जुलाई ३१, २०२४ : १४४ वीं
जयंती
प्रेमचंद का स्मरण
मंगलमूर्त्ति
प्रेमचंद का जन्म आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले आज ही की तारीख में १८८० में हुआ था. तब भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत पूर्णतः पराधीन था. यह वही समय था जब तरह-तरह की कुरीतियों से ग्रस्त भारत का अत्यंत पिछड़ा और सामंतवाद से बुरी तरह शोषित समाज साम्राज्यवाद की पराधीनता में आकंठ डूबा था, जिस पर नगरीय परिवेश में मुग़ल कालीन रहन-सहन, बोलचाल का गहरा असर भिन्न प्रकार की विसंगतियां पैदा कर रहा था. इसी समय देश में आर्यसमाज और भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण का एक नवप्रभात भी उदित हो रहा था. वहीँ साथ ही हिंदी भाषा और साहित्य उर्दू-फारसी भाषा और साहित्य के प्रभाव से धीरे-धीरे उबर रहे थे. प्रेमचंद का अवतरण ऐसे ही समय में हुआ था जब देश में स्वाधीनता की चेतना अभी ठीक से जागी भी नहीं थी. प्रेमचंद के भाषा-विकास और साहित्यिक रचना-कर्म का वास्तविक परिदृश्य यही था. इसी उहापोह में वे उर्दू-फारसी के शिकंजे से आहिस्ता-आहिस्ता आज़ाद होकर हिंदी कथा- साहित्य में एक नये सूर्योदय की तरह अवतरित हुए.
प्रेमचंद के साहित्य की सबसे महत्त्वपूर्ण पृष्ठभूमि है उनका यही सामयिक जीवन – जो बहुलांशतः पराधीनता और पिछड़ेपन के घोर अन्धकार में लिपटा हुआ था – और उसमें उनका साहित्य लेकर आया स्वाधीनता की चेतना के प्रति सचेत और सम्पूर्ण समर्पण. उन्होंने अपने विपुल साहित्यिक रचना-कर्म से भारतीय समाज में वैसी ही जागरण-क्रांति का आह्वान किया जैसी लगभग उसी समय भारतीय राजनीति में गांधीजी ने अपने सुचिंतित सत्य के प्रयोगों से किया. सत्य और अहिंसा का जो पाठ गाँधी ने राजनीति में देश के सामने रखा, उसी के समानांतर साहित्य में यथार्थ और आदर्श की एक नायब मशाल लेकर प्रेमचंद आगे आये. हिंदी भाषा और साहित्य में प्रेमचंद ने वैसे ही सांस्कृतिक समन्वय की साधना की जैसा राजनीतिक समन्वय गाँधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांत में प्रतिपादित हुआ था. प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य को हम इसी काल-परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं. और महत्त्वपूर्ण यह भी है कि गाँधी के राजनीति-कर्म की ही तरह प्रेमचंद का साहित्य-कर्म भी उनके जीवन से बिलकुल अभिन्न था. सचाई, ईमानदारी, निष्ठा, कर्त्तव्य-भावना, समर्पण का जो अविकल आदर्श उनके कथा-साहित्य के चरित्रों में निर्मित होता दिखाई देता है, बिलकुल वही प्रेमचंद के अपने जीवन में भी दिखाई देता है. और इसी अर्थ में सच्चा शाश्वत साहित्य वही है जो उस साहित्यकार के अपने जीवन में प्रतिष्ठित मानवीय मूल्यों से अभिन्न हो. प्रेमचंद के कथा-साहित्य में कला का जो साधारणीकरण दिखाई देता है – जो एक सहज बुनावट वाली साफगोई दिखाई देती है – उनके साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति उसी में निहित है. अर्थात प्रेमचंद के जीवन में जो सादगी और सहजता दिखाई देती है वही उनके कथा-संसार में भी दिखाई देती है. यही वह सादगी और सहजता, सचाई और ईमानदारी है जो प्रेमचंद को भारतीय ग्राम्यांचल से कभी अलग नहीं होने देती. उनके कथा-संसार का उप-नगरीय जीवन भी उसके ग्राम्य-जीवन से कभी विच्छिन्न नहीं दिखाई देता, बल्कि उनका सम्पूर्ण कथा-संसार हर जगह स्पष्टतः एक सच्चे, वास्तविक ग्राम्य-जीवनदृष्टि से दृष्ट-अनुभूत प्रतीत होता है. गाँधी को भी अपनी आध्यात्मिक राजनीति की साधना में कोट-टाई से लंगोटी-लाठी पर उतरना ही पड़ा था, क्योंकि उच्चादर्शों की प्राप्ति के लिए कार्य-शैली और जीवन-पद्धति में एकात्मता आवश्यक होती है. जैसे गांधी की राजनीति मूलतः ग्राम्याधारित है, प्रेमचंद का कथा-साहित्य भी भारतीय गाँव का एक विषद चित्रपट ही निर्मित करता है. सचाई और सद्गुण का जीवन –भारतीय गाँव का ही जीवन है. प्रेमचंद के कथा-साहित्य का विस्तीर्ण फलक उसी भारतीय ग्राम्य-जीवन को चित्रित करता है. नगरीय जीवन उसमें सामान्यतः प्रतिलोम के विवादी स्वर की तरह ही ध्वनित रहता है.
प्रेमचंद की जीवनियाँ
इसके साथ ही विचारणीय यह भी
है कि प्रेमचंद के जीवन और कृतित्त्व की यह एकात्मता अब तक लिखी और बहु-चर्चित उनकी
दो जीवनियों में पूरी तरह उभरकर सामने नहीं आती. बल्कि एक में उनको ‘सिपाही’ और दूसरे में ‘मजदूर’ के रूप में
चित्रित करने का जीवनीकार का स्पष्ट आग्रह दिखाई देता है. जीवनी और उपन्यास-लेखन
में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह होता है कि उपन्यास में जहाँ चरित्र-चित्रण में
उपन्यासकार को यह आज़ादी होती है कि वह नायक के चरित्र को उपन्यास के कथानक और
सन्देश के अनुसार मनोनुकूल गढ़े-ढाले-सँवारे, वहीँ जीवनी में उसके हाथ बहुत बंधे
होते हैं. यहाँ तक कि जीवनी-लेखन के कथानक की रचना में भी उसका अधिकार पूरी तरह
सीमित होता है, वह पूर्व-घटित प्रसंगों में से केवल चुन-छांट सकता है और उनको किसी
हद तक अपने दृष्टिकोण से काट-छांट कर प्रस्तुत कर सकता है, हालांकि उनके तथ्यों
में वह किसी तरह का परिवर्त्तन नहीं कर
सकता. आत्मकथा लेखन में भी बच्चनजी की ही तरह हर आत्मकथा-लेखक या संस्मरण-लेखक को
‘क्या भूलूँ, क्या याद करूं’ की सीमित स्वतंत्रता होती है, जिसका चुनाव उसको रोचकता और
प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए करना होता है.
प्रेमचंद
के निधन के तीन दशक बाद उनकी दो उल्लेखनीय जीवनियाँ प्रकाशित हुईं. पहली अमृतराय
की लिखी और साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत ‘कलम का सिपाही’ (१९६२) और उसके कुछ ही
बाद मदन गोपाल की हिंदी में लिखी ‘कलम का मजदूर’ जो अमृतराय के ‘कलम का सिपाही’
से शायद कुछ अधिक चुस्त-दुरुस्त बन पड़ी है. (इसका एक अवांतर अप्रिय पार्श्व-प्रसंग
दोनों लेखकों के बीच मुकदमेबाजी और सुलहनामे का भी हुआ था.) बहरहाल,
‘कलम का सिपाही’ और मदन गोपाल की हिंदी में लिखी ‘कलम का मजदूर’(१९६४) तथा अंग्रेजी में
उन्हीं की लिखी जीवनी ‘मुंशी प्रेमचंद’(१९६४) पर डा. रामविलास शर्मा ने
अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’( तीसरा संस्करण,
१९६५) में विस्तार से विचार किया है. वहां
से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धरणीय हैं :
दोनों
पुस्तकों में काफी साम्य है...दोनों लेखकों ने पुस्तक के रोचक अंश शिवरानी देवीजी
की पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ के आधार पर लिखे हैं....दोनों पुस्तकों में जो नयी
सामग्री है, वह प्रेमचंदजी के अप्रकाशित पत्र हैं....मदन गोपालजी ने अमृतरायजी से
अधिक परिश्रम किया है...( इसके बाद लेखक ने मदन गोपाल की अंग्रेजी में लिखी जीवनी
में अंग्रेजी की कुछ भूलों के कुछ उदाहरण
भी दिए हैं. लेकिन एक भ्रम रह जाता है कि क्या लेखक ने मदन गोपाल की हिंदी-जीवनी
‘कलम का मजदूर’ पर भी उसी समीक्षा में विचार किया
है?)
अमृतराय-कृत
‘कलम का सिपाही’ की समीक्षा अवश्य अधिक विस्तार और खोज-बीन से की गयी है, और पारिवारिक तथा कई
अन्य प्रसंगों के लेखन और छूटों पर गंभीर टिप्पणियाँ भी की गयी हैं, और अंत में यह
भी लिखा है कि ‘इस तरह के दोषों की सूची काफी लम्बी हो सकती है’:
‘प्रेमचंद
घर में’ दोबारा पढ़ा तो पता चला, शिवरानी जी का नाम दिए बिना ढेरों सामग्री वहां से
लेकर यहाँ सजाई गयी है....‘प्रेमचंद घर में’ पढ़कर प्रेमचंद के जीवन का ज्यादा गहरा
चित्र मन पर उतरता है. यदि शिवरानी जी और जैनेन्द्र जी वाले संस्मरण निकाल दिए
जाएँ तो पता चले कि अमृतराय के अपने संस्मरण नहीं के बराबर हैं....प्रेमचंद के
जीवन-चरित में उनकी जीवनसंगिनी को कुछ और जगह मिलनी चाहिए थी.... (इस जीवनी में) छोटे
भाई (अमृत राय)ने बड़े भाई (श्रीपतराय) को
चित्रपट से गायब ही कर दिया (है)...अमृतराय के लिए उचित था कि जहाँ शिवरानीजी की
पुस्तक से उन्होंने और तमाम बातें ली हैं, वहां प्रेमचंदजी की पहली पत्नी से शिवरानीजी
के सम्बन्ध का भी उल्लेख कर देते....
(लेकिन) अमृतराय ने शिवरानीजी को शासिका रूप में ही ज्यादा दिखलाया है....
अमृतराय
ने प्रेमचंद के व्यक्तित्त्व और साहित्य को बहुत सरल और समतल बना कर पेश किया
है...’कलम का सिपाही’ कहने से पारिवारिक जीवन के विघटन
का मोहपूर्ण किन्तु यथार्थ चित्रण करनेवाले प्रेमचंद पाठक की दृष्टि से ओझल हो
जाते हैं...एक जगह अमृतराय ने स्वर्गीय शिवपूजन सहाय को प्रेमचंद का ‘अन्तरंग सखा’ कहा है. किन्तु इस अन्तरंग सखा पर उन्होंने इन दो शब्दों के अलावा दो वाक्य
भी नहीं लिखे....प्रेमचंद के निर्माण में हिंदी साहित्य की परंपरा और हिंदी
साहित्यकारों का भी हाथ था इसका गुमान भी अमृतराय की पुस्तक से पाठक को नहीं
होता....प्रेमचंद व्यवहार-कुशलता से उतनी दूर न थे जितना अमृतराय ने उन्हें
दिखलाया है...(और) न यह लिखा है कि प्रेमचंद अपनी पुस्तकों के रूप में जो संपत्ति
छोड़ गए, उससे उनके बेटों को कितना मुनाफा हुआ....अमृतराय ने अपनी किताब का ढांचा
और बहुत-सा रक्त-मांस शिवरानीजी की पुस्तक से लिया है.... (निष्कर्षतः) साढ़े छह सौ
पृष्ठों की यह सामग्री तीन सौ पृष्ठों में मजे में संक्षिप्त की जा सकती थी.
अमृतराय
और मदन गोपाल की लिखी प्रेमचंद की जीवनियों की यह समीक्षा रामविलासजी की पुस्तक
‘प्रेमचंद और उनका युग’ के तीसरे संस्करण (१९६५) में जोड़ी
गयी थी. तब अमृतराय जी का निधन हो चुका था. समीक्षा में उल्लिखित सभी दोष और कमियाँ
स्पष्टतः तथ्यपरक हैं, और उससे जाहिर होता है कि अमृतराय-लिखित जीवनी प्रेमचंद की
जल्दीबाजी में बनाई एक बेलौस और अधूरी तस्वीर सामने लाती है जिसमें कई तरह की
खामियां रह गयी हैं. ऐसा लगता है, व्यक्ति और रचनाकार – दोनों रूपों में प्रेमचंद
की जो तस्वीर अमृतराय ने पेश की है, प्रेमचंद वास्तव में बिलकुल वैसे नहीं थे; कई
अर्थों में वे उससे बहुत भिन्न थे. फिर अपने लम्बे लखनऊ-प्रवास में - कृष्णबिहारी
मिश्र, रूपनारायण पाण्डेय, शांतिप्रिय द्विवेदी आदि के साथ, अथवा बनारस में (जब वे
लमही में या बनारस शहर में रहे, उन दिनों) जयशंकर प्रसाद, विनोद्शंकर व्यास,
शिवपूजन सहाय (जिनके साथ लखनऊ में ‘रंगभूमि’-सम्पादन का
महत्त्वपूर्ण प्रसंग जुड़ा रहा), उग्र, निराला, रायकृष्ण दास जैसे
घनिष्ठ समानधर्मा साहित्यकारों के साथ - उनका साहित्यिक जीवन कैसा रहा, उस व्यापक
साहित्यिक परिवेश की पूरी तस्वीर ‘कलम का सिपाही’ में कहाँ मिलती है?
रामविलास
शर्मा ने ‘कलम का सिपाही’ में अमृतराय द्वारा शिवपूजन सहाय
की पूरी अनदेखी की भी बहुत वाजिब शिकायत दर्ज की है. प्रेमचंद के निधन के कुछ ही
दिनों बाद शिवपूजन सहाय का लिखा एक सुन्दर शोक-संस्मरण ‘प्रेमचंदजी की अनंत
स्मृतियों के कुछ क्षण’
नवम्बर, १९३६ में ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में प्रकाशित हुआ था.
फिर बाद में प्रेमचंद पर उनका लिखा एक और संस्मरण पटना के ‘पाटल’ (अगस्त,
१९५४) में भी छपा. प्रेमचंद के निधन के बाद ‘हंस’ (मई,
१९३७) और ‘ज़माना’ (फर. १९३८) दोनों के स्मृति-अंकों में फौरी तौर पर जो लेख छपे (४०+३०) उनमें
प्रेमचंद के ‘अन्तरंग सखा’ शिवपूजन सहाय वाला संस्मरण नहीं
था, और न हिंदी के अन्य प्रमुख समानधर्मा – ‘प्रसाद’,निराला,
कृष्णबिहारी मिश्र और रूप नारायण पाण्डेय ( दोनों ‘माधुरी’-सम्पादक), जनार्दन
प्रसाद झा ‘द्विज’, प्रवासीलाल वर्मा, आदि, जो प्रेमचंद के नित्य संपर्क में रहे थे – उनके
संस्मरण भी नहीं थे. रामविलासजी ने ठीक लिखा है: “प्रेमचंद के निर्माण में
हिंदी साहित्य की परंपरा और हिंदी साहित्यकारों का भी हाथ था इसका गुमान भी
अमृतराय की पुस्तक से पाठक को नहीं होता.”
हिंदी
के साहित्यकारों में जीवनी, आत्मकथा और संस्मरण लिखने की
प्रथा नहीं है, अथवा नाम लेने-भर की है. रामविला शर्मा ने भी लिखा है: “हमारे लेखकों का
ध्यान जीवनी लिखने की ओर बहुत ही कम गया है”. उपन्यास, कहानी और कविता लिखने
के मुकाबले यह काम कठिन और बहुत श्रमसाध्य है. लेकिन शिवपूजन सहाय इसके सबसे
ज्वलंत अपवाद हैं जिन्होंने लगभग दो सौ संस्मरण अथवा संस्मरणात्मक टिप्पणियाँ तो
अवश्य ही लिखी हैं, और अपनी अनेक टिप्पणियों में इस पर पर्याप्त बल देते रहे हैं
कि इस तरह का संस्मरणात्मक-साहित्य हिंदी में अधिक-से-अधिक लिखा जाना चाहिए. उनके
‘साहित्य-समग्र’ के १० खण्डों में खंड २ (५५० पृष्ठ) तो केवल उनके साहित्यिक
संस्मरणों का संकलन है.
प्रेमचंद
के जीवन की जैसी सच्ची और मनोरम झलक शिवपूजन सहाय वाले संस्मरण में मिलती है, वह कहीं
अन्यत्र दुर्लभ है. वे प्रेमचंद से आधी पीढ़ी छोटे ज़रूर थे लेकिन उनके सबसे समीप
रहने वाले साहित्यकारों में वे शामिल थे जिनके अमूल्य संस्मरणों की कोई चर्चा –
‘कलम का मजदूर’ के एक संक्षिप्त उल्लेख को छोड़ कर – इन दोनों जीवनियों में कतई नहीं है.
शिवपूजन सहाय का घनिष्ठ संपर्क प्रेमचंद जी के साथ लखनऊ में (१९२४ में, विशेषकर
‘रंगभूमि’ के सम्पादन-प्रसंग में) और बनारस में (१९२६ से १९३३ के दौरान, सरस्वती
प्रेस के सन्दर्भ में) दोनों के जीवन में अत्यंत साहित्यिक महत्त्व का रहा जिसे
प्रेमचंद की जीवनी का कोई लेखक अनदेखा नहीं कर सकता है. यहाँ लखनऊ और बनारस-प्रवास
के क्रमशः इन दो प्रसंगों से संबद्ध उद्धरण ही पर्याप्त होंगे. (‘रंगभूमि’
और प्रेमचंद के कुछ और लेखन के सम्पादन वाले संस्मरणात्मक अंशों की चर्चा अन्यत्र
भी हुई है; यहाँ उन्हें छोड़कर केवल कुछ विशेष साहित्यिक प्रसंग ही उद्धरणीय हैं.):
“[लखनऊ-प्रवास:१९२४]
उनके साथ घनिष्ठता बढाने का सुयोग (मुझे) मिला, लखनऊ में. मैं ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में काम करता था. कुछ दिनों बाद वे भी ‘माधुरी’ के सम्पादक होकर आये. उसी समय उनका ‘रंगभूमि’
नामक बड़ा उपन्यास वहाँ छपने के लिए आया था. श्री दुलारेलाल भार्गव ने
गंगा-पुस्तक-माला के नियमानुसार उसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने के लिए मुझे
सौंपी....उस समय ‘माधुरी’-सम्पादन-विभाग अमीनाबाद पार्क से
उठकर लाटूश रोड पर आ गया था. [वह अमीनाबाद से थोड़ी ही दूर पर था.] पंडित
कृष्णबिहारी मिश्रजी भी सम्पादकीय विभाग में थे....उर्दू के बहुत-से लखनवी लेखक और
बाहरी उर्दू लेखक भी प्रेमचंद जी से मिलने और सलाह लेने के लिए प्रायः कार्यालय
में आते रहते थे....उस समय शांतिप्रिय द्विवेदी भी उसी कार्यालय में थे (जो) खूब
हंसा-हंसाया करते थे. पंडित कृष्णबिहारीजी की चुहलें और प्रेमचंदजी के चुटकुले -
दोनों का रंग निराला होता था. मिश्रजी कभी-कभी हिंदी के अनूठे दोहे सुनाते और
प्रेमचंदजी उर्दू के ला-सानी लतीफे. उनका अट्टहास सुनकर कार्यालय के कर्मचारी
उन्हें एक टक देखने लग जाते. [वहां प्रेमचंदजी,
मिश्रजी और बदरीनाथ भट्टजी का जब समागम होता था,
हंसी के फव्वारे आकाश चूमने लगता थे. मिश्रजी की रईसी हंसी सामने की मेज पर ही
उछलती थी और प्रेमचंदजी का ठहाका ऊंची छत से टकराकर खिडकियों की राह सड़क पर निकल
जाता था – भट्ट जी की हंसी उसे पकड़ न पाती थी. दिल खोलकर तीनों हँसते थे. जब कभी
‘माधुरी’-सम्पादक पंडित रूपनारायणजी और प्रोफेसर दयाशंकर दुबे - जो उन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय में थे –
पहुँच जाते, प्रेमचंदजी की हंसी से खासी टक्कर लेते. और एक बार तो मुंशी अजमेरी भी
पहुँच गए, जिन्होंने तरह-तरह की हंसी हंस कर प्रेमचंदजी के अट्टहास का दम तोड़
दिया.]... कार्यालय में भी पान प्रेमचंदजी का ही चलता था. घर पर बराबर गुड्गुडी पीते
रहते थे. चिलम शायद ही कभी ठंढी होती थी. तम्बाकू खुशबूदार खुद खरीद लाते थे. उनका
‘सखुन-तकिया’ सुनकर मिश्रजी के भी अट्टहास का
फव्वारा फूट पड़ता था....कितनी ही संध्याएँ अमीनाबाद पार्क में हरी घास पर बैठे
बीतीं – पार्क के एक कोने में उस कचालू-रसीलेवाले की दूकान पर...दही-बड़े और मटर की
कितनी ही दावतें हुईं – ‘रंगभूमि’ में सूरदास का स्वांग रचने वाले
प्रकृत व्यक्ति की सच्ची कहानियों पर कितने ही कहकहे उड़े – जितने दिन लखनऊ में रहे
बड़े सुखावह दिन बीते.
[काशी-प्रवास:
१९२६-’३३] काशी में (भी) जब प्रसाद और प्रेमचंद एकत्र होते, तब मानो ठहाकेबाज़ी की
होड़-सी लग जाती. दोनों दिल खोलकर हँसते. बनारस कोतवाली के पिछवाड़े नारियल-बाज़ार
में प्रसादजी की लगभग सवा सौ वर्ष पुरानी दूकान है – ज़र्दा-सुरती-सुंघनी की. उसके
सामने के तख्ते पर प्रसादजी की साहित्य-गोष्ठी जमती थी. उस समय हिंदी-संसार का कौन
ऐसा साहित्य महारथी था, जो उस तख्तपोश पर कुछ देर न बैठा हो....बात-बात में
खिलखिलाते और उनके जोरदार ठहाके सुनकर बगल की अटारियों से अप्सराओं की
मृदु-मंद-मधुर खिलखिलाहट भी गूँज उठती....
जब
काशी में प्रेमचंदजी ने पहले-पहल सरस्वती प्रेस खोला तब मैं भी काशी में ही रहता
था. काशी-नगरी-प्रचारिणी-सभा के पास वाले मैदागिन पार्क के पश्चिमोत्तर कोने पर एक
छोटे-से मकान में प्रेस खुला. छोटे-से खुले ओसारे में ऑफिस था. लखनऊ के बाद वहीँ
उनके दर्शन होते रहे. मैं बराबर उनकी सेवा में पहुंचा करता....शाम को प्रेस में
दिन-भर की आमदनी का हिसाब जोड़ा जाता....[जरूरतमंद के सामने वे अपनी ज़रूरतों को भूल
जाते]...सब कर्मचारियों को यथायोग्य पैसे दे चुकने के बाद वे बचे-खुचे पैसे लेकर
मैदागिन से चौक चले जाते. कई बार मैं भी उनके साथ उधर गया. लखीचौतरा पहुँच कर एक
ढोली पान खरीदते....छाते को कंधे पर सीधा रखकर उसके पिछले छोर में रूमाल में बंधी
ढोली लटका लेते और अगले छोर में मुश्की तम्बाकू की पोटली. कभी-कभी पैसे कम पड़ जाते
तो कुछ दूर एक्के पर जाकर , आगे फिर गाँव तक पैदल चलते थे....एक बार कपडे का
फीतेदार जूता खरीदा तो उसकी एंडी दबाकर चप्पल्नुमा बना ली....
उस
समय मैं भी काशी में ही रहकर लहेरियासराय के पुस्तक भंडार का साहित्यिक
कार्य-सम्पादन कर रहा था, और कई पुस्तकें सरस्वती प्रेस में भी छपती थीं....मैं भी
भण्डार की पुस्तकों की देख-रेख के लिए प्रायः नित्य ही प्रेस में जाता था...वे
प्रेस की फ़िक्र में परेशान रहते थे. मेरे हाथ में पुस्तक भण्डार का जो काम था,
उसमें से जितना उनका प्रेस सहूलियत से कर सकता था, उतना मैं दे ही देता था, और भी
परिचितों से काम दिलवाता था...यदि लखनऊ से कभी एक दिन के लिए भी आते, तो तुरंत
प्रेस का आदमी मुझे बुलाने पहुँच जाता...सरस्वती-प्रेस में घंटों बैठकबाजी होती
थी. पान की गिलौरियों का दौर चलता रहता था....तब मेरे साथ और अधिक घनिष्ठता बढ़ी.
प्रेस में काफी देर तक वे भी बैठते थे और मैं भी वहीँ बैठकर अखबार पढता या
प्रूफ-करेक्शन करता...सबसे बड़ा लाभ था उनका सत्संग.... बहुत दिनों तक उनके संपर्क
का सौभाग्य रहा...
प्रेमचंद
के जीवन का ऐसा सच्चा, जीवंत चित्र उनकी इन जीवनियों में नहीं उभरता, क्योंकि उनमें प्रेमचंद के
वास्तविक जीवन को देखने-समझने की ईमानदारी उतनी नहीं है जितना एक ‘सिपाही’
या एक ‘मजदूर’ के रूप में बनाई हुई एक तस्वीर दिखाने की कोशिश है. प्रेमचंद के जीवन
और कृतित्त्व की एकात्मता की जो बात इस लेख के प्रारम्भ में की गयी है उसे
सूत्र-रूप में शिवपूजन सहाय ने अपने संस्मरण में निष्कर्ष की तरह लिख दिया है: “प्रेमचंद का जीवन उनकी रचनाओं में
प्रतिबिंबित है. वे जैसा लिखते थे वैसा आचरते भी थे!”
प्रेमचंद
निस्संदेह हिंदी के सबसे बड़े लेखक इसीलिए हैं, और बने रहेंगे, क्योंकि उनका
साहित्य पूरी तरह उनके जीवन का प्रतिबिम्ब है, व्यक्ति और कृति की वैसी एकात्मता हिंदी के किसी और
लेखक में नहीं दिखाई देती. उनकी इन जीवनियों से भी उनकी यह विशेषता - व्यक्ति और कृति का यह एकात्म- सामने नहीं आ पाती, शिवपूजन सहाय ने अपने अन्यतम संस्मरण में जैसा इंगित किया है.
चित्रों
में अमीनाबाद पार्क आज जैसा है, दुलारेलाल भार्गव और चतुरसेन
शास्त्री के साथ प्रेमचंद, नागरी प्रचारिणी सभा जिसके पास सरस्वती प्रेस स्थित था, ‘रंगभूमि’
की वह प्रति जो प्रेमचंदजी ने शिवपूजन सहाय को भेंट की थी, प्रेमचंदजी का शिवपूजन
सहाय के नाम लिखा पत्र, और प्रसाद जी के साथ
प्रेमचंद का चित्र (गूगल से साभार) जो उस समय के साहित्यिक सादा जीवन को
प्रतिबिंबित करता है.
आलेख
और शेष सभी चित्र (C) डा. मंगलमूर्त्ति
संपर्क:
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Email:bsmmurty@gmail.com
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