१. श्रीवीरेन्द्र नारायण : जन्म-शती
प्रसंग
[१६.११.१९२३ – १६.११.२०२३]
श्रीवीरेन्द्र नारायण की
जन्म-शती पर मंगलमूर्ति का वक्तव्य
हमारी आज की साहित्यिक
संस्कृति में परंपरा-विस्मृति एक सामान्य असावधानता बन चुकी है | अपनी समृद्ध
साहित्यिक परंपरा को विस्मृत कर देना ही जैसे हमारा असाहित्यिक स्वभाव बन गया है |
पिछली सदी पूर्वार्द्ध के साहित्यकारों को पढना तो आज के लेखकों-रचनाकारों ने लगभग
छोड़ ही दिया है, वरन, उसके बाद के कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों को तो आज के रचनाशील
लेखक शायद जानते भी नहीं, उनको पढ़ना तो दूर की बात है |
आज एक ऐसे ही विलक्षण
प्रतिभाशाली रचनाकार, नाटककार, रंगकर्मी श्रीवीरेन्द्र नारायण की जन्मशती का अवसर
आया है, जिसका पूरा जीवन नाट्य-लेखन, उच्च-स्तरीय रंगकर्म और साहित्यिक-राजनीतिक
पत्रकारिता को समर्पित रहा | वीरेंद्रजी अपने नाट्य-कर्म में शेक्सपियर और बर्नार्ड
शॉ के अनुरक्त-भक्त, और गंभीर अध्येता रहे | यह अनुरक्ति-भक्ति विशेष रेखांकित इस
अद्भुत संयोग से हो जाती है कि शेक्सपियर की तरह ही उनकी जन्म और मृत्यु की
तिथियां एक ही रहीं |
आज १६ नवम्बर है जिस दिन
१९२३ में उनका जन्म पूर्वी बिहार में १०० साल पहले के पुराने शहर भागलपुर के एक
मध्यवित्त परिवार में हुआ था, जो बंगाल के अमर उपन्यासकार शरच्चंद्र की ननिहाल और
प्रसिद्ध बंगला लेखक ‘बनफूल’ का भी शहर था
| और जहाँ मैं वीरेंद्रजी के ही साथ गंगा-किनारे के उस सघन कुञ्ज में भी जा चुका
था, जहां छुप कर शरच्चंद्र अपना लेखन-कर्म किया करते थे | मेरे द्वारा संपादित
‘वीरेन्द्र नारायण ग्रंथावली’ के ५ खण्डों
की भूमिकाओं में मैंने वीरेन्द्र जी के लेखन-कर्म पर विशेष प्रकाश डाला है |
लेकिन आज मेरा मन बहुत सारी
अँधेरी स्मृतियों से घिर जाता है जब मैं याद करता हूँ कि आज के इसी दिन १६ नवम्बर,
२००३ में वीरेन्द्र जी का निधन दिल्ली के एक अस्पताल में हुआ था | इसलिए आज इस
अवसर पर मुझको नाटक के प्रतीक वे सुखी-दुखी दो मुखौटे याद आ रहे हैं, और नाटक का
वह विहँसता मुखौटा मेरी आँखों में बस गए उस मुस्कुराते चहरे की याद दिला रहा है जो
१६ नवम्बर की उस रात कैलाश कुञ्ज वाले उस चौथी मंजिल वाले फ्लैट में अचानक आये
हार्ट अटैक के बाद सुखदा अस्पताल लेकर पहुँचने पर स्ट्रेचर पर लेटे हुए वीरेन्द्र
जी के मुखड़े पर सहसा मैंने देखा था | मैं स्वयं उस दिन गंभीर विषम परिस्थितियों
में मुब्तला था, क्योंकि मेरी पत्नी उसी समय दिल्ली में ही
अपोलो अस्पताल में ज़िन्दगी-मौत से जूझ रही थी | वीरेन्द्रजी मेरे बड़े बहनोई थे और
उन्होंने सदा मुझे पिता-तुल्य स्नेह में बाँधे रखा था | मृत्यु से कुछ घंटे पहले
की उनकी वह मुस्कान जैसे उनके पूरे जीवन का एक नाटकीय बिम्ब बन कर मेरे स्मृति में
मुद्रित हो गयी है | आज के इस शती-प्रसंग में मैं फिर मृत्यु के द्वार पर वीरेंद्र
जी की उस अविस्मरणीय मुस्कान को याद करता हूँ और उनकी शती-स्मृति को बार-बार नमन
करता हूँ |
वीरेंद्र जी को मैंने
पहले-पहल अपनी बड़ी बहन सरोजिनी के साथ उनके विवाह के अवसर पर १९४८ में देखा था, और
फिर तो जैसे मैं उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके साथ एकाकार ही होकर रहा | उनको
मैंने हर रूप में देखा – मेरे पिता के एक अत्यंत अन्तरंग जामाता की तरह, जेपी, बेनीपुरी और पटना के उस पूरे समाजवादी दल के एक
अनुशासित कार्यकर्त्ता की तरह, ‘जनता’ और ‘नई धारा’ में
बेनीपुरीजी के सहायक सम्पादक और जामाता-तुल्य की तरह, परिवार में एक धैर्य्यवान
अभिभावक की तरह, निदेशक, केन्द्रीय संगीत नाटक
अकादमी के एक अत्यंत कुशल प्रशासक की तरह, बेनीपुरीजी-लिखित ‘अम्बपाली’ के अरुणध्वज के रूप में एक श्रेष्ठ अभिनेता की तरह, अपने
अकादमी के ध्वनि-प्रकाश मंचों पर अमरकीर्ति महाकवि ‘विद्यापति’ के रूप में, संगीत के एक
सुधी ज्ञाता और प्रवीण सितार-वादक की तरह, और न जाने
कितने प्रभावशाली-विस्मयकारी रूपों में मैनें उनको अपने जीवन के अगले तीसेक वर्षों
में देखा था | मेरे अपने व्यक्तित्त्व के निर्माण में भी जिन दो व्यक्तियों का
अमिट प्रभाव रहा है वे थे मेरे पिता और पिता-तुल्य मेरे बहनोई श्री वीरेन्द्र
नारायण |
उनके निधन के ७ वर्षों बाद
२०१० में मैंने उनकी ‘वीरेन्द्र नारायण ग्रंथावली’ ५ खण्डों में
सम्पादित की जो आज उनकी पुण्य-स्मृति को साकार कर रही है | उसमें उनका सम्पूर्ण
साहित्य संकलित है, यद्यपि आज के साहित्यालोचन-जगत में उसका कोई समुचित मूल्यांकन
अभी तक नहीं हुआ है, जो निश्चय ही एक गंभीर प्रश्न है | मेरे उस परिवार के प्रायः
सभी लोग आज यहाँ उपस्थित हैं, यद्यपि अपने वार्धक्य और रोग-दुर्बलता के कारण बहुत
चाहकर भी मैं इस समारोह में उपस्थित नहीं हो सका हूँ |
मुझे ज्ञात हुआ है कि आज के
समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में हिंदी के मूर्धन्य कवि एवं समालोचक श्रीअशोक
वाजपेयीजी यहाँ उपस्थित हैं | मैं उनसे विनम्र अनुरोध करूंगा कि हिंदी की
साहित्यिक परंपरा के वे एक सर्वमान्य पुरोधा हैं, और मुझे आशा है वे इस शती-प्रसंग
में इस ग्रंथावली पर अपनी मूल्यवान सम्मति भी यथाशीघ्र अवश्य प्रकाशित करेंगे,
जिससे यह साहित्यिक शती-प्रसंग विशेष सार्थक हो सकेगा |
बहुत विस्तार में कुछ कहने
या लिखने का आज समय नहीं रहा, पर अंत में मैं आज इस समारोह को अपनी उपस्थिति से
आलोकित करने वाले सभी वरिष्ठ साहित्य-प्रेमियों के प्रति परिवार की ओर से और स्वयं
अपनी ओर विनम्र कृतज्ञता निवेदित करता हूँ | धन्यवाद |
यह समरोह १६ नवम्बर, २०२३ श्री वीरेन्द्र नारायण के जन्मशती-दिवस पर इंडिया
इंटरनेशनल सेण्टर, दिल्ली में संपन्न हुआ था जिसमें मेरा यह वक्तव्य उनकी बड़ी
पुत्रवधू वीणा नारायण ने पढ़ा था. उस अवसर पर दिल्ली में रहने वाले उनके परिवार के
सभी लोग उपस्थित थे. संयोगवश उसमें श्री अशोक वाजपेई जी उपस्थित नहीं हो सके थे.
२. वीरेंद्र नारायण की कहानी
मैं
कह सकता हूँ कि श्री वीरेंद्र नारायण को मैंने अपनी हथेली की रेखाओं की तरह देखा
है, और पांच दशकों से भी अधिक का मेरा पारिवारिक समय उनके साथ बीता है. मैं बचपन से ही उनसे जुड़ गया
था. वे मेरी बड़ी बहन सरोजिनी के पति थे और मेरे पिता ने मेरी पढ़ाई और देखभाल के
लिए मुझे पटना में उन्हीं के साथ रख दिया था. यह १९५० की कहानी है. तबसे लेकर लगभग
उस अंतिम क्षण तक मैं उनके साथ रहा जब दिल्ली के एक प्राइवेट अस्पताल में १६
नवम्बर २००३ को उन्होंने अंतिम सांस ली. मुझको उनकी वह विषाद में मिली मुस्कराहट
याद है – वह जैसे पत्थर की एक लकीर बन गयी है मेरी स्मृति में – जब उस मनहूस रात
को उनको लेकर मैं अस्पताल पहुंचा था और उनको स्ट्रेचर पर लिटा कर उनको इमरजेंसी
रूम में ले जाया जा रहा था. उस समय की उनकी वह उदास मुस्कराहट मैं कभी भूल नहीं
सका हूँ. उस अस्पताल में कुछ घंटे बाद उसी कमरे में जहां उनको बचाने की हरचंद
कोशिश हो रही थी केवल मेरी और दो-तीन
डॉक्टरों की उपस्थिति में उन्होंने अंतिम सांस ली. वह दृश्य आज भी मेरी स्मृति में पत्थर की एक लकीर बन चुका है.
वे
पचास के दशक में जब पटना में थे तो पहले समाजवादी पार्टी के मुखपत्र ‘जनता’ के सहकारी सम्पादक थे. श्री रामवृक्ष बेनीपुरी उसके सम्पादक थे. बाद में वे
उन्ही के साथ कुछ दिन ‘नई धारा’ के सहायक संपादक थे, जिसके बाद वे
नाट्य-कला का प्रशिक्षण प्राप्त करने लंदन चले गए थे और वहां से लौटने पर भारत
सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के संगीत नाटक प्रभाग में नियुक्त हुए और वहीँ से
निदेशक पद से सेवा-निवृत्त होकर अंतिम वर्षों में वहीँ दिल्ली में ही रहने लगे थे
जहाँ २००३ में उनका निधन हुआ जैसा मैंने बताया. दिल्ली मेरा बराबर जाना होता था और
मैं वहां अपनी बहन के यहाँ ही रहता था.
वीरेंद्र
नारायण एक अत्यंत प्रतिभाशाली नाटककार थे और वे बहुआयामी प्रतिभा के एक विलक्षण
कलाकार थे जिनकी नाट्य-लेखन, अभिनय, निर्देशन,
शास्त्रीय संगीत के सितार-वादन से लेकर कूंची के रंगों में, और बागवानी से लेकर
बोनसाई में वैसी ही गहरी पैठ थी.
स्वाधीनता
आन्दोलन में १९४२ में वे तीन साल फणीश्वरनाथ रेणु और और बंगला के प्रसिद्ध कथाकार सतीनाथ
भादुड़ी के साथ भागलपुर जेल में रहे थे, और फिर समाजवादी आन्दोलन में वे जेपी और बनीपुरीजी
के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गए थे.
जब
उनकी बात होती है तो उनका जीवन मेरे सामने जैसे एक किताब की तरह पन्ने-पन्ने खुलता
जाता है. समाजवादी आन्दोलन के सभी नेताओं में - जेपी और नरेन्द्रदेव से लेकर पटने
में बेनीपुरी, बसावन सिंह और श्यामनंदन बाबा तक – सब के वे सबसे चहेते युवकों में रहे. और कुछ तो इसलिए
भी कि वे शिवपूजन सहाय के जामाता थे और वहां हिंदी के साहित्यकारों के बीच उनकी
अपनी एक ख़ास पहचान थी. मुझे याद है जब शायद १९५५ में दिल्ली में राष्ट्रीय
नाट्य-समारोह हुआ था तो हमसब लोग बेनीपुरीजी के साथ एक नाटक-दल में उनके प्रसिद्द
नाटक ‘अम्बपाली’ के प्रदर्शन में दिल्ली गए थे. उस
नाटक में बीरेन जी ने ‘अरुणध्वज’ की भूमिका निभाई थी. वह प्रदर्शन
सप्रू हॉउस में हुआ था जिसमें नेहरूजी और राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद भी
उपस्थित थे.
यह
एक ऐसी लम्बी और रोचक कहानी है जिसको कुछ मिनटों की बातचीत में समेटना संभव नहीं
है. मेरा अपना समय भी अब छीज रहा है, नहीं तो उनको चरित-नायक बनाकर उनकी एक अत्यंत
रोचक औपन्यासिक जीवनी भी मैं अवश्य लिखता.
उनके
चले जाने के बाद उनके पलंग के भीतर उनका लिखा साहित्य-भण्डार भी शायद पड़ा ही रह
जाता यदि मेरी बहन और भांजों ने मुझसे उनकी ग्रंथावली सम्पादित-प्रकाशित करने की
गुहार न की होती. पांच खंडो में बंटी वह सुन्दर ग्रंथावली – रॉयल साइज़ में, अनेक
चित्रों, उनके नाटकों, नाट्य-समालोचनाओं, उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों, पत्रों से पूरी सजी हुई है – सच कहूं तो उसे मैं अपने जीवन का
सबसे सार्थक कार्य मानता हूँ. मैंने अपने पिता के साहित्य का भी १० खंडो में
‘समग्र’ सम्पादित-प्रकाशित किया है, पर वे तो प्रसाद,
निराला और प्रेमचंद के साथ ही हिंदी
साहित्य में शिखर-पुरुष के रूप में याद किये जाते हैं. उसके बरक्स, वीरेंद्र
नारायण के साहित्यिक अवदान की तो शुरू से अनदेखी ही रही, लेकिन उनकी ग्रंथावली के
ये पांच खंड उस अनदेखी को एक झटके से नकार देते हैं. वीरन्द्र नारायण आधुनिक हिंदी
के एक बड़े नाटककार हैं, एक बड़े लेखक और सफल पत्रकार हैं, उस ग्रंथावली को देखने से
यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है.
बीरेनजी
– या मैं उनको भाई साहब ही कहता था, जैसा हमारे बिहार में अभिजात परिवारों में कहा
जाता है – उनके जन्म और उनकी मृत्यु - दोनों की तिथियाँ १६ नवम्बर हैं. ऐसा विरल
संयोग कम ही होता है. उनकी भी जन्म और मृत्यु की एक ही तिथि रही, जिसे वे बराबर
शेक्सपियर के प्रसंग में मुझको याद दिलाते थे, जिसके साथ भी ऐसा ही हुआ था. लम्बी
बैठकों में वे मुझसे बराबर साहित्य-चर्चा किया करते थे, ख़ास तौर पर नाटकों पर, और
उसमें भी शेक्सपियर के नाटकों पर, जैसे ‘किंग लियर’
पर. मशहूर फ्रेंच नाटककार मोलिये के विषय में भी वे बराबर कहते थे कि अपने लिखे
अंतिम नाटक में अभिनय करते हुए मंच पर ही गिर कर मोलिये की मृत्यु हुई थी. बिरेनजी
की मृत्यु भी कुछ वैसी ही हुई जैसे वह किसी नाटक का अंतिम दृश्य ही हो जिसके बाद
पर्दा गिरता है. सचमुच बीरेनजी का जीवन एक
सम्पूर्ण सफल कामदी-त्रासदी वाला नाटक ही था जिसके सारे संघर्ष और विषाद, हर्ष
और उल्लास का मैं शुरू से साक्षी रहा. उनका सारा जीवन ही जैसे नाटक का एक प्रतिमान
था.
नाटक
के क्षेत्र में बीरेन जी का सबसे शक्तिशाली और अभिनव प्रयोग था ‘लाईट एंड साउंड
ड्रामा’. रामचरित मानस, विद्यापति, तमिल के प्रसिद्ध
महाकवि सुब्रमन्य भारती आदि पर उनके ‘लाईट एंड साउंड’ नाटकों ने पूरे देश में
अभूतपूर्व लोकप्रियता पाई थी – महीनों तक देश के
विभिन्न महानगरों में ये सारे ‘लाईट एंड साउंड’ हज़ारों-लाखों की भीड़ में
देखे गए. ‘शाहजहाँ’ पर उनका ‘लाईट एंड साउंड’ नाटक
मैंने आगरा के किले में देखा था. यह कुछ बर्तोल्त ब्रेख्त के चमत्कारी नाट्य-प्रदर्शनों जैसा
ही लोकप्रिय नाट्य-कर्म था. लेकिन सरकारी सेवा में होने के कारण और
साहित्य-क्षेत्र के परम्परागत ईर्ष्या-द्वेष भाव के कारण उनके नाट्य-लेखन और
नाट्य-कर्म की अनदेखी ही अधिक हुई.
बीरेनजी
के साथ मेरा संबंध ऐसा था जिसमें एक तरह से मेरा पूरा जीवन ही रेल की पटरियों की
तरह बराबर साथ-साथ चलता रहा. यदि मैं कहूं तो जिसका मेरे जीवन के निर्माण में ही
मेरे पिता की तरह इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हो, और जिसके विषय में उनकी
ग्रंथावली के पांच खण्डों की अपनी भूमिकाओं में भी मैं अपनी बात पूरी नहीं कह सका,
उसके विषय में अपनी यह हार्दिक श्रद्धांजलि मैं कुछ मिनटों की इस बातचीत में कैसे
कह पाऊंगा - यह मेरी समझ में नहीं आता. अपने जीवन के इस अनिश्चित अंतिम चरण में
उनके इस शताब्दी वर्ष में मैं कुछ और विस्तार से कुछ और लिख सका तो संभव है उनके
स्नेह और सौहार्द से किसी हद तक मैं शायद कुछ उऋण हो सकूँगा. आज तो इन्हीं कुछ
थोड़े से शब्दों में मैं अपने श्रद्धा-सुमन उनकी स्मृति को अर्पित करता हूँ.
श्री वीरेंद्र नारायण के जन्मशती वर्ष के
उपलक्ष्य में आकाशवाणी दिल्ली द्वारा यह कार्यक्रम १ सितम्बर, २०२४ को रात
९.३० बजे प्रसारित हुआ था जिसमें मेरे इस पूर्व-रिकार्डेड वक्तव्य के कुछ विशेष
अंश सम्मिलित किये गया थे. यह प्रसारण यूट्यूब के इस लिंक पर देखा और सुना जा सकता
है –
सभी चित्र पिछले ५० के दशक के मेरे खींचे हुए हैं (C) डा. मंगलमूर्ति
वीरेंद्र नारायण ग्रंथावली
(५ खंड, सजिल्द, मूल्य -८०००/-) विशेष रियायती छूट पर मंगाने के
लिए संपर्क करें –
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