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Monday, September 15, 2025



'रंगभूमि' की भेंट प्रति 





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  पाठ संशोधन 


 




                                                    प्रेमचंद का पत्र 






हिंदी में वर्त्तनी का प्रश्न


हर भाषा का मूल रूप उच्चरित होता है | इसी आधार पर हर अशिक्षित मनुष्य भी सुन-बोलकर ही जीवन में भाषा का उपयोग कर सकता है | लेकिन इस तरह किसी भाषा के दो रूप हो जाते हैं – वाचित और लिखित | इससे एक महत्त्वपूर्ण अंतर उत्पन्न होता है – वाचित भाषा का रूप वाचक व्यक्ति के उच्चारण से निर्मित होता है जिसमें स्वाभाविक विभिन्नता अपरिहार्य होती है, यद्यपि लिखित रूप में अनिवार्यतः एक स्थिर निश्चित एकरूपता हो जाती है | इसलिए भाषा के उच्चरित रूप का उसके लिखित रूप की तुलना में अनेकरुपी होना अपरिहार्य है, और इसीलिए बोलियों के विषय में भी सामान्य धारणा है कि उसका उच्चरित रूप हर ‘पांच कोस पर बदल जाता है |

हिंदी की देवनागरी लिपि विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लेखन-पद्धति मानी जाती है, जिसका उपयोग हिंदी की सभी भगिनी-भाषाओँ-बोलीओं में होता है | लेकिन हिंदी भाषा और नागरी लिपि - दोनों में भी व्याकरण और व्यवहार-जनित अपनी अनेक समस्याएँ तो हैं ही, एक समस्या यह है कि हिंदी-तर भाषाओँ, विशेष कर विदेशी भाषा-परिवारों, से लिए गए ऐसे हजारों-हजार शब्दों को - जिनमें अधिकांश अब हिंदी भाषा-कोष के शब्दों के रूप में स्वीकृत हो चुके हैं - उनके विदेशी उच्चारण को ध्यान में रखते हुए हिंदी लिपि में उनको किस तरह लिखा जाय | और उससे भी पहले- उससे बड़ा प्रश्न है - हिंदी की अपनी लिपि-गत समस्या : मुद्रित हिंदी में वर्त्तनी की एकरूपता का आधार क्या हो? इस प्रश्न पर पिछले अनेक दशकों से हिंदी में बहुत वाद-विवाद होता रहा है, और इसमें विभिन्न उपयोगकर्त्ताओं/प्रकाशन-संस्थाओं ने कई प्रकार के निजी विधान – ‘स्टाइल-शीट’ बना लिए हैं, जिनका प्रयोग होता रहा है, जिन्हें हम आज - एकरूपता के हित में - विविध स्वरूपों में स्वीकार कर रहे हैं | लेकिन हिंदी भाषा के लिखित/मुद्रित रूप की स्थिरीकृत एकरूपता का प्रश्न आज भी असमाधानित है |

यह एक बहुत उलझा हुआ बड़ा सवाल है, लेकिन यहाँ उससे सम्बद्ध कुछ बिन्दुओं पर विचार करना ही अभीष्ट है | इस प्रसंग में प्रेमचंद की भाषा का शिवपूजन सहाय द्वारा संशोधन-सम्पादन पर विचार करने से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं | बात मई-जून, १९२४ की लखनऊ की है, जहाँ प्रेमचंद और शिवजी – दोनों – दुलारेलाल भार्गव (अधिष्ठाता, ‘गंगा-पुस्तक-माला’) की प्रसिद्ध पत्रिका ‘माधुरी के सम्पादन-विभाग में कार्य-रत थे | उन्हीं दिनों शिवजी वहाँ प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि और उनकी कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी की भाषा का संशोधन-सम्पादन कर रहे थे, और ‘रंगभूमि के संशोधन-सम्पादन के प्रसंग में शिवजी ने अपने संस्मरण में लिखा है –

“श्री दुलारेलालजी भार्गव ने गंगा-पुस्तक-माला के नियमानुसार ‘रंगभूमि की प्रेस-कापी तैयार करने के लिए मुझे सौंपी....सारी कापी प्रेमचंदजी की ही लिखी हुई थी.... भार्गवजी की गंगा-पुस्तक-माला की पुस्तकों का सम्पादन जिन नियमों के अनुसार होता था, उन नियमों को मैं जान चुका था; क्योंकि भार्गवजी के संपादकत्व के कारण ‘माधुरी में भी उन्हीं नियमों का पालन करना पड़ता था | जब मैं ‘रंगभूमि की कापी पढने लगा, नियमों का ध्यान छूट गया, मन रीझकर भाषा की बहार लूटने लगा |.. कुछ हिंदी शब्दों की लिखावट में भूल मिलती थी, और कुछ के उपयुक्त प्रयोग में भी |...बंधे नियमों के अनुसार कुछ अक्षर बदलने पड़े | कुछ मात्राएँ इधर-उधर हुईं, कुछ प्रसंगानुकूल यथोचित शब्द चस्पां किये गये | प्रेस-कापी तैयार हो गई |”    

‘माधुरी के लिए दुलारेलाल ने वर्त्तनी के कुछ निश्चित नियम (अक्तू.२४ के आसपास) बना दिये थे जो इस प्रकार थे –

रुपए / रक्खा / इसके, उनके, हाथ के / हो गए हैं / आए होंगे / नौकर हुए/ गया था / रख दिए थे / बनाए हुए / किराए / उसके लिये/ भूल गई/ मुसकिराकर/ लिवा लाए/ मँगवा, हँस/ लायक़, महफ़िल, गुज़रने/ मित्रों/ किंतु/ पाँचवाँ, चाँद/ चाँदी, ढूँढने/ ऊँचाई, भाँति/  हो जायँ/ दबनेवाला, खँडहर/ रख दीजिए, समझी जाय, आदि |

वर्त्तनी के स्थिरीकरण के नियमों का दुलारेलाल ‘माधुरी में कड़ा अनुपालन कराते थे, जिनके आधार उन दिनों चलने वाले अनेक वर्त्तनी-विवाद-प्रसंग थे: जैसे, (१) क्रिया रूप में  – गया, गए, गई; (२) विभक्तियों का अलगाव - उनके, हाथ के; (३) चंद्रविन्दु/अनुस्वार- पाँचवाँ, किंतु/; (४) उर्दू का नुक्ता लगाना - लायक़, महफ़िल, गुज़रने, हफ़्ते; आदि |

‘रंगभूमि और ‘शतरंज के खिलाडी के मूल मुद्रित पाठों को देखने से यह स्पष्ट होगा कि उनमें इन नियमों का कैसा पालन हुआ है | शिवजी ने जैसा अपने संस्मरण में लिखा है- “कुछ प्रसंगानुकूल यथोचित शब्द चस्पां किये गये”  - उसके एकाध उदाहरण ‘शतरंज के खिलाड़ी के मूल मुद्र्मुद्रित पाठ से इस प्रसंग में देखे जा सकते हैं – “दिन के दिन/ दिन-भर पड़े-पड़े सोते थे/मक्खियाँ मारा करते थे” जहाँ कटे हुए शब्द मूल पाठ में थे और उनके स्थान पर परिवर्त्तित रूप अभिव्यंजना को अधिक मुखर बनाते हैं |

आचार्य शिवजी के भाषा-संशोधन की विशेषता इसमें थी कि लेखक कोई हो – छोटा या बड़ा, और उनके जीवन में ऐसे लेखकों की संख्या अनगिनत थी – लेकिन सभी में उनके भाषा-संशोधन का स्तर सदा एक जैसा रहता था, जिसका उद्देश्य हिंदी भाषा के गद्य के स्वरुप को अधिक से अधिक सुन्दर और शुद्ध बनाना ही था | उनके द्वारा संशोधित स्वामी भवानी दयाल सन्यासी के आत्मज ब्रह्मदत्त के उपन्यास ‘प्रवासी-प्रपंच की पूरी मूल संशोधित प्रति अब के प्र.मं. संग्रहालय दिल्ली में उपलब्ध देखि जा सकती है, जिससे शिवजी के ऐसे गहन भाषा-संशोधन की सूक्ष्म पड़ताल की जा सकती है |

जीवन के अंतिम वर्षों में शिवजी बि. हिं. सा. सम्मेलन की शोध पत्रिका ‘साहित्य का सम्पादन करते थे, जिसमें उनके सहायक थे श्रीरंजन सूरिदेव | शिवजी के भाषा-संशोधन और उनकी वर्त्तानी नीति पर रंजनजी का एक महत्त्वपूर्ण लेख ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’(५) में प्रकाशित है ‘आ. शिवपूजन सहाय की वर्त्तनी नीति (पृ. ५११) जिसके कुछ विशेष उपयोगी (किंचित संपादित) अंश यहाँ भाषा-संशोधन में अभिरुचि रखने वाले आज के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं | (हमारा प्रयास है कि वह पूरा लेख यथाशीघ्र अपनी पूर्णता में भी आगे इसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा सके):

(१)    विभक्ति-चिन्ह संज्ञा-शब्दों से अलग हों पर सर्वनाम में साथ रहें – रमेश ने, सभा में, खिड़की से / पर – उसने, मुझको, आपका, इसपर, आदि |

(२)    ‘श्री और ‘जी को नाम से मिला कर रखें – श्रीहरिवंशजी |

(३)    हाइफ़न (-)प्रयोग के उदाहरण: माता-पिता, लेखा-जोखा; लेकिन बड़े शब्दों में - समाचारपत्र, जीवनदर्शन, आलोचनापरक, आदि |

(४)    क्रिया रूपों में – आई, गई, नई, दिखाई; जाइए, आइए, चाहिए, दीजिए; जाय, आय, जायगा, आयगा; अथवा जाये, आये, जायेगा, आयेगा |

(५)    वास्ते के अर्थ में ‘लिए (‘उसके लिए) और ‘लेना क्रिया के अर्थ में ‘लिया>लिये’ (‘उसने ले लिये)|

(६)    चन्द्रबिंदु और अनुस्वार: उच्चारण के अनुसार ‘रंग’ में अनुस्वार और  ‘काँपना में चन्द्रबिन्दु; उसी तरह उच्चारण के अनुसार ‘कंगना’ में अनुस्वार | उसी प्रकार ‘हंस और ‘हँसना’ में यथोचित |

(७)    नुक्ते के साथ प्रयुक्त होने वाले अरबी-फारसी-मूलक जो शब्द हिंदी के अंग बन चुके हैं, जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतरण हो चुका है, उन्हें हिंदी रूप में बिना नुक्ते का रखा जाय, जैसे – कागज, गजल, लिफाफा, हफ्ता, आदि | लेकिन अरबी-फारसी के मूल उद्धरणों में (या बोलचाल में कम प्रचलित शब्दों में) - जैसे ‘मुफ़लिस’, ‘हाफ़िज़, आदि में नुक्ते को लगाया जा सकता है |

(८)    हिंदी में ‘ऑ’ ध्वनि नहीं है, इसलिए ‘कॉलेज, ‘ऑफिस’, ‘कॉन्क्लेव’ आदि को अर्द्धचंद्र के साथ लिखा जा सकता है, यद्यपि (७) वाले नियम के अनुसार जो शब्द बहुत प्रचलित हैं उनको हिंदी वर्त्तनी के अनुसार ‘कालेज, ‘आफिस भी लिखा

 जा सकता है, बशर्ते सर्वत्र एकरूपता राखी जाय |

 

उर्दू की फारसी लिपि के मुकाबले नागरी लिपि के पूर्णतः वैज्ञानिक होने के कारण, और हिंदी में उर्दू के शब्दों के अधिक से अधिक समाहित होते जाने के कारण भी, अब उर्दू को बहुलांशतः अपने में समेटती हुई हिंदी पूरी दुनिया में तेजी से आगे बढ़ रही है | अब उसके एक अधिकाधिक स्थिरीकृत रूप पर सबको ध्यान देना आवश्यक है | इस छोटे-से ब्लॉग-पोस्ट में इस विषय पर कुछ विचार रखे गए हैं, एक उपयोगी विषय पर ध्यान आकृष्ट करने के लिए ही, किसी तरह का विवाद उत्पन्न करने के लिए नहीं |    

यदि आम तौर पर नित्यप्रति के लिखित भाषा-प्रयोग में ऊपर दिये गए कुछ नियमों का भी ध्यान रखा जा सके तो भाषा-शुद्धता और एकरूपता की दिशा में एक स्वस्थ प्रयास होगा | मेरा अपना सुझाव है कि ‘हलंत, ‘विसर्ग (:)’ और अनुस्वार (देखें नियम ६) के प्रयोग में भी  ‘हलंत को अब छोड़ा जाना चाहिए, और ‘विसर्ग का प्रयोग भी अब अपवाद-रूप में ही किया जाना चाहिए: ‘दुख’ को अब ‘दुःख लिखना छोड़ देना चाहिए |

इस लेख में भाषा-प्रयोग के सन्दर्भ में हिंदी के दो अन्तरंग समानधर्मिता वाले साहित्यकारों का स्मरण किया गया है | स्वयं शिवजी ने प्रेमचंद की भाषा के विषय में – जिसको उर्दू से बड़े स्नेह से शिवजी ने अपने संशोधन-श्रम से हिंदी की ओर मोड़ा था – जो लिखा है वह आज भी स्मरणीय है : 

“प्रेमचंदजी की लेखनी ने हिंदी को एक लोकप्रिय शैली दी और जनता के जीवन का कोना-कोना छान डाला | राष्ट्र के ह्रदय की धड़कन वे अनुभव करते थे | युग की वाणी को उन्होंने स्वर दिया | उनकी रचनाओं ने हिंदी और उर्दू की अभिन्नता सिद्ध की |”

इन दो-तीन वाक्यों में ही शिवजी ने प्रेमचंद के योगदान का जैसा अनुशीलन किया है, प्रेमचंद की आलोचना के बड़े-बड़े ग्रंथों में भी वैसा नहीं दिखाई पड़ता | और ‘रंगभूमि की प्रकाशित पहली भेंट-प्रति शिवजी को भेजते हुए प्रेमचंद ने शिवजी के विषय में जो कहा है उसका स्मरण भी यहाँ उद्धरणीय है | इसीलिए उस पूरे पत्र की चित्र-प्रतिकृति ही यहाँ देखी जा सकती है |  

    

 आलेख एवं चित्र (C) डा. मंगलमूर्त्ति