Saturday, March 26, 2022

 

 

प्रसंग : लेखक-प्रकाशक-सम्बन्ध

मंगलमूर्त्ति

हिंदी में प्रकाशकों द्वारा लेखकों के शोषण-उत्पीडन का प्रसंग बहुत पुराना है | प्रारम्भ से ही इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय की ओर साहित्य-जगत और प्रकाशन-व्यवसाय के लोगों ने – जो इससे सीधे जुड़े हैं – या फिर सरकार ने भी, जो अंततः एक संतुलित प्रकाशन व्यवस्था के लिए जिम्मेवार है, न सिर्फ इसकी जानी-बूझी उपेक्षा की, बल्कि इसमें अधिकाधिक भ्रष्टाचार फैलाने में भी कोई कोर-कसर न छोड़ी |  सुविधा के लिए इस कहानी की शुरुआत यदि प्रेमचंद से ही मानें  - जो स्वंतंत्रता-संग्राम में असहयोग और घोर आजीविका-संकट का  एक लम्बा दौर था – तो इस शोषण और भ्रष्टाचार-प्रसंग के एक ज्वलंत उदाहरण शिवपूजन सहाय रहे हैं | प्रेमचंद और निराला की जीवनियों में इसका कुछ लेखा-जोखा तो  मिलता है , पर इसकी पूरी व्यथा-गाथा शिवपूजन सहाय के जीवन में ही अपने कटुतम रूप में घटित होती  दिखाई देती है |

इस प्रसंग की चर्चा मैं अपने इस ब्लॉग पर किंचित विस्तार से करना चाहता हूँ, क्योंकि मेरे जीवन के प्रारम्भिक २५ वर्ष  अपने पिता शिवपूजन सहाय के जीवन के उत्तरार्र्द्ध में लगभग प्रतिपल साथ बीते, और मैं इस पूरे व्यथित प्रसंग का साक्षी ही नहीं, भुक्तभोगी भी रहा | अपने इस ब्लॉग पर मैं उस कहानी के कठोर यथार्थ को  हिंदी-जगत के सामने किचित विस्तार से रखना चाहता हूँ – क्योंकि भले ही मेरे इस विगोपन से इस निंदनीय कुव्यवस्था में कोई अंतर न पड़े, लेकिन कहीं एक जगह इसकी सच्चाई अपनी पूरी कडवाहट के साथ देखीऔर महसूस की जा सके, यह भी, अपने जीवन के अंतिम चरण में,  मुझको ज़रूरी लगाने लगा है |

इस कहानी की पूर्व-पीठिका के विस्तार में जाने से पहले आप शिवपूजन सहाय – जिनके विषय में साहित्य-जगत में जितनी लोक-श्रद्धा है, उस अनुपात में उतनी ही भ्रांतियां भी हैं -  यहाँ उनके ३ पत्र आप पहले पढ़ें, जिनका सम्बन्ध उनके जीवन के उसी उत्तरवर्त्ती-काल-खंड (१९४०-१९६२) से है, जिसकी जड़ें तो उनके काशी-प्रवास में  ही कहीं छिपी हैं, और जिनकी टेढ़ी-तिरछी डालें लहेरियासराय-प्रवास में विकसित हुईं (जहाँ उन्हीं दिनों मेरा जन्म हुआ था ), लेकिन जो कुछ फूल उनमें खिले वे असमय कुम्हला गए जब १९४० में शिवजी की पत्नी का असमय देहांत  हो गया | तब हम सबलोग छपरा चले आये थे जहाँ मेरे पिता राजेन्द्र कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर हो कर आये थे | उन प्रसंगों की चर्चा आगे होगी, लेकिन इस पहले पत्र का सम्बन्ध उसी लहेरिया सराय से है, और पटना से है, जहाँ से ‘पुस्तक भण्डार’ से उनकी कई पुस्तकें १९२६ से ही लगातार प्रकाशित हो रही थीं |

ये तीनों पत्र ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’(खंड १०) में पूर्व प्रकाशित हैं | आज इस प्रसंग में उनको लोगों के  सामने लाना ज़रूरी है, क्योंकि कम लोग जानते होंगे कि शिवपूजन सहाय जैसे जीवन-भर शोषण-उत्पीडन का ज़हर पीने-पचाने वाले  व्यक्ति का धैर्य्य भी कब, क्यों और कैसे टूट गया था |

     

 












पत्र-१: व्यवस्थापक, पुस्तक भंडार, पटना के नाम शिवपूजन सहाय का पत्र

[छपरा से/31–3–48 (अविकल प्रतिलिपि)]

मान्यवर महाशय,

सविनय निवेदन है कि आपके यहाँ से मेरी जो निम्नलिखित पुस्तकें छपी हैं उनमें से कई के तीन चार संस्करण बेचकर आप लाभ उठा चुके हैं पर अब कृपया उन्हें छापिये और बेचिये ही कई पुस्तकें तो बहुत दिनों से अधूरी छपी पड़ी हैं जो आपकी शिथिलता, उदासीनता और असावधानता से आज तक निकल सकीं कृपया उन्हें भी अब छापिए अब मैं स्वयं ही अपनी सभी पुस्तकें छपवाना चाहता हूँ उनमें अब अपनी इच्छा के अनुसार आवश्यक परिवर्तन करके प्रकाशित  कराऊँगा आप मेरी पुस्तकों से, उनके कई संस्करण बेचकर, आज तक काफी उपार्जन कर चुके, पर मुझे उस हिसाब में कुछ भी नहीं दिया साहित्यसरितालगभग छः वर्षों से कालेज की आइ.ए. कक्षा में पाठ्यपुस्तक है, और उसके कई संस्करण बेचकर आप खूब फायदा उठा चुके हैं | इसी तरह अन्य पुस्तकों के कई संस्करणों से भी किन्तु मेरी ही पुस्तकों की आय से मुझे कभी कुछ मिला अब मैं अपनी सभी पुस्तकों के स्वतंत्र प्रकाशन से स्वयं ही लाभ उठाना चाहता हूँ आपसे मैं कुछ माँगता नहीं हूँ, और आपसे कुछ लूँगा ही केवल आपको अन्तिम सूचना देता हूँ कि मेरी कोई पुस्तक अब छापिये और बेचिये हाँ, अधूरी पुस्तकों के छपे फार्म आप बेच सकें तो मुझे तुरत सूचना दीजिए, बाजारदर से उचित दाम देने को तैयार हूँ नहीं तो मैं उन्हें फिर शुरू से छपवाने जा रहा हूँ इस पत्र द्वारा आपको यह सूचित मात्र कर देना है कि मेरी पुस्तकों के छापनेनिकालनेबेचने आदि का आपको अब कोई अधिकार नहीं है मैं उन्हें अतिशीघ्र  ही स्वेच्छानुसार परिवर्तित रूप में स्वयं छपवाने जा रहा हूँ आशा है, इस सूचना के पाने के बाद से ही आप मेरी पुस्तकों में हाथ लगाने की कृपा करेंगे

यदि आप इस सूचना के विरुद्ध कार्य करने की कृपा करेंगे, तो मुझे अपने स्वत्वों की रक्षा के लिए लाचार होकर ऐसी कोई यथोचित कार्रवाई करनी पड़ेगी, जिससे आप आगे मेरी रचनाएँ छाप सकें, या उनकी कोई दूसरी व्यवस्था कर सकें, और अगर करें भी तो मैं अपनी पुस्तकें साधिकार आपसे वापस ले सकूँ, और इस प्रकार जो मेरी हानि हो उसकी क्षतिपूर्ति आपसे करा  सकूँ

मैंने इस सूचना की प्रतिलिपि भविष्य के लिए अपने पास रख ली है, और इसका अति संक्षिप्त सारांश  मात्र प्रमुख अखबारों में भी प्रकाशनार्थ भेजने जा रहा हूँ ।*   भवदीय                               शिवपूजन सहाय      (राजेन्द्र कालेज, छपरा)                                                                                                     

कई संस्करणों में प्रकाशित :

(1) देहाती दुनिया (उपन्यास) (2) विभूति (कहानी संग्रह) (3) संसार के पहलवान (जीवनी संग्रह) (4) साहित्य सरिता (निबंध संग्रह) (5) तोतामैना (कहानियाँ) (अधूरी छपी अप्रकाशित) (6) अभिमन्यु (जीवनी) (7) दो घड़ी (विनोद-संग्रह)

[* शिव. द्वारा दी गई इस नोटिस के बाद भी 1, 2, 3, 4 और 7 संख्या वाली पुस्तकें छपती रहीं, और उन पर कोई रायल्टी नहीं प्राप्त हुई साहित्य सरिताऔरअभिमन्युके   लिए देखें समग्र–5 औरतोता मैनाके लिए समग्र–1 | 'साहित्य-सरिता' हिंदी निबंधों की  शिवपूजन सहाय द्वारा संपादित एक पाठ्य-पुस्तक थी जो पटना विश्वविद्यालय में निर्धारित थी जो कई वर्षों तक पढाई जाती रही थी |- सं.]
  
 

पत्र-२*: मंत्री, बिहार प्रकाशक संघ, पटना के नाम शिवपूजन सहाय का पत्र

[छपरा से / 22–2–49]

सेवा में श्रीमान् मंत्री, बिहारप्रकाशकसंघ, पटना

मान्यवर महोदय,

सादर सविनय निवेदन है कि पुस्तक भंडार (लहेरियासराय और पटना) से मेरी जो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, या जो प्रकाशित होने वाली थीं, और अब अधूरी छपी पड़ी हैं, उनका प्रकाशनाधिकार लिखकर मैंने पुस्तक भंडार को नहीं दिया है, फिर भी, उन पुस्तकों के अनेक संस्करण प्रकाशित कर बेच चुकने पर भी, पुस्तक भंडार ने आज तक, पुस्तकों के हिसाब में, मुझे एक पैसा भी कभी नहीं दिया है गत वर्ष,   31 मार्च (1948) को, मैंने एक सूचनापत्र, जवाबी रजिस्ट्री से, भंडार के व्यवस्थापक महोदय को भेजा था, जिसकी पहुँच की रसीद मेरे पास मौजूद है उसमें उनसे निवेदन किया था कि मेरी पुस्तकें छापें और बेचें उस पत्र की हूबहू नकल (ऊपर का पत्र), आपकी सेवा में, इसी पत्र के साथ, भेज रहा हूँ किन्तु उन्होंने सूचना पाने पर भी मेरी पुस्तकें छाप लीं मैं अपनी कन्याओं के विवाह के कारण बहुत ऋणग्रस्त हो गया हूँ, इसलिए अपनी पुस्तकें अब अपनी ही इच्छा के अनुसार छपवाना चाहता हूँ आपसे यही प्रार्थना है कि प्रकाशकसंघ में इस विषय  को उपस्थित कर उचित निर्णय करा दीजिए संघ का निर्णय निश्चय न्यायपूर्ण होगा मुझे केवल अपनी पुस्तकें ही चाहिए यदि उनका कुछ स्टाक बचा हो तो वह भी मुझे दे दें मैं उतने ही से संतोष कर लूँगा फिरसाहित्य-सरिताको उन्होंने सूचना पाने के बाद छाप लिया है, जिससे मेरी एक हजार की क्षति हुई है अतः  उनसे मेरी क्षतिपूर्ति करा दीजिए और पुस्तक की शेष सब प्रतियाँ मुझे दिलवा दीजिए, इसी तरह अन्य सभी पुस्तकों की भी

                                                                              नम्र निवदेक – शिवपूजन सहाय

 22/2/49 मंगलवार,                                                                     (राजेन्द्र कालेज) छपरा

 

[* उपर्युक्त दोनों पत्र आ. शिवजी के संग्रह में हैं, तथाशिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’, खंड–10,पृ.228–30 पर प्रकाशित हैं - सं.]

 

पत्र-३:  मैनेजर, अशोक प्रेस, महेन्द्रू, पटना के नाम शिवपूजन सहाय का पत्र

                                                                                                 [पटना से / 29–3–51]

मान्यवर

आपका 27/3/51 का कृपापत्र मिला अनेक धन्यवाद! सादर सविनय निवेदन है कि पत्र व्यावसायिक भाषा और व्यावहारिक शैली में लिखा गया है, अतः  उत्तर भी तदनुसार ही दे रहा हूँ क्षमा कीजिएगा

आपने लिखा है कि 1950 में प्रकाशित हमारी पुस्तकों पर प्रति पुस्तक 500) की दर से  आप हमें दे  चुके हैं और 1949 में प्रकाशित पुस्तकों के लिए भी आप हमें रुपये दे चुके हैं कृपया हमें बतलाइए कि हमें दिये गये इन रुपयों की पक्की रसीदें आपके पास हैं ? प्रमाण पत्र के बिना आपकी बात का कोई मूल्य नहीं जान पड़ता

आपने फिर लिखा हैआपको रुपये की जरूरत है, अतएव 100) जोसारिकाका बाकी है, भेज रहा हूँ क्या आप छः सौ रुपये में हीसारिकापर सर्वाधिकार    स्थापित करना चाहते हैं कृपया स्वप्नलोक से ठोस धरातल पर आकर समझिए उस पर भी मेरी रायल्टी का पूरा हक है जिसे आप लाख चेष्टा करके भी उलट नहीं सकते उस पुस्तक की पाण्डुलिपि ढूँढकर रखने की कृपा कीजिए ताकि न्यायी पंचों की आंखें मेरे संपादनसम्बन्धी परिश्रम का मूल्य आंक सकें और यदि उस संपादन  का मूल्य आपकी दृष्टि में 600 रु. ही है, तो फौरन से पेश्तर उस पर से मेरा नाम हटा दीजिए नहीं तो मैं –––– और प्रकाशक-संघ तथा पत्रकार-संघ के न्यायालय में इस मामले को पेश करुंगा

आपने अंत में लिखा हैअब हमारे यहाँ आपका कोई हिसाब रहा इसका अर्थ यह कि दोतीन  साल से चल रहीसाहित्य चंद्रिकाके चारों भाग आप साफ बचा ले गये उस पर मेरी रायल्टी मानना तो दूर, उसका नामोल्लेख भी आपने नहीं किया कृपया उसके संशोधित सम्पादित पन्नों को भी एकत्र कर रखिए, मैं उस मामले को भी उच्च न्यायालयों में अवश्य ले जाऊँगा मुझे इस धोखाधड़ी का पता होता तो मैं कभी दिनरात जान लड़ाकर इतनी अधिक पुस्तकों का सम्पादन नहीं करता अगर करता भी तो अपना नाम कभी छपने देता

आपके सिर्फ इतना कह देने से कि अब कोई हिसाब बाकी रहा, मेरा रायल्टी का अधिकार कदापि  समाप्त नहीं होता मेरी सातों पुस्तकों पर आपको पूरी रायल्टी देनी पड़ेगी, चाहे आप जिस तरह से दे सकें मार्च समाप्त हो रहा है, शुरू से आजतक की बीस फीसदी रायल्टी का हिसाब मुझे चुका दीजिए नहीं तो, मैं इस पत्र द्वारा आपको सूचित करता हूँ कि सब पुस्तकों पर से मेरा नाम हटा दीजिए, मुझे संतोष  ही है

अशोक  प्रेस के आप व्यवस्थापक हैं जबतक आपकी व्यवस्था है, मुझे उससे कोई साहित्यिक सम्बन्ध नहीं, सामाजिक संबंध अपनी जगह पर है हजारोंलाखों कापियाँ बेचकर आप मेरे परिश्रम और नाम का लाभ उठाते रहें और मैं अभावग्रस्त और ऋणग्रस्त लेखक बनकर आपकी उपेक्षा सहता रहूँं, यह इस युग की परिस्थिति के प्रतिकूल है

भद्रता और सौजन्य का यही तकाजा है कि आप मेरे नाम की सब पुस्तकों की बिक्री बन्द कीजिए, अथवा बाहरभीतर के आवरण पृष्ठों  से मेरा नाम हटाकर उसी का नाम छापिए जिसको आप मेरा हक छीनकर खैरात देना चाहते हैं* मैं आपके यहाँ अपनी पुस्तकें छपवाने से बाज आया, मुझे बहुतेरे ऐसे प्रकाशक  मिलेंगे जो मेरी मेहनत की कद्र करेंगे

कृपया इस पत्र को पढ़कर चैंकिए नहीं आपके तिज़ारती पत्र का यह उचित उत्तर है मुझे अपना वास्तविक परिचय देकर आपने मेरा बड़ा उपकार किया मैं आशा  करता हूँ कि आप शीघ्र यह लिखने की कृपा करेंगे कि मेरी रायल्टी का हिसाब मार्च तक आप कब चुकता करते हैं, और अगर नहीं करते हैं तो मेरा नाम सब किताबों से आज से एक पखवारे के अन्दर हटातेमिटाते हैं या नहीं आपका संतोषप्रद उत्तर मिलने पर मैं यथोचित उपाय करने में लग जाऊँगा आपका उत्तराभिलाषी  -                                                                                                                                                                                शिवपूजन सहाय                                                                                                                                                      पटना 29/3/51

[अशोक प्रेस के रायल्टीप्रसंग की चर्चा शिवजी की डायरीप्रविष्टियों में बारबार हुई है, जिसे समग्र खंड 6 और 7 में देखा जा सकता है सं.]

 इस श्रृंखला की अगली कड़ियाँ साप्ताहिक क्रम से आप यहीं पढ़ सकेंगे |

 (C) डा. मंगलमूर्त्ति

 

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