पुण्य-स्मरण
: २१ जनवरी
शिवपूजन सहाय
और लखनऊ के वे कुछ दिन!
मंगलमूर्त्ति
यायावरी की इस
भूल-भलैया में इन दो नामों में एक और नाम
अनायास जुड़ जाता है – बिहार के समादृत साहित्यकार शिवपूजन सहाय का, और फिर इन तीन
साहित्य-पुरुषों से इस प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर लखनऊ का नाम भी जुड़ जाता है | और फिर
एक वक्त आता है जब साहित्यिक यायावरी के ये रास्ते कहीं एक जगह अचानक मिल जाते
हैं, और फिर अपने समय से अलग भी हो जाते
हैं | लखनऊ का यह पुराना शहर भी एक ऐसी ही जगह है जहाँ पिछली सदी में एक समय यह
साहित्यिक संयोग घटित हुआ, और इस साहित्यिक संयोग के वृत्त की परिधि पर उस
समय दो और शहर भी लखनऊ के साथ जुड़ गए थे –
काशी और कलकत्ता | एक समय-रेखा जैसे पूरब में कलकत्ता से चल कर काशी होती हुई लखनऊ
आ पहुंची थी |
शिवपूजन सहाय
और निराला १९२३ में कलकत्ता में पहली बार मिले थे ‘मतवाला’ में | प्रेमचंद की तरह निराला
भी उत्तर प्रदेश (तब युक्त प्रान्त) के थे, और शिवजी भी सटे हुए प्रांत बिहार से चले थे | तीनों में प्रेमचंद शिवजी से तेरह साल बड़े थे,
और निराला शिवजी से तीन साल छोटे | पर साहित्य के इतिहास में तीनों की
यात्रा-त्रिज्याएँ लगभग इन्हीं दिनों एक स्थान-बिंदु पर केन्द्रित हो गयीं – यद्यपि
कुछ-कुछ दिनों के लिए ही, यहीं इसी शहर लखनऊ में | शिवजी ने प्रेमचंद पर लिखे अपने
संस्मरण में इसकी चर्चा की है –
“प्रेमचंदजी
के सर्वप्रथम दर्शन का सौभाग्य (१९२१ में, कलकत्ता में) प्राप्त हुआ था | उन्होंने
अपने प्रथम कहानी-संग्रह ‘सप्त-सरोज’ की एक प्रति मुझे आशीर्वाद स्वरूप देने की
कृपा की |...दूसरी बार उनसे घनिष्ठता बढाने का संयोग मिला, लखनऊ में | मैं ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में काम करता था
| कुछ दिनों बाद वे भी ‘माधुरी’ के सम्पादक होकर आये | उसी समय उनका ‘रंगभूमि’
नामक बड़ा उपन्यास वहां छपने के लिए आया था | उसकी पूरी पाण्डुलिपि उन्होंने
पहले-पहल देवनागरी लिपि में अपनी ही लेखनी से तैयार की थी | श्रीदुलारेलालजी भार्गव ने उसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने के लिए मुझे
सौंपी |...उस समय माधुरी सम्पादन-विभाग अमीनाबाद पार्क से उठ कर लाटूश रोड पर आ गया
था | पं. कृष्ण बिहारी मिश्र जी सम्पादकीय विभाग में थे |”
शिवजी कलकत्ता
में ‘मतवाला’- सम्पादक महादेव प्रसाद सेठ के व्यावसायिक व्यवहार से असंतुष्ट होकर
एक प्रकार की विवशता में दुलारेलाल के बार-बार बुलावे पर अप्रैल, १९२४ में
‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में लखनऊ आये
थे | तब वे अमीनाबाद पार्क के पास छेदीलाल की धर्मशाला के सामने एक रॉयल हिन्दू
होटल में ठहरे थे | उसके कुछ बाद, प्रेमचंद भी विष्णुनारायण भार्गव के बुलावे पर सितम्बर, १९२४
में १०० सौ की तनखाह पर उनके नवलकिशोर प्रेस में सम्पादक और साहित्यिक सहायक बन कर
आये | तब तक ‘माधुरी’ कार्यालय लाटूश रोड पर चला आया था, और प्रेमचंद उसी इमारत
में रहते भी थे | बाद में शिवजी भी वहां उनके साथ कुछ दिन रहे | अप्रैल में
प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ के उर्दू मसौदे ‘चौगाने-हस्ती’ का लिखना समाप्त किया था,
जिसे पहले हिंदी में छापने के दुलारेलाल के प्रस्ताव पर उन्होंने उसे फिर नागरी
लिपि में लिखा, जिसका संशोधन-सम्पादन करने के लिए वह हिंदी पांडुलिपि शिवजी को
सौंपी गयी थी | उन्हीं दिनों अक्टूबर में प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाडी’ भी
‘माधुरी’ में छपी थी | उन कुछ दिनों में ही
शिवजी अपने साहित्यिक भाषा-साधना के लिए हिंदी-संसार में विख्यात हो चुके
थे | ‘रंगभूमि’ और ‘शतरंज के खिलाडी’ – दोनों को साथ पढने पर दोनों के कथा-गद्य के
विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन
दोनों रचनाओं का शिवजी का सम्पादन कैसा था |
प्रेमचंद ने स्वयं ‘रंगभूमि’ के छप जाने के बाद उसकी पहली भेंट-प्रति शिवजी
को भेंट करते हुए २२ फरवरी, १९२५ के अपने पत्र में उनको लिखा था –
“लीजिए
जिस पुस्तक पर आपने कई महीने दिमागरेज़ी की थी वह आपका एहसान अदा करती हुई आपकी
खिदमत में जाती है और आपसे बिनती करती है की मुझे दो-चार घंटों के लिए एकांत का
समय दीजिए और तब आप मेरी निस्बत जो राय कायम करें वह अपनी मनोहर भाषा में कह दीजिए
|”
शिवजी तब ‘मतवाला’ में नहीं थे, और अपने ही द्वारा संपादित पुस्तक की समीक्षा करना उन्हें किसी तरह उचित नहीं लगा होगा | यद्यपि प्रेमचंद की कथा-भाषा और शिल्प पर उनके कुछ सांकेतिक शब्द ही बहुत कुछ बता देते हैं, जो उन्होंने उस पाण्डुलिपि के सम्पादन के विषय में अपने उस संस्मरण में लिखे हैं –
“वह
नागरी-लिपि में लिखा पहला उपन्यास दर्शनीय था | शायद ही कहीं लिखावट की भूल हो, तो
हो | भाषा तो उनसे कोई बरसों सीखे | लेखनी का वेग ऐसा कि संयोग वश ही कहीं कट-कूट
मिले | कथावस्तु की रोचकता लिपि-सुधार में बाधा देती थी | घटनाचक्र में पड़ जाने पर
सम्पादन शैली के निर्धारित नियम भूल जाते थे | ध्यान से भाषा पढ़ने के कारण कितने ही
सुन्दर प्रयोग सीखने का सुअवसर मिला |... भाषा तो उनकी चेरी थी |...वह पांडुलिपि
(प्रेस-कॉपी) आज कहीं सुरक्षित होती !”
प्रेमचंद और
शिवजी का यह परस्पर साहित्यिक सम्बन्ध १९२६ से १९१९३२-३३ के बीच और प्रगाढ़ और
घनिष्ठ हुआ जब शिवजी काशी में रहने लगे थे, और लखनऊ की चाकरी के दौरान प्रेमचंद भी
सरस्वती प्रेस और ‘हंस’ पत्रिका के प्रकाशन के सिलसिले में अक्सर काशी और लखनऊ के
बीच आवा-जाही किया करते थे | लेकिन अमृत
राय ने ‘कलम का सिपाही’ में कहीं एक जगह भी शिवजी के उस महत्त्वपूर्ण संस्मरण की
या खुद उनके प्रेमचंद से साहित्यिक संसर्ग की कहीं एक बार भी चर्चा नहीं की है,
यद्यपि वे दोनों के आत्मीय संबंधों से
पूर्ण परिचित थे, और स्वयं, मेरी उपस्थिति में, १९५५-’५६ में कभी, मेरे पिता से
पटना में एकाधिक बार मिले थे और उनसे प्रेमचंद के पत्र मांग कर ले गए थे | एक बार
दुबारा भी, १९६३ में, जब मैं संगम में अपने पिता के अस्थि-प्रवाह के लिए प्रयाग
गया था, उस समय भी वे नाव पर हमारे साथ गए थे, और भावुक शब्दों में उन्हें अपनी
श्रद्धांजलि दी थी |
तात्पर्य यह कि जीवनियाँ लिखने में समकालीनों के संस्मरणों का अत्यधिक महत्त्व होता है, क्योंकि सामायिक साहित्यिक परिदृश्य अपनी वास्तविकता में उन्हीं में अंकित होता है और भारतेंदु तथा प्रेमचंद युग के संस्मरणकारों में शिवजी निश्चय ही अन्यतम हैं | लेकिन निराला और प्रेमचंद की उपर्युक्त तीनों जीवनियों में शिवजी के अन्तरंग संस्मरण-चित्र न्यूनतम दिखाई देते हैं , जिनसे उन जीवनियों में एक प्रकार की अपूर्णता का बोध बना रह जाता है | ‘माधुरी’ से और नवलकिशोर प्रेस से प्रेमचंद का जुड़ाव लगभग आठ वर्षों (१९२४-’३२) का रहा | इसी अवधि में निराला भी लखनऊ में कई बार आये-गए-रहे, लेकिन दोनों की इन जीवनियों में कहीं भी - विशेष कर ‘माधुरी’ के उन दिनों के साहित्यिक परिवेश का - ऐसा कोई चित्र कहीं नहीं दीखता | कृष्णबिहारी मिश्र, रूपनारायण पाण्डेय, शांतिप्रिय द्विवेदी, बदरीनाथ भट्ट, दयाशंकर दुबे, आदि के बस नामोल्लेख तो हैं, पर लखनऊ में उन दिनों का साहित्यिक परिवेश अपनी जीवन्तता में कैसा था, यह लगभग अचित्रित ही रह जाता है | निष्कर्षतः, लखनऊ के उन दिनों के साहित्यिक परिवेश के जीवंत चित्रण के लिए हमें शिवजी के उन संस्मरणों को फिर से पढ़ना चाहिए, क्योंकि वहीँ हमें उन दिनों के लखनऊ का वह सजीव साहित्यिक परिवेश चित्रित दिखाई देगा, जिससे हम अभी लगभग अनजान हैं !
चित्र में : दुलारेलाल, प्रेमचंद, चतुरसेन शास्त्री और पीछे रिषभ चन्द्र जैन
(C) डा. मंगलमूर्त्ति
इस लेख का उत्तरार्द्ध अगले माह पढ़ें यहीं, जिसमें शिवजी, प्रेमचंद और 'माधुरी' के सम्पादन विभाग के कार्य कलाप तथा दुलारेलाल और निराला के समय का चित्रण मिलेगा | अपनी टिप्पणी भी कृपया अवश्य अंकित करें |
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