मेरी नई प्रस्तुति
राजा राधिका रमण : रचना संचयन
अगले सप्ताह साहित्य अकादेमी से प्रकाशित मेरे द्वारा संपादित यह संचयन उपलब्ध हो जायेगा |इसमें राजा साहब के सम्पूर्ण साहित्य से चयनित एक प्रातिनिधिक संचयन आज के पाठक के लिए उपलब्ध होगा | पुस्तक का कवर, उसका ब्लर्ब और उसकी भूमिका और पूरी अनुक्रमणिका नीचे दी जा रही है | यहाँ पहली बार उनका कालजयी उपन्यास 'राम-रहीम' अपने संक्षिप्त रूप में, किन्तु अपने पूर्ण कथा-रस से संपृक्त नई दृष्टि से पढ़ा जा सकेगा, और साथ ही उनके सभी और उपन्यास, कहानियां, संस्मरण आदि भी एक साथ उपलब्ध होंगे - राजा साहब की पूरी जीवन-सामग्री के साथ | आशा है, हिंदी का समीक्षा जगत इस महत्त्वपूर्ण संचयन पर दृष्टिपात करेगा और हिंदी-नवजागरण उत्तरार्ध के एक मूर्धन्य किन्तु बहुलान्शतः ओझल उपन्यासकार की ओर एक बार फिर नए सिरे से पाठकों का ध्यान जायेगा |संचयन को देखने के बाद सामान्य पाठक भी इस ब्लॉग पर अपनी टिप्पणियाँ कृपया अवश्य अंकित करेंगे ऐसी आशा है |
भूमिका
‘राजा साहब’
– राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह – हिंदी साहित्य में एक अकेला नाम, जिसके पैतृक
संस्कार पुरानी काव्य-परंपरा की रीतिकालीन
श्रृंगारिक ब्रजभाषा के रंग में रंगे हों, जिसे ‘राजा’ का खिताब पूरे ताम-झाम के
साथ बर्तानिया के सम्राट की ओर से दिया गया हो, लेकिन जो शुरू से ही अंग्रेजी
सरकार और अंग्रेजी तहजीब की लानत-मलामत ही करता आया हो - कदम-ब-कदम उसके साथ चलते
हुए भी - और सबसे बढ़ कर, जो अंग्रेजी के सबसे बड़े उपन्यासकारों में एक विलियम
थैकरे के प्रसिद्ध उपन्यास ‘वैनिटी फेयर’ के बराबर और शायद उससे बढ़-चढ़ कर ही हिंदी में उपन्यास लिखने की चुनौती स्वीकार करने
और उसे कुछ महीनों में पूरा करने वाला हिंदी का अकेला लेखक हो – ऐसा कोई दूसरा नाम
हिंदी में तो नहीं है |
एक ऐसा
उपन्यासकार जो मानव-जीवन और समाज के
संश्लिष्ट यथार्थ के संवेदनशील चित्रण में शरतचंद्र और प्रेमचंद से भी टक्कर ले
सकता हो, जिसने जीवन के पूर्वार्द्ध में ही हिंदी का सबसे भारी-भरकम एक हज़ार
पृष्ठों का एक ऐसा उपन्यास लिख डाला हो जिसमें जीवन की विविधता का – उलझनों और
विषमताओं से भरे पतनशील उपनिवेशवादी और सामंतवादी भारतीय समाज का - ऐसा अद्भुत
चित्रण मिलता हो जैसा हिंदी अथवा अन्य
भारतीय भाषाओं के भी किसी अन्य उपन्यास में शायद ही कहीं उपलब्ध हो
– हिंदी का एक ऐसा उपन्यासकार जिसने लगभग आधी सदी तक अनवरत अभिनव कथा-लेखन
किया हो, ऐसा तो हिंदी में वह अपने पाये
का अकेला लेखक है – राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह | उसका लेखन इतना विपुल और
वैविध्यपूर्ण है कि उसके सम्पूर्ण विपुल रचना-संसार को एक छोटे से ‘संचयन’ में
समेटना सागर को सीप में समेटने जैसा कार्य है |
मेरे लिए यह एक
इतनी बड़ी सिद्धि हुई कि इसके लिए एक विशेष तदबीर ही ईजाद करनी थी – जिससे राजा
साहब के
विशाल रचना-संसार को एक छोटे से ‘संचयन’ में समेटा जा सके | जिस रचना-राशि में लगभग एक दर्जन बड़े-छोटे उपन्यास हों, लगभग उतने
ही कहानी-संग्रह हों, जिनमें कहानियों की संख्या सौ तक पहुंचती हो,और फिर संस्मरण,
नाटक आदि विधाओं की भी लगभग उतनी ही
प्रकाशित पुस्तकें हों – जिस लेखक के जीवन
में जीविकोपार्जन की कोई विवशता कभी न रही हो और जिसका बस एक ही व्यसन रहा हो –
अनवरत लेखन – उसके रचना-संसार को तीन-चार सौ पृष्ठों में समोना एक अकल्पनीय करतब
जैसा था | लेकिन ऐसा कठिन काम भी उतना ही ज़रूरी भी था, क्योंकि राजा साहब जैसे
हिंदी के एक महान और महत्त्वपूर्ण लेखक को
लोग लगभग भूलने लगे थे | जब साहित्य अकादमी की स्थापना हुई थी तब उसकी पहली
सलाहकार समिति के वे सम्मानित सदस्य रहे थे | और शायद इस बात में भी वे अकेले हैं
कि इतने बड़े लेखक होने पर भी – जिनको राजेंद्र बाबू की व्यक्तिगत पहल पर
‘पद्मभूषण’ सम्मान प्रदान हुआ,क्योंकि वे उनसे चम्पारण के दिनों से ही जुड़े रहे,
और बिहार में अस्पृश्यता-उन्मूलन आन्दोलन के तो सिरमौर ही रहे - लेकिन हिंदी साहित्य-जगत के जो नाना प्रकार के अनेक सम्मान और पुरस्कार
हैं, उनसे तो वे वंचित ही रहे, और साहित्य में यशोलिप्सा से भी उतने ही अनासक्त और
निर्लिप्त रहे | जो हो, ऐसा तो पहले के उस
‘कम-पुरस्कार’ युग में होता ही था | वह आज का ज़माना तो नहीं था जब साहित्य तो ढलान
पर जा रहा है और पुरस्कारों की संख्या
उर्ध्वगामी हो रही है | आज की स्थिति तो
यही है कि लेखक की कृतियों के अनुपात में उसके सम्मानों-पुरस्कारों की संख्या बढती
ही जा रही है | लेकिन वह बीता समय तो
साहित्य के निर्माण और उत्थान का युग भी था | और इसीलिए हिंदी के इतने बड़े, किन्तु
आज के हिसाब से अपुरस्कृत-असम्मानित लेखकों को लोग भूलते जा रहे हैं | इस ‘संचयन’
के प्रकाशन के पीछे यह भी एक प्रेरक तत्त्व रहा – कि आज एक बार हम फिर उस विरासत
को भी याद करें, उसकी ओर लौटें, उसको आधुनिक समालोचन की परिधि में लावें, जब
चुनौतियों से जूझ कर भी लेखक हिंदी की
कृति-सम्पदा को समृद्ध करने को कृतसंकल्प होता था | ऐसा कोई दूसरा उदाहरण भी हिंदी
में नहीं मिलेगा | प्रेमचंद का सारा लेखन लगभग उसी समय संघर्षपूर्ण जीविकोपार्जन
के लिए हो रहा था, पर राजा साहब उसी समय
केवल हिंदी के उपन्यास-साहित्य को समृद्ध करने के दृष्टिकोण से, राज-पाट के
काम-काज को औरों के हाथ में सौंप कर, हिंदी साहित्य की सेवा में सन्नद्ध हो गए थे
|
राजा साहब के
पिता राजराजेश्वरी प्रसाद सिंह कला और साहित्य के प्रेमी थे एवं महाकवि रवीन्द्र
नाथ ठाकुर तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र के अभिन्न मित्रों में थे, और ‘प्यारे’ उपनाम
से ब्रजभाषा में सुन्दर काव्य-रचना भी
करते थे | ’प्यारे’ कवि के राज-दरबार में कवि-साहित्यकार-कलाकार-संगीतज्ञ –सब
का विशेष सम्मान होता था | राजा साहब का
‘राम रहीम’ जब उनके अपने खर्च से पुस्तक-भंडार, लहेरिया सराय से शिवपूजन सहाय की
देख-रेख में छप रहा था, तब राजा साहब ने ख़ास हिदायत की थी कि सहाय जी पहले उनके
पिता ‘प्यारे’ कवि की ग्रंथावली वहां से प्रकाशित करायेंगे, उसके बाद ही ‘राम
रहीम’ के सम्पादन-मुद्रण का काम शुरू होगा | और वही हुआ – हिंदी का वह गौरव-ग्रन्थ
‘श्रीराजराजेश्वरी ग्रंथावली’, उपेन्द्र महारथी के कलात्मक चित्रों से सुसज्जित -
पहले प्रकाशित हुआ, जिसमें यह सूचन छपी कि “हिंदी गद्य में एक अपूर्व महाकाव्य –सर्वांग
सुन्दर मौलिक उपन्यास” ‘राम रहीम’ शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है | हिंदी में
ब्रज-भाषा काव्य का शायद ही कोई उतना सुन्दर ग्रन्थ कहीं प्रकाशित देखने को मिलेगा
| इसलिए यह ‘संचयन’ राजा साहब के पूज्य पिता
श्रीराजराजेश्वरी प्रसाद सिंह ‘प्यारे’, सूर्यपुरा-नरेश, की पावन स्मृति को
ही समर्पित है |
कला और
साहित्य-प्रेम का यह संस्कार राजा साहब को अपने पिता से ही प्राप्त हुआ था |
दुर्भाग्यवश उनके साहित्य-प्रेमी पिता का निधन १९०३ में ही हो गया जब राजा साहब १३
वर्ष के ही थे | ब्रिटिश हुकूमत की कूटनीति के अनुसार सूर्यपुरा का राज्य ‘ कोर्ट
ऑफ़ वार्डस’ के अधीन चला गया, और केवल
राज्य की ही नहीं परिवार की भी पूरी व्यवस्था जिला कलक्टर के अंतर्गत आ गयी | राजा
साहब की स्कूल और कॉलेज की शिक्षा इसी व्यवस्था के अंतर्गत आरा कलक्टर की कड़ी
देख-रेख में आरा, कलकत्ता, आगरा और इलाहाबाद में हुई जिसके विवरण यहाँ प्रकाशित
उनके संस्मरणों में मिलते हैं | पिता की मृत्यु के बाद जीवन के दूसरे और तीसरे
दशकों में राजा साहब का साहित्य-लेखन अभ्यास के रूप में प्रारम्भ हुआ, और इन्हीं
दिनों वे आरा में शिवपूजन सहाय के संपर्क में आये, जो साहित्यिक-साहचर्य दोनों के
बीच आजीवन भ्रातृ-स्नेह में बंधा रहा | ‘ राम रहीम’ लेखन में शिवपूजन सहाय के सतत उत्प्रेरण से लेकर उसके मुद्रण-प्रकाशन
में उनके सुदीर्घ सहयोग तक की कहानी यहाँ राजा साहब के संस्मरणों और पत्रों में विस्तार से वर्णित है
|
हिंदी नवजागरण
के प्रारम्भिक काल में जब हिंदी कथा साहित्य के गद्य का निर्माण ही हो रहा था, तभी
राजा साहब की पहली कहानी ‘कानों में कंगना’ ‘इंदु’ पत्रिका में १९१३ में प्रकाशित हुई थी | शिवपूजन सहाय की कहानी
‘सुगी-तूती-मैना’ भी लगभग उसी समय प्रकाशित हुई थी जिन दोनों कहानियों के
कथा-शिल्प और शैली में अद्भुत साम्य है, जो दोनों कहानियाँ बंगला गल्प की संस्कृत-बहुल काव्यात्मक शैली से
स्पष्टतः प्रभावित लगती हैं | अपने संस्मरणों में रा.सा. ने अपनी सृजन-यात्रा की
पूरी कहानी लिखी है जिसे इस ‘संचयन’ में पढ़ा जा सकता है जिसमें ‘राम रहीम’ से लेकर
अंतिम दिनों की ‘जानी-सुनी-देखी’ समुच्चय की रचनाओं तक की रोचक कहानी ‘वर्णित है |
मैं इसे अपना
परम सौभाग्य मानता हूँ कि राजा साहब जैसे हिंदी के महनीय पन्यासकार के विपुल
रचना-संसार का एक संक्षिप्त परिचय हिंदी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने का अवसर
मुझे ‘साहित्य अकादमी’ ने दिया है | राजा साहब पर अंग्रेजी में मेरा पुनर्लिखित एक
विनिबंध (मोनोग्राफ) भी लगभग इस ‘संचयन’ के साथ ही साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हो रहा है जो, आशा है, राजा साहब के
बहुमूल्य साहित्यिक अवदान से अहिन्दी-भाषी
भारतीय पाठकों को भी परिचित करा सकेगा |
अपने पिता श्री
शिवपूजन सहाय के कारण बचपन से ही मुझे बराबर राजा साहब के निकट संपर्क में रहने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ | जब १९५० के बाद वे
बराबर पटना में रहने लगे तब हिंदी साहित्य सम्मलेन-भवन में और उनके ‘सूर्यपुरा हाउस’ आवास (बोरिंग रोड)
में भी उनका पितृवत स्नेह मुझे निरंतर मिलता रहा | मुझे एक धुंधली–सी याद है जब मैंने पहली बार राजा साहब को देखा था,
सूर्यपुरा में जब मैं बाबूजी (अपने पिता) के साथ पहली बार
सुर्यपुरा गया था । यह शायद १९४६ की बात होगी, जब वे पटना में रहकर ‘हिमालय’ का संपादन कर रहे थे । बाबूजी अक्सर सूर्यपुरा जाया करते थे,
और उस बार मुझे भी वहां साथ ले गये थे । उस छोटी उम्र में किसी
रियासत में जाकर मेहमान की हैसियत से रहना एक ऐसा सुखद अनुभव था जिसका मेरी बाल-स्मृति
में टंक जाना स्वाभाविक था । बाबूजी के साथ उस वक्त मेरा जो बचपना लगाव था उसमें उनसे बड़े किसी आदमी की छवि
मेरे मन में शायद बन ही नहीं सकती थी । बचपन में बाबूजी का प्रभाव और उनकी व्यस्तता देखकर मुझे नहीं
लगता था उनसे बड़ा कोई और भी हो सकता है । लेकिन सूर्यपुरा जाकर वहां की रियासत और शान–शौकत देख कर भी मेरे इस ख्याल में किसी खास तरमीम की जरूरत मुझे
नहीं महसूस हुई, क्योंकि मैंने अपनी बचपन की उन आंखों से यह देखा कि उस रियासत का जो राजा था,
जिसके चारों ओर नौकर–चाकर हाली–मुहाली लगे रहते थे, वह खुद बाबूजी को कितनी इज्जत बख्श रहा था । मुझे अच्छी तरह
याद है,
सुंदर सरोवर के किनारे बने महल की वह खुली दालान जहां हमारे
लिए बड़े–बड़े थालों में केवल सब्जियों के बने बीसों तरह के व्यंजन परस
कर लाये गये थे । और खुद राजा साहब एक–एक व्यंजन की विशेषता बताते हुए हमें खिला रहे थे । उस सारी
शान–शौकत और तामझाम के बीच भी मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरे सामने किसी रियासत का
कोई राजा बैठा है । बाबूजी से हंसता–बतियाता वह उन्हीं की उम्र का व्यक्ति मुझे बिल्कुल बाबूजी जैसा
ही लगा | उतना ही सीधा–सादा, स्नेह भरा, और बाबूजी की तरह का ही एक बड़ा आदमी । उन दोनों व्यक्तियों को
आमने–सामने देखकर ही शायद बचपन के मेरे मन पर यह अमिट छाप अंकित हो
गई कि धन दौलत से भी बहुत बड़ी चीज होती है बड़प्पन ।
उसके कुछ दिन बाद
ही १९५० में बाबूजी स्थायी रूप से पटना आ गये
थे । राजा साहब उससे कुछ पहले से ही पटना में रहने लगे थे । लेकिन राजा साहब का काफी
वक्त सूर्यपुरा में बीतता था, और अक्सर बाबूजी भी सूर्यपुरा जाया करते थे । उनका सूर्यपुरा
जाने का यह सिलसिला बहुत पुराना था । अपने एक संस्मरण में उन्होंने एक हल्का–सा चित्र खींचा है, जब १९०५ में वे स्वयं आरा में पढ़ते थे | वहीं उन्होंने पहले–पहल राजा साहब को देखा था -‘‘मैं जिस हाई स्कूल में पढ़ता था । उसके पिछवाड़े की कोठी में दोनों
भाई रहते और आरा जिला स्कूल में पढ़ते थे । जिस शानदार फिटन पर वे लोग स्कूल आते–जाते थे, उसमें दो मस्ताने लाल घोड़े जुते रहते थे,
जिनकी फरफराती हुई कनौतियां और मस्ती की अंग–भंगी देखने के लिए पथिक भी ठिठक जाते थे ।’’
दोनों भाइयों में राजा साहब बड़े थे,
और सूर्यपुराधीश पिता श्रीराजराजेश्वरी प्रसाद सिंह,
का साहित्यिक संस्कार ज्येष्ठ पुत्र को ही पूरी तरह मिला था
। राजा साहब प्रारंभ से ही समर्पित थे साहित्य के प्रति । और यही समर्पण–भावना उन्हें खींच लाई शिवपूजन सहाय की ओर । शिवजी उनसे उम्र
में तीन साल छोटे थे, पढ़ाई में भी पीछे थे, पर साहित्य के क्षेत्र में अपनी अनुपम शैली एवं ललित गद्य के
लिए वे तब तक सुविख्यात हो चुके थे । राजा साहब ने आगे चलकर अपने संस्मरण में मुक्त
स्वर से स्वीकार किया - ‘‘श्री शिवजी की प्रेरणा से ही अधिकतर मेरी लेखनी बंगला से मुड़कर
हिंदी की कुंजगली में ठुमुक आई । बस, मेरे साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश उन्हीं के आशीर्वाद से हुआ
। अपनी पहली रचना ‘कुसुमांजलि’ रही । ‘कानों में कंगना’ पढ़कर हमारे शिवजी खिल–खुल उठे | श्री शिवजी हमारी हर रचना की देखरेख करते रहे ।’’
राजा साहब का पहला कहानी संग्रह ‘कुसुमांजलि’ तब ‘गल्प कुसुमावली’ नाम से आरा नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुआ था| उन दिनों
शिवजी स्कूली पढ़ाई से उदासीन होकर साहित्य–साधना की ओर विशेष उन्मुख हो चुके थे, और आरा में ही रहते थे । ‘कुसुमांजलि’ और ‘प्रेम लहरी’ के लेखक को हिंदी संसार ने सर–आंखों पर बिठाया । पं.जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी के बाद बिहार
हिंदी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय (बेतिया) अधिवेशन का अध्यक्ष पद राजा साहब से सुशोभित
हुआ । इसी वर्ष १९२० में अंग्रेज सरकार ने उनको विधिवत राजा की उपाधि प्रदान की थी
,
जो उनके लिए बराबर एक कांटों के ताज जैसी चीज बनी रही । बाबूजी
के कारण मेरा यह सौभाग्य रहा कि १९५० से लगातार १९७० तक अनेक अवसरों पर मुझको उनके
दर्शन और स्नेह–स्पर्श मिलते रहे, और मुझको बराबर ऐसा लगा कि इस ‘राजा’ उपाधि के निरंतर निषेध के लिए ही शायद उन्होंने अपना जीवन एक
सीधे–सादे योगी की तरह बिता दिया । उनको जब–जब मैं देखता मुझे वह शहंशाह याद आता जो लोगों की टोपी सिल–सिलकर अपनी जीविका चलाने में विश्वास करता था । राजा साहब किसी
रियासत के राजा के नाम से याद किया जाना नहीं चाहते थे |
वे अगर राजा थे तो हिंदी के थे,
हिंदी कथा–साहित्य के थे, एक दिलकश और अनूठी शैली के राजा थे । अपने निहायत सादे लिबास,
सादा रहन–सहन और बातचीत के सूफी अंदाज से वे बराबर दरसाते रहे कि वे राजा
थे हर हिंदी–प्रेमी के हृदय के ।
लेकिन रा.सा. के
जीवन में अचानक एक ऐसा मोड़ आया जहां साहित्य-पथ से भटक कर वे अपनी रियासत के मसलों
में कई वर्षों तक के लिए उलझ गये । तीस का सिन और राजसी जीवन की विलासिता दोनों ने
मिलकर जहां एकबारगी अपनी ओर खींचा, वहीं दूसरी ओर सामाजिक एवं राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें
अपने आकर्षण जाल में उलझाया । साहित्य लेखन को जैसे पंद्रह वर्ष का निर्वासन सहना पड़ा
। आरा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की चेयरमैनी और हरिजन सेवक संघ की अध्यक्षता,
फिर स्वाधीनता संग्राम की लहर में गांधी और राजेंद्र बाबू का
साहचर्य | इन सब परिस्थितियों ने मिलकर एकबारगी राजा साहब को साहित्य की मुख्य धारा
से खींचकर अपने राजनीतिक चक्रवात में फंसा लिया । किंतु काल–सचेतक ने जैसे फिर एक बार उनकी चेतना को झकझोरने के लिए उन्हें
इतनी गंभीर बीमारी में डाल दिया कि उन्हें सब कुछ से मुंह मोड़कर स्वास्थ्य लाभ के लिए
नैनीताल जाकर रहना पड़ा । वहीं उन्होंने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘राम रहीम’ की रचना प्रारंभ की । लगभग हजार पृष्ठों के इस उपन्यास की रचना
राजा साहब ने केवल चार महीनों में कर डाली । शायद पंद्रह साल के वियोग के बाद जब साहित्य
सर्जना का द्विरागमन हुआ, तब उसके आवेग में एक विस्मयकारी प्रखरता एवं ऊर्जा का होना सर्वथा
स्वाभाविक था ।
‘राम रहीम’ के सृजन के साथ जो कहानी जुड़ी हुई है - कैसे थैकरे के उपन्यास
‘वैनिटी फेयर’ की फिल्म देखकर लौटने के बाद डॉ.
सच्चिदानंद सिन्हा और उनके अंग्रेजीदां मित्रों द्वारा हिंदी
कथा साहित्य की खिल्ली उड़ाई जा रही थी, और कैसे शिवजी की उपस्थिति में ही राजा साहब ने प्रण किया कि
वे उससे बेहतर उपन्यास छः महीने में लिखकर दिखा देंगे - उसे दुहराने की अब शायद जरूरत
नहीं । लेकिन ‘राम रहीम’ का प्रकाशन किन परिस्थितियों में हुआ,
वास्तव में कब और कैसे हुआ, उसकी प्रेस कापी कैसे तैयार हुई,
कैसे आद्योपांत उस पर शिवजी की लाल कलम ने अपनी रंगसाजी की,
कैसे छपाई के दौरान भी राजा साहब ने भाषा परिमार्जन के लिए उसके
कई छपे फर्मे रद्द कराये - इन बातों पर शिवजी को लिखी राजा साहब की अनेक चिट्ठियों
से एक नया प्रकाश पड़ता है (जो सब यहाँ संकलित हैं ) । जिस किताब के लिखने में कुल चार
महीने लगे थे, उसकी छपाई में लगभग उससे चार गुना समय लग गया । जून,
१९३६ में ‘राम रहीम’ की छपाई शिवजी की देखरेख में लहेरियासराय (दरभंगा) के विद्यापति
प्रेस में शुरू हुई, जो लगभग सितंबर–अक्टूबर १९३७ में समाप्त हो सकी । पुस्तक की छपाई का सारा खर्च
राजा साहब ने वहन किया । प्रकाशित होते ही पुस्तक साहित्य जगत में पर्याप्त चर्चित
हुई । अपने संस्मरण में राजा साहब ने ‘राम–रहीम’ पर शिवजी के उद्गार उद्धृत किये हैं -
‘‘आपकी यह अनमोल कृति तो साहित्य
के क्षेत्र में अपनी एक जगह लिए बनी की बनी रहेगी निरंतर । बस,
यह कलम ही आपका परम धन है जिसकी तुलना में राजसी जर–जमीन कौड़ी के तीन हैं । अगर प्रेरणा और पसीने की सिंचाई रही
तो फिर यह लेखनी अमरत्व के कूल तक पहुंच पाएगी । धन–दौलत तो आनी–जानी ठहरी, वह लुभाऊ चाहे जो हो, पर टिकाऊ नहीं । राजा महाराजा तो आतिशबाजियों की तरह चमक कर
बुझ जाते हैं । राजा जयसिंह के दरबार में ‘बिहारी’ न आये होते तो आज जय सिंह का नाम भी कोई जानता ?’’
राजा साहब के संस्मरण के इन शब्दों में कौन किसकी अभ्यर्थना
कर रहा है, कहना कठिन है ।
‘राम रहीम’ के बाद राजा साहब की कलम को पंख लग गये । दो कहानी संग्रह ‘गांधी टोपी’ और ‘सावनी समां’ १९३७ में, राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखित मनोवैज्ञानिक उपन्यास
‘पुरुष और नारी’ १९३९ में, दो संस्मरणात्मक उपन्यास ‘टूटा तारा’ और ‘सूरदास’ १९४१–४२ में - यह सिलसिला चलता ही रहा । राजा साहब ने लगभग ४० वर्षों
के अपने एकनिष्ठ साहित्य सृजन के दौरान एक दर्जन उपन्यास, लगभग छह दर्जन कहानियां,
कम से कम चार नाटक, और ‘बिखरे मोती’ के छार खंडों में अपने बहुमूल्य साहित्यिक संस्मरण हिंदी संसार
को भेंट किये । जगदीशचंद्र माथुर के शब्दों में, राजा साहब की ‘‘रचनाओं में सामंजस्य और विविधता का एक युग प्रतिबिंबित है ।
सामंजस्य का यह दृष्टिकोण उनकी भाषा में सबसे अधिक समाया हुआ है ।’’
राजा साहब के विषय
में एक बात यह अक्सर कही जाती है कि उन्हें गांधी जी ने हरिजन सेवक संघ के काम से चूंकि
इसी शर्त पर मुक्त किया था कि वे अपनी साहित्य रचना (‘राम रहीम’ के लेखन) में अपनी हिंदी को ‘हिंदुस्तानी’ लिबास पहना कर ही पेश करेंगे, इसलिए राजा साहब की भाषा ‘हिंदुस्तानी’ का एक खूबसूरत–नमूना पेश करती है । यह भ्रांति सदा के लिए दूर हो जानी चाहिए
। इस प्रसंग में हम राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ के
इन शब्दों को निर्णायक वक्तव्य मान सकते हैं - ‘‘‘राम रहीम’ की भाषा क्या वही हिंदुस्तानी है,
जिसका हिंदी और उर्दू वालों ने विरोध किया था ?
मेरा ख्याल है, ‘राम रहीम’ की भाषा बोलचाल की भाषा नहीं है,
वह साहित्य की भाषा है, जो विधि पूर्वक संवारी गई है, सजाई गई है, और जिसके भीतर अदृश्य रूप से बंगाल की गौड़ी रीति अपना काम करती
है । जो भाषा ‘राम रहीम’ की है, उसी भाषा में राजा साहब ने अपना सारा साहित्य लिखा है । उनकी
शैली गांधीजी को खुश करने की कोशिश से नहीं जन्मी थी,
बल्कि उसका जन्म राजा साहब की शिक्षा–दीक्षा और अत्यंत व्यापक कलात्मक संस्कार से हुआ था ।’’
राजा साहब के साहित्य
के विषय में एक और प्रचलित धारणा यह है कि उनके लेखन में उक्ति वैचित्र्य,
तर्जे–बयां, गुल और क्यारी की सजावट, और भाषा की कशीदाकारी का एक आग्रह है जो उनकी कला को अतिरंजना
के निकट पहुंचा देता है । यह भ्रम भी उनके संपूर्ण साहित्य को उसकी विपुलता एवं विविधता
में परखने पर अपने–आप छंट जाने वाला है । उनकी शैली उनके समन्वयशील साहित्यिक व्यक्तित्व
की अनूठी प्रतिच्छवि है । उसकी झिलमिलाहट के नीचे जो उनका गद्य–सलिल है, उसमें एक अप्रतिम पारदर्शिता है,
जो उनके वैविध्यपूर्ण जीवन की सघन अनुभूतियों एवं गहन विचारों
को बड़ी सहजता से संप्रेषित करती है । राजा साहब को जानने के लिए आज हमें दुबारा उनके
साहित्य की ओर लौटना होगा और उनको उन्हीं की जुबान में सुनना होगा,
क्योंकि वे अक्सर एक शेर दुहराया करते थे –
कहां से लाएगा, कासिद, बयां मेरा,
जुबां मेरी,
मजा जब था कि खुद सुनते वो मुझसे
दास्तां मेरी ।
राजा साहब हिंदी
नव जागरण काल की अग्रिम पंक्ति के
कथाकारों में परिगण्य हैं | इस शेर के इन तीन जुमलों – ‘मेरी दास्ताँ’,
‘मेरी जुबां और ‘मेरा बयाँ’ –- में ही जैसे राजा साहब के सम्पूर्ण कलात्मक साहित्य
के रसास्वादन की कुंजी छिपी है | उनके विस्तृत रचना-संसार में जो ‘दास्ताँ’ सुनने
को मिलती है वह उनके समय के समाज और उस समय की राजनीति की विकृतियों-विषमताओं की
एक बेहद दिलचस्प और अनूठी तस्वीर पेश करती है | और उस दास्तान को सुनाने वाली जो
‘ज़ुबान’ है वह अपने-आप में नायाब है – जो हिंदी और उर्दू का अनोखा मजमुआ है, जिसकी
चोली तो हिंदी की है, पर गुल और बूटे उस पर उर्दू-फारसी के टंके हैं | और जो
‘तर्ज़े-बयाँ’ –कहने का ढंग - है वह तो हिंदी कथा-गद्य की एक सर्वथा नवीन अनुपम
शैली बनकर नमूदार हुआ है, जो हिंदी कथा-साहित्य में राजा साहब को एक अप्रतिम,
अद्वितीय शैलीकार के रूप में सदा के लिए अमर कर गया है | न केवल उनकी कथावस्तु और
उसकी रंगारंग पृष्ठभूमि, बल्कि उसको अपने सृजन में कलात्मक रूप देने में भी राजा
साहब अपने समय के किसी भी बड़े उपन्यासकार के समतुल्य लगते हैं | अभी तक लोगों ने
राजा साहब के उपन्यास ‘राम रहीम’ को विलियम थैकरे के अंग्रेजी उपन्यास ‘वैनिटी
फ़ेयर’ के आमने-सामने रखकर नहीं देखा है | राजा साहब ने न सिर्फ एक बाज़ी फतह की है
- दो सौ से भी कम दिनों में हज़ार पन्नों
का एक वृहत उपन्यास लिखकर, बल्कि हिंदी उपन्यास साहित्य को एक ऐसी कृति दी है
जिसमें उस अंग्रेजी उपन्यास के ही वज़न का चरित्र-चित्रण है, कथा-संरचना है,
कथा-शैली है, लेकिन कहीं पर भी इस उपन्यास की मौलिकता और मूल्यवत्ता में कोई कमी
नहीं आने पायी है | चुनौती भी तो बड़ी थी – “हिंदी ज़बान की भित्ति पर (ह्यूगो,
बालजाक,डिकेन्स और थैकरे के उपन्यासों जैसी) साहित्य की कोई आलीशान इमारत कभी खड़ी
नहीं हो सकती” | लेकिन हिंदी उपन्यास में ‘राम रहीम; के रूप में जो इमारत बन कर खड़ी हुई वह उतनी ही आलीशान और
शानदार तैयार हुई |
राजा साहब हिंदी
के एक बड़े लेखक हैं, और कई अर्थों में अपने समय के अन्य उपन्यासकारों – वृन्दावन
लाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, और किसी हद तक प्रेमचंद से भी
बराबरी का दर्ज़ा हासिल करते हैं – कृति-वैपुल्य में भी, और कलात्मकता एवं कथा-शैली
में तो निश्चय ही | राजा साहब के कथा-साहित्य का एक पक्ष तो इस अर्थ में अतुलनीय
है कि पतनशील भारतीय सामंतवादी समाज और अप-संस्कृतिवादी औपनिवेशिक गर्हित समाज का
जैसा गर्हित चित्र राजा साहब के साहित्य में मिलता है, वैसा उनके समय में और कहीं
नहीं मिलता | नारी-उत्पीडन, धार्मिक पाखण्ड, दलित-वर्ग के शोषण,आदि का जैसा
यथार्थवादी चित्रण राजा साहब के
कथा-साहित्य में मिलता है, और जितने संवेदनशील और प्रभावशाली रूप में मिलता है,
वैसा उनके समय में लिखे जा रहे अन्य उपन्यासों में शायद कम ही देखने को मिलता है |
बिहार की एक प्रमुख रियासत के राजा के रूप
में अपने समय के उपनिवेशवादी विकृत समाज को निकट से सहभागिता पूर्वक देखने का जैसा
अवसर उनको मिला वह किसी और के लिए संभव भी नहीं था, और इसीलिए उस विकृतिपूर्ण समाज
का जैसा चित्र उनके कथा-साहित्य में देखने को मिलता है, वैसा उनके समय के अन्य
उपन्यासों में नहीं मिलता |
इस ‘रचना –संचयन’ के माध्यम से राजा साहब के विस्तीर्ण
रचना-संसार से आज के पाठक को परिचित करना ही हमारा पावन संकल्प रहा है | ‘राम
रहीम’ राजा साहब का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जो अपने मूल में वृहदाकार है | एक ही
तदबीर संभव थी कि ‘संचयन’ की कठोर आकार-सीमा का ध्यान रखते हुए ‘राम रहीम’ उपन्यास
को, जितनी संवेदनशीलतापूर्वक हो सके, एक संक्षेपित रूप में प्रस्तुत किया जाय,
जिसमें उसका कथा-प्रवाह कहीं खंडित न हो, और उसका तात्त्विक सन्देश भी असम्प्रेषित
न रहे | इस संक्षेपण-प्रक्रिया में कथा-संरचना का मूल स्वरूप अपनी घनिष्ठता में और
सुगठित हो सके ऐसा प्रयास अत्यंत सतर्कतापूर्वक आद्योपांत किया गया है | स्वयं
थैकरे का उपन्यास ‘वैनिटी फेयर’ लगभग ६००
पृष्ठों का था और महीनों तक एक साप्ताहिक पात्र में किस्तों में छपता रहा था |
लेकिन अंग्रेजी में संक्षेपण अथवा पुनर्लेखन की पद्धति का संक्षेपित पुस्तकों के प्रकाशन में नियमित रूप
से प्रयोग होता रहा है | यहाँ ‘राम रहीम’ के संक्षेपण में केवल आकार को संक्षेपित
किया गया है, किन्तु सारे शब्द और वाक्य मूल रचना
के ही हैं, कहीं कुछ शतांश रूप में भी
जोड़ा या बदला नहीं गया है | राजा साहब की कथा-भाषा और शैली हर जगह उसी रूप
में मिलेगी, केवल धर्म और शास्त्रीय व्याख्या और विवेचना के स्थलों को छोड़ा गया है
जो कथा-प्रवाह को शिथिल कर देते हैं अथवा उसे देर तक तर्क-जाल में उलझाये रखते हैं
| इससे कथानक में एक ऐसा कसाव आ गया है जो आज के पाठक के लिए उसे अधिक रोचक बना
देता है | राजा साहब के पूरे रचना-संसार का एक प्रामाणिक परिचय आज के पाठक को मिल
सके इसको दृष्टिकेंद्र में रखते हुए उनके सभी छोटे-बड़े अन्य उपन्यासों, कहानियों,
संस्मरणों आदि जो ‘राजा राधिकारमण
ग्रंथावली’ के ५ खण्डों में संगृहीत हैं उनका भी यथासंभव संक्षिप्त परिचय इस संचयन
में दिया गया है | ‘संचयन’ में राजा साहब की कई कहानियाँ, उनके कई संस्मरण, उनकी
पत्रावली - जिसमें उनके और उनको लिखे कई पत्र भी मूल रूप में,अथवा कहीं-कहीं किंचित
संक्षेपित रूप में, शामिल किये गए हैं |
राजा साहब प्रेमचंद के समकालीन हिंदी नव-जागरण के एक
प्रतिष्ठित लेखक हैं | उनके उपन्यासों में देश के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कालावधि
के समाज का – विशेषतः राजघरानों के आतंरिक जीवन का, जो उस समय के उपनिवेशवादी
अंग्रेजी समाज से, उसके भयावह शोषण-तंत्र से, अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था, - एक
बहुत अन्तरंग, प्रमाणिक चित्र प्रस्तुत हुआ है, यह अपने में उसका एक विशेष
महत्त्वपूर्ण पक्ष है | यह ‘संचयन’ उसी कालावधि का एक प्रमाणिक दस्तावेज प्रस्तुत
करता है, जैसा विशद चित्रांकन प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण समाज के
शोषण और पिछड़ेपन का मिलता है, उसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू एक सामंतवादी राजा,
किन्तु प्रगतिशील लेखक के कथा-साहित्य में मिलता है – गरीबी, पिछड़ापन, नारी-शोषण,
धार्मिक अनाचार के कीचड में लिथडता हुआ, क्रूर, लोभी, भ्रष्टाचारी अंग्रेजी
शासकों द्वारा शोषित भारतीय समाज जिसे
गांधी की तरह का मसीहा जगाने का प्रयास कर रहा है, और उसी के जुलूस के लोग फिर उसी
के सपनों को स्वार्थ और भ्रष्टाचार के पत्थरों से टुकडे-टुकडे कर रहे हैं |
साहित्य की यही सार्थकता है - वह समाज को ही आइना दिखाता है : पर साहित्य समाज का
दर्पण नहीं होता, वह समाज के लिए एक दर्पण होता है जिसमें समाज की विकृतियाँ
प्रतिबिंबित होती है | राजा साहब के साहित्य में भी, प्रेमचंद के साहित्य की ही तरह, उसी समाज की, उसी समय
की, एक और वैसी ही अधोमुखी छवि दिखाई देती है, जिसे एक बार फिर आज के पाठक को पीछे
मुड़ कर देखना चाहिए – और यही सार्थकता है इस ‘संचयन’ की | राजा साहब से सम्बद्ध
जितनी आवश्यक जानकारी की बातें हैं सब को इस छोटी-सी पुस्तक में शामिल किया गया है
ताकि पाठक को उनका एक जीवनाकार चित्र देखने को मिल सके | पुस्तक में स्थान-संकोच
के कारण हर जगह राजा साहब का नाम ‘रा.सा.’ दिया गया है |
राजा साहब के इस ‘रचना-संचयन’ में आकार की सीमा के कारण अपर्याप्तता का जो भी
अपरिहार्य बोध हो, किन्तु हमारी आशा है कि साहित्य अकादमी के इस प्रकाशन से एक
महत्त्वपूर्ण अभाव की पूर्ति होगी और आज का पाठक राजा साहब के कलात्मक कथा-लेखन से
पूरी तरह परिचित हो सकेगा | इस प्रयास में सहायक होने के लिए मैं प्रथमतः तो
साहित्य अकादमी की हिंदी प्रकाशन समिति का आभारी हूँ जिसने मेरे इस प्रस्ताव का
महत्त्व समझते हुए इसे स्वीकृत करने की कृपा की, फिर अकादमी के अध्यक्ष श्री
चन्द्रशेखर कंबर, उपाध्यक्ष श्री माधव कौशिक, सचिव श्री के.श्रीनिवास राव, हिंदी
सम्पादक श्री अनुपम तिवारी एवं उनके सभी सहकर्मियों के सहयोग के लिए ह्रदय से
कृतज्ञता प्रकट करना चाहता हूँ | पुनः राजा साहब के परिवार, विशेषतः उनके पुत्र
श्री प्रमथराज सिन्हा जी का मैं विशेष
आभारी हूँ जिन्होंने इस संचयन को संपादित करने के लिए आवश्यक स्वत्त्वाधिकार
प्रदान करने की कृपा की | इस कठिन एवं सुदीर्घ श्रम-कार्य में राजा साहब द्वारा
संस्थापित साहित्य-पत्रिका ‘नई धारा’ के सम्पादक प्रो.शिव नारायण एवं उनके सहयोगी
वीरेंद्र यादव तथा राजा साहब के शोधार्थी
डा. रमेश यादव (रायचोटी,आंध्र प्रदेश) एवं श्री चंद्रभूषण दीक्षित (पिरारी, बिहार)
को सामग्री उपलब्ध करने में, एवं श्री तबरेज़ अली (दिल्ली) को पूरी ई-पाण्डुलिपि
तैयार करने में सहयोग के लिए मैं इन सब व्यक्तियों का ह्रदय से आभारी हूँ |
लखनऊ -
मंगलमूर्त्ति
९ अगस्त, २०२१
राजा राधिका रमण : रचना-संचयन
अनुक्रम
भूमिका
राम रहीम
कहानियाँ
कानों में कंगना
नवाब साहब
दरिद्र
नारायण
भोर का
सपना
चूड़ीहारिनें
कुँए का पानी
आत्म-संस्मरण
भूमिका
सुन्दर
मिस मूरियल
कलकत्ता से
प्रयाग
आरा में वे
दिन
तब और अब
बिखरे मोती : संस्मरण
गुरुदेव
रवींद्रनाथ ठाकुर
पुरुषोत्तम
दास टंडन
पं.
जवाहरलाल नेहरु
डॉ.
सच्चिदानन्द सिनहा
आचार्य
शिवपूजन सहाय
महावीर
प्रसाद
बाबू
महेंद्र प्रसाद
अपना परिचय
संक्षिप्त परिचय
राजा साहब के
अन्य उपन्यास
लघु उपन्यास,
कहानी-संग्रह, संस्मरण, भाषण आदि
पत्रावली
श्रद्धा के
शब्द-सुमन
राजा साहब
को लिखे पत्र
राजा साहब
के पत्र
परिशिष्ट :
क. जीवन-वृत्त
ख. कृति-तालिका
ग. सन्दर्भ-ग्रन्थ
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