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Monday, November 3, 2025

 




‘दर्पण में वे दिन’`

मंगलमूर्त्ति

प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद सिंह

हम जिसे हिंदी पट्टी के नाम से जानते हैं, उसका फैलाव देश के लगभग दो तिहाई उत्तरी भाग में माना जा सकता है, जहां घर के भीतर मातृभाषा नहीं होने पर भी घर के बाहर बोलचाल की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय संपर्क अथवा संवाद की भाषा बन चुकी है । शेष एक तिहाई भाग में भी विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद हिंदी का संपर्क भाषा के रूप में राजनीतिक विरोध तो है, किन्तु आम जनता में उसकी स्वीकार्यता पहले से बहुत बढ़ी है, इसमें कोई संदेह नहीं । फिल्मों और संचार माध्यमों का योगदान इसमें सर्वाधिक है, यह भी स्पष्ट है । भाषा का प्रश्न राजकीय नीतियों और राजनीतिक स्वार्थों से सदा और लगभग सर्वत्र टकराता रहा है, और भाषा का विकास उससे प्रभावित भी होता है, जैसे समाज और जीवन के अन्य पक्ष प्रभावित होते हैं । राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कमोबेश विश्व की प्रमुख भाषाओं में इसी तरह की प्रतिद्वंद्विता और परस्पर प्रभाव का घटना–बढ़ना देखा जा सकता है । लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि दैनंदिन बोलचाल में किसी भी भाषा का जो प्रयोग होता है, उस भाषा के साहित्य में उसी के एक परिष्कृत–परिनिष्ठित स्वरूप का प्रयोग होता है, जो स्वाभाविक रूप से भिन्न होता है ।

भाषा का यह एक स्वाभाविक पक्ष है । ऐसा सभी भाषाओं में होता है, क्षेत्रीय लोकभाषा से लेकर राजकीय एवं साहित्यिक मान्यता–प्राप्त भाषा तक में, क्योंकि लोकभाषा में भी साहित्य की रचना होती है, जिसमें जातीय और धरातली - अथवा जिसे बहुधा ‘आंचलिक’ कहा जाता है वैसी - एक लोक–सांस्कृतिक पहचान होती है । हिंदी क्षेत्र में भी कई क्षेत्रीय भाषाएं हैं, जिनमें पर्याप्त साहित्य–लेखन होता रहा है, और व्यापक दृष्टि से उन्हें हम हिंदी साहित्य के वटवृक्ष की ही प्रमुख शाखाओं की तरह देख सकते हैं । इन लोक–भाषाओं में लिखा गया साहित्य हिंदी साहित्य के पाठक के लिए बिलकुल अपरिचित अथवा अबूझ तो नहीं होता, किन्तु अनुवाद की कसौटी पर हम देख सकते हैं कि हिंदी क्षेत्र की इन उप–भाषाओं में लिखे गए साहित्य का अनुवाद साहित्यिक हिंदी में लगभग शाब्दिक ही होता है, और दोनों में अर्थगत अंतर न्यूनतम होता है । हम हिंदी से भोजपुरी, अथवा भोजपुरी से हिंदी में अनुवाद करने पर राष्ट्रभाषा हिंदी और क्षेत्रीय लोक–भाषा की प्राय: अविभाज्य निकटता को भली–भांति परख सकते हैं ।

राष्ट्रभाषा हिंदी और क्षेत्रीय भाषा भोजपुरी के इसी सन्दर्भ में हम बिहार के दो भोजपुरी–भाषी हिंदी के अल्पज्ञात साहित्यकारों का स्मरण करते हैं - रघुवीर नारायण और मनोरंजन प्रसाद सिंह । रघुवीर नारायण का जन्म १८८४ में और मनोरंजन प्रसाद सिंह का जन्म १९००ई– में बिहार के भोजपुर प्रदेश में ही, क्रमश: छपरा और सूर्यपूरा में (आरा के निकट) हुआ था । दोनों स्थान एक–दूसरे से बहुत दूर नहीं हैं, बीच में केवल गंगा इस विस्तृत भोजपुर–भाषी क्षेत्र को विभाजित करती है । भोजपुरी–भाषी होने के अलावा इन दोनों हिंदी के अल्पज्ञात साहित्यकारों में कई और समानताएं थीं । दोनों का जन्म मध्य–वर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था । दोनों ने अंग्रेजी साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त की । दोनों ने हिंदी और भोजपुरी में समान रूप से साहित्य–रचना की । दोनों ने भोजपुरी में दो ऐसे राष्ट्रगीतों की रचना की जो पूरे हिंदी क्षेत्र में सदा के लिए अमर हो गए । रघुवीर नारायण का ‘बटोहिया’ (१९१२) और मनोरंजन प्रसाद का ‘फिरंगिया’ (१९२०) - इन दो अमर राष्ट्र–गीतों की रचना भारत के स्वाधीनता–संग्राम के प्रसंग में की गई, जिन्हें स्वाधीनता–आन्दोलन काल में हर मंच से राष्ट्र–गीत के रूप में गाया गया, और जो सदा के लिए एक स्वाधीनता–कामी राष्ट्र की अस्मिता के प्रतीक बन गए ।

राष्ट्र–प्रेम का उद्घोष करती इन दोनों कविताओं का सन्दर्भ तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम ही है, लेकिन जैसे स्वाधीनता संघर्ष में देश में नरम और गरम दो प्रवृत्तियां समानांतर काम कर रही थीं, ‘बटोहिया’ की रचना तब हुई थी जब गांधी अभी द.अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे और देश में अंग्रेजी शासकों के प्रति उग्र विद्रोह से अधिक समझौतावादी राजनीति की ही प्रधानता थी । कांग्रेस के पटना अधिवेशन (१९१२) में ‘बटोहिया’ को राष्ट्र–गीत की तरह गाया गया था । अपनी आत्मकथा में नेहरू ने लिखा है कि वे इस अधिवेशन में उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए थे |

यह अधिवेशन १९१२ ई. के अंत में क्रिसमस के समय हुआ था, जब भारतीय राजनीति बिलकुल सुस्त–जैसी लगती थी । तिलक जेल में बंद थे और उग्रवादियों में भी एक पस्ती का भाव था । मैं उस अधिवेशन में एक प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुआ था । इसमें शामिल होने वाले सभी लोग सूट–बूट वाले अंग्रेजी–दां लोग ही थे । सब कुछ बस एक सामान्य सामाजिक जमावड़ा जैसा ही लग रहा था जिसमें कोई राजनीतिक गर्मी या हलतलबी कहीं दिखाई नहीं देती थी ।

लेकिन उसी अधिवेशन में रघुवीर नारायण रचित राष्ट्र–गीत की तरह गाये गए गीत ‘बटोहिया’ में एक प्रच्छन्न किन्तु उदात्त राष्ट्रीयता और देश–गौरव का भाव अवश्य झलक रहा था ।

व्यास वाल्मीकि ऋषि गौतम कपिलदेव, सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया –––

बुद्धदेव पृथु वीर अरजुन शिवाजी के, फिरि फिरि हिय सुधि आवे रे बटोहिया –––

जाऊजाऊ भैया रे बटोही हिन्द देखि आऊ, जहां ऋषि चारों वेद गावे रे बटोहिया –––

 

लेकिन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में गांधी के आगमन और चंपारण–सत्याग्रह के प्रारम्भ होते ही अचानक जैसे स्वाधीनता–संघर्ष का स्वरूप ही बदल गया । उसमें हिंसा के विद्रोह के स्थान पर अहिंसा की नई ऊर्जा भर गयी । यह दृढ संकल्प का एक नया उग्रवाद था जिसकी झलक मनोरंजन प्रसाद सिंह के ‘फिरंगिया’ में गूंज उठी, जब गांधी की ही मुज़फ्फरपुर की एक सभा में २० वर्ष के एक युवक के इस ओजपूर्ण गीत ‘फिरंगिया’ से ही सभा का प्रारम्भ हुआ, जिसे युवक कवि ने अपने ही मधुर स्वर में ‘बटोहिया’ गीत की तर्ज़ पर गाया था ।

 

सुन्दर सुथर भूमि भारत के रहे रामा, आज इहे भईल मसान रे फिरंगिया –––

सात सौ लाख लोग दूदू सांझ भूखे रहे, हरदम परेला अकाल रे फिरंगिया –––

हमनी से ससता में रुई लेके ओकरे से, कपड़ा बनाबना के बेचे रे फिरंगिया,

असहिं असहिं दीन भारत के धनवां के, लुटिलुटि ले जाला बिदेस रे फिरंगिया –––

नून टिकसवा, कूली टिकसवा, सब टिकसवा लगवले रे फिरंगिया –––

प्रेस ऐक्ट, आर्म्स ऐक्ट, इंडिया डिफेंस ऐक्ट, सब मिलि कइलस हाल रे फिरंगिया,

प्रेस ऐक्ट लिखे के स्वाधीनता के छीनलस, आर्म्स ऐक्ट लेलस हथियार रे फिरंगिया,

इंडिया डिफेंस ऐक्ट रक्षक के नाम लेके, भच्छक के भइल अवतार रे फिरंगिया –––

जुलुमी कानून टिकसवा के रद कर दे, भारत के दे दे तें स्वराज रे फिरंगिया –––

तेंतिस करोड़ लोग अंसुआ बहाई ओमे, बहि जाइ तोर समराज रे फिरंगिया

 

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में इन दो लोकप्रिय राष्ट्र–गीतों का ऐतिहासिक महत्त्व सदा बना रहेगा । दोनों गीतों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मनोरंजन बाबू का गीत अंग्रेजी सरकार का खुला विरोध करता है, और इसीलिए इसका गाना या प्रकाशन अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, जैसा ‘बटोहिया’ गीत के साथ नहीं हुआ । और वहीं, ‘बटोहिया’ में जहां साहित्यिक कलात्मकता और रस–संचार का माधुर्य बहुत स्पष्ट दिखाई देता है, और जहां उसकी शब्दावली आद्यंत पूर्णत: काव्यात्मक है, ‘फिरंगिया’, जो उससे दुगुनी लम्बी कविता है, उसमें कलात्मकता से अधिक आक्रोश और अमर्ष का तल्ख़ पुट शुरू से अंत तक भरा हुआ है । शब्दावली में भी ‘फिरंगिया’ में तत्सम हिंदी शब्दों का अभाव और भोजपुरी शब्दावली का प्राधान्य दिखाई देता है । उसकी भावभूमि भी पूरी कविता में संघर्ष की राजनीति के रंग में रंगी लगती है । यह निश्चय ही समयानुकूल भी था, क्योंकि ‘फिरंगिया’ की पृष्ठभूमि में जलियांवाला नरसंहार का भयंकर काण्ड था, जिससे पूरे देश में विद्रोह की आग भड़क उठी थी । दोनों कविताओं में एक और अंतर इस कारण भी है कि ‘बटोहिया’ की रचना के समय रचनाकार में पर्याप्त सृजनात्मक परिपक्वता आ चुकी थी, जब कि ‘फिरंगिया’ की रचना मनोरंजन जी ने तब की थी जब वे अभी मुजफ्फरपुर कॉलेज में पढ़ ही रहे थे, और फिर बी.. में पटना कॉलेज में पढने लगे थे, जहां असहयोग आन्दोलन के आह्वान पर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी । इसी समय उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘राष्ट्रीय मुरली’ नाम से प्रकाशित हुआ था । फिर १९२४ में उन्होंने दुबारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.. में नाम लिखाया, और फिर वहीं से १९२६ में अंग्रेजी में एम.. में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया । इन्हीं दिनों बिहार के कई प्रतिभावान छात्र साहित्यकार काशी में प्रवास कर रहे थे और प्रसिद्ध कहानी-लेखक शिवपूजन सहाय के निरंतर संपर्क में थे, जिनमें मनोरंजन प्रसाद सिंह, जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’, लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, रामवृक्ष बेनीपुरी, आदि प्रमुख थे । एम.. के बाद मनोरंजन जी ने कुछ दिन प्रयाग की कायस्थ पाठशाला में पढाया और फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक होकर आ गए ।

फिर इस बीच एक दशक बीत गया । प्रान्तों में १९३७ में सीमित स्वायत्तता की सरकारें बनीं और पटना विश्वविद्यालय के अंतर्गत छपरा में १९३८ में राजेन्द्र कॉलेज की स्थापना हुई, जिसमें मनोरंजन बाबू पहले प्रिंसिपल होकर आये, और द्विज जी की नियुक्ति भी वहाँ उसी समय हिंदी विभागाध्यक्ष–पद पर हुई थी । शिवपूजन सहाय भी जो तब काशी से लहेरिया सराय (दरभंगा) आकर ‘पुस्तक–भंडार’ की सम्पादन–सेवा में कार्य–रत थे, वहां से मुक्त होकर नवम्बर १९३९ में राजेन्द्र कॉलेज के हिंदी विभाग में आ गए ।

मेरा जन्म लहेरिया सराय में ही हुआ था, और मेरा शैशव और बचपन छपरा में ही बीते । यहां की मेरी स्मृतियां भी मनोरंजन बाबू और छपरा कॉलेज से जुडी हैं । छपरा में मेरी माता मात्र एक वर्ष रही थीं, जिसके बाद ही गांव में उनका देहांत हो गया । लेकिन उन दिनों की कुछ धुंधली स्मृतियां मेरे मानस में आज भी हैं । छपरा में मनोरंजन बाबू का निवास उन दिनों हमलोगों के घर से डेढ़–दो किलो मीटर दूर रेलवे लाइन के पास एक सरोवर की बगल में था जिसे ‘अलवर टैंक’ कहा जाता था । मेरी मां एक–आध बार मुझको लेकर वहां गई थी | इसकी एक बहुत धुंधली याद मेरे मानस में चित्र की तरह अंकित है, क्योंकि मनोरंजन बाबू की पत्नी से मेरी मां का सहेली–भाव हो गया था, और मैं तब उसकी गोद का बच्चा था ।

मेरे पिता छपरा में दस साल रहे, और बाद में मेरा नाम वहीं कॉलेज की बगल के राजेन्द्र कॉलेजिएट स्कूल में लिखवाया गया । उसके बाद मातृहीन होने के कारण मैं बराबर अपने पिता (बाबूजी) के साथ ही रहता था, और उनके साथ ही स्कूल तक जाता था । स्कूल की छुट्टी होने के बाद मैं कॉलेज चला जाता बाबूजी के साथ घर लौटने के लिए, और वहां कई बार वे मुझको प्रिंसिपल के कमरे में भी लेकर जाते, जहां मुझको मनोरंजन बाबू से मिलने और उनके प्यार–पुचकार की याद आती है । हिंदी विभाग में तो मुझको पिताजी की प्रतीक्षा में, जब वे क्लास में पढ़ाते होते, बैठना ही पड़ता था, जहां उन दिनों शिवजी के सहयोगी मुरलीधर श्रीवास्तव और वीरेन्द्र विद्या वाचस्पति भी थे । मुरली बाबू ने शिवजी के अपने संस्मरण में उन दिनों को याद किया है - “उस समय ऐसा संयोग सुलभ हुआ कि द्विज जी और शिवजी की उपस्थिति से यहां के हिंदी विभाग का यश इतना बढ़ा कि उसकी धाक सारे प्रान्त में जम गई । प्राचार्य मनोरंजन जी के कारण छपरा का साहित्यिक वातावरण और भी मुखरित हो गया ।”

मनोरंजन बाबू छपरा में प्राचार्य–पद पर १९३९ से १९६० तक रहे, यद्यपि मेरे पिता १९५० के प्रारम्भ में ही छपरा कॉलेज से त्यागपत्र देकर बिहार राष्ट्र–भाषा परिषद्, पटना में सचिव–पद पर चले आये । मनोरंजन बाबू फिर राजेन्द्र कॉलेज से सेवा–निवृत्त होकर देवघर हिंदी विद्यापीठ के उप–कुलपति हो कर चले गए जहां वे १९६७ तक रहे । उसके बाद कुछ दिन तक उन्होंने सपत्नीक वृन्दवान के ‘मानव सेवा संघ’ में निवास किया और फिर अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण वहां से १९७० में रांची चले गए, जहां ८ नवम्बर, १९७१ को अपनी पुत्री (मंजु सहाय, पत्नी, श्री दिनेशनंदन सहाय, जो बाद में त्रिपुरा के राज्यपाल भी हुए) के निवास में उनका निधन हुआ । मनोरंजन बाबू का स्वास्थ्य पिछले कुछ दिनों से काफी चिंताजनक चल रहा था ।

मनोरंजन बाबू का साहित्य–लेखन आजीवन पूरी तरह स्वान्त: सुखाय रहा । वे मज़ाक में कहा करते थे कि वे अपने नाम को अपनी साहित्य–प्रीति में सार्थक करते हैं, और वे जो कुछ लिखते हैं उसमें स्वयं को और दूसरों का मनोरंजन करना ही उन्हें अच्छा लगता है । उनके साहित्य–लेखन में दो प्रवृत्तियां विशेष रूप से परिलक्षित होती हैं - उनका भोजपुरी भाषा के प्रति अविरल प्रेम और उनका गहरा आध्यात्मिक रुझान । उनकी काव्य–रचना का अधिकांश भोजपुरी में है । हिंदी में उनका गद्य–लेखन बहुत कम हुआ, और उनकी अधिकांश गद्य–पद्य रचनाएं ’३० और ’४० के दशक की पत्र–पत्रिकाओं - ‘हंस’, ‘जागरण’, ‘गंगा’, ‘बालक’, आदि में बिखरी पड़ी हैं, जिनमें से एक बड़ी संख्या अब तक असंकलित है । अपने एक संस्मरण में उनकी एकमात्र पुत्री मंजु ने लिखा है- “बाबूजी की चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं, ‘उत्तराखंड के पथ पर’ (यात्रा–वृत्तान्त, १९३६), ‘राष्ट्रीय मुरली’, ‘गुनगुन’, और ‘संगिनी’ (काव्य–संकलन) । अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी उन्होंने बहुत सारी रचनाएं लिखीं लेकिन उन्हें प्रकाशित करने के लिए वे कभी इच्छुक नहीं रहे । उनका कहना था - ‘‘जो कुछ भी लिखता हूं, अपने लिए लिखता हूं, प्रकाशनार्थ नहीं’’ । इसी कारण जो भी लिखा, अपनी डायरी के पन्नों तक ही सीमित रखा ।” उनके निधनोपरांत उनकी दो और पुस्तकें प्रकाशित हुईं - ‘कौन कहता है कि तुम पाषाण हो’ (अप्रकाशित रचनाओं का संकलन, २००१) और ‘आत्म–चिंतन’ (डायरी, २००७) । ‘फिरंगिया और अन्य कविताएं’ नाम से उनकी पहले की लिखी भोजपुरी कविताओं का एक संग्रह भी २००८ में ‘गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति’ (नई दिल्ली) से प्रकाशित हुआ । यहां ‘कुंवर सिंह’ पर उनकी एक अप्रकाशित कविता की प्रारम्भिक कुछ पंक्तियां उद्धरणीय हैं -

मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आज़ादी का गाना था,

भारत के कोनेकोने में होता यही तराना था,

उधर खड़ी थी लक्ष्मी बाई और पेशवा नाना था,

इधर बिहारी वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था,

अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था,

सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मरदाना था

 

परिमाण की दृष्टि से मनोरंजन बाबू का साहित्य–लेखन अधिक नहीं है, किन्तु साहित्य के इतिहास में ऐसे हाशिये पर के लेखकों का योगदान भी साहित्य के प्रति समर्पित जीवन–चर्या के कारण महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए । शिवजी के पत्र–संग्रह में मनोरंजन बाबू के ४६ पत्र हैं जिनमें से २० पत्र ‘समग्र’ (खंड–९) में प्रकाशित हैं । इन दोनों का परस्पर परिचय काशी–प्रवास काल से तो था ही, दोनों के बीच पत्राचार का क्रम भी शिवजी के काशी छोड़ने के बाद से जीवन–पर्यंत बना रहा । शिवजी जब ‘बालक’ का सम्पादन करने ‘पुस्तक–भण्डार’ (लहेरिया सराय) चले आये थे तब वहीं से मनोरंजन बाबू की शुरू वाली पुस्तकों का प्रकाशन शिवजी की देख–रेख में हुआ था जिनकी चर्चा इन पत्रों में है । लेकिन इन पत्रों में वह प्रसंग बहुत महत्त्वपूर्ण है जब १९३९ में दोनों ही व्यक्ति राजेन्द्र कॉलेज में आए । अपने एक पत्र में मनोरंजन बाबू लिखते हैं –

मेरी बड़ी इच्छा है कि आप (राजेन्द्र कॉलेज) का पद स्वीकार कर लेंगे क्योंकि इससे आपका कोई विशेष उपकार हो चाहे न हो, हमलोगों का तथा हिंदी का बहुत उपकार होगा । इसी से मेरी प्रार्थना है कि आपके पास यदि वह ऑफर आवे तो अस्वीकार न करें । –––मेरे हृदय में आपके प्रति कैसे भाव हैं - यह कहने की शायद ज़रूरत नहीं है । –––हिंदी की आपने कितनी सेवा की है और हमारे साहित्य में आपका क्या स्थान है यह कहने की आवश्यकता नहीं है । –––मेरा ख़याल है कि आपकी शक्तियों का समुचित सदुपयोग नहीं हो रहा है और हिंदी को अभी आपसे और भी बहुत आशाएं हैं । –––सच जानिए, इसमें मैं हिंदी साहित्य का हित देखता हूं, इसीसे इतना आग्रह कर रहा हूं । –––राजेन्द्र कॉलेज में आपकी जो नियुक्ति हुई है उसे अपने भक्तों की श्रद्धांजलि ही समझिए, और इसको ठुकराइये नहीं यही मेरी करबद्ध प्रार्थना है ।

अगस्त से अक्टूबर, १९३९ के बीच के इन दो–तीन पत्रों में मनोरंजन बाबू ने शिवजी के प्रति सम्मान का जो भाव प्रकट किया है, उससे दोनों के बीच का मधुर और अन्तरंग सम्बन्ध विशेष रेखांकित होता है । दोनों के बीच पत्राचार का यह क्रम अंत तक चला, जिसमें उस प्रसंग का भी ज़िक्र है जब शिवजी एक पारिवारिक प्रसंग में देवघर गए थे, जब मैं भी उनके साथ था, और वहां मनोरंजन बाबू के निवास पर वे उनसे मिलने गए थे । बाद में, अपने १४ अप्रैल, १९६२ के पत्र में, उन्होंने लिखा - “पिछली बार जब देवघर में आपने मुझे घर बैठे दर्शन दिया था तब बातचीत के क्रम में मेरी कुछ पंक्तियां आपको बहुत पसंद आई थीं । –––’नाना की बेटी’ शीर्षक वह कविता एक गद्य लेख के साथ प्रकाशनार्थ ‘नई धारा’ में भेज दिया है ।”

शिवजी के नाम यही उनका अंतिम पत्र था, क्योंकि उसके कुछ ही महीनों बाद, जनवरी, १९६३ में, शिवजी का निधन हो गया । उनके निधनोपरांत अपने संस्मरण में उन्होंने उस अवसर को स्मरण किया - “शिवजी के दर्शन हुए । वही सौहार्द, वही सौम्य–प्रसन्न मुखमुद्रा । वही शालीनता, उसी प्रकार मिलना । दुर्बल शरीर । फिर भी कितनी आत्मीयता, मुझसे मिलने चले ही आए । –––दूसरे दिन फिर मंदिर में दर्शन हुए । उनका पुत्र मंगलमूर्त्ति भी मिला । मालूम हुआ कि वह इन दिनों मुंगेर कॉलेज में लेक्चरर है ।” बाद में एक बार, जब १९६९ में वे देवघर विद्यापीठ से सेवा–मुक्त हुए तो मुंगेर आए, जहां उनके जामाता दिनेशनंदन सहाय पुलिस अधीक्षक थे । उन्होंने मुझको फोन करके बुलवाया । बहरेपन की दिक्कत तो उनकी पुरानी थी, फिर भी बाहर लॉन में देर तक मुझसे मेरे पिता से सम्बंधित मेरे कार्य के विषय में, और कॉलेज में मेरी पढ़ाई के विषय में मुझसे जानकारी लेते रहे, सलाह देते रहे, और मुझको असीसते रहे । मैं जबतक वहां रहा मुझे लगा मेरे पिता ही वहां साक्षात् उपस्थित हैं ।

ऐसे प्रात: स्मरणीय आदर्शजीवी साहित्य–सेवियों को हम भले ही साहित्य की मुख्यधारा में नहीं गिनते, किन्तु देश जब स्वाधीनता–संघर्ष के पथ पर अग्रसर था, तब ऐसे मनीषियों ने देश और समाज पर अपने निर्मल, समर्पित व्यक्तित्त्व और सेवा–भावना से जो छाप छोड़ी उसे हमें सदा स्मरण करना चाहिए ।

चित्र एवं आलेख (C) डा. मंगलमूर्त्ति

डा. मंगलमूर्ति-लिखित संस्मरण के संग्रह ‘दर्पण में वे दिन में प्रकाशित |प्रकाशक: अनामिका प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली : 9773508632 ]

 

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