Monday, December 2, 2019


मेरी किताबें : १
 
‘जानवर फ़ार्म’

पिछली सदी के लेखकों में जॉर्ज ऑरवेल मेरा प्रिय लेखक रहा है | जब अस्सी के दशक में मैं उसका लघु उपन्यास  ‘ऐनिमल फार्म’ कॉलेज में पढा रहा था, तभी मैंने उसका हिंदी में अनुवाद किया था - ‘जानवर फार्म’ नाम से | पिछले साल जब उसका नया सचित्र संस्करण प्रकाशित हुआ था तब ‘समालोचन’ ब्लॉग पर उसका परिचय उसकी भूमिका के एक अंश के साथ प्रकाशित हुआ था | यदि आप उस ब्लॉग को देखना चाहें तो वह इस लिंक पर उपलब्ध है https://samalochan.blogspot.in/2017/12/blog-post_2.html

 उस भूमिका का वह अंश कुछ और नई सामग्री के साथ आज दुबारा मेरे इस ब्लॉग पर भी पढ़ा जा सकता  है | ‘समालोचन’ के उस पोस्ट की टिप्पणियों में कईयों ने ‘जानवर फार्म’ शीर्षक को सही नहीं बताया था |  उनका कहना था, उसके बदले ‘मवेशीखाना’, ‘तबेला’ या ‘कांजी हाउस’ शीर्षक ज्यादा अच्छा होता | मैं नहीं जानता ऐसे लोगों में अंग्रेजी और हिंदी की कितनी समझ थी, लेकिन मुझे उनकी निरर्थक टिप्पणियों  का प्रतिवाद करना और उन जैसों के साथ बहस में उलझना आज भी समय का अपव्यय ही लगता है |

इधर ‘समालोचन’ का वह पोस्ट जब फिर फेसबुक पर दुबारा आया तो मुझको लगा मैं उस चर्चा को अपने ब्लॉग पर पुनः शरू करूं और ऑरवेल के बारे में कुछ नई बातें उसमें  जोडूं | आप अब  यहाँ ऑरवेल से जुडी कुछ नई बातें और उसके जन्मस्थान मोतिहारी के उस स्थान की कुछ तस्वीरें भी देख सकते हैं |

जॉर्ज ऑरवेल – जिसका असली नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था – २५ जून, १९०३ को मोतिहारी (चंपारण) में पैदा हुआ था, जहाँ उसका पिता अंग्रेजी हुकूमत के अफीम के महकमे में सब-डिप्टी एजेंट था, लेकिन २-३ साल की उम्र में ही एरिक फिर इंग्लैंड चला गया और वहीँ पला-पढ़ा | बाद में वह इंडियन इम्पीरियल पुलिस में डी.एस.पी. के पद पर बहाल हुआ और बर्मा ( अब स्वतंत्र देश म्यांमार) में कुछ दिन रहा, जहाँ रहते हुए उसके उदार मानववादी मानस में सदा के लिए अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ एक गहरी वितृष्णा भर   गई | शायद यह भी चंपारण की मिटटी का ही चमत्कार था, जहाँ कुछ ही वर्षों बाद भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ | ऑरवेल ने ब्रिटिश सरकार की नौकरी से इस्तीफ़ा देकर कलम की राह अपना ली, जो सदा से संघर्ष की राह रही है, और अपना लेखकीय नाम रख लिया – जॉर्ज ऑरवेल | पुलिस की नौकरी से इस्तीफा देकर वह इंग्लैंड और यूरोप में रहा और पेरिस के सस्ते होटलों में उसने २०-२० घंटे बर्त्तन धोने का काम किया जिसकी कहानी उसने ‘डाउन एंड आउट इन पेरिस एंड लंडन’ में लिखी है | अपने उदार मानववादी विचारों के तकाज़े पर ही ऑरवेल १९३६ में स्पेनी गृहयुद्ध में जेनरल फ्रांको और फासिस्ट गुट के खिलाफ इंग्लैंड की ओर से इंटरनेशनल ब्रिगेड के सिपाही की हैसियत से लड़ा और घायल हुआ | स्पेनी गृहयुद्ध में साम्यवादियों की और से लड़ते हुए ही उसने भीतर से स्टालिनवादी साम्य वादियों का सही अधिनायकवादी रूप पहचाना | स्पेनी गृहयुद्ध की ताज़ा और रक्तसिक्त स्मृतियों ने ही १९४३ में ऑरवेल को ‘एनिमल फ़ार्म’ की प्रतीक-कथा लिखने को प्रेरित किया |          
 
स्पेन-युद्ध (१९३६)से लौटने के बाद से ही ऑरवेल का स्तालिन-युगीन प्रतिगामी सोवियत साम्यवादी व्यवस्था से पूरी तरह मोह-भंग हो चुका था और अपने लेखन में वह इस मोहभंग  को एक लघु  उपन्यास का रूप देने की सोचता रहा था| अंततः १९४३-’४४ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यही कृति एनिमल फार्मके रूप में लिखी गई | यद्यपि उनदिनों ब्रिटेन और सोवियत संघ मित्र-राष्ट्र थे  | इसके युक्रेनियन अनुवाद के प्रकाशित संस्करण (१९४७) की भूमिका में ऑरवेल ने लिखा :

मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा था कि मेरी इस रचना का स्वरुप क्या हो| अचानक एक दिन एक गाँव में रहते हुए मुझे एक लड़का लगभग दस साल का   एक पतली सड़क पर एक बड़ा-सा छकड़ा हांकते हुए दीखा| वह बार-बार अपने घोड़े को ठीक चलने के लिए चाबुक से मारता जाता था| तभी मुझे लगा कि ये मज़बूत जानवर यदि अपनी ताकत को सचमुच  पहचान लें तो आदमी कभी उनपर इस तरह ज़ुल्म नहीं कर सकेगा, और इस दृश्य को देख कर ही मुझे अचानक लगा कि वास्तव में तो आदमी जानवरों का शोषण उतनी ही क्रूरता से करता है जितना धनी-वर्ग गरीबोंकिसान-मजदूरों का शोषण करते हैं|

ऑरवेल का यही अनुभव जानवर फ़ार्मकी इस कृति का मूल उत्स था| विश्व-युद्ध के पूर्व और उसके दौरान प्रतिगामी साम्यवादी व्यवस्था के प्रति निराशा और अमर्ष की जो भावना उसके मानस में उपजी थी उसका निरूपण उसने अंततः इसी कटु अनुभव के आधार पर  एक पशु-कथा के रूप में किया | मनुष्यता और पशुता का यह परस्पर प्रतिरोध्मानव संवेदना का एक  गंभीर संकट था जिसका विस्फोट एक बार फिर विश्व-युद्ध की शकल में अपने सबसे विकराल और क्रूरतम रूप में हुआ था जिसमें एक ओर, शुरू के दौर में, साम्राज्यवाद और साम्यवाद एक शामिल पाले में  थे और दूसरी ओर था नाजीवादी फासीवाद – और दोनों युद्ध की विश्व-विनाशी मुद्रा में आमने-सामने खड़े थे | युद्ध के बाद यह समीकरण बदल गया और साम्राज्यवादी पूंजीवाद का सीधा टकराव रूस और चीन के साम्यवाद से हुआ जो ‘शीत युद्ध’ का सफ़र तय करते हुए आज दोनों महा शक्तियों के बीच एक भयावह आणवीय प्रतिरोध का रूप ले चुका है |

एनिमल फ़ार्मएक राजनीतिक व्यंग्य-रूपक-कथा है जिसकी पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी पूंजीवाद और फासीवादी साम्यवाद का सीधा टकराव बराबर दिखाई देता है| और इस रूपक-पशु-कथा का दुहरा व्यंग्य-सन्देश यह है कि पहले एक दूसरे का प्रतिरोध करने वाली ये दोनों राजनीतिक विचारधाराएँ साम्राज्यवाद और साम्यवाद - अंततः घुल-मिल कर एक हो जाती हैं, और दोनों के चेहरे बिलकुल एक जैसे लगने लगते हैं | ध्यातव्य है कि ऑरवेल साम्राज्यवादी पूंजीवाद का उतना ही बड़ा विरोधी था जितना वह साम्यवाद और फासीवाद का विरोधी था| क्योंकि उसकी दृष्टि में साम्राज्यवाद और साम्यवाद - ये दोनों विचारधाराएँ अलग-अलग एक दूसरे का सीधा प्रतिरोध करती हुई भी अंततः पूर्णतः एकमेक हो जाती हैं, और अधिनायकवादी फासीवाद के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं | और इसी अर्थ में जॉर्ज ऑरवेल की इस कृति को हम स्पेन-युद्ध अथवा द्वितीय विश्व युद्ध के परिप्रेक्ष्य में केवल स्तालिनवादी या माओवादी साम्यवाद की कठोर व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में ही नहीं देख सकते, बल्कि विश्व-युद्ध के बाद भी विश्व-स्तर पर उभरने वाले ऐसे सारे राजनीतिक उपाख्यानों की व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में भी देख सकते हैं, जहाँ-जहाँ इस तरह के प्रतिरोध और विलयन एक अधिनायकवादी व्यवस्था के रूप में स्थापित होते दिखाई देते हैं|

एक पूंजीवाद-आधारित भ्रष्ट शोषणवादी व्यवस्था को एक जनांदोलन के बहाने विस्थापित कर एक नई तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना और फिर कुछ ही समय में उस व्यवस्था का एक अधिनायकवादी स्वरूप धारण कर लेना समकालीन वैश्विक परिदृश्य में भी एक भयकारी यथार्थ बन चुका है| स्तालिन-युगीन रूस और माओवादी चीन के बाद उन देशों में, तथा अन्य बहुत से साम्यवादी देशों में, और बहुत सारे तथाकथित लोकतांत्रिक देशों में भी - यही नक्शा बनता-बिगड़ता दिखाई दे रहा है| और इसी अर्थ में ऑरवेल की इस कृति की प्रासंगिकता आज की दुनिया में भी उतनी ही, या शायद उससे कुछ ज्यादा ही, बनी हुई दिखाई देती है| आज इस कृति के पुनर्पाठ में इसकी इसी समकालीन प्रासंगिकता को रेखांकित करना इस हिंदी रूपांतर के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य है, जब कि प्रायः हर राजनीतिक परिदृश्य में लोकतंत्र के छद्म में उत्तरोत्तर अधिनायकवादी व्यवस्था की बुनावट दिखाई देने लगी है | इसी अधिनायकवादी फासिस्ट व्यवस्था की एक भयावह तस्वीर ऑरवेल के विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘१९८४’ में देखने को मिलती है, जिसकी काली छाया यूरेशिया सहित द. अफ्रीका और द. अमेरिका के कई देशों में आज भी दिखाई देती है |   
                                                        ***
जॉर्ज ऑरवेल को पढने पर लगता है वह एक ऐसा अँगरेज़ है जो भारत को एक भारतीय की नज़रों से देखता है | उसमें एक विश्व-बंधुत्व वाली उदारता दिखाई देती है | बीसवीं सदी के अंग्रेजी के लेखकों में वह बौद्धिक ईमानदारी की एक अनोखी मिसाल जैसा लगता है | जब गांधी की ‘आत्मकथा’  १९२७-’२८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी तब उसने उसकी जो समीक्षा लिखी थी उसमें गाँधी के आदर्शों और उनकी विचारधारा की जैसी सूझ-बूझ झलकती है, आज भी गांधी को कम लोगों ने उस तरह समझा है | उस समीक्षा का मेरा अनुवाद भी आप शीघ्र मेरे इसी ब्लॉग पर पढ़ सकेंगे | उसी प्रकार –यद्यपि वह साहित्यिक समालोचक नहीं था, किन्तु शेक्सपियर के नाटक ‘मैकबेथ’ पर उसका लेख पढ़ कर आप उसके तीक्ष्ण विवेचन के कायल हो जायेंगे | समयानुसार उस लेख का मेरा अनुवाद भी आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ेंगे | गूगल में जाकर आप उसके दो और लेख पढ़ सकते हैं – ‘पॉलिटिक्स एंड द इंग्लिश लैंग्वेज’ और ‘द हैंगिंग’ जिसमें उसने बर्मा के दिनों में, जब वह वहां एक पुलिस अधिकारी था – एक फांसी का भयावह चित्र     
 खींचा है |


डा. राजेन्द्र प्रसाद की जीवनी लिखने के क्रम में , शुरू में ही, अप्रैल. २०११ में मैं चंपारण-सत्याग्रह के प्रसंग में मोतिहारी गया था जहाँ मैंने निलहों की कोठियों आदि के बहुत से चित्र खींचे थे जिन्हें इसी ब्लॉग पर राजेन्द्र बाबू वाली उस जीवनी के चंपारण वाले अंशों में देखा जा सकता है | मेरी इच्छा है कभी अलग से हिंदी में मैं उस चंपारण और जीरादेई-यात्रा प्रसंगों पर भी उन बहुत सारे चित्रों के साथ एक लेख यहाँ  पोस्ट करूं |

बहरहाल, मोतिहारी की उस यात्रा में मैं मोतिहारी शहर में ही स्थित उस जगह और मकान को देखने गया जहाँ ऑरवेल का जन्म हुआ था और जिस मकान और परिवेश में उसका शैशव बीता था | यहाँ दिए गए चित्रों में आप देख सकते हैं वह जगह जहां आपको एक अफीम गोदाम का भग्नावशेष मिलेगा और उसी की बगल में वह छोटा सा मकान जिसमें ऑरवेल का जन्म हुआ था | मैंने यह भी सुना था कि बिहार सरकार उसको एक हेरिटेज साइट की तरह विकसित करने वाली है, लेकिन इधर पता करने पर मालूम हुआ कि अभी तक उस प्रोजेक्ट में कोई प्रगति नहीं हुई है | हालांकि सरकार यदि अभिरुचि दिखाती तो  स्वदेशी ही नहीं, विदेशी पर्यटकों के लिए भी वह एक दर्शनीय स्थल बन सकता था | विशेष कर यदि आप गांधी की ‘आत्मकथा’ वाला उसका वह लेख पढेंगे तो उसमें चंपारण आपको झांकता हुआ ज़रूर दीखेगा |

        
आलेख एवं सभी चित्र © डा. मंगलमूर्त्ति

आगामी पोस्ट : दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी / ‘बटोहिया’ के रचयिता रघुवीर नारायण / ‘फिरंगिया’ के रचयिता प्रिंसिपल मनोरंजन / जॉर्ज ऑरवेल और गांधी ....

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Extracts from my biography of Dr Rajendra Prasad

Some extracts from my biography of Dr Rajendra Prasad: First President of India are also available on this Blog (Scroll by year and date). Also, some other articles on him.

2011:  The Indigo Story (28 May) / A Planter’s Murder (17 Jul) / The Butcher of Amritsar (July 18) / 2014:  The Seven Martyrs, The Last Act, The Pity of Partition, Lok ewak Sangh (14 Sep) /  Early childhood in Jeeradei ( 3 Dec) /   2015:  Congress in disarray, Swearing of First President (30 Jun) / 27: Clash of Convictions: Somnath (27 Aug) / Presidential Itineraries ( 8 Oct) / Congress at crossroads            ( 20 Dec)  2016: Election for Second Term (15 Mar) /  Visit to Soviet Union (13 May) / Limits of Presidency, Code Bill (24 Aug) /  The Last Phase (28 Aug)   2017:   Dr Rajendra Prasad: On Kashmir Problem ( 12 Jul) / The Swearing in of Dr Rajendra Prasad (24 July) / Remembering Dr Rajendra Prasad (Patna Univ Centenary) (15 Oct) / Dr Rajendra Prasad & Bihar Vidyapeeth (14 Dec) 2018 : A Book is born (on my newly published biography of Dr Rajendra Prasad)

 You may also visit my two other blogs – vibhutimurty.blogspot.com (focused on A. Shivpoojan Sahay) & murtymuse.blogspot.com (for my Hindi/English poems)


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