आ. शिवपूजन सहाय जयंती : १३१
आचार्य शिवपूजन सहाय का निबंध-साहित्य
मंगलमूर्त्ति
साहित्य-रचना में गद्य और पद्य का विभाजन मूलतः भाषा की
लयात्मकता के आधार पर किया जाता है | पद्य-रचना के भाषा-प्रयोग में लयात्मकता की
संश्लिष्टता सघनतर हो जाती है, शब्दों और वाक्यांशों की बुनावट भी अधिक गहन और
अर्थ-संकुल हो जाती है | गद्य जहाँ प्रसारोन्मुख होता है, वहीं पद्य-रचना में
रचनाकार का ध्यान भाषा और अर्थ के संग्रंथन-पक्ष पर अधिक होता है | शास्त्रीय
अनुशीलन में शायद इसीलिए गद्य को काव्य का
निकष कहा गया है | पद्य में स्वाभाविक रूप से भाषानुशासन पर अधिक ध्यान होता है,
लेकिन जब गद्य में भाषा की प्रकृति अधिक उन्मुक्त एवं स्वच्छंद हो जाती है,
काव्यानुशासन के बंधन ढीले हो जाते हैं, तब उसकी लयात्मकता को संभालना और अधिक
उन्मुक्ति की स्थिति में शब्दों और वाक्यांशों को उस नैसर्गिक लयात्मकता के अनुकूल
सजाना-बुनना एक उच्चतर सम्मिलन और संतुलन
की मांग करता है | कलात्मकता के एक स्तर की ऊंचाई गद्य के मुकाबले कविता में जल्दी
हासिल की जा सकती है | इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि गद्य की तुलना में
पद्य की गुणवत्ता का आकलन कठिनतर होता है | इसलिए भी, क्योंकि गद्य की लोक-
ग्राह्यता और सार्वजनिकता पद्य के मुकाबले अधिक होती है | दूसरे शब्दों में, गद्य
में वह उच्चतर प्रभविष्णुता प्राप्त करना
संभवतः अधिक साधना-साध्य है, बनिस्बत पद्य में | अवश्य ही यही कारण होगा गद्य को
काव्य की कसौटी मानने का |
कविता में शब्द और लय का महत्त्व अधिक है, वाक्य-रचना का परिचालन
उनके अधीन होता है | गद्य में शब्द और लय का प्रयोग कुछ विशेष उन्मुक्त होता है,
किन्तु वाक्य-रचना का चमत्कार अधिक संश्लिष्ट हो जाता है | कुल मिला कर कहा जा
सकता है कि गद्य की प्रकृति के कारण ही गद्य
में भाषा की कलात्मकता का उत्कर्ष उपलब्ध करना अधिक कठिन साधना की अपेक्षा रखता है
| हिंदी और अंग्रेजी – जो दोनों भारत की भाषाएँ हैं – उनमें उनके तीन श्रेष्ठतम
कवियों - पन्त, निराला, प्रसाद और शेक्सपियर, कीट्स और हॉपकिन्स के गद्य और पद्य
में यह अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है | यह भी ध्यातव्य है कि गद्य में भाषा की यह कलात्मकता गद्य की विभिन्न
विधाओं – कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना - में नया-नया स्वरुप ग्रहण करती है | और
इसीलिए अपनी रचना-यात्रा में अपने मूल भाषा-माध्यम का चुनाव रचनाकार प्रारम्भ में
ही कर लेता है, और पद्य अथवा गद्य का प्रारम्भिक चुनाव कर लेने के बाद उसकी साधना
उसी चयनित भाषा-माध्यम – गद्य अथवा पद्य – में अपना उत्कर्ष प्राप्त करती है |
इसमें फलतः तीन स्थितियां उत्पन्न होती हैं; पद्य में उत्कर्ष और गद्य में
अविशिष्टता अथवा इसका पूर्ण विलोम या फिर
दोनों में लगभग समतुल्यता |
भाषा-माध्यम और साहित्य-विधा के चुनाव में रचनाकार के
सम्मुख एक और कारक तत्त्व होता है, रचनाकार की रचना-यात्रा में उसकी
जीवन-परिस्थितियों का दबाव | गद्य या पद्य का चुनाव करने में जीवन-परिस्थितियों का
यह कारक-तत्त्व भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है | शेक्सपियर ने अपनी
जीवन-परिस्थितियों के कारण ही नाटक का चुनाव किया जिसके लिए उसको एक विशेष
भाषा-माध्यम (‘ब्लैंक वर्स’ और अविशिष्ट गद्य) को अपनाना पड़ा | ‘प्रसाद’ ने अपनी
विशिष्ट जीवन-परिस्थितियों में पद्य के माध्यम का चुनाव किया जिसका प्रभाव उनके
गद्य-लेखन पर स्पष्टतः लक्षित होता है | इस द्वैत को अन्य महान रचनाकारों के
भाषा-माध्यम चयन में भी देखा-परखा जा सकता है |
विश्व के क्लासिक युगों में गद्य की मूल विधाएं – कहानी,
उपन्यास,नाटक और आलोचना भी – पद्य में लिखी जाती रहीं हैं; यहाँ तक कि निबंध भी
शास्त्रीय सन्दर्भ में पद्य में ही लिखे जाते रहे | लेकिन जब साहित्य लोकवृत्त में
प्रसरित होने लगा, तब साहित्य-रचना का रुझान गद्य की ओर बढ़ने लगा | एक प्रकार से
कालक्रम में यह सूक्ष्म कल्पना से स्थूल यथार्थ की ओर साहित्य-रचना का संतरण ही था
| काल के साथ कला की प्राथमिकताएं भी अनिवार्यतः बदलती हैं | और उसी के साथ भाषा-चरित्र
भी तदनुसार परिवर्त्तित होता चलता है | विश्व-साहित्य में अठारहवीं शताब्दी से आगे
गद्य ने लोक-ग्राह्यता की दृष्टि से पद्य पर प्राथमिकता प्राप्त कर ली | पद्य-रचना की परिधि
संकुचित होती गई, और गद्य की और विस्तृत होती गई |
हिंदी साहित्य में यह प्रक्रिया हिंदी-भाषा के परिप्रेक्ष्य
में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घटित हुई | और जैसा विश्व-साहित्य में हुआ
था, हिंदी साहित्य में भी गद्य की प्रतिष्ठा निबंध के रूप में ही स्थापित हुई |
एकबारगी गद्य-रचना का विस्फोट कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना – सभी विधाओं में हुआ
| गद्य में साहित्य-रचना सभी विधाओं में आश्चर्यजनक प्रचुरता से अवतरित होने लगी |
मुद्रण और पत्रकारिता ने इस सृजन-विस्फोट में अपनी मुस्तैद सहभागिता दी | और
साहित्य-रचना के इस महाप्लावन में भाषा के पाँव पिछड़ने लगे | तब आवश्यकता हुई भाषा
के आचार्यों की, भाषा के संयोजन-प्रबंधन की | यह एक ऐतिहासिक अपरिहार्यता थी कि
हिंदी साहित्य में भाषा के संस्कार और परिष्कार के लिए ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रादुर्भाव हुआ | यही समय-बिंदु था हिंदी गद्य और उसके ‘उत्तमांग’ – निबंध के उदय
का | ‘उत्तमांग’ इस लिए कि हिंदी भाषा की शक्ति और उसकी प्रभविष्णुता को प्रकट और
प्रकाशित करने के लिए ‘निबंध’ तब तक विश्व-साहित्य में भी सबसे प्रभावशाली विधा के
रूप में स्वीकृत हो चुका था |
कहा जा सकता है कि भाषा के विकास और परिष्कार में ‘निबंध’
की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है | ‘निबंध’ साहित्य में भाषा के स्तर का
मानकीकरण करता है, उसे लोक-संवेदनशीलता प्रदान करता है | भाषा ही साहित्य को
सामान्य पाठक तक पहुंचाती है, साहित्य को आम आदमी से जोडती है; और यह काम सर्वाधिक
प्रभावशाली ढंग से ‘निबंध’ ही करता है | निबंध की विविधता का साहित्य की
लोक-ग्राह्यता से सीधा सम्बन्ध है | रूप और प्रकार की जो विविधता निबंध में उपलब्ध
होती है, वह अकारण नहीं; उसका गहरा सम्बन्ध लोक-रूचि और लोक-स्वीकृति से होता है |
वह साहित्य का ‘उत्तमांग’ ही नहीं, लोक-रूचि को निर्मित करने का ‘उत्तमास्त्र’ भी
होता है | यदि गद्य काव्य का निकष है, तो निबंध भी, एक विशेष अर्थ में, साहित्य का
मूल्यवान निकष है | निबंध में ही भाषा की शक्ति और उसके विकास और परिष्कार की दिशा
का बोध होता है | साहित्य की अन्य सभी विधाएं निबंध के कृषि-कर्म से लाभान्वित
होती हैं | इसीलिए, एक विशेष अर्थ में, किसी भी भाषा के विकास का मुख्य नियंत्रक
‘निबंध’ ही होता है |
ध्यातव्य है कि पद्य की विविधता गद्य के
मुहाने पर आकर अपना आकार खोने लगती है | यद्यपि पद्य के प्रदेश में गद्य का प्रवेश
उपन्यास, कहानी और नाटक जैसी विधाओं में तो खूब होता रहा है | लेकिन ‘निबंध’ में
काव्य-तत्त्व की उपस्थिति उसको ललित-निबंध की दिशा में अवश्य ले जाती है, समकालीन
लेखन में जिसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनेक निबंध
जो उनको ‘निबंध’ की गद्य-विधा में सहज ही
सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हैं |
शिवपूजन सहाय की रचना-यात्रा में प्रारम्भ से ही निबंध के
प्रति एक स्वाभाविक रुझान रहा | उन्होंने अपने आत्म-संस्मरण में लिखा है कि उनकी
सबसे प्रथम प्रकाशित रचना - ‘ होली में सभ्यता का नाश’ - एक निबंध ही था | अपनी १९१७ की डायरी के अंतिम
पृष्ठों में उन्होंने अपनी १९१९ तक उस समय की
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित ५१ रचनाओं की सूची अंकित की है,
जिसमें पहला यही निबंध है, और उन ५१ रचनाओं में उनकी १०-११ कहानियों को छोड़कर शेष
४० रचनाएँ निबंध ही हैं | राजपूताना के शौर्य पर आधारित उनकी तीन कहानियाँ –
‘मुण्डमाल’, ‘विषपान’ और ‘सतीत्त्व की उज्जवल-प्रभा’ – भी उस सूची में नामित हैं |
उनकी ये सभी तबतक पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियाँ ‘ महिला-महत्त्व’ शीर्षक से
१९२२ में – जब वे असहयोग आन्दोलन में सरकारी स्कूल की नौकरी से त्यागपत्र देकर
कलकत्ता चले गए थे - कलकत्ता के एक
प्रकाशक द्वारा मुद्रित होकर भी अप्रकाशित ही रहीं, और बाद में ‘पुस्तक भण्डार’
(लहेरिया सराय) से उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ के साथ १९२६ में
‘विभूति’ नाम से प्रकाशित हुईं जिसमें इस बीच प्रकाशित उनकी ६ और कहानियाँ भी
सम्मिलित थीं | वस्तुतः कथा-लेखन के क्षेत्र में शिवपूजन सहाय का रचनाकर्म १९२६
में इन दो कृतियों के प्रकाशन के साथ ही समाप्त हो गया |
असहयोग आन्दोलन में स्कूल की नौकरी से इस्तीफ़ा देने के बाद
वे आजीविका के लिए पत्रकारिता की ओर मुड़ गए और तब शुरू हुआ ‘मारवाड़ी सुधार’,
‘मतवाला’, ‘माधुरी’ और कई और अल्पजीवी पत्रिकाओं – ‘मौजी’, समन्वय’, ‘उपन्यास
तरंग’ – का सम्पादन-क्रम जिसके साथ एक लम्बा गद्य-लेखन का सिलसिला शुरू हुआ जो
जीवन के अंत तक चलता रहा | पत्रकारिता और निबंध का रिश्ता ‘चोली-दामन’ के मुहावरे
के मुताबिक़ एक अनिवार्य रिश्ता है | साहित्यिक लेख, सम्पादकीय अग्रलेख और
टिप्पणियाँ, व्यंग्य-लेख आदि सब उसी के विभिन्न रूप और प्रकार हुए |
निबंध गद्य की एक बहुमुखी विधा है और स्वतंत्र गद्य-रचना के
मूल रूप में तो ‘निबंध’ की अपनी अलग पहचान
है ही | इस विषय पर अपनी एक स्वतंत्र टिप्पणी में शिवजी
ने लिखा है:
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना आदि साहित्य के प्रमुख अंग हैं; पर निबंध तो साहित्य का उत्तमांग है | साहित्य के वास्तविक उत्कर्ष की जांच निबंध से ही होती है | निबंध में ही लेखक के गद्य की शक्ति परखी जाती है | हिंदी-साहित्य में भारतेंदु काल से ही निबंध की परंपरा का प्रवर्त्तन माना जाता है | उस समय से आधुनिक युग तक जो सफल निबंधकार हो चुके हैं उनमें पण्डित बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रतापनारायण मिश्र, सरदार पूर्ण सिंह, पं. पद्मसिंह शर्मा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाब राय आदि विशेष उल्लेखनीय हैं | इनके अतिरिक्त और भी कई समर्थ निबंधकार हिंदी में हुए हैं और इस समय भी विद्यमान हैं | हिंदी का निबंध-साहित्य उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता जा रहा है | अब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि हिंदी में भावात्मक, विचारात्मक, विवेचनात्मक और समीक्षात्मक निबंध बहुत ही उच्च कोटि के लिखे जाने लगे हैं, जिनके बल पर हिंदी अन्य उन्नत भाषाओं के सामने भी सगर्व खड़ी रह सकती है | निबंधकार द्वारा अनुभूत विषय जब पाठक के मन को रमानेवाले ढंग से अभिव्यक्ति पाता है तभी निबंध की सार्थकता सिद्ध होती है | निबंध केवल पांडित्य प्रदर्शन का साधन नहीं है |
वास्तव में ‘निबंध’ के इस मूल स्वरूप की कल्पना ही इसकी परिभाषा को आवश्यक बनाती है, जिस पर कोई मतैक्य कभी और कहीं नहीं बन पाया है | इसकी विविधता और इसके एकाधिक प्रकार को भी इसका एक अनिवार्य तत्त्व मान लिया जाता है | इसका एक लक्षण जो किसी दीर्घकाय रचना को किसी लघुकाय रचना से अलग करता है, वह आकार का है | लेकिन यह लक्षण तो जिस प्रकार कहानी और उपन्यास, कविता और महाकाव्य, पञ्च-अंकीय नाटक और एकांकी को स्थूल रूप से अलग करता है, उसी प्रकार निबंध और प्रबंध को भी अलग करता है | कहानी, कविता, एकांकी और निबंध का प्राथमिक लक्षण उनका सुविधाजनक रूप से लघुकाय होना ही है | गद्य और पद्य दोनों में आकार-सीमा रचना का एक अनिवार्य लक्षण है | साथ ही, दीर्घकाय और लघुकाय – दोनों प्रकार की रचनाओं में एकान्विति के अपने अलग मानदंड हैं, और उनकी संरचना की प्रविधियां भी उतनी ही भिन्न हैं | संक्षेप में, कहानी और कविता की तरह निबंध में भी गद्य-माध्यम और लघु आकार ही इसके दो अनिवार्य तत्त्व माने जा सकते हैं | विषय-चयन, विषय की अपनी सीमाएं, उसका यथोचित निरूपण, अभिव्यक्ति की सघनता, भाषा-शैली का लालित्य अथवा प्रसाद-गुण आदि में निबंध में रचनाकार के व्यक्तित्त्व के अनुरूप ही आवश्यक स्वच्छंदता सर्वमान्य होती है | इसीलिए अनेक प्रकार का गद्य लेखन, जो एक सुविधाजनक पाठ के आकार में प्रस्तुत होता है, - सम्पादकीय अग्रलेख, लम्बी टिप्पणियाँ, आत्म-संस्मरण, भाषण, रेडियो-वार्त्ता आदि - निबंध के रूप में परिगणित होता है, यदि उसमें निबंध वाली एकान्विति भी स्पष्ट परिलक्षित होती हो |
शिवपूजन सहाय के निबंधों
में, निबंध के सरगम के मन्द्र सप्तक से तार सप्तक की पटरियों तक का उपयुक्त
प्रयोग देखने को मिलता है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी | निबंध के जितने भी सुस्पष्ट प्रकार माने
गए हैं - शिवपूजन सहाय के ही शब्दों में – ‘भावात्मक, विचारात्मक, विवेचनात्मक और
समीक्षात्मक’ - उसका पूरा प्रसार शिवपूजन
सहाय के निबंध-समुच्चय में दिखाई देता है | इसका एक तखमीना इस तरह भी किया जा सकता
है कि उनके निबंधों में वह सारी विभिन्नता देखी जा सकती है जो उनके पूर्ववर्त्ती
निबंधकारों के – जिनका नाम उनकी निबंध-सम्बन्धी
टिपण्णी में है - अलग-अलग निबंधों में दिखाई
देती है | जीवन के अंतिम समय में उन्होंने एक गद्य-संचयन ‘गद्य-कलश’ नाम से
संपादित किया था उसमें संकलित इन नामित निबंधकारों के निबंधों से शिवपूजन सहाय के
निबंधों का मिलान करने पर यह और स्पष्ट हो जाता है |
पत्रकारिता की अपनी लम्बी पारी में, और पत्रकारिता से अलग
अपने स्वतंत्र लेखन में भी, शिवपूजन सहाय ने लगभग २०० विभिन्न कोटि के निबंध लिखे
जो विगत सदी के दस से पचास तक के पांच
दशकों में लिखे गए, और जो ‘शिवपूजन रचनावली’ (खंड-३) तथा ‘शिवपूजन सहाय
साहित्य-समग्र’ (खंड ३ और ४) में प्रकाशित हैं
| ‘समग्र’ के खंड-५ में उनकी ऐसी ही मिश्रित रचनाओं की एक सूची भी प्रकाशित
है, जिनमें अधिकांश निबंध की कोटि में ही परिगणनीय हैं, जिनकी संख्या भी लगभग ३००
है, किन्तु जो अनुपलब्धता के कारण कहीं
संकलित-उपलब्ध नहीं हैं; और ये जो अभी अनुपलब्ध हैं, उनकी सूची देखने से प्रतीत
होता है कि उनमें अधिकाँश छोटी सम्पादकीय टिप्पणियां हैं, और बहुत सारे तात्कालिक
महत्त्व के लेखादि भी हैं | लेकिन जो निबंध ‘रचनावली’ और ‘समग्र’ में
संकलित-प्रकाशित हैं, उनमें बहुलांश ऐसे हैं जिनका कई कारणों से स्थायी महत्त्व है | ‘निबंध-सनग्र’ शीर्हक इस
नव-प्रकाशित संकलन में शिवपूजन सहाय के ऐसे ही विशेष
महत्त्वपूर्ण और स्थायी महत्त्व के निबंधों में से चुन कर ४५ निबंध संकलित किये गए
हैं | निश्चय ही ऐसा कोई भी चयन सम्पादक की व्यक्तिगत अभिरुचि और पुस्तक के
आकार-प्रकार के अनुसार ही हो सकता है |
प्रस्तुत संकलन के ४५ निबंधों में ३० तो स्वतंत्र निबंध के रूप में ही लिखे गए और प्रकाशित हुए
थे, ४ विभिन्न अवसरों पर प्रदत्त भाषणों के मुख्यांश हैं, ९ सम्पादकीय अग्रलेख अथवा टिप्पणियां हैं, २
भूमिकाएं हैं, और १ रेडियो-वार्त्ता है – जिन सबमें एक निबंध की पूर्णता स्पष्ट परिलक्षित होती है
| सभी निबंधों के अंत में उनसे संबद्ध टिप्पणियां और सूचनाएं दे दी गई हैं, जिनसे
उनका उद्भव और स्वभाव स्पष्ट हो जाता है | निबंधों के चयन में इस पर विशेष ध्यान
रखा गया है कि उनमें प्रस्तुत सामग्री की आज के सन्दर्भ में पूरी प्रासंगिकता देखी
जा सके |
इन निबंधों में शुरू के तीन निबंध – ‘संतोष’, ‘सुख और
शांति’ तथा ‘सेवा’ शिवजी की प्रारम्भिक निबंध-शैली में हैं, जिन्हें हम उनकी
परिभाषित ‘भावात्मक’ कोटि में रख सकते हैं, जो उन्हीं दिनों लिखे जाने वाले इसी
शैली के उनके अन्य निबंधों – ‘परोपकार’, ‘धैर्य्य’, ‘औदार्य्य’ जैसे निबंधों का
प्रतिनिधित्व करते हैं | उन दिनों के उनके अलंकारिक शैली वाले कुछ श्रृंगारिक
निबंध भी - ‘सुधा’, ‘माधुरी’, ‘आलिंगन’,
‘चुम्बन’ आदि - उनकी शैली के विकास के प्रस्थान-बिंदु की दृष्टि से देखे जा सकते
हैं , यद्यपि आज के पाठकों के लिए वे बस शोध अथवा कौतूहल-शमन की सामग्री हो सकते हैं, जबकि इस
संचयन में प्रमुख उद्देश्य लोकोपयोगी निबंधों का चयन ही है, जिनमें सूचना और विचार
की बहुलता और प्रगल्भता का अधिक महत्त्व माना गया है | उदाहरण के लिए – ‘राष्ट्र
भाषा का विराट संग्रहालय’, ‘काशी की नागरी-नाटक-मंडली’, ‘प्रयाग की
हिंदी-नाट्य-समिति’, ‘वंगीय रंगमंच’ और ‘बंगाल के संगीतग्य’ जैसे
निबंध अल्प-ज्ञात दुर्लभ सूचनाओं से परिपूर्ण निबंध हैं, जिनमें केवल सूचनाएं ही
नहीं हैं, वरन इन विषयों से जुड़े कई गंभीर प्रश्न भी हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं |
और ऐसे निबंधों को हम शिवजी की ही परिभाषित ‘विवेचनात्मक’ निबंधों की कोटि में गिन
सकते हैं |हिंदी की हित-साधना और हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा ही शिवपूजन सहाय
के जीवन के आदर्श रहे | वे राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी के सबसे बड़े समर्थक ही
नहीं रहे; उसको हर प्रकार से सजाने-सवांरने और समृद्ध करने के प्रति भी उनका सारा
जीवन समर्पित रहा | प्रारम्भ से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक वे राष्ट्र भाषा के
रूप में हिंदी की हित-साधना में सन्नद्ध रहे | अपने पत्रकार-जीवन के प्रारम्भ में
ही १९२३ में कलकत्ता से प्रकाशित ‘समन्वय’ (वर्ष २, अंक ५) में उन्होंने लिखा था
–
राष्ट्र भाषा की दृष्टि
से हिंदी को सरल और तेजस्वी होना चाहिए |...सब प्रकार के उच्च-उच्च भावों को प्रकट
करने की शक्ति हिंदी में होनी चाहिए | यदि उसमें किसी नये उच्च भाव के लिए उचित
शब्द न हो तो उसे गढ़ लेना चाहिए | पहले संस्कृत के खजाने से, फिर उसमें न मिलने पर
किसी और प्रांतीय भाषा से, और अंत में फारसी, अंगरेजी आदि विदेशी भाषाओं से |...सब
हिंदी-प्रेमियों को एक सरल, सुन्दर और ज़ोरदार देश भाषा बनाने के लिए कमर कसे रहना
चाहिए...जिससे भाषा की दृढ पर मुलायम डोरी से बंधे हुए हम एक अखंड भारत की सृष्टि
करें |
राष्ट्र भाषा हिंदी
के समर्थन में उनका यह अथक संघर्ष उनके जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अभियान रहा |
फलतः, यहाँ संकलित उनके अधिकांश निबंध उनके उसी राष्ट्रभाषा अभियान से सम्बद्ध
हैं, जिन्हें हम ‘विचारात्मक’ निबंधों की कोटि में रख सकते हैं | इनमें प्रमुख हैं
– ‘हिंदी और हिन्दुस्तानी’, ‘हिंदी की
व्यापकता’, ‘राष्ट्र भाषा का विरोध’, ‘राष्ट्र भाषा का स्वरुप’, ‘राष्ट्र भाषा और
उर्दू’, ‘हिंदी का विरोध’ आदि | उनके कुछ और ऐसे ही निबंध भाषा के प्रश्न से सीधे
जुड़े निबंध हैं, जैसे – ‘हिंदी भाषा’, ‘हिंदी भाषा और साहित्य’, ‘हिंदी और लोक
भाषा’, ‘भोजपुरी भाषा’ आदि | राष्ट्रभाषा हिंदी के समर्थन में लिखा उनका निबंध - ‘क्या अंग्रेजी से हिंदी हार गयी ?’ - उनके
जीवन के अंतिम वर्ष में लिखा एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण निबंध है | धर्मवीर भारती ने
१९६२ में ‘धर्मयुग’ में – जब राष्ट्र भाषा हिंदी का प्रश्न देश के संविधान में एक
निर्णायक मोड़ पर था - इसी शीर्षक से एक
परिचर्चा-श्रृंखला प्रारम्भ की थी जिसमें शिवजी का यह लेख (१ जुलाई) को
प्रकाशित हुआ था | इस क्रांतिधर्मी लेख
में जीवन-पर्यंत हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा और समृद्धि में अपना सर्वस्व होम
करने वाले एक हिंदी-सेवी का सारा आक्रोश हिंदी के सर पर ज़बरदस्ती अंग्रेजी को
लादने के केन्द्रीय सरकार के निर्णय के विरूद्ध फूट पड़ा था –
राष्ट्र के कर्णधारों को
अपनी गद्दी प्यारी है,हिंदी नहीं | हिंदी को हर तरह से अपंग-अपाहिज बना कर उस पर
अंग्रेजी को लादने का साहस किया गया है | सरकार की ऐसी हिंदी-नीति से समस्त हिंदी
संसार में घोर असंतोष है |...अंगरेजी के सर पर ताज रख कर प्रमुख भारतीय भाषाओं की
जो उपेक्षा की गई है, वह प्रत्यक्ष ही राष्ट्रीयता का विघातक है | भारत की सभी भगिनी
भाषाओं के सहयोग से राष्ट्रभाषा हिंदी भली-भाँति राज-काज चला सकती है | उसकी इस
स्वाभाविक शक्ति को पुष्ट करने और बढाने की चेष्टा न करके अंगरेजी को प्रधानता
बक्शना सर्वथा अ-राष्ट्रीय कर्म है |
संक्रमण के उस
संवेदनशील समय में लिखा गया
हिंदी के एक समर्पित योद्धा का यह कठोर वक्तव्य आज हिंदी पर अंगरेजी के
व्यभिचार का पूर्वाभास दे रहा है | अतः, कहा जा सकता है कि शिवजी के निबंध-साहित्य
का मेरुदंड उनका हिंदी-हित-चिंतन ही है, जो उनके सम्पादकीय अग्रलेखों, टिप्पणियों
आदि में प्रारम्भ से अंत तक एक अंतर्ध्वनि की तरह गुंजित होता रहा है |
इसी प्रकार उनके निबंध-लेखन में प्रारम्भ से ही उनके कुछ शुद्ध साहित्यिक निबंध
भी रहे हैं, जैसे इस संचयन में चयनित – ‘नाटक’, ‘साहित्य’, ‘साहित्य और विज्ञान’, ‘गीता का एक श्लोक’, ‘तुलसी की
राम-भक्ति’, ‘तुलसी-प्रयुक्त क्रियाएं’ आदि | जीवन के अंतिम वर्षों में (‘परिषद् पत्रिका’,
अप्रैल, १९६१ में ) प्रकाशित उनका यह
अंतिम निबंध -‘तुलसी-प्रयुक्त क्रियाएं’ – तो भाषा-विज्ञान की
दृष्टि से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शोधोपयोगी निबंध है, जिसमें हिंदी में
क्रिया-प्रयोग की एक नयी दिशा का अन्वेषण है | “अनुसरेगा”, “विवाहेगा”,
“अनुमानेगा” – ऐसा संकर्षित क्रिया-प्रयोग (जो
लगभग सभी लोक-भाषाओं की अपनी विशेषता है) हिंदी के भाषा-शक्ति-वर्द्धन में
एक उपयोगी उपकरण सिद्ध हो सकता है | इस निबंध की ये अंतिम पंक्तियाँ इसी ओर संकेत
करती हैं –
राष्ट्र भाषा हिंदी की
शक्ति-वृद्धि के उद्देश्य से अतीत युग के समस्त साहित्य का मंथन करके यदि केवल एक
क्रिया-कोष का ही निर्माण किया जाय और सभी क्रियाओं के रूप शोध कर, उन्हें
प्रयोगोपयोगी बनाकर, सोदाहरण प्रदर्शित किया जाय, तो हमारी भाषा विशेष समृद्धिशालिनी हो सकती है |
निबंधों का एक प्रकार जहाँ सम्पादकीय अग्रलेखों अथवा
टिप्पणियों के रूप में प्रस्तुत होता है, वहीँ उसके अन्य प्रकार लिखित व्याख्यानों, पुस्तकीय भूमिकाओं तथा
संस्मरणात्मक निबंधों के रूप में भी प्रकट हो सकते हैं | आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी का निबंध ‘आत्मकथा’ एक संस्मरणात्मक निबंध ही है | उसी प्रकार शिवजी के
यहाँ चयनित तीन निबंध – ‘हिंदी साहित्य में
हास्य-व्यंग्य-विनोद’, ‘राष्ट्र भाषा हिंदी और रवीन्द्र नाथ’, ‘महामना मालवीयजी
और भगवदगीता’ – इसी कोटि में रखे जा सकते हैं, यद्यपि इनका विषय-निरूपण इन्हें
प्रथमतः निबंध का स्वरुप ही प्रदान करता है | उसी प्रकार ‘मतवाला’ के दो अग्रलेख – ‘आत्म-परिचय’
और ‘नाटकों का पितरपख’ भी मूलतः निबंध की अन्विति वाली रचनाएं हैं, जिनमें पहले
में ‘मतवाला’ के कल्पनाशील अवतरण की भूमिका प्रस्तुत हुई है, और दूसरे में बीस के
दशक में कलकत्ता में पारसी नाटक कंपनियों के नक़्शे-कदम पर चलने वाली नई-नई हिंदी
नाट्य-मंडलियों की कड़ी आलोचना हुई है | अलग से संकलित होने पर इन दोनों प्रभावशाली
अग्रलेखों में निबंध की अन्विति सहज ही दिखाई पड़ती है | पुस्तकों की भूमिकाओं के
रूप में लिखे गए दो निबंध –‘ कहानी कला’ और ‘हिंदी गद्य की विकास यात्रा’ – भी इसी कोटि की
रचनाएं हैं जिन्हें ‘समीक्षात्मक’ निबंधों की कोटि में रखा जा सकता है |
रेडियो-वार्त्ता के रूप में प्रस्तुत – ‘कहानी के चार युग’ को भी ‘समीक्षात्मक’
कोटि में ही देखा जा सकता है | ध्यातव्य है की इन सभी कोटियों के परिधि-वृत्तों की
सीमाएं किन्हीं लक्ष्मण-रेखाओं की तरह खिंची नहीं होती हैं, और एक वृत्त कहीं भी
दूसरे वृत्त में छू जा सकता है, अथवा उसमें दूर तक प्रवेश पा जा सकता है | शिवजी
के एक लम्बे निबंध – ‘हिंदी-साहित्य और मध्य भारत’- ने स्वाभाविक रूप से एक लघु
प्रबंध का आकार ग्रहण किया है, क्योंकि उसका समीक्षात्मक फलक-विस्तार उसी की
अपेक्षा रखता है | शेष कुछ अन्य निबंध – ‘हिंदी साहित्य का
तीर्थ-निर्माण’, ‘साहित्य का अभ्युदय और उत्कर्ष’ आदि भी इन्हीं विभिन्न
कोटियों में रखे जा सकते हैं, परन्तु सभी में निबंध-जनित अन्विति स्पष्ट देखी जा
सकती है |
शिवपूजन सहाय के ये सभी निबंध अपने-अपने विशिष्ट गुणों के
साथ उनके सर्वश्रेष्ठ निबंधों में परिगण्य हैं | यहाँ ‘निबंध’-लेखन पर उनकी जो संक्षिप्त टिप्पणी उद्धृत की गई है उसमें उन्होंने
स्वयं इस विधा की परिभाषा प्रस्तुत कर दी है जिनका प्रयोग हम भली-भांति उनके इन
अपने निबंधों के अनुशीलन में कर सकते हैं | अपने सम्पूर्ण गद्य-लेखन को, जिसका
बहुलांश हम निबंध के रूप में परिसीमित कर सकते हैं, साहित्यिक रचनाओं की कोटि में
रखते हुए शिवपूजन सहाय का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है – “ इन रचनाओं से कोई और लाभ हो
या न हो, यह तो पता लग ही जायगा कि हमारी मनोवृत्ति और प्रवृत्ति कब कैसी रही |
हमारी रचना-शैली के विकास-क्रम का अध्ययन करने में भी सहायता मिलेगी |” स्पष्ट है
कि लेखक स्वयं अपनी रचनाओं की प्रकृति और उनके महत्त्व से अनभिज्ञ नहीं है |
निश्चय ही लेखक की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति ने ही उसकी रचनाओं की विषय-वस्तु का
निर्धारण किया है, और उनकी रचना-शैली को भी विकसित किया है | वस्तुतः, विषय-वस्तु
के चयन एवं रचना-शैली के विकास में ही लेखक की मनोवृत्ति-प्रवृत्ति अथवा उसकी
सृजनशील मनीषा पूरी तरह प्रतिबिंबित हुई है |
शिवपूजन सहाय के निबंधों के इस प्रतिनिधि संकलन में भी
सर्वाधिक चर्चा हिंदी भाषा और साहित्य से सम्बद्ध विषयों और समस्याओं की ही
बार-बार हुई है | यह सारा गद्य-लेखन शिवजी के सुदीर्घ पत्रकारिता-कर्म के दौरान ही
हुआ है, और ‘शिवपूजन रचनावली’ अथवा अंततः ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ के खण्डों
में संकलित होने से पूर्व उनका लगभग सारा गद्य-लेखन पत्र-पत्रिकाओं में ही होता
रहा – या तो सामयिक प्रश्नों पर सम्पादकीय मंतव्य के रूप में अथवा लेखक की
वैयक्तिक मनोवृत्ति या प्रवृत्ति से अभिप्रेरित होकर साहित्यिक, सामाजिक और
राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर | शिवजी की ऐसी रचनाएं जहाँ अपने प्रारम्भिक दौर
में ललित वैचारिक निबंधों की कोटि में रखी जा सकती हैं, वहीँ पत्रकारिता के
सम्पादन-कर्म में संलग्न होने के बाद की रचनाओं में हिंदी भाषा और साहित्य-विषयक
रचनाओं की प्रमुखता दिखाई देती है | कहा जा सकता है कि इन निबंधों में शिवजी के
साहित्यिक व्यक्तित्त्व के सुन्दर, सत्य और शिव पक्षों को उनकी समग्रता में
अनुशीलित किया जा सकता है | शिवजी के इन सभी निबंधों में उनके गद्य की रसमयता,
ऊर्जा और संतुलन प्रारम्भ से अंत तक उसके विशिष्ट गुण के रूप में वर्त्तमान रहते
हैं | बहुलांशतः पत्रकारिता के क्रम में लिखित शिवजी का गद्य अद्भुत रूप से सार्थक
हुआ है | उनकी गद्य-कला के विषय में लिखते हुए डा. नन्द किशोर नवल का कथन है –
“विचारात्मक गद्य वे सृजनात्मक गद्य के समानांतर ही लिखते आ रहे थे और दोनों उनके
लेखन में एक-दूसरे को अंत-अंत तक समृद्ध करते रहे |”
आशा है, ‘शिवपूजन सहाय:निबंधों की दुनिया’ के इस नवीन परिवर्द्धित संस्करण में शिवपूजन सहाय की इन्द्रधनुषी गद्य-शैली का प्रक्षेपण पर्याप्त विविधता में हुआ है, जो उन्हें हिंदी के एक समर्थ और अनन्य शैलीकार के रूप में प्रस्तुत करता है |
(C) डा. मंगलमूर्त्ति
[ उपर्युक्त आलेख ‘निबंध-समग्र: शिवपूजन सहाय’ नामक प्रकाशित संकलन की भूमिका के रूप में प्रस्तुत हुआ था
जिसे आज इस जयंती-दिवस पर यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है| पुस्तक अनामिका
प्रकाशन, नई दिल्ली (मो.9773508632) से 2021 में
प्रकशित हुई है |]
No comments:
Post a Comment