Thursday, July 1, 2021

 





अंतर्राष्ट्रीय डाक्टर दिवस

डाक्टरनामा   

स्मरण : डा. रघुनाथ शरण

कुछ दिन पहले मैंने अपने इसी ब्लॉग  पर डॉक्टरनामाशीर्षक  से एक संस्मरण-श्रृंखला शुरू की थी, और उसमें पटना के प्रसिद्ध डा. ए. के सेन का एक छोटा-सा संस्मरण लिखा था | जब से – १९५० से - मेरे पिता पटना आ गए थे, वे उन्हीं के इलाज़ में रहे | मेरे पिता के देहांत के बाद डा. सेन ने उनके प्रति जो श्रद्धांजलि लिखी थी उसका अंतिम वाक्य था – “आ. शिवजी न केवल एक महान साहित्य-मनीषी थे, वरन वे एक अप्रतिम मानव थे | उनको मेरा शतशः प्रणाम |” वह पोस्ट आप इसी ब्लॉग पर Archive 2017 पर जाकर पढ़ सकते हैं |

ऐसे महान जन-प्रिय डाक्टरों की अंतिम पीढ़ी शायद पिछली सदी के साथ ही चली गयी | उसी श्रृंखला में इधर कुछ दिन पहले एक और वैसे ही मित्र डॉक्टर पी.एन.झा का भी एक छोटा सा संस्मरण मैंने अपने फेसबुक  पेज पर लिखा था | आज फिर उस श्रृंखला की अगली कड़ी जोड़ते हुए मैं डा. रघुनाथ शरण का स्मरण करना चाहता हूँ | लेकिन इस श्रंखला में सबसे पहले आने वाले, अपने छपरा में बीते बचपन के समय के डॉक्टर थे डा. बोस (जिनका पूरा नाम तो कभी जाना नहीं)| उन दिनों डॉक्टर घर पर आ जाया करते   थे |  छपरा वाले डा. बोस लम्बे, दप-दप  गोरे, भारी-भरकम बिलकुल अंग्रेज़-जैसे लगते थे, और उनको मुस्कुराते देखते ही आधी बीमारी भाग जाती थी | फिर वही कागज़-सटी खुराक वाली लाल मिक्सचर की शीशी और होर्लिक्स ! वे अपनी छोटी सी काली ऑस्टिन गाडी खुद चला कर आते थे |

जब हमलोग पटना आ गए तब हमारे फैमिली डॉक्टर रहे डा. सेन | शुरू से बाबूजी और हमलोगों का इलाज वे ही करते रहे | संस्मरण का यह प्रसंग बाबूजी की बीमारी से ही जुड़ा है, और इस घटना से डा. सेन और डा. रघुनाथ शरण दोनों जुड़े हैं | यह बात अप्रैल, १९५३ की है | हमलोग सम्मेलन भवन में ही रहते थे | बाबूजी अनियंत्रित मधुमेह के  कारण पिछली जुलाई से ही यक्ष्मा-ग्रस्त हो गए थे | डा. सेन का ही इलाज़ चल रहा था | रोज़ दोनों शाम मैं पेशाब जांच करता था और इन्सुलिन की सुइयां लगाता था | इलाज की सारी देख-रेख शुरू से मेरे जिम्मे ही रही | परिषद् से भी उस समय बाबूजी अवैतनिक अवकाश पर थे | सम्मेलन के दक्खिनी बरामदे में उनको बिस्तर पर ही लेटे रहना होता था | उनकी डायरी के अनुसार, परिषद् का काम भी बिस्तर में लेटे-लेटे ही करते रहे | अप्रैल में पहली बहू (चंदा) की असमय मौत के कारण उनकी तबीयत सहसा बहुत गंभीर रूप से ख़राब हो गयी | उनको सम्मेलन के ही उत्तर-पूर्वी कोने के एक छोटे से कमरे में रखा गया | किसी को भी मिलने की सख्त मनाही थी | उनके मुंह से हर घंटे-दो घंटे पर खून की उबकाई आ रही थी | सेन साहब की कोई दवा, कोई सुई काम नहीं कर रही थी | दवा-देखभाल सब मेरे जिम्मे था | मैं बिलकुल बेचैन रहता था | लग रहा था बाबूजी अब नहीं बचेंगे | उनके उस  छोटे कमरे में बिलकुल अँधेरा रखा गया था और शोर की बिलकुल मनाही थी | ठीक तारीख तो याद नहीं, क्योंकि बाबूजी का डायरी लिखना भी मना था, लेकिन अप्रैल पूर्वार्द्ध का ही कोई दिन था | परिषद् और सम्मेलन में जैसे मौत का सन्नाटा पसरा हुआ था |खून की उलटी रुक नहीं रही थी| बाबूजी लगभग मरणासन्न हो चुके थे |

देर दोपहर का वक़्त था | फिर मुंह से खून आया था  | डा. सेन वहीँ थे | सम्मेलन कार्यालय के बाहर – सुधान्शुजी, गंगा बाबू, बेनीपुरीजी, दिनकरजी, और पटना कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डा. विश्वनाथ प्रसाद, कई और लोगों के साथ –सब चुप और गहरी उदासी में बैठे थे | तभी विश्वनाथ बाबू ने फोन से डा. रघुनाथ शरण से बात की और उनको तुरत बुलाया | वे शायद उनके ममेरे भाई थे | वे तुरत आ गए | उन्होंने डा. सेन से सारा हाल पूछा और बाबूजी को जाकर देखा | डा. शरण का चेहरा तो यों भी बराबर गंभीर रहता था, पर उस समय तो चिंता की छाया  उस पर  साफ़ दीख रही थी  | उन्होंने एक पुर्जे पर एक दवा का नाम लिख कर मुझको दिया | मैं दौड़ कर बगल की समाद्दार फार्मेसी से दवा ले आया | चार आने की दो छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ थीं एक पुडिये में | डा. शरण ने मुझसे कहा कि दोनों गोलियों को पीस कर शहद में मिला कर चटा दीजिये | मैंने तुरत वही किया | और यकीन मानिए उनका तत्काल जादू-सा असर हुआ  - खून फिर जो बंद हुआ तो दुबारा आया ही नहीं | शरण साहब थोड़ी देर तक सब लोगों के साथ ही बैठे रहे, जब बाबूजी को आराम मिला और वे सो गए तब वे चले गए | आगे का इलाज वे डा. सेन को बता कर गए | उस पुर्जे को रखने का तो मुझको उस वक़्त कोई  होश नहीं था, पर वो सिर्फ दो छोटी-छोटी सफ़ेद गोलियाँ थीं, अभी भी वे मेरी याद में जैसे दीख रही हैं  | उस घबराहट में पुर्जा शायद मैंने दूकान में ही दे दिया था और गोलियां लिए दौड़ा आया था, लेकिन वह कोई आम दवा ही थी, क्योंकि वे दो गोलियां  देखने में भी खुली हुई बिलकुल साधारण गोलियों जैसी ही थीं | यह मेरी इन्हीं आँखों का देखा हुआ जादू है, और मैं ही उनको बस चार आने में खरीद कर लाया था | मैंने उनको पीस कर शहद में मिला कर खुद बाबूजी की जीभ पर चटाया था, और खुद ही उस समय उसका असर भी देखा था | अवश्य ही डा. शरण उस समय मुझको साक्षात् धन्वन्तरी लगे थे | क्योंकि किसी दवा का  वैसा जादुई असर होते मैंने अपने पूरे जीवन में फिर कभी नहीं देखा – और  वो बगल का छोटा-सा दवाखाना, मामूली-सी दो गोलियां, दाम बस चार आने ! ऐसा तो कोई किस्सा भी आज तक नहीं सुना – लेकिन यह सब अपनी आँखों के सामने घटित होते मैंने  देखा |  आज स्पष्ट दिखाई देता है उन दो छोटी-छोटी गोलियों में इश्वर की कृपा का प्रसाद | मरणासन्न रोगियों को ईश्वर ही जीवनदान देते हैं और उसी व्याज से डाक्टरों को यशलाभ | उसके  अगले ही दिन बाबूजी को टी.बी. अस्पताल जो पीर बहोर थाने के बगल में था, उसमें भरती कराया गया जहां वे अगले दस महीने, फरवरी,१९५४ तक रहे, और पूर्ण स्वस्थ होकर फिर घर आये |

ऐसे धन्वन्तरी  थे डा. रघुनाथ शरण | उनका जन्म छपरा में १८९६ में हुआ था | मृत्यु तिथि है २५  अक्टूबर, १९८२ | इंग्लैंड से उन्होंने एम्.आर.सी.पी. की थी और शुरू से पटना में निजी प्रैक्टिस करते रहे |  उसके बाद भी  कई मौके आये जब मेरी बड़ी बहन का एक असाध्य रोग उन्होंने एक  आसन इलाज से – बेल्ट पहना कर -  दूर कर दिया | मुझको कुछ दिन बेहद पेट की परीशानी रही, एक मामूली दवा और परहेज़ से उन्होंने  उसे जड़ से ठीक कर दिया | पटना अपने उन दिनों के कुछ मशहूर डाक्टरों और सर्जनों को भूल गया – डा. टी.एन. बनर्जी, डा. घोषाल, डा. हालदार, सर्जनों में डा. नवाब, डा. आर.वी.पी सिन्हा, डा. मुखोपाध्याय – इनकी मूर्त्तियां लगायी जानी चाहिए थीं |  मेरी बायीं टांग डा. मुखोपाध्याय को कभी नहीं भूल सकती जिन्होंने छः घंटे के ऑपरेशन में उसकी हड्डियों में कील ठोंकी  थी | लेकिन अभी इस सूची में और भी नाम हैं जो आगे भी याद होंगे !

डा. टी.एन.बनर्जी और डा. रघुनाथ शरण राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के शुरू से अंत तक निजी डॉक्टर रहे | मेरी राजेंद्र बाबू की अंग्रेजी में प्रकाशित जीवनी (Dr Rajendra Prasad:First President of India) का वह प्रसंग अंग्रेजी में ही पढ़िए जिसमें इन्हीं दोनों डाक्टरों के प्रयास से राजेंद्र बाबू का जीवन बच सका |

On 20 July, in the evening around 8 pm, the President’s special train was standing on the ceremonial platform at the New Delhi railway station ready to take him with his family and staff to Hyderabad. Around 7 at the Rashtrapati Bhawan, Col. S.S. Maitra, the Predident’s personal physian, had completed, just prior to the long train journey, the routine medical check-up of the President. But Dr Prasad suddenly became very ill when he went to the toilet. From inside he called his personal attendant, Sitaram, in a very feeble voice to come and help him. In fact, Dr Prasad had suddenly collapsed in the toilet after passing a lot of blood in his stool. He was quickly brought to his bedroom and examined by Dr Maitra and other doctors called for the emergency. The recurrent bleeding in stool, with occasional vomits of blood, continued through the night causing great anxiety. His condition remained critical throughout the next afternoon and in the evening Dr Prasad had to be moved to Dr Sen’s Nursing Home on Mathura Road. His ailment was initially diagnosed as ‘haematemesis’, a life-threatening medical condition of vomits of blood due to internal bleeding in the stomach. The passing of blood-filled blackish stool with tar like consistency was seen as another related symptom of ‘Melena’. But all the senior attending doctors, along with Dr Maitra, after examining reports of the various pathological tests, could not agree on the root cause of the excessive bleeding and were unable to arrive at a definite diagnosis of the grave life-endangering ailment. Although it was suspected from the beginning that the occasional vomits of blood and the tarry stools could be due to duodenal ulcer. Surgical intervention was the only emergent option in that condition to ascertain and control recurrent bleeding. But in that critically weak condition because of continued bleeding that was a too risky option for the doctors.  Surgical intervention was therefore temporarily ruled out till the patient’s condition was stable enough to sustain such risky surgery....

 

Blood transfusions were being given to make up for the recurrent blood loss and the condition remained relatively stable yet quite serious. The team of doctors constantly monitoring the critical condition of the patient saw no other alternative to an emergency surgical intervention as soon as feasible, though surgey in such a condition was rightly seen to be extremely hazardous.

 

Members in the family, however, dreaded such a surgical alternative particularly in Dr Prasad’s extremely fragile health condition. Besides, they wanted two eminent Patna doctors, Dr T.N. Bannerjee and Dr Raghunath Sharan, who had always been treating Dr Prasad in all his medical emergencies in the past, to examine Dr Prasad before any final decision for surgery was taken.  This was seen by the Delhi doctors attending on Dr Prasad as an unnecessary,  preposterous and sentimental interference in their highly competent line of treatment. However, urgent messages had been sent to both the Patna doctors who were compelled to travel by an express train on the afternoon of 21 July because they could not get seats in a flight. That train in those days used to take 24 hours to reach Delhi. Luckily when the family members approached the Home Minister, instructions were urgently conveyed to the Allahabad DM to detrain the Patna doctors at Allahabad, when the train reached there in the evening, and transport them from Allahabad to Delhi on an IAF plane sent there specially for the purpose. The two Patna doctors who were fully conversant with Dr Prasad’s medical history over the past few decades could thus reach Sen’s Nursing Home only in the early hours of 22 July, almost 56 hours after the onset of the attack on the evening of 20 July. Fortunately, Dr Prasad’s condition in the mean time had stabilized to an extent but the blood transfusions were creating problems as violent convulsions often followed the transfusions.

 

As Mrityunjay Prasad, the eldest son, writes in his memoirs, the family members were very concerned about the tentative method of treatment being given by the eight Delhi doctors, and they finally appealed to Lal Bahadur Shastri and Jagjivan Ram to order Dr Maitra to conduct the treatment under his own personal supervision in consultation with Dr T.N.Bannerjee and Dr Raghunath Sharan and the other Delhi doctors.Both the Patna doctors had strongly argued against the risky surgical procedure and had advised blood transfusions along with medicines to continue till the patient’s condition fully stabilized. Meanwhile a specialist in blood transfusion, Lt Col Bird had been flown from the Armed Forces Medical College, Poona, to personally supervise blood transfusions which were the only life-saving measure in the present circumstances. Dr Bird was of the opinion that to prevent allergic reactions blood could only be transfused mixed with cortisone, though other doctors were skeptical about this solution in view of the continued administration of cortisone in Dr Prasad’s regular management of asthma. Ultimately, however, Dr Bird’s medical opinion prevailed and worked successfully in further transfusions. As a result, Dr Prasad’s condition began to improve steadily and the bleedings finally stopped from the fourth or fifth day. All other medical parameters were also under control and Dr Prasad’s diet was slowly getting normal. He seemed to have tided over the crisis.

 

 आज अंतर्राष्ट्रीय डॉक्टर-दिवस के दिन बिहार के इस महान डॉक्टर रघुनाथ शरण को याद करना ऐसे सभी महान भारतीय चिकित्सकों को श्रद्धांजलि अर्पित करना है जिन्होंने आज भारतीय डाक्टरों का यश सारी दुनिया में  फैलाया है | 

Photos1. Dr Raghunath Sharan    2. With Dr T N Bannerji   3.Padmabhushan Medal

  4. Dr A K Sen   5. Dr Pn Jha   6. In Sen’s Nursing Home  

 

Text & Photos © Dr BSM Murty       

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