श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी जयंती : १२०
‘कुछ मैं कुछ वे’
मंगलमूर्त्ति
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....मेरी यह सारी याददेहानी उस विस्तृत जीवंत साहित्यिक परिवेश की एक झलक-भर है जिसकी पूरी पृष्ठभूमि बेनीपुरीजी की इस नव-प्रकाशित पुस्तक ‘कुछ मैं, कुछ वे’ में पढ़ने को मिलेगी । चाहे गांव हो या शहर, समाज हो या राजनीति, संस्कृति हो या साहित्य, धर्म हो या अध्यात्म, किसी भी जीवन-क्षेत्र में आज जो अटपटे, उटपटांग परिवर्त्तन दिखाई पड़ रहे हैं, उनकों समझने और उनसे निबटने के लिए कल के इतिहास को दुहराना जरूरी है,
और इसी अर्थ में आज बेनीपुरीजी की यह पुस्तक विशेष प्रासंगिक है ।
मेरे
लिए आज एक विशेष शोक-प्रसंग यह है कि इधर पिछले २-३ वर्षों में बेनीपुरीजी के सबसे
छोटे बेटे महेंद्र की असामयिक मृत्यु हो गई | बड़े बेटे देवेन्द्र तो बहुत पहले ही
चले गए थे | एकमात्र पुत्री प्रभा का भी काफी पहले देहांत हो चुका था | जित्तिन का
भी कई वर्षों की बीमारी के बाद पिछले
वर्षों में दिल्ली में निधन हो गया था | लेकिन महेंद्र ने अपने प्रयाण से पूर्व
सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह किया था कि बेनीपुरीजी की लगभग सभी प्रकाशित-अप्रकाशित
पुस्तकों के नए संस्करण एक के बाद एक
प्रकाशित कर डाले थे – ‘बेनीपुरी ग्रंथावली’ के अलावा अलग-अलग पुस्तकों के रूप में भी । उनकी किताबों में से दो-तीन इधर महेंद्र के प्रयास से ही फिर से प्रकाशित हुई : ‘जंजीरें और दीवारें’, ‘मुझे याद है’,
‘डायरी के पन्ने । ‘माटी की मूरतें’, ‘अंबपाली’ आदि के भी नये संस्करण निकले । इन्हीं में शामिल हैं उनकी दो और किताबें - ‘बेनीपुरी चित्रों में’, जिसमें मेरे खींचे हुए बहुत सारे चित्र प्रकाशित हुए हैं, और हजारीबाग जेल में उनके द्वारा किए गए अंगरेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद का एक संग्रह ‘टूलिप्स’ | इन सभी किताबों को आज नये सिरे से पढ़ने की जरूरत है - खास तौर से पहली तीन संस्मरणात्मक किताबें । ‘कुछ मैं, कुछ वे’
में 1922 वाले गया कांग्रेस में परिवर्त्तनवादी और अपरिवर्त्तनवादी दलों की ‘कुश्तमकुश्ती ’ की चर्चा है । हालांकि इस कांगेस में अंततः समझौते के मुताबिक स्वराजपार्टी के कौंसिलों के चुनाव में हिस्सा लेने के निर्णय को मान लिया गया था । बेनीपुरीजी लिखते हैं -
इसके चलते बिहार में हमने बड़े बुरे दृश्य देखे । कौंसिल और बोर्डों में किन्हें भेजा जाए, इसको लेकर कांग्रेस में फूट फैली । जातीयता ने सिर उठाया । बिहार में कायस्थ-भूमिहार विवाद का सर्वनाशी तांडव होने लगा । भूमिहारों के नेता सर गणेशदत्त सिंह थे और उनके प्रमुख प्रचारक स्वामी सहजानंद सरस्वती । स्वामीजी ने असहयोग के पहले भूमिहारों को संगठित करने में बड़ा काम किया था । असहयोग में वह शामिल होकर जेल भी गए थे। वह राष्ट्रीयता को छोड़कर फिर जातीयता पर जाएंगे - ऐसा किसने सोचा था । फिर सर गणेशदत्त ऐसे प्रतिक्रियावादी के नेतृत्त्व में काम करेंगे, इसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती थी । लेकिन बाबू गणेशदत्त सिंह या स्वामीजी के किए कुछ नहीं होता, अगर कांग्रेस के अंदर के नेताओं में इस विवाद ने घर नहीं कर लिया होता । कांग्रेस का नेतृत्व कायस्थों और भूमिहारों की होड़ा-होड़ी में उलझा था । बाकी जाति के लोग दोनों दलों में विभक्त थे । गांव-गांव, थाने-थाने, जिले-जिले में जातीयता के आधार पर पार्टियां बन रही थीं और आपस में जूतम-पैजार चल रही थी ।....
यह एक धरातल की तस्वीर है, यथार्थ के निकट नहीं, बिलकुल सोलह आने यथार्थ ही । अब इसी फ्रेम में आप आज की तस्वीर को फिट कीजिए तब आप समझ जाएंगे, इधर कांग्रेस और कुछ अन्य पार्टियों में चलता रहा है, वह नया नहीं है, बल्कि जो पहले होता रहा है वह अब बद से बदतर हो चुका है । गांधी ने अंगरेजों से कहा था - तुमलोग चले जाओ, हम अपना झगड़ा खुद सुलझा लेंगे । लेकिन ये झगड़े कांग्रेस में ही कितने पुराने हैं, यह बेनीपुरीजी से सुनिए । वे यह भी कहते हैं - प्रांतीय राजनीति की जातिगत दलबंदी के लिए सदाकत आश्रम बदनाम था । बात 1922 के आसपास की है, और यह वही सदाकत आश्रम है - सचाई का आश्रम - जिसे कभी मजहरुल हक़ साहब ने कायम किया था, आजादी की फौज तैयार करने के लिए, और जो शुरू से कांग्रेस का एक अहम मरकज रहा । लेकिन यह किस्सा भी तभी का है जब आजादी की लड़ाई का आगाज़ था और माना जा रहा था कि कांग्रेस देश के दिल की धड़कन बन चुकी है । लेकिन अंगरेज तो जनता की पेट में समाकर यह सब देख रहे थे ।
बेनीपुरीजी
ने हजारीबाग जेल में सबसे ज्याद सजा काटी । वे वहां ‘बी’
और कभी-कभी ‘सी’
क्लास के भी कैदी रहे । जेल-जीवन के उनके कुछ संस्मरण इस किताब में भी मिलते हैं, लेकिन ‘जंजीरें और दीवारें’ में तो आप उस जमाने के कांग्रेसी-गैर-कांग्रेसी ‘स्वतंत्राता-सेनानियों’ की पूरी नौटंकी ही देख सकते हैं । उस किताब में कुछ तस्वीरें तो ऐसी हैं जिन्हें देखकर आप अपनी आंखें मोड़ लेंगे । लेकिन वैसी तस्वीरें दिखाने की नहीं, खुद देखने की हैं । बेनीपुरीजी ने उस किताब में लिखा है कि उस दौरान वे बिहार के दर्जन-भर जेलों में रहे - कहीं कुछ दिन, कहीं कुछ महीने, और कहीं कुछ साल ।
हजारीबाग जेल में वे जयप्रकाशजी के साथ भी रहे, और जयप्रकाश के जेल-पलायन में सक्रिय भी रहे थे | इसका पूरा विवरण ‘जंजीरें और दीवारें’ में भी है और
‘जयप्रकाश
’- उनकी लिखी अन्यतम जीवनी में भी । मैंने 1974 के आंदोलन के समय ‘जयप्रकाश’ का एक विशेष संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाषित कराया था जिसमें उस जेल-साहचर्य की विस्तार से चर्चा हुई है । लेकिन ‘जयप्रकाश’ की वह मूल जीवनी भी इधर दुबारा प्रकाशित हो चुकी है । ‘जंजीरें और दीवारें’ में 1931 में वायसराय विलिंग्डन के आने के बाद जेलो में दी जाने वाली यंत्राणाओं के रोंगटे सिहराने वाले चित्र हैं । हालांकि तिकटी पर बांधकर कोड़े लगाने की सजा तो पहले से ही चालू थी । नेहरूजी ने भी अपनी आत्मकथा में चंद्रशेखर आजाद की - जो तब केवल 16-17 साल के थे - कोडों से पिटने की चर्चा की है ।
विलिंग्डन ने आते ही जैसे मुश्कें कस दी थीं । बेनीपुरीजी फिर हजारीबाग जेल में आ गये थे । जेल सुपरिंटेंडेंट बर्क नाम का एक अंगरेज था - कहीं आदमी इतना कुरूप होता है ? - बेनीपुरी को आश्चर्य हुआ ।
लंगड़ा, झुककर, गुरिल्ले की तरह उचक-उचक कर चलता था । चेहरे पर मानो किसी दूसरे बदमाश बच्चे ने लाल रोशनाई की दवात फेंककर फोड़ डाली हो । छोटी-छोटी गोलमोल आंखें, जिनकी नीली पुतलियों से शैतान झांकता । बाएं हाथ पर गोदने से सांप की तसवीर बनवा रखी थी उसने, यह तसवीर क्या उसकी मानसिक वृत्ति को सूचित नहीं करती ? और शायद गोदने की यही तस्वीर नये वायसराय के पथरीले रुख की भी तस्वीर पेश कर रही थी।
वहीं एक दूसरे अंगरेज जेल आइ. जी. मैकरे का भी एक खून खौलाने वाला चित्र अंकित है । यह
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय का वाकया है । जेल भी भागलपुर का,
जहां वीरेंद्र नारायण भी उन दिनों सजायाफ्ता थे ।
मैकरे अपने जांच-दौरे पर वहां आया था । वहां उसकी मुठभेड़ रामजी प्रसाद वर्मा से हो गई । वर्मा हिंदू विश्व विद्यालय में इंजीनियरिंग के अत्यंत मेधावी छात्र थे । बाद में वे पटना इंजीनियरिंग कालेज के प्रिंस्पल भी हुए थे । आंदोलन में उन दिनों ज्यादातर ऐसे ही तीक्ष्ण प्रतिभा वाले युवक कूद पड़ते थे । किसी बात पर कहा-सुनी के बाद मैकरे ने वर्मा को दस बेंत मारने की सजा दे दी ।
झट रामजी को तिकटी पर चढ़ा दिया गया । तिकटी लकड़ी का वह ढांचा होता है, जिस पर कैदी को औंधे मुंह बांध कर उसकी चूतड़ पर बेंत लगाए जाते हैं । सभी राजबंदियों को कतार में बिठला दिया गया यह दृश्य देखने को । मैकरे भी सदलबल वहां खड़ा हुआ । नंगे चूतड़ पर बेंत बरसने लगे । बरसों तेल में पोसे हुए वे बेंत । तड़ाक-तड़ाक जहां पड़ते, खाल उधड़ आती । किंतु वाह रे रामजी ! हर बेंत पर ‘महात्मा गांधी की जय’, ‘भारतमाता की जय’ आदि नारे लगाता ही रहा । जब दस बेंत पूरे हुए, मैकरे उसके निकट गया । रामजी ने कहा - बस इतना ही ! वह गुस्से में लाल हो उठा । हुक्म दिया- दस बेंत और ! अब तो चूतड़ से मांस कटने लगा, किंतु वे ही नारे और अंत में फिर वही - बस इतना ही ! मैकरे अब होश में नहीं था, दस बेंत और । फिर बेंत तड़ाक्-तड़ाक् । तिकटी के नीचे मांस के टुकड़े कट कर गिर रहे हैं, रक्त की बूंदें टपक रही हैं । रामजी का समूचा शरीर थरथर कांप रहा है, किंतु मुंह से क्षीण स्वर में नारे जारी हैं । कहते हैं, इस दृश्य से मैकरे इतना प्रभावित हुआ कि दो बेंत और रह गए थे, तभी बेंत लगवाना बंद करा दिया, और रामजी के निकट जाकर करुण स्वर में बोला - मैंने ईसा की कहानी सुनी थी, आज प्रत्यक्ष देख लिया । यही नहीं, वहां से लौटकर वह अपने पद से इस्तीफा देकर इंग्लैंड वापस चला गया ।
रामजी वर्मा दूर से मेरे संबंधी लगते थे । रिश्ते में वे दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी के साले थे । मुझे याद है एक बार मैं उनके साथ, जब राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति पद से मुक्त होकर सदाकत आश्राम आ गये थे,
हमलोग उनसे मिलने गये थे । राजेन्द्र बाबू स्वयं भी हजारीबाग जेल में
सजा काट रहे थे, जहाँ यह घटना बेनीपुरी ने देखि थी | रामजी वर्मा को राजेन्द्र बाबू बहुत मानते थे, और पिताजी के कारण राजेन्द्र बाबू ने मेरे प्रति भी बहुत स्नेह प्रदर्शित किया था । बेनीपुरीजी की किताबों में त्याग और तपस्या की ऐसी मिसालों की बार-बार चर्चा है ।
स्वाधीनता
आन्दोलन, गाँधी, नेहरु और पटेल पर अंग्रेजी में बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन
उस महान और लम्बे संघर्ष की ज़मीनी तफसील हिंदी में जैसी बेनीपुरी की संस्मरणात्मक
पुस्तकों में मिलती है, वैसी शायद ही और कहीं मिल सकती है | जिस हिंदी की लड़ाई गांधी, राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास और न जाने कितनों से आजादी की लड़ाई के समानांतर लड़ी उस हिंदी के लेखकों को और उनकी लिखी किताबों को, खेद है, हम खरीद कर नहीं पढ़ते |
बेनीपुरी ने हिंदी की रोटी खुद पकाकर खाई, और आज भी उस रोटी का सोंधापन भूला नहीं जा सकता ।
‘कुछ मैं कुछ वे’ की चर्चा के बहाने बेनीपुरीजी और उनके जमाने की याद ताजा करने की यह एक छोटी-सी कोशिश-भर है, क्योंकि जिन ‘चाचाजी’ की आज जयंती है उनको नमन करने का यह अवसर आज पूरे हिंदी संसार के सामने है | मगर यादें अभी बहुत सारी स्मृतियों में उमड़ने लगी हैं, और वे फिर कभी जरूर लिख कर सामने आवेंगी !
- [ ‘स्मरण बेनीपुरी’ (२०१७) में
प्रकाशित संस्मरण का किंचित परिवर्द्धित रूप © मंगलमूर्त्ति ]
नव-प्रकाशित पुस्तकें : ‘कुछ मैं, कुछ वे’ (२०१२) / ‘मुझे
याद है’ (२०१५ )
संपर्क : ४७३, द्वितीय ताल,अशोक एन्क्लेव -३, सेक्टर-३५,
फरीदाबाद :१२१००३
मो.९३१३२१०३४९ / ९३३४९१०३४९
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