वर्षों बाद २००५ में मिला, जब प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती के अवसर पर मुझको शान्तिनिकेतन में एक व्याख्यान के लिए आमंत्रण मिला, और वहां से वापसी में मैं मिश्रजी के बुलावे पर कोलकाता में उनके बेलियाघाटा निवास पर उनसे मिलने गया |
उनका यह निम्न
मध्य-वर्गीय परिवार का किराए का पुराने ढंग का बना मकान काफी अन्दर के मोहल्ले में
था और बहुत पूछते-पूछते कठिनाई से मैं वहां पहुँच सका था | सीढ़ी से चढ़ कर पहली
मंजिल पर उनका कमरा था जहाँ का यह चित्र है | बलिया (उ.प्र.) के होने के कारण उनसे
भोजपुरी में ही बातचीत हुई, और पहली बार मिलने पर भी सदा से परिचित होने का बोध
सहज भाव से बना रहा | बातचीत में मेरे पिता के प्रति मिश्रजी का अकूत श्रद्धा का अपना
भाव बराबर मुखर रहा | ‘बंगीय भूमिका’ वाली पुस्तक के संपादन के दौरान ‘मतवाला’ के प्रसंग में पिताजी के सम्बन्ध
में मेरी उनसे बराबर पत्राचार और फोन-वार्त्ता होती रही थी | राजस्थान की
पत्रकारिता वाली पुस्तक में भी ‘मारवाड़ी सुधार’ के विषय में विस्तार से चर्चा है
| ‘बंगीय भूमिका’ वाली पुस्तक में
तो ‘मतवाला’-मंडल से सम्बद्ध प्रचुर सामग्री
संकलित है | दोनों ही पुस्तकें मिश्र जी ने मुझको भेजी थीं, जिनमें आज मेरे पास
मिश्र जी की स्मृति सुरक्षित है |
उस दिन की भेंट
बहुत स्नेह-मय वातावरण में हुई | मैं शान्तिनिकेतन के समारोह से सीधे वहां गया था
इसलिए शान्तिनिकेतन की चर्चा स्वाभाविक रूप से होने लगी | रवि बाबू के अपने
संस्मरण में मेरे पिता ने हिंदी के प्रति रवि बाबू के अवज्ञा-भाव का उल्लेख किया
है, जब ‘मतवाला’-मंडल के चारों
सदस्य – मेरे पिता, निरालाजी, महादेव प्रसाद सेठ और नवजादिक लाल श्रीवास्तव – रवि बाबू से
मिलने गए थे | रवि बाबू हिंदी समझते ज़रूर थे पर बोलते नहीं थे | सेठजी तो उनसे
बंगला में ही बात करते रहे पर मुंशीजी ने बराबर हिंदी में ही बात करने की कोशिश की
जिस कारण रवि बाबू ने उनकी ओर कम ध्यान दिया | अंत में दबी जुबान मुंशीजी ने
महाकवि से कहा कि आप टूटी-फूटी हिंदी भी बोलें तो बहुत बड़ी बात होगी, और हिंदी भी
पढने की कृपा दर्शाइए | लेकिन रवि बाबू ने रुखाई से कहा – तुम्हारी हिंदी में अभी
मेरे पढने योग्य कुछ नहीं है | उस समय तो महाकवि को इसका उत्तर कौन देता लेकिन
अत्यंत मर्माहत होकर जब मंडली वहां से निकली तब निराला बहुत रोष में आ गए और बोले –
कबीर और मीरा की जूठन चाट कर नोबेल पुरस्कार पा लिया तो अब हिंदी का ऐसा अपमान कर रहे
हैं, धिक्कार है ! यद्यपि निराला स्वयं कवीन्द्र रवीन्द्र से प्रभावित रहे पर यह
भी सच है कि निराला की काव्य-यात्रा में कवीन्द्र रवीन्द्र बहुत पहले ही पीछे छूट चुके
थे | उसके बाद फिर कभी ‘मतवाला’-मंडल के सदस्य रवि बाबू से मिलने नहीं गए | अंग्रेजी
में अनूदित होने के बाद भी किसी और भारतीय साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला
| लेकिन जब राजनीतिक कारणों से महात्मा गांधी को ही बार-बार नामांकित होने पर भी
नोबेल पुरस्कार नहीं मिला और जब सार्त्र के अलावा कइयों ने इस नोबेल पुरस्कार को
नकार दिया तब ऐसे नोबेल पुरस्कार की महत्ता तो जग-जाहिर है | मिश्र जी ने कहा - कवीन्द्र
रवीन्द्र को भी तो यह पुरस्कार जब १९१३ में
मिला था तब तक उन्होंने कितना लिखा था और
उनके लेखन की ऊँचाई कहाँ तक पहुंची थी ? पुरस्कारों के पीछे कुछ न कुछ राजनीति तो रहती
ही है, ऐसा तो स्पष्ट है |
बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों
में कलकत्ता की हिंदी पत्रकारिता के तो पं. कृष्ण बिहारी मिश्र विश्वकोष ही थे | हिंदी
पत्रकारिता के विषय में अपने शोध-ग्रंथों में जो ज्ञान वे संचित छोड़ गए वह तो
बहुमूल्य है ही लेकिन उसका अनंत स्रोत तो मिश्र जी के साथ ही चला गया |
परमहंस रामकृष्ण
की जीवनी तो रोम्यां रोलां ने १९२९ में ही लिखी थी, और वह जगत-प्रसिद्ध पुस्तक है,
किन्तु पं.कृष्णबिहारी मिश्र-लिखित यह औपन्यासिक जीवन-चित्रण एक अद्वितीय महत्त्व
की साहित्यिक कृति है | पूरी पुस्तक आत्मकथा के रूप में परमहंस की ही वाणी में
प्रस्तुत हुई है | मिश्र जी ने जैसे अपने जीवन-नायक के चरित्र में काया-प्रवेश कर
लिया हो, और पूरा आत्म-चरित उन्हीं की बोली में रच दिया हो | पहली ही पंक्ति उस
स्वर को झंकृत कर देती है –
“दुर स्साला, वेद
के नाम पर ताल ठोंकता है | बिलायती बोली में उपनिषद् झाड़ता है! गँवई-गंवार को वे
डराते हैं मां ! यह पंडितों की पंचायत है कि पागलों का मेला! ब्रह्म=ब्रह्म
चिल्लाते हैं ! सूखा तर्क, नीरस बतकही | कितना रस है मां तेरे नाम में !”
छः सौ पृष्ठों का
यह ‘आत्म-चरित’ हिंदी साहित्य की एक गौरव-कृति है
| जैसा पुस्तक के प्रारम्भिक ‘विधायक विकल्प’ में रचनाकार ने कहा है –
“परमहंस श्री
रामकृष्ण का जीवन जितना सहज था,उसे अक्षर में रूपायित करना उतनी ही विकट चुनौती |
और फिर कथा रचने के लिए जिस शिल्प को चुना, उससे मेरी कठिनाई और बढ़ गयी | ठाकुर के
मुहावरे में, उन्हीं के मुंह
से, पूरी कथा कहलाना सचमुच बड़ी चुनौती थी | असमंजस गहरा था, पर जब लिखना शुरू किया
तो लगा जैसे ठाकुर अपनी सहज कौतुकी शैली में मुझसे बोल-बतिया रहे हैं, मुझे केवल
लिपिक की भूमिका पूरी करनी है |”
अनोखे, अनन्य
शिल्प में रचित यह जीवन चरित सचमुच हिंदी जीवन-चरित माला की मध्य- मणि जैसी भासमान
है | इस एक कृति से पं.कृष्णबिहारी मिश्र की साहित्य-यात्रा न सिर्फ अपने गंतव्य
को पूर्णतः प्राप्त कर लेती है, वरन हिंदी साहित्य की ज्योतित ग्रंथमाला में अपना श्रेष्ठ स्थान स्वतः अर्जित
कर लेती है |
चित्र एवं आलेख (C) मंगलमूर्ति
'कल्पतरु की उत्सव लीला'
भारतीय ज्ञानपीठ. प्र. सं. २००४
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