श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी जयंती : १२०
‘कुछ मैं कुछ वे’
मंगलमूर्त्ति
पिछले पचास के दशक में ‘नई धारा’ में साहित्यिक संस्मरणों की कई मूल्यवान श्रृंखलाएं प्रकाशित हुई थीं । इनमें ‘नई धारा’ के आदि-संपादक श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की कई संस्मरण-श्रृंखलाएं भी थीं | ‘मुझे याद है’,
‘डायरी के पन्ने’, ‘पत्रकार जीवन के पैंतीस वर्ष’ और
‘राजनीति के तूफान में’- इन शीर्षकों के अंतर्गत बेनीपुरीजी ने अपने अतीत और वर्त्तमान के अविस्मरणीय संस्मरण हिंदी संसार के सामने प्रस्तुत किए थे । इन संस्मरणों में पिछली सदी के पहले दशक से लेकर पचास के दशक तक के - लगभग सदी-पूर्वाद्ध के
- एक अत्यंत घटना-सघन, निरंतर गतिशील युग के चित्र अंकित हुए थे,
जब हिंदी भाषा अपनी शैली संवार रही थी, हिंदी साहित्य अपना सृजन-भंडार मूल्यवान कृतियों से भर रहा था,
और जब चारों ओर राजनीति तथा समाज में क्रांति एवं परिवर्त्तन की ज्वाला धधक रही थी । पूरे देश में शहरों से लेकर दूर-दूर गांवों तक ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे गूंज रहे थे, हजारों नौजवान अपनी कुर्बानियां दे रहे थे,
लाखों लोग जेलों में अमानवीय कष्ट झेल रहे थे । और फिर ‘अंगरेजों भारत छोड़ों’ की ललकार, सांप्रदायिक दंगों का प्रचंड तांडव, अंगरेजी साम्राज्यवाद का जल्दी-जल्दी अपना बोरिया-बिस्तर समेटना और तब आजादी का वह स्वर्ण विहान ! यह देश के इतिहास का एक ऐसा दौर था जिस तरह के एक और ऐसे ही दौर - फ्रांस की क्रांति - के बारे में एक अंगरेज कवि ने ही कहा था कि ऐसे स्वर्ण-विहान में जीवित होना ही स्वर्ग-सुख भोगने जैसा अनुभव था !
आज जब आधी सदी और बीत गई और नई सदी में देश सोलहो सिंगार के बाद भी अपनी कुरूपता नहीं छिपा पा रहा है; जब राजनीति की तुलना वेश्याओं से करना वेश्याओं को भी अपमानित करने जैसा लगने लगा है;
जब राष्ट्रीय संस्कृति को धकियाकर पश्चिमी उपभोक्तावादी अर्द्धनग्न अपसंस्कृति ने अपना घिनौना जलवा फैला लिया है, बाजारवाद का नंगा नाच गली-गली, आंगन-आंगन, होने लगा है,
भ्रष्टाचार अपनी सारी सीमाएं तोड़ चुका है, और नैतिकता का तो शब्दकोष से ही लोप हो चुका है - ऐसे समय में एक बार फिर एक अंगरेज उपन्यासकार की ही पंक्ति याद आती है, जब फ्रांस की क्रांति के संदर्भ में ही वह कहता है - वह समय सबसे अच्छा भी था, और सबसे बुरा समय भी वही था । और अब आज के ऐसे गंदले अटपटे समय में उस स्वर्णिम-काल की याद - जब पूरा देश इतिहास की अग्निपरीक्षा में खरे सोने की तरह तप रहा था - उस युग की स्मृतियों को एक बार दुहराना, एक सिहरन-भरा अनुभव है ।
हालांकि आज की एक बड़ी पहचान यह भी है कि पुरानी जीन्स के अलावा पुरानी हर चीज ख़ारिज की जाए । समय की रफ्तार इतनी तेज़ रहे कि अतीत का वजूद ही मिट जाए । ऐसे समय में एक किताब की याद, जो कुछ ही दिन पहले छपकर पुस्तकाकार पहली बार सामने आई है, एक ऐसे लेखक का स्मरण करना है, जो अपने समय में मध्यान्ह के सूर्य की तरह भासमान था । यही वो दिन थे जब ‘हिमालय’ और ‘नई धारा’ की तरह की मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन से बिहार हिंदी के माथे की बिंदी की तरह चमक रहा था । और हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को सिंगारने का काम अपने दोनों हाथों – सृजन और संपादन - से कर रहे थे श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी । मेरी जानकारी में वे संभवतः अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो अपने हस्ताक्षर में अपने नाम के साथ ‘श्री’ जोड़कर लिखते थे,
और सचमुच ऐसा लगता है कि उस नाम के आगे ‘श्री’ और पीछे ‘बेनीपुरी’ का होना सर्वथा सार्थक था । ‘बेनीपुरी’ नाम जैसे उसके समाजवादी यथार्थ-दर्शन का पर्याय था, तो ‘श्री’ उसके साहित्य-स्वरूप का सौंदर्य-चिन्ह ही था । ‘श्री’ का यह सौंदय-प्रतीक किसी नाम के साथ आजतक उस तरह सटीक और कहीं जुड़ा नहीं दीखा ।
जब
यह पुस्तक पूर्व-प्रकाशित संस्मरणों के संकलन के रूप में समय की कसौटी पर खरे सोने की तरह कसी हुई लगभग आधी सदी बाद पहली बार पुस्तकाकार प्रकाशित होकर सामने आई है, तब उसकी नए सिरे से चर्चा का अपना महत्त्व है | वह तो पहले ही अलग-अलग प्रकाशित संस्मरणों के रूप में एक क्लासिक का दर्ज़ा हासिल कर चुकी थी । बस इतना कहा जा सकता है कि एक श्रृंखला के रूप में लिखित और प्रकाशित इन संस्मरणों को जब पहली बार अलग पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है तब इनको पढ़ने पर आज के पाठक को जो तृप्ति मिलती है, वह उस जमाने के पाठकों को भी शायद सुलभ नहीं हुई होगी । उनमें निरंतर एक अतृप्ति का भाव बना रहता होगा । यों एक दूसरे प्रकार की अतृप्ति का भाव आज के पाठक के मन में भी जरूर उभर सकता है, क्योंकि इन संस्मरणों की पूरी पृष्ठभूमि को और विस्तार से जानने-समझने की अपरिहार्य असमर्थता उसकी जिज्ञासा को अतृप्त छोड़ ही देगी । अतृप्ति का यही अनिवार्य भाव रचनाकार और पाठक दोनों के लिए प्यास बुझाने और जगाने का काम एक साथ करता है । बेनीपुरीजी के लेखन की यह एक सबसे बड़ी विषेशता है पाठक में अतृप्ति के इस भाव को एक साथ जागृत और शमित करना ।
इस लेख के शीर्षक में ‘वे’
कभी बेनीपुरीजी के समकालीनों अथवा समानधर्माओं को अभिहित करता होगा । लेकिन आज वह बहुवचन मेरे लिए एकवचन में बेनीपुरीजी स्वयं हैं । इस अर्थ में ‘कुछ मैं कुछ वे’
से मेरा अभिप्राय स्वंय मेरे और बेनीपुरीजी के बीच के संबंध से है, जो तब से बना जब मैं सात-आठ साल की उम्र में अपने पिता के साथ पहली बार 1946 में पटना आया, जब मेरे पिता राजेंद्र कॉलेज, छपरा, से एक साल का विशेष अवकाश लेकर हाल में जेल से रिहा होकर आए श्रीबेनीपुरी के साथ ‘हिमालय’ का संपादन करने पटना आए थे । ‘हिमालय’ का प्रकाशन अज्ञेयजी के द्वैमासिक ‘प्रतीक’ से भी लगभग साल-भर पहले शुरू हुआ था । और संभवतः साहित्य का वैसा कोई मासिक पत्र हिंदी ही नहीं किसी अन्य भारतीय भाषा में भी तब तक नहीं निकला था । एक मासिक पुस्तक के आकार में बेनीपुरीजी द्वारा जेल में ही कल्पित श्रेष्ठ समकालीन साहित्य का ‘हिमालय’ जैसा अनूठा कोई संकलन हिंदी में तो बिलकुल पहली बार प्रकाशित हुआ था । और यह भी संभाव्य है कि बाद में प्रकाशित
अज्ञेय-संपादित ‘प्रतीक’ अपने आकार-प्रकार में ‘हिमालय’ से ही प्रभावित हुआ हो |
‘हिमालय’ हिंदी मासिक साहित्य में एक सर्वथा अनोखा प्रयोग था । सौ पृष्ठ, बढ़िया चिकना कागज, सुंदर छपाई, पक्की जिल्द, एक-एक अंक एक स्वतंत्र पुस्तक-सा संग्रहणीय । फिर भीतर जो सामग्री प्रस्तुत होती थी, वह भी साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान । हिंदी संसार ने ‘हिमालय’ को दिल खोलकर अपनाया । पहला अंक तीन हजार छपा था; तुरत ही उसका दूसरा संस्करण करना पड़ा । वास्तव में, हिंदी के मासिक साहित्य के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना थी ।
‘हिमालय’ में रचनाकार का नाम बड़े टाइप में और उसके नीचे रचना-शीर्षक छोटे टाइप में छपता था । सभी अंक उस युग के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं से समृद्ध रहे । पहले ही अंक से डॉ. राजेंद्रप्रसाद की हाल में जेल में लिखी गई ‘आत्मकथा’ अपने मूल रूप में छपने लगी । बाद में शिवपूजन सहाय के संपादन के पश्चात 1947 में वह ‘आत्मकथा’ पुस्तकाकार प्रकाशित हुई । ‘हिमालय’ के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण लेखकों के नाम थे - जयप्रकाश नारायण, जिनकी दो छोटी कहानियां बस ‘हिमालय’ में ही तब प्रकाशित हुई थीं; आचार्य नरेंद्रदेव, हरिवंश राय ‘बच्चन’, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. देवराज, ब्रजरत्न दास, और राय कृष्णदास - ‘प्रसाद’ पर जिनके संस्मरणों की श्रृंखला ‘हिमालय’ के पृष्ठों में ही प्रकाशित अपूर्ण रह गई । और जेल में हाल में लिखी बेनीपुरी की सभी नई श्रेष्ठ
रचनाएं प्रत्येक अंक में - जिनमें दो बाद में ‘माटी की मूरतें’ और
‘अंबपाली’ के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं । साथ ही समकालीन अन्य सभी साहित्यिकों - दिनकर, ‘प्रभात’, जानकी वल्लभ शास्त्री, नलिनविलोचन शर्मा, हंसकुमार तिवारी, जगदीशचंद्र माथुर, प्रभृति - की नई-नई रचनाएं
लगातार अंकों में प्रकाशित होती रहीं ।
‘हिमालय’ पटना में गोविंद मित्रा रोड-स्थित ‘पुस्तक-भंडार’ से निकलता था । पास ही मछुआटोली में एक बड़ा-सा मकान किराये पर लिया गया था जिसमें शिवजी और बेनीपुरीजी साथ रहने लगे थे । कॉलेज से साल-भर की छुट्टी लेकर शिवजी के पटना आ जाने पर उनका परिवार उनके गांव पर रहने लगा था,
लेकिन मातृहीन होने के कारण मैं बराबर छाया की तरह पिता के साथ ही रहता था । बेनीपुरीजी का मझला लड़का जित्तिन- जितेंद्र - भी पटना में उनके साथ ही रहने लगा था । बेनीपुरीजी ने खुद साथ ले जाकर हम दोनों का नाम पटना के सेंट जोसेफ स्कूल में लिखवा दिया और हम दोनों वहीं पढ़ने लगे । लेकिन जल्दी ही इस व्यवस्था का अंत हो गया । संपादकीय नीतियों और रचनाकारों को दिए जाने वाले पुरस्कारों में टालमटोल को लेकर पहले बेनीपुरीजी और उसके कुछ ही बाद शिवजी ‘हिमालय’ से अलग हो गए । पत्रिका भी उसके बाद साल-भर किसी तरह टुकदुम चलकर बंद हो गई । इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण पत्र ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ के दसवें खंड में प्रकाशित हुए हैं |
शिवजी
तब छपरा लौट गए और मैं भी अब वहीं राजेन्द्र कॉलेजिएट स्कूल में दाखिल हुआ । जित्तिन सैनिक एकेडमी, देहरादून में पढ़ने चले गए । बेनीपुरीजी भी कुछ दिनों के लिए फिर समाजवादी पार्टी की राजनीति में मसरूफ हो गए । इस पुस्तक के पहले भाग में- ‘राजनीति के तूफान में’ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने अपने 1920 से 1940 तक के राजनीतिक जीवन के संस्मरण ही लिखे हैं । लेकिन आजादी के बाद जब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का सीधा टकराव शुरू हुआ तब वे पटना से निकलने वाले अखबार ‘जनता’ का संपादन करने लगे थे । उन दिनों उनका निवास महेन्द्रू मुहल्ले में, लोअर रोड पर - जो बाद में अब्दुल बारी पथ कहलाने लगा – ‘शीतल भवन’ नामक एक मकान में था । अब बेनीपुरीजी का परिवार वहीं उनके साथ रहता था । बड़े लड़के देवेंद्र की शादी हो चुकी थी, और तब तक शायद दो पोते भी आ चुके थे । लेकिन रानी - उन की पत्नी, जिन्हें हम सब लोग ‘दीदी’ कहते थे - ज्यादातर बेनीपुर में ही रहती थीं । वहां उन दिनों बेनीपुरीजी अपने खेतों के बीच अपना एक बड़ा-सा हवेलीनुमा मकान बनवा रहे थे । खेती-बारी के कारण ही दीदी वहीं ज्यादा रहना पसंद करती थीं, और पटना बेनीपुर के बीच की डोर बंधी रहती थी ।
इसी बीच एक और डोर बंध गई । बेनीपुरीजी के साथ ही ‘जनता’ में सहायक संपादक के रूप में तब
22-23 वर्ष
के एक युवक श्रीवीरेंद्र नारायण काम कर रहे थे । वे भागलपुर के निवासी थे और समाजवादी पार्टी से भी जुड़े थे । 1942 वाले आंदोलन में वे तीन साल भागलपुर जेल में भी सजा काट चुके थे,
जहां रेणुजी और ‘ढोढ़ाई चरित मानस’ के लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी उनके साथ बंदी थे । वीरेंद्रजी ने जेल में रहते हुए ही अपनी बीएस.सी.
की परीक्षा पास की थी । बेनीपुरीजी और जयप्रकाशजी, गंगा बाबू, अवधेश्वर बाबू, श्यामनंदन सिंह ‘बाबा’- समाजवादी पार्टी की पूरी जमात के वीरेन्द्रजी चहेते थे । उन दिनों वे बहुत मुफलिसी में पटना के लंगरटोली मुहल्ले में बिहारी साव लेन के एक सस्ते होटल में रहा करते थे । उन्हीं दिनों शिवजी के बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् , पटना के मंत्रिपद पर आने की चर्चा चल रही थी । स्वयं बेनीपुरीजी, दिनकरजी आदि चाहते थे कि शिवजी छपरा से पटना के साहित्यिक केंद्र में आ जाएं । इसकी एक लंबी डोर इस तरह बंधी कि बेनीपुरीजी और महारथीजी के प्रयास से वीरेंद्रजी का विवाह शिवजी की बड़ी बेटी - मेरी बड़ी बहन सरोजिनी से हो गया । बिहारी साव लेन में ही उसके दक्खिनी सिरे पर एक खपरैल मकान में वीरेंद्रजी सपरिवार रहने लगे, जिसमें अब मैं भी शामिल था । इसके कुछ ही दिन बाद मेरे पिता बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् में आ गए । मेरा नाम भी पास के ही पटना कॉलेजिएट स्कूल में लिखवा दिया गया । यह मेरा विशेष सौभाग्य था कि दसवीं के मेरे क्लास-टीचर थे हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीरामगोपाल शर्मा ‘रुद्र’ जिनका स्नेह मुझे तबसे ही मिलने लगा – स्वाभाविक रूप से मेरे पिता के यश के कारण ही ।
बेनीपुरीजी को तो ‘हिमालय’ के दिनों से ही मैं ‘चाचाजी’ कहने लगा था । और अब सरोजिनी उनकी अपनी बेटी और वीरेंद्रजी उनके अपने जामाता बन गए | मेरे पिता को तो बेनीपुरीजी कलकत्ता-प्रवास के दिनों से ही
‘भैया’ कहा करते थे, और अब दोनों के बीच का वह सुदीर्ध साहित्यिक बंधुत्व एक विषेश सौहार्दपूर्ण पारिवारिक भ्रातृत्त्व में बदल गया । मेरी और जित्तिन की दोस्ती से उस पारिवारिक संबंध की डोर में एक नई गांठ बंध गई । जित्तिन अब जब भी अपने सैनिक स्कूल से छट्टियों में आता, अक्सर हमलोग बेनीपुर में अपनी छुट्टियां बिताते । अब मैं बेनीपुरीजी को एक साहित्यिकार से अधिक एक वात्सल्यपूर्ण अभिभावक के रूप में देख ने लगा था ।
[शेषांश पढ़ें अगले पोस्ट में ]
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